श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
नवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
तत्रैकदा श्रीमथुरापुरे वरे
पुरोहितः सर्वयदूत्तमैः कृतः ।
शूरेच्छया गर्ग इति प्रमाणिकः
समाययौ सुन्दरराजमन्दिरम् ॥१॥
हीराखचिद्धेमलसत्कपाटकं
द्विपेन्द्रकर्णाहतभृङ्गनादितम् ।
इभस्रवन्निर्झरगण्डधारया
समावृतं मण्डपखण्डमण्डितम् ॥२॥
महोद्भटैर्धीरजनैः सकञ्चुकै-
र्धनुर्धरैश्चर्म कृपाणपाणिभिः ।
रथद्विपाश्वध्वजिनीबलादिभिः
सुरक्षितं मण्डलमण्डलीभिः ॥३॥
ददर्श गर्भो नृपदेवमाहुकं
श्वाफल्किना देवककंससेवितम् ।
श्रीशक्रसिंहासन उन्नते परे
स्थितं वृतं छत्रवितानचामरैः ॥४॥
दृष्ट्वा मुनिं तं सहसाऽऽसनाश्रया-
दुत्थाय राजा प्रणनाम यादवैः ।
संस्थाप्य सम्पूज्य सुभद्रपीठके
स्तुत्वा परिक्रम्य नतः स्थितोऽभवत् ॥५॥
दत्त्वाऽऽशिषं गर्गमुनिर्नृपाय वै
पप्रच्छ सर्वं कुशलं नृपादिषु ।
श्रीदेवकं प्राह महामना ऋषि-
र्महौजसं नीतिविदं यदूत्तमम् ॥६॥
श्रीगर्ग उवाच -
शौरीं विना भुवि नृपेषु वरस्तु नास्ति
चिन्त्यो मया बहुदिनैः किल यत्र तत्र ।
तस्मान्नृदेव वसुदेववराय देहि
श्रीदेवकीं निजसुतां विधिनोद्वहस्व ॥७॥
श्रीनारद उवाच -
कृत्वा तदैव पुरि निश्चयनागवल्लीं
श्रीदेवकं सकलधर्मभृतां वरिष्ठः ।
गर्गेच्छया तु वसुदेववराय पुत्रीं
कृत्वाथ मङ्गलमलं प्रददौ विवाहे ॥८॥
कृतोद्वहः शौरिरतीव सुन्दरं
रथं प्रयाणे समलङ्कृतं हयैः ।
सार्द्धं तया देवकराजकन्यया
समारुहत्कांचनरत्नशोभया ॥९॥
स्वसुः प्रियं कर्तुमतीव कंसो
जग्राह रश्मींश्चलतां हयानाम् ।
उवाह वाहांश्चतुरंगिणीभि-
र्वृतः कृपास्नेहपरोऽथ शौरौ ॥१०॥
दासीसहस्रं त्वयुतं गजानां
सत्पारिबर्हं नियुतं हयानाम् ।
लक्षं रथानां च गवां द्विलक्षं
प्रादाद्दुहित्रे नृप देवको वै ॥११॥
भेरीमृदंगोद्धरगोमुखानां
धुन्धुर्यवीणानकवेणुकानाम् ।
महत्स्वनोऽभूच्चलतां यदुनां
प्रयाणकाले पथि मङ्गलं च ॥१२॥
आकाशवागाह तदैव कंसं
त्वामष्टमो हि प्रसवोऽञ्जसास्याः ।
हन्ता न जानासि च यां रथस्थां
रश्मीन् गृहीत्वा वहसेऽबुधस्त्वम् ॥१३॥
गर्गजी की आज्ञासे
देवक का वसुदेवजी के साथ देवकी का विवाह करना; बिदाई के समय
आकाशवाणी सुनकर कंस का देवकी को मारने के लिये उद्यत होना और वसुदेवजी की शर्त पर
उसे जीवित छोड़ना
श्रीनारदजी
कहते हैं-राजन् ! एक समयकी बात है, श्रेष्ठ
मथुरापुरी के परम सुन्दर राजभवन में गर्ग जी पधारे। वे ज्यौतिष शास्त्र के बड़े
प्रामाणिक विद्वान् थे । सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादवों ने शूरसेन की इच्छा से उन्हें
अपने पुरोहित के पदपर प्रतिष्ठित किया था। मथुरा के उस राजभवन में सोने के किवाड़
लगे थे, उन किवाड़ों में हीरे भी जड़े गये थे । राजद्वार पर
बड़े-बड़े गजराज झूमते थे। उनके मस्तकपर झुंड के झुंड भौरे आते और उन हाथियों के
बड़े-बड़े कानोंसे आहत होकर गुञ्जारव करते हुए उड़ जाते थे। इस प्रकार वह राजद्वार
