रविवार, 30 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) नवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

नवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णकी स्तुति

 

ब्रह्मोवाच -
कृष्णाय मेघवपुषे चपलाम्बराय
     पियूषमिष्टवचनाय परात्पराय ।
वंशीधराय शिखिचंद्रिकयान्विताय
     देवाय भ्रातृसहिताय नमोऽस्तु तस्मै ॥ १ ॥
कृष्णस्तु साक्षात्पुरुषोतमः स्वयं
     पूर्णः परेशः प्रकृतेः परो हरिः ।
यस्यावतारांशकला वयं सुरा
     सृजाम विश्वं क्रमतोऽस्य शक्तिभिः ॥ २ ॥
स त्वं साक्षात्कृष्णचन्द्रावतारो
     नन्दस्यापि पुत्रतामागतः कौ ।
वृन्दारण्ये गोपवेशेन वत्सान्
     गोपैर्मुख्यैश्चारयन् भ्राजसे वै ॥ ३ ॥
हरिं कोटिकन्दर्पलीलाभिरामं
     स्फुरत्कौस्तुभं श्यामलं पीतवस्त्रम् ।
व्रजेशं तु वंशीधरं राधिकेशं
     परं सुन्दरं तं निकुंजे नमामि ॥ ४ ॥
तं कृष्णं भज हरिमादिदेवमस्मिन्
     क्षेत्रज्ञं कमिव विलिप्तमेघमेव ।
स्वच्छाङ्‌गं परमधियाज्ञचैत्यरूपं
     भक्त्याद्यैर्विशदविरागभावसंघैः ॥ ५ ॥
यावन्मनश्च रजसा प्रबलेन विद्वन्
     संकल्प एव तु विकल्पक एव तावत् ।
ताभ्यां भवेन्मनसिजस्त्वभिमानयोग-
     स्तेनापि बुद्धिविकृतिं क्रमतः प्रयान्ति ॥ ६ ॥
विद्युद्‌द्युतिस्त्वृतुगुणो जलमध्यरेखा
     भूतोल्मुकः कपटपान्थरतिर्यथा च ।
इत्थं तथाऽस्य जगतस्तु सुखं मृषेति
     दुःखावृतं विषयघूर्णमलातचक्रम् ॥ ७ ॥
वृक्षा जलेन चलतापि चला इवात्र
     नेत्रेण भूरिचलितेन चलेव भूश्च ।
एवं गुणः प्रकृतिजैर्भ्रमतो जनस्थं
     सत्यं वदेद्‌गुणसुखादिदमेव कृष्ण ॥ ८ ॥

ब्रह्माजी बोले – “मेघकी-सी कान्तिसे युक्त विद्युत्-वर्णका वस्त्र धारण करनेवाले, अमृत तुल्य मीठी वाणी बोलनेवाले, परात्पर, वंशीधारी, मयूर पिच्छको धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णको उनके भ्राता बलरामसहित नमस्कार है। श्रीकृष्ण (आप) साक्षात् स्वयं पुरुषोत्तम, पूर्ण परमेश्वर, प्रकृतिसे अतीत श्रीहरि हैं । हम देवता जिनके अंश और कलावतार हैं, जिनकी शक्तिसे हमलोग क्रमशः विश्वकी सृष्टि, पालन एवं संहार करते हैं, उन्हीं आपने साक्षात् कृष्णचन्द्रके रूपमें अवतीर्ण होकर धराधामपर नन्दका पुत्र होना स्वीकार किया है। आप प्रधान- प्रधान गोप-बालकोंके साथ गोपवेषसे वृन्दावनमें गोचारण करते हुए विराज रहे हैं। करोड़ों कामदेवके समान रमणीय, तेजोमय, कौस्तुभधारी, श्यामवर्ण, पीतवस्त्रधारी, वंशीधर, व्रजेश, राधिकापति, निकुञ्ज-विहारी परमसुन्दर श्रीहरिको मैं प्रणाम करता हूँ ।। १-४ ॥

 

जो मेघ से निर्लिप्त आकाश के समान प्राणियों की देह में क्षेत्रज्ञ रूपसे स्थित हैं, जो अधियज्ञ एवं चैत्यस्वरूप हैं, जो मायारहित हैं और जो निर्मल भक्ति तथा प्रबल वैराग्य आदि भावों से प्राप्त होते हैं, उन आदिदेव हरि की मैं वन्दना करता हूँ। सर्वज्ञ ! जिस समय मनमें प्रबल रजोगुण का उदय होता है, उसी समय मन संकल्प-विकल्प करने लगता है संकल्प - विकल्पके वशीभूत मन में ही अभिमान की उत्पत्ति होती है और वही अभिमान धीरे-धीरे बुद्धिको विकृत कर देता है ।। ५-६ ॥

 

