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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
सातवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
कंसकी
दिग्विजय - शम्बर, व्योमासुर, बाणासुर, वत्सासुर, कालयवन तथा
देवताओंकी पराजय
श्रीनारद
उवाच -
इत्युक्त्वा सौहृदं हृद्यं सद्यो वै कंसबाणयोः ।
चकार परया शान्त्या शिवः साक्षान्महेश्वरः ॥१४॥
अथ कंसो दिक्प्रतीच्यां श्रुत्वा वत्सं महासुरम् ।
तेन सार्द्धं स युयुधे वत्सरूपेण दैत्यराट् ॥१५॥
पुच्छे गृहीत्वा तं वत्सं पोथयामास भूतले ।
वशे कृत्वाथ तं शैलं म्लेच्छदेशांस्ततो ययौ ॥१६॥
मन्मुखात्कालयवनः श्रुत्वा दैत्यं महाबलम् ।
निर्ययौ संमुखे योद्धुं रक्तश्मश्रुर्गदाधरः ॥१७॥
कंसो गदां गृहीत्वा स्वां लक्षभारविनिर्मिताम् ।
प्राक्षिपद्यवनेन्द्राय सिंहनादमथाकरोत् ॥१८॥
गदायुद्धमभूद्घोरं तदा हि कंसकालयोः ।
विस्फुलिंगान् क्षरंत्यौ द्वे गदे चूर्णीबभूवतुः ॥१९॥
कंसः कालं संगृहीत्वा पातयामास भूतले ।
पुनर्गृहीत्वा निष्पात्य मृततुल्यं चकार ह ॥२०॥
बाणवर्षं प्रकुर्वन्तीं सेनां तां यवनस्य च ।
गदया पोथयामास कंसो दैत्याधिपो बली ॥२१॥
गजांस्तुरगान्सुरथान्वीरान् भूमौ निपात्य च ।
जगर्ज घनवद्वीरो गदायुद्धे मृधाङ्गणे ॥२२॥
ततश्च दुद्रुवुर्म्लेच्छास्त्यक्त्वा स्वं स्वं रणं परम् ।
भीतान् पलायितान् म्लेच्छान्न जघानाथ नीतिमान् ॥२३॥
उच्चपादो दीर्घजानुः स्तंभोरुर्लघिमा कटिः ।
कपाटवक्षाः पीनांसः पुष्टः प्रांशुर्बृहद्भुजः ॥२४॥
पद्मनेत्रो बृहत्केशोऽरुणवर्णोऽसिताम्बरः ।
किरीटी कुंडली हारी पद्ममाली लयार्करुक् ॥२५॥
खड्गी निषंगी कवची मुद्गराढ्यो धनुर्धरः ।
मदोत्कटो ययौ जेतुं देवान्कंसोऽमरावतीम् ॥२६॥
चाणूरमुष्टिकारिष्टशलतोशलकेशिभिः ।
प्रलंबेन बकेनापि द्विविदेन समावृतः ॥२७॥
तृणावर्त्ताघकूटैश्च भौमबाणाख्यशंबरैः ।
व्योमधेनुकवत्सैश्च रुरुधे सोऽमरावतीम् ॥२८॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! यों कहकर साक्षात् महेश्वर शिवने कंस और बाणासुरमें तत्काल बड़ी
शान्तिके साथ मनोरम सौहार्द स्थापित कर दिया। तदनन्तर पश्चिम दिशामें महासुर
वत्सका नाम सुनकर कंस वहाँ गया । उस दैत्यराजने बछड़ेका रूप धारण करके कंसके साथ
युद्ध छेड़ दिया। कंसने उस बछड़े की पूँछ पकड़ ली और उसे पृथ्वीपर दे मारा। इसके
बाद उसके निवासभूत पर्वतको अपने अधिकारमें करके कंसने म्लेच्छ देशोंपर धावा किया।
मेरे मुखसे महाबली दैत्य कंसके आक्रमणका समाचार सुनकर कालयवन उसका सामना करनेके
लिये निकला। उसकी दाढ़ी-मूँछका रंग लाल था और उसने हाथमें गदा ले रखी थी। कंसने भी
लाख भार लोहेकी बनी हुई अपनी गदा लेकर यवनराजपर चलायी और सिंहके समान गर्जना की।
उस समय कंस और कालयवनमें बड़ा भयानक गदा-युद्ध हुआ। दोनोंकी गदाओंसे आगकी
चिनगारियाँ बरस रही थीं। वे दोनों गदाएँ परस्पर टकराकर चूर-चूर हो गयीं। तब कंसने
कालयवनको पकड़कर उसे धरतीपर दे मारा और पुनः उठाकर उसे पटक दिया । इस तरह उसने उस
यवनको मृतक तुल्य बना दिया। यह देख कालयवनकी सेना कंसपर बाणोंकी वर्षा करने लगी।
तब बलवान् दैत्यराज कंसने गदाकी मारसे उस सेनाका कचूमर निकाल दिया । बहुत-से हाथियों,
घोड़ों, उत्तम रथों और वीरोंको धराशायी करके
गदा-युद्ध करनेवाला वीर कंस समराङ्गणमें मेघके समान गर्जना करने लगा ।। १४–२२ ॥
फिर
तो सारे म्लेच्छ सैनिक रणभूमि छोड़कर भाग निकले । कंस बड़ा नीतिज्ञ था;
उसने भयभीत होकर भागते हुए म्लेच्छोंपर आघात नहीं किया। कंसके पैर
ऊँचे थे, दोनों घुटने बड़े थे, जाँघें
खंभोंके समान जान पड़ती थीं। उसका कटिप्रदेश पतला, वक्षःस्थल
किवाड़ोंके समान चौड़ा और कंधे मोटे थे। उसका शरीर हृष्ट-पुष्ट, कद ऊँचा और भुजाएँ विशाल थीं। नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान प्रतीत होते थे।
सिरके बाल बड़े-बड़े थे, देहकी कान्ति अरुण थी। उसके
अङ्गोंपर काले रंगका वस्त्र सुशोभित था । मस्तकपर किरीट, कानोंमें
कुण्डल, गलेमें हार और वक्षपर कमलोंकी माला शोभा दे रही थी।
वह प्रलयकालके सूर्यकी भाँति तेजस्वी जान पड़ता था । खड्ग, तूणीर,
कवच और मुद्गर आदिसे सम्पन्न धनुर्धर एवं मदमत्त वीर कंस देवताओंको
जीतनेके लिये अमरावती पुरीपर जा चढ़ा। चाणूर, मुष्टिक,
अरिष्ट, शल, तोशल,
केशी, प्रलम्ब, वक,
द्विविद, तृणावर्त, अघासुर,
कूट, भौम, बाण, शम्बर, व्योम, धेनुक और वत्स
नामक असुरों के साथ कंस ने अमरावतीपुरी पर चारों ओर से घेरा डाल दिया ।। २३-२८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से