उन भ्रमरों के नाद से कोलाहलपूर्ण हो रहा था। गजराजोंके गण्डस्थलसे निर्झरकी भाँति
झरते हुए
मदकी
धारासे वह स्थान समावृत था। अनेक मण्डप- समूह उस राजमन्दिरकी शोभा बढ़ाते थे।
बड़े-बड़े उद्भट वीर कवच, धनुष, ढाल और तलवार धारण किये राजभवनकी सुरक्षामें तत्पर थे। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल- इस चतुरङ्गिणी सेना तथा
माण्डलिकों की मण्डलीद्वारा भी वह राजमन्दिर सुरक्षित था ॥ १-३ ॥
मुनिवर
गर्ग ने उस राजभवन में प्रवेश करके इन्द्रके सदृश उत्तम और ऊँचे सिंहासनपर
विराजमान राजा उग्रसेन को देखा। अक्रूर, देवक
तथा कंस उनकी सेवा में खड़े थे और राजा छत्रचंदोवे से सुशोभित थे तथा उनपर चँवर
ढुलाये जा रहे थे। मुनिको उपस्थित देख राजा उग्रसेन सहसा सिंहासन से उठकर खड़े हो गये
। उन्होंने अन्यान्य यादवों के साथ उन्हें प्रणाम किया और सुभद्रपीठ पर बिठाकर
उनकी सम्यक् प्रकारसे पूजा की। फिर स्तुति और परिक्रमा करके वे उनके सामने
विनीतभाव से खड़े हो गये। गर्ग मुनि ने राजा को आशीर्वाद देकर समस्त राजपरिवारका
कुशल- मङ्गल पूछा । फिर उन महामना महर्षि ने नीतिवेत्ता यदुश्रेष्ठ देवक से कहा--
॥ ४–६॥
श्रीगर्गजी
बोले - राजन् ! मैंने बहुत दिनोंतक इधर-उधर ढूँढ़ा और सोचा- विचारा है। मेरी
दृष्टिमें वसुदेवजी को छोड़कर भूमण्डल के नरेशों में दूसरा कोई देवकी के योग्य वर
नहीं है। इसलिये नरदेव ! वसुदेवको ही वर बनाकर उन्हें अपनी पुत्री देवकी को सौंप
दो और विधिपूर्वक दोनोंका विवाह कर दो ॥ ७ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- मिथिलेश्वर ! गर्गजीके उक्त आदेशको ही शिरोधार्य करके समस्त धर्मधारियों
में श्रेष्ठ श्रीदेवकने सगाईके निश्चयके लिये पानका बीड़ा भेज दिया और गर्गजीकी
इच्छासे मङ्गलाचार का सम्पादन करके विवाहमें वसुदेव-वरको अपनी पुत्री अर्पित कर दी
॥ ८ ॥
विवाह
हो जानेपर बिदाईके समय वसुदेवजी घोड़ों से सुशोभित अत्यन्त सुन्दर रथपर
सुवर्ण-निर्मित एवं रत्नमय आभूषणों की शोभा से सम्पन्न नववधू देवकराज कन्या देवकी के
साथ आरूढ़ हुए ।। वसुदेव के प्रति कंसका बहुत ही स्नेह और कृपाभाव था। वह अपनी
बहिनका अत्यन्त प्रिय करनेके लिये चतुरङ्गिणी सेनाके साथ आकर गमनोद्यत घोड़ोंकी
बागडोर अपने हाथमें ले स्वयं रथ हाँकने लगा। उस समय देवकने अपनी पुत्रीके लिये
उत्तम दहेजके रूपमें एक हजार दासियाँ, दस
हजार हाथी, दस लाख घोड़े, एक लाख रथ और
दो लाख गौएँ प्रदान कीं ॥ ९-११ ॥
उस
बिदाकालमें भेरी, उत्तम मृदङ्ग,
गोमुख, धन्धुरि, वीणा,
ढोल और वेणु आदि वाद्योंका और साथ जानेवाले यादवोंका महान् कोलाहल
हुआ। उस समय मङ्गलगीत गाये जा रहे थे। और मङ्गलपाठ भी हो रहा था। उसी समय
आकाशवाणीने कंसको सम्बोधित करके कहा - 'अरे मूर्ख कंस !
घोड़ोंकी बागडोर हाथमें लेकर जिसे रथपर बैठाये लिये जा रहा है, इसीकी आठवीं संतान अनायास ही तेरा वध कर डालेगी - तू इस बात को नहीं जानता'
॥ १२-१३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से