क्षणस्थायी बिजली के समान, बदलते हुए ऋतुगुणों के समान, जलपर खींची गयी रेखा के समान, पिशाच के द्वारा उत्पन्न किये हुए अंगारों के समान और कपटी यात्री की प्रीति के समान जगत् के सुख मिथ्या हैं। विषय-सुख दुःखोंसे घिरे हुए हैं एवं अलातचक्रवत् (जलते हुए अंगारको वेगसे चक्राकार घुमानेपर जो क्षणस्थायी वृत्त बनता है, उसके समान) हैं। जैसे वृक्ष न चलते हुए भी, जलके चलनेके कारण चलते हुए-से दीखते हैं, नेत्रोंको वेगसे घुमानेपर अचल पृथ्वी भी चलती हुई-सी दीखती है, कृष्ण ! उसी प्रकार प्रकृतिसे उत्पन्न गुणोंके वशमें होकर भ्रान्त जीव उस प्रकृतिजन्य सुखको सत्य मान लेता है ।। ७-८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण -द्वितीय स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट ०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

ध्यान-विधि और भगवान्‌ के विराट्स्वरूप का वर्णन

श्रीशुक उवाच ।

वरीयान् एष ते प्रश्नः कृतो लोकहितं नृप ।
आत्मवित् सम्मतः पुंसां श्रोतव्यादिषु यः परः ॥ १ ॥
श्रोतव्यादीनि राजेन्द्र नृणां सन्ति सहस्रशः ।
अपश्यतां आत्मतत्त्वं गृहेषु गृहमेधिनाम् ॥ २ ॥
निद्रया ह्रियते नक्तं व्यवायेन च वा वयः ।
दिवा चार्थेहया राजन् कुटुंबभरणेन वा ॥ ३ ॥
देहापत्यकलत्रादिषु आत्मसैन्येष्वसत्स्वपि ।
तेषां प्रमत्तो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति ॥ ४ ॥
तस्माद्‍भारत सर्वात्मा भगवान् ईश्वरो हरिः ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यश्चेच्छताभयम् ॥ ५ ॥
एतावान् सांख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया ।
जन्मलाभः परः पुंसां अंते नारायणस्मृतिः ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्‌ ! तुम्हारा लोकहितके लिये किया हुआ यह प्रश्न  बहुत ही उत्तम है। मनुष्योंके लिये जितनी भी बातें सुनने, स्मरण करने या कीर्तन करनेकी हैं, उन सबमें यह श्रेष्ठ है। आत्मज्ञानी महापुरुष ऐसे प्रश्रका बड़ा आदर करते हैं ॥ १ ॥ राजेन्द्र ! जो गृहस्थ घरके काम-धंधोंमें उलझे हुए हैं, अपने स्वरूपको नहीं जानते, उनके लिये हजारों बातें कहने-सुनने एवं सोचने, करनेकी रहती हैं ॥ २ ॥ उनकी सारी उम्र यों ही बीत जाती है। उनकी रात नींद या स्त्री-प्रसङ्गसे कटती है और दिन धनकी हाय-हाय या कुटुम्बियोंके भरण-पोषणमें समाप्त हो जाता है ॥ ३ ॥ संसार में जिन्हें अपना अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्धी कहा जाता है, वे शरीर, पुत्र, स्त्री आदि कुछ नहीं हैं, असत् हैं; परन्तु जीव उनके मोहमें ऐसा पागल-सा हो जाता है कि रात-दिन उनको मृत्यु का ग्रास होते देखकर भी चेतता नहीं ॥ ४ ॥ इसलिये परीक्षित्‌ ! जो अभय पदको प्राप्त करना चाहता है, उसे तो सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ही लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण करना चाहिये ॥ ५ ॥ मनुष्य-जन्म का यही—इतना ही लाभ है कि चाहे जैसे हो—ज्ञानसे, भक्तिसे अथवा अपने धर्म की निष्ठा से जीवन को ऐसा बना लिया जाय कि मृत्यु के समय भगवान्‌ की स्मृति अवश्य बनी रहे ॥ ६ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शनिवार, 29 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन

 

