॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम
स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)
अपशकुन
देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और
अर्जुन का द्वारका से लौटना
युधिष्ठिर
उवाच ।
कच्चिदानर्तपुर्यां
नः स्वजनाः सुखमासते ।
मधुभोजदशार्हार्ह
सात्वतान्धकवृष्णयः ॥ २५ ॥
शूरो मातामहः
कच्चित् स्वस्त्यास्ते वाथ मारिषः ।
मातुलः
सानुजः कच्चित् कुशल्यानकदुन्दुभिः ॥ २६ ॥
सप्त
स्वसारस्तत्पत्न्यो मातुलान्यः सहात्मजाः ।
आसते
सस्नुषाः क्षेमं देवकीप्रमुखाः स्वयम् ॥ २७ ॥
कच्चित्
राजाऽऽहुको जीवति असत्पुत्रोऽस्य चानुजः ।
हृदीकः
ससुतोऽक्रूरो जयन्तगदसारणाः ॥ २८ ॥
आसते कुशलं
कच्चित् ये च शत्रुजिदादयः ।
कच्चिदास्ते
सुखं रामो भगवान् सात्वतां प्रभुः ॥ २९ ॥
प्रद्युम्नः
सर्ववृष्णीनां सुखमास्ते महारथः ।
गम्भीररयोऽनिरुद्धो
वर्धते भगवानुत ॥ ३० ॥
सुषेणश्चारुदेष्णश्च
साम्बो जाम्बवतीसुतः ।
अन्ये च
कार्ष्णिप्रवराः सपुत्रा ऋषभादयः ॥ ३१ ॥
तथैवानुचराः
शौरेः श्रुतदेवोद्धवादयः ।
सुनन्दनन्दशीर्षण्या
ये चान्ये सात्वतर्षभाः ॥ ३२ ॥
अपि
स्वस्त्यासते सर्वे रामकृष्ण भुजाश्रयाः ।
अपि स्मरन्ति
कुशलं अस्माकं बद्धसौहृदाः ॥ ३३ ॥
भगवानपि
गोविन्दो ब्रह्मण्यो भक्तवत्सलः ।
कच्चित्पुरे
सुधर्मायां सुखमास्ते सुहृद्वृतः ॥ ३४ ॥
मङ्गलाय च लोकानां
क्षेमाय च भवाय च ।
आस्ते
यदुकुलाम्भोधौ आद्योऽनन्तसखः पुमान् ॥ ३५ ॥
यद्बाहुदण्डगुप्तायां
स्वपुर्यां यदवोऽर्चिताः ।
क्रीडन्ति
परमानन्दं महापौरुषिका इव ॥ ३६ ॥
यत्
पादशुश्रूषणमुख्य कर्मणा
सत्यादयो द्व्यष्टसहस्रयोषितः ।
निर्जित्य
सङ्ख्ये त्रिदशांस्तदाशिषो
हरन्ति वज्रायुधवल्लभोचिताः ॥ ३७ ॥
यद्बाहुदण्डाभ्युदयानुजीविनो
यदुप्रवीरा ह्यकुतोभया मुहुः ।
अधिक्रमन्त्यङ्घ्रिभिराहृतां
बलात्
सभां सुधर्मां सुरसत्तमोचिताम् ॥ ३८ ॥
युधिष्ठिरने (अर्जुन
से) कहा—‘भाई
! द्वारकापुरी में हमारे स्वजन-सम्बन्धी मधु, भोज,
दशार्ह,
आर्ह,
सात्वत,
अन्धक
और वृष्णिवंशी यादव कुशलसे तो हैं ? ॥ २५ ॥ हमारे
माननीय नाना शूरसेन जी प्रसन्न हैं ? अपने छोटे
भाईसहित मामा वसुदेव जी तो कुशलपूर्वक हैं ? ॥ २६
॥ उनकी पत्नियाँ हमारी मामी देवकी आदि सातों बहिनें अपने पुत्रों और बहुओंके साथ
आनन्दसे तो हैं ? ॥ २७ ॥ जिनका पुत्र कंस बड़ा ही दुष्ट
था,
वे
राजा उग्रसेन अपने छोटे भाई देवकके साथ जीवित तो हैं न ? हृदीक,
उनके
पुत्र कृतवर्मा,
अक्रूर,
जयन्त,
गद,
सारण
तथा शत्रुजित् आदि यादव वीर सकुशल हैं न ? यादवोंके
प्रभु बलरामजी तो आनन्दसे हैं ? ॥ २८-२९ ॥
वृष्णिवंशके सर्वश्रेष्ठ महारथी प्रद्युम्र सुखसे तो हैं ? युद्धमें
बड़ी फुर्ती दिखलानेवाले भगवान् अनिरुद्ध आनन्दसे हैं न ? ॥ ३०
॥ सुषेण,
चारुदेष्ण,
जाम्बवतीनन्दन
साम्ब और अपने पुत्रोंके सहित ऋषभ आदि भगवान् श्रीकृष्णके अन्य सब पुत्र भी
प्रसन्न हैं न ?
॥
३१ ॥ भगवान् श्रीकृष्णके सेवक श्रुतदेव, उद्धव आदि और
दूसरे सुनन्द-नन्द आदि प्रधान यदुवंशी, जो भगवान्
श्रीकृष्ण और बलरामके बाहुबलसे सुरक्षित हैं, सब-के-सब
सकुशल हैं न ?
हमसे
अत्यन्त प्रेम करनेवाले वे लोग कभी हमारा कुशल-मङ्गल भी पूछते हैं ?
॥
३२-३३ ॥ भक्तवत्सल ब्राह्मणभक्त भगवान् श्रीकृष्ण अपने स्वजनोंके साथ द्वारकाकी
सुधर्मा-सभामें सुखपूर्वक विराजते हैं न ? ॥ ३४
॥ वे आदिपुरुष बलरामजीके साथ संसारके परम मङ्गल, परम
कल्याण और उन्नतिके लिये यदुवंशरूप क्षीरसागरमें विराजमान हैं। उन्हींके बाहुबलसे
सुरक्षित द्वारकापुरीमें यदुवंशीलोग सारे संसारके द्वारा सम्मानित होकर बड़े
आनन्दसे विष्णुभगवान्के पार्षदोंके समान विहार कर रहे हैं ॥ ३५-३६ ॥ सत्यभामा आदि
सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूपसे उनके चरणकमलोंकी सेवामें ही रत रहकर उनके द्वारा
युद्धमें इन्द्रादि देवताओंको भी हराकर इन्द्राणीके भोगयोग्य तथा उन्हींकी अभीष्ट
पारिजातादि वस्तुओंका उपभोग करती हैं ॥ ३७ ॥ यदुवंशी वीर श्रीकृष्णके बाहुदण्डके
प्रभावसे सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी हुई बड़े-बड़े देवताओंके
बैठने योग्य सुधर्मा सभाको अपने चरणोंसे आक्रान्त करते हैं ॥ ३८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट
संस्करण) पुस्तक कोड 1535
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