#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौदहवाँ
अध्याय (पोस्ट 03)
शकटभञ्जन;
उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के
पूर्वजन्मों का वर्णन
श्रीनारद
उवाच -
तस्मादुत्कदैत्यस्तु मुक्तो लोमशतेजसा ।
सद्भ्यो नमोऽस्तु ये नूनं समर्था वरशापयोः ॥२४॥
उत्संगे क्रीडितं बालं लालयंत्येकदा नृप ।
गिरिभारं न सेहे सा वोढुं श्रीनंदगेहिनी ॥२५॥
अहो गिरिसमो बालः कथं स्यादिति विस्मिता ।
भूमौ निधाय तं सद्यो नेदं कस्मै जगाद ह ॥२६॥
कंसप्रणोदितो दैत्यस्तृणावर्तो महाबलः ।
जहार बालं क्रीडन्तं वातावर्तेन सुंदरम् ॥२७॥
रजोऽन्धकारोऽभूत्तत्र घोरशब्दश्च गोकुले ।
रजस्वलानि चक्षूंषि बभूवुर्घटिकाद्वयम् ॥२८॥
ततो यशोदा नापश्यत्पुत्रं तं मंदिराजिरे ।
मोहिता रुदती घोरान् पश्यंती गृहशेखरान् ॥२९॥
अदृष्टे च यदा पुत्रे पतिता भुवि मूर्छिता ।
उच्चै रुरोद करुणं मृतवत्सा यथा हि गौः ॥३०॥
रुरुदुश्च तदा गोप्यः प्रेमस्नेहसमाकुलाः ।
अश्रुमुख्यो नंदसूनुं पश्यंत्यस्ता इतस्ततः ॥३१॥
तृणावर्तो नभः प्राप्त ऊर्ध्वं वै लक्षयोजनम् ।
स्कंधे सुमेरुवद्बालं मन्यमानः प्रपीडितः ॥३२॥
अथ कृष्णं पातयितुं दैत्यस्तत्र समुद्यतः ।
गलं जग्राह तस्यापि परिपूर्णतमः स्वयम् ॥३३॥
मुंच मुंचेति गदिते दैत्ये कृष्णोऽद्भुतोऽर्भकः ।
गलग्राहेण महता व्यसुं दैत्यं चकार ह ॥३४॥
तज्ज्योतिः श्रीघनश्यामे लीनं सौदामिनी यथा ।
दैत्योऽम्बरान्निपतितः शिलायां शिशुना सह ॥३५॥
विशीर्णावयवस्यापि पतितस्य स्वनेन वै ।
विनेदुश्च दिशः सर्वाः कंपितं भूमिमंडलम् ॥३६॥
तत्पृष्ठस्थं शिशुं तूष्णीं रुदंत्यो गोपिकास्ततः ।
ददृशुर्युगपत्सर्वा नीत्वा मात्रे ददुर्जगुः ॥३७॥
गोप्य ऊचुः -
न योग्यासि यशोदे त्वं बालं लालयितुं मनाक् ।
न घृणा ते क्वचिद्दृष्टा क्रुद्धासि कथितेन वै ॥३८॥
प्राप्तेऽन्धकारे स्वारोहात्कोऽपि बालं जहाति हि ।
त्वया निर्घृणया भूमौ धृतो बालो महाभये ॥३९॥
श्रीनारदजी
कहते हैं— राजन् ! उक्त वरद शापके कारण लोमशजीके प्रतापसे दानव उत्कच भी भगवान्
के परम धामका अधिकारी हो गया। जो वर और शाप देने में पूर्ण स्वतन्त्र हैं,
उन श्रेष्ठ संतोंके लिये मेरा नमस्कार है ॥ २४ ॥
राजन्
! एक दिन नन्दरानी यशोदाजीकी गोदमें बालक श्रीकृष्ण खेल रहे थे और नन्दरानी उन्हें
लाड़ लड़ा रही थीं। थोड़ी ही देरमें बालक पर्वतके समान भारी प्रतीत होने लगा। वे
उसे गोदमें उठाये रखने में असमर्थ हो गयीं और मन-ही-मन सोचने लगीं— 'अहो ! इस बालकमें पहाड़-सा भारीपन कहाँसे आ गया ?' फिर