वत्सपालापहरणात् किमभूज्जगत. पतेः ।

हो खद्योतवद्वधा श्रीकृष्णरविसम्मुखे || ३७

एवं विमुह्यति सति जडीभूते च ब्रह्मणि ।

स्वमायां कृपयाकृष्य कृष्णः स्वं दर्शनं ददौ ॥ ३८

एवं तत्र सकृद् ब्रह्मा गोवत्सान् गोपदारकान् ।

सर्वानाचष्ट श्रीकृष्णं भक्त्या विज्ञानलोचनैः || ३९

ददर्शाथ विधिस्तत्र बहिरन्त शरीरतः ।

स्वात्मना सहितं राजन् सर्व विष्णुमयं जगत् ॥ ४०

एवं विलोक्य ब्रह्मा तु जडो भूत्वा स्थिरोऽभवत् ।

वृन्दावद् वृन्दारण्ये प्रदृश्येत यथा तथा ।। ४१

स्वात्मनो महिमां द्रष्टुं नीशेऽपि च ब्रह्मणि ।

चच्छाद सपदि ज्ञात्वा मायाजवनिकां हरिः ॥ ४२

ततः प्रलब्धनयनः स्रष्टा सुप्त इवोत्थितः,

उन्मील्य नयने कृच्छ्राद्ददर्शेद सहात्मना ॥ ४३

समाहितस्तत्र भूत्वा सद्योऽपश्यद्दिशो दश ।

श्रीमद्बृन्दावनं रम्यं वासन्तीलतिकान्वितम् ॥ ४४

शार्दूलबालकैर्यत्र क्रीडन्ति मृगबालकाः ।

श्येनैः कपोता नकुलै. सर्पा वैरविवर्जिताः ॥ ४५

ततश्च वृन्दकारण्ये सपाणिकवलं विधिः ।

वत्सान् सखीन् विचिन्वन्तमेकं कृष्णं ददर्श सः ॥ ४६

दृष्ट्वा गोपालवेषेण गुप्तं गोलोकवल्लभम् ।

ज्ञात्वा साक्षाद्धरि ब्रह्मा भीतोऽभूत् स्वकृतेन च ॥ ४७

तं प्रसादयितुं राजन् ज्वलन्तं सर्वतो दिशम् ।

लज्जयावाङ्मुखो भूत्वा ह्यवतीर्य स्ववाहनात् ॥ ४८

शनैरुपससारेशं प्रसीदेति वदन् नमन् ।

स्रवद्वर्षात्ताः स षपाताथ दण्डवत् ॥ ४९

उत्थाप्याश्वास्य तं कृष्णः प्रियं प्रिय इव स्पृशन् ।

सुरान् सुभुवि दूरस्थानालुलोक सुधार्द्रटक ॥ ५०

ततो जयजयेत्युच्चैः स्तुवतां नमतां समम् ।

तहयादृष्टदृष्टानां सानन्दः सम्भ्रमोऽभवत् ॥ ५१

दृष्ट्वा हरिं तत्र समास्थितं विधि

र्ननाम भक्तमनाः कृताञ्जलिः ।

स्तुति चकाराशु स दण्डवल्लुठन्

प्रहृष्टरोमा भुवि गद्मदातरः || ५२

 

गोप-बालकों के हरण से जगत्पति की तो कुछ हानि हुई नहीं, अपितु श्रीकृष्णरूप सूर्यके सम्मुख ब्रह्माजी ही जुगनू से दीखने लगे। ब्रह्माके इस प्रकार मोहित एवं जडीभूत हो जानेपर श्रीकृष्णने कृपापूर्वक अपनी मायाको हटाकर उनको अपने स्वरूपका दर्शन कराया। भक्तिके द्वारा ब्रह्माजीको ज्ञाननेत्र प्राप्त हुए । उन्होंने एक बार गोवत्स एवं गोप-बालक—सबको श्रीकृष्णरूप देखा । राजन् ! ब्रह्माजीने शरीरके भीतर और बाहर अपने सहित सम्पूर्ण जगत्को विष्णुमय देखा ॥ ३ – ४० ॥

 

इस प्रकार दर्शन करके ब्रह्माजी तो जडताको प्राप्त होकर निश्चेष्ट हो गये। ब्रह्माजीको वृन्दादेवी द्वारा अधिष्ठित वृन्दावनमें जहाँ-तहाँ दीखनेवाली भगवान्- की महिमा देखनेमें असमर्थ जानकर श्रीहरिने मायाका पर्दा हटा लिया ।। ४१-४२ ॥

 

तब ब्रह्माजी नेत्र पाकर, निद्रा से जगे हुए की भाँति उठकर, अत्यन्त कष्ट से नेत्र खोलकर अपनेसहित वृन्दावन को देखने में समर्थ हुए। वहाँपर वे उसी समय एकाग्र होकर दसों दिशाओं में देखने लगे और वसन्तकालीन सुन्दर लताओं से युक्त रमणीय श्रीवृन्दावन का उन्होंने दर्शन किया ।। ४३-४४ ॥

 

वहाँ बाघके बच्चोंके साथ मृग शावक खेल रहे थे। बाज और कबूतरमें, नेवला और साँपमें वहाँ जन्मजात वैरभाव नहीं था। ब्रह्माजीने देखा कि एकमात्र श्रीकृष्ण ही हाथमें भोजनका कौर लिये हुए प्यारे गोवत्सोंको वृन्दावनमें ढूँढ़ रहे हैं। गोलोकपति साक्षात् श्रीहरिको गोपाल-वेषमें अपनेको छिपाये हुए देखकर तथा ये साक्षात् श्रीहरि हैं - यह पहचानकर ब्रह्माजी अपनी करतूतको स्मरण करके भयभीत हो गये ।। ४५-४७ ॥

