#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
तीसरा
अध्याय ( पोस्ट 02 )
श्रीयमुनाजी
का गोलोक से अवतरण और पुनः गोलोकधाम में प्रवेश
परिपूर्णतमं
साक्षाच्छ्रीकृष्णं वरमिच्छती ।
धृत्वा वपुः परं दिव्यं तपस्तेपे कलिन्दजा ॥ १४ ॥
पित्रा विनिर्मिते गेहे जलेऽद्यापि समाश्रिता ।
ततो वेगेन कालिन्दी प्राप्ताभूद्व्रजमंडले ॥ १५ ॥
वृन्दावनसमीपे च मथुरानिकटे शुभे ।
श्रीमहावनपार्श्वे च सैकते रमणस्थले ॥ १६ ॥
श्रीगोकुले च यमुना यूथीभूत्वातिसुंदरी ।
श्रीकृष्णचंद्ररासार्थं निजवासं चकार ह ॥ १७ ॥
अथो व्रजाद्व्रजंती सा व्रजविक्षेपविह्वला ।
प्रेमानन्दाश्रुसंयुक्ता भूत्वा पश्चिमवाहिनी ॥ १८ ॥
ततस्त्रिवारं वेगेन नत्वाथो व्रजमंडले ।
देशान् पुनन्ती प्रययौ प्रयागं तीर्थसत्तमम् ॥ १९ ॥
पुनः श्रीगंगया सार्धं क्षीराब्धिं सा जगाम ह ।
देवाः सुवर्षं पुष्पाणां चक्रुर्दिवि जयध्वनिम् ॥ २० ॥
कृष्णा श्रीयमुना साक्षात् कालिन्दी सरितां वरा ।
समुद्रमेत्य श्रीगंगां प्राह गद्गदया गिरा ॥ २१ ॥
यमुनोवाच -
हे गंगे त्वं तु धन्याऽसि सर्वब्रह्माण्डपावनी ।
कृष्णपादाब्जसंभूता सर्वलोकैकवन्दिता ॥ २२ ॥
ऊर्ध्वं यामि हरेर्लोकं गच्छ त्वमपि हे शुभे ।
त्वत्समानं हि दिव्यं च न भूतं न भविष्यति ॥ २३ ॥
सर्वतीर्थमयी
गंगा तस्मात्त्वां प्रणमाम्यहम् ।
यत्किंचिद्वा प्रकथितं तत्क्षमस्व सुमंगले ॥ २४ ॥
यमुनाजी
साक्षात् परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण को अपना पति बनाना चाहती थीं,
इसलिये वे परम दिव्य देह धारण करके खाण्डववन में तपस्या करने लगीं।
यमुना के पिता भगवान् सूर्य ने जल के भीतर ही एक दिव्य गेह का निर्माण कर दिया था,
जिसमें आज भी वे रहा करती हैं। खाण्डववन से वेगपूर्वक चलकर कालिन्दी
व्रजमण्डल में श्रीवृन्दावन और मथुराके निकट आ पहुँचीं। महावनके पास सिकतामय रमण-
स्थलमें भी प्रवाहित हुईं ।। १४-१६ ॥
श्रीगोकुलमें
आनेपर परम सुन्दरी यमुना ने (विशाखा सखी के नाम से) अपने नेतृत्व में
गोप-किशोरियों का एक यूथ बनाया और श्रीकृष्णचन्द्रके रासमें सम्मिलित होनेके लिये
उन्होंने वहीं अपना निवासस्थान निश्चित कर लिया । तदनन्तर वे जब व्रज से आगे जाने
लगीं,
तब व्रजभूमिके वियोगसे विह्वल हो, प्रेमानन्दके
आँसू बहाती हुई पश्चिम दिशाकी ओर प्रवाहित हुईं ।। तदनन्तर व्रजमण्डलकी भूमिको
अपने वारि-वेगसे तीन बार प्रणाम करके यमुना अनेक देशोंको पवित्र करती हुई उत्तम
तीर्थ प्रयाग में जा पहुँचीं ।। १७ - १९ ॥
वहाँ
गङ्गाजी के साथ उनका संगम हुआ और वे उन्हें साथ लेकर क्षीरसागर की ओर गयीं। उस समय
देवताओं ने उनके ऊपर फूलों की वर्षा की और दिग्विजयसूचक जयघोष किया । नदीशिरोमणि
कलिन्दनन्दिनी कृष्णवर्णा श्रीयमुना ने समुद्रतक पहुँचकर गद्गद वाणी में श्रीगङ्गा
से कहा ॥ २० – २१ ॥
यमुनाने
कहा – समस्त ब्रह्माण्डको पवित्र करनेवाली गङ्गे ! तुम धन्य हो । साक्षात्
श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंसे तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ हैं,
अतः तुम समस्त लोकोंके लिये एकमात्र वन्दनीया हो । शुभे ! अब मैं
यहाँसे ऊपर उठकर श्रीहरिके लोकमें जा रही हूँ । तुम्हारी इच्छा हो तो तुम भी मेरे
साथ चलो ! तुम्हारे समान दिव्य तीर्थ न तो हुआ है और न आगे होगा ही । गङ्गा (आप)
सर्वतीर्थमयी हैं, अतः सुमङ्गले गङ्गे ! मैं तुम्हें प्रणाम
करती हूँ । यदि मैंने कभी कोई अनुचित बात कही हो तो उसके लिये मुझे क्षमा कर देना
।। २२-२४ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260
से