उन्होंने बालगोपालको भूमिपर रख दिया, किंतु यह रहस्य किसी को
बतलाया नहीं । उसी समय कंस का भेजा हुआ महाबली दैत्य 'तृणावर्त'
वहाँ आकर आँगन में खेलते हुए सुन्दर बालक श्रीकृष्ण को बवंडररूप से
उठा ले गया ।।२५-२७।।
तब
गोकुलमें ऐसी धूल उठी, जिसके कारण अँधेरा छा
गया और भयंकर शब्द होने लगा। दो घड़ीतक सबकी आँखोंमें धूल भरी रही। उस समय यशोदाजी
नन्द-मन्दिरके आँगनमें अपने लालाको न देखकर घबरा गयीं। रोती हुई महलके शिखरोंकी ओर
देखने लगीं। वे बड़े भयंकर दीखते थे ।। ३८-३९ ।।
जब
कहीं भी अपना लाला नहीं दिखायी दिया, तब
वे मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर
पड़ीं
और होश में आनेपर उच्चस्वर से इस प्रकार करुण-विलाप करने लगीं,
मानो बछड़े के मर जानेपर गौ क्रन्दन कर रही हो । प्रेम और स्नेहसे
व्याकुल हुई गोपियाँ भी रो रहीं थीं। उन सबके मुखपर आँसुओं की धारा बह रहीं थी ।
वे इधर-उधर देखती हुई नन्द- नन्दन की खोज में लग गयीं ।। ३०-३१ ।।
उधर
तृणावर्त आकाश में दस योजन ऊपर जा पहुँचा। बालक श्रीकृष्ण उसके कंधे पर थे। उनका
शरीर उसे सुमेरु पर्वत की भाँति भारी प्रतीत होने लगा। उसे अत्यन्त पीड़ा होने लगी
। तब वह दानव श्रीकृष्ण को वहाँ नीचे पटकनेकी चेष्टामें लग गया। यह जानकर
परिपूर्णतम भगवान् ने स्वयं उसका गला पकड़ लिया ।। ३२-३३ ।।
निशाचर
के 'छोड़ दे, छोड़ दे ।' कहने पर
अद्भुत बालक श्रीकृष्ण ने बड़े जोरसे उसका गला दबाया, इससे
उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। उसकी देहसे ज्योति निकली और घनश्याम में उसी प्रकार
विलीन हो गयी, जैसे बादल में बिजली । तब आकाश से दैत्य का
शरीर बालक के साथ ही एक शिला पर गिर पड़ा। गिरते ही उसकी बोटी-बोटी छितरा गयी।
गिरनेके धमाके से सम्पूर्ण दिशाएँ
प्रतिध्वनित हो उठीं, भूमण्डल काँपने लगा । उस समय रोती हुई
सब गोपियोंने राक्षसकी पीठपर चुपचाप बैठे बालक श्रीकृष्णको एक साथ ही देखा और
दौड़कर उन्हें उठा लिया। फिर माता यशोदाको देकर वे कहने लगीं-- ॥। ३४–३७ ॥
गोपियाँ
बोलीं- यशोदे ! तुममें बालकके लालनपालनकी रत्तीभर भी योग्यता नहीं है। कहने से तो
तुम बुरा मान जाती हो; किंतु सच बात यह है
कि कहीं, कभी तुमसे दया देखी नहीं गयी। भला कहो तो, इस प्रकार अन्धकार आ जानेपर कोई भी अपने बच्चेको गोदसे अलग करता है ! तू
ऐसी निर्दय है कि ऐसे महान् भय के अवसरपर भी बालक को जमीन पर रख दिया ? ॥ ३८-३९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से