 

राजन् ! उन चारों ओर प्रज्वलित दीखनेवाले श्रीकृष्णको प्रसन्न करनेके लिये ब्रह्माजी अपने वाहनसे उतरे और लज्जाके कारण उन्होंने सिर नीचा कर लिया। वे भगवान्‌को प्रणाम करते हुए और 'प्रसन्न हों - यह कहते हुए धीरे-धीरे उनके निकट पहुँचे। यों भगवान्- को अपनी आँखों से झरते हुए हर्ष के आँसुओं का अर्ध्य देकर दण्ड की भाँति वे भूमिपर गिर पड़े ।।४८-४९ ॥

 

भगवान् श्रीकृष्णने ब्रह्माजीको उठाकर आश्वस्त किया और उनका इस प्रकार स्पर्श किया, जैसे कोई प्यारा अपने प्यारेका स्पर्श करे । तत्पश्चात् वे सुधासिक्त दृष्टिसे उसी सुन्दर भूमिपर दूर खड़े देवताओंकी ओर देखने लगे। तब वे सभी उच्चस्वरसे जय-जयकार करते हुए उनका स्तवन करने लगे । साथ-साथ प्रणाम भी करने लगे। श्रीकृष्णकी दयादृष्टि पाकर सभी आनन्दित हुए और उनके प्रति आदरसे भर गये ।। ५०-५१ ॥

 

 ब्रह्माजीने भगवान्‌ को उस स्थानपर देखकर भक्तियुक्त मनसे हाथ जोड़कर प्रणाम किया और रोमाञ्चित होकर दण्डकी भाँति वे भूमिपर गिर पुनः वे गद्गद वाणीसे भगवान्‌ का स्तवन लगे ॥ ५२ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

परीक्षित्‌ का अनशनव्रत और शुकदेवजीका आगमन

अन्यथा तेऽव्यक्तगतेः दर्शनं नः कथं नृणाम् ।
नितरां म्रियमाणानां संसिद्धस्य वनीयसः ॥ ३६ ॥
अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् ।
पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा ॥ ३७ ॥
यच्छ्रोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभिः प्रभो ।
स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् ॥ ३८ ॥
नूनं भगवतो ब्रह्मन् गृहेषु गृहमेधिनाम् ।
न लक्ष्यते ह्यवस्थानं अपि गोदोहनं क्वचित् ॥ ३९ ॥

सूत उवाच ।

एवमाभाषितः पृष्टः स राज्ञा श्लक्ष्णया गिरा ।
प्रत्यभाषत धर्मज्ञो भगवान् बादरायणिः ॥ ४० ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कृपा न होती तो आप-सरीखे एकान्त वनवासी अव्यक्तगति परम सिद्ध पुरुष स्वयं पधारकर इस मृत्युके समय हम-जैसे प्राकृत मनुष्यों को क्यों दर्शन देते ॥ ३६ ॥ आप योगियोंके परम गुरु हैं, इसलिये मैं आपसे परम सिद्धिके स्वरूप और साधनके सम्बन्ध में प्रश्न कर रहा हूँ। जो पुरुष सर्वथा मरणासन्न है, उसको क्या करना चाहिये ? ॥ ३७ ॥ भगवन् ! साथ ही यह भी बतलाइये कि मनुष्यमात्र को क्या करना चाहिये। वे किसका श्रवण, किसका जप, किसका स्मरण और किसका भजन करें तथा किसका त्याग करें ? ॥ ३८ ॥ भगवत्स्वरूप मुनिवर ! आपका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि जितनी देर एक गाय दुही जाती है, गृहस्थों के घरपर उतनी देर भी तो आप नहीं ठहरते ॥ ३९ ॥

सूतजी कहते हैं—जब राजा ने बड़ी ही मधुर वाणी में इस प्रकार सम्भाषण एवं प्रश्न किये, तब समस्त धर्मों के मर्मज्ञ व्यासनन्दन भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी उनका उत्तर देने लगे ॥ ४० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे शुकागमनं नाम एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

इति प्रथम स्कन्ध समाप्त

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


शुक्रवार, 28 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन

 

एवं प्रेमपरान् सर्वान् दृष्ट्वा सङ्कर्षणो बल. ।

बहुप्रकारं सन्देहं कृत्वा मनसि सोऽब्रवीत् ॥ १९

हो कि वत्सरात् प्राप्तो न ज्ञातोऽपि व्रजे मया ।

तिस्नेहस्तु सर्वेषा वर्द्धते च दिने दिने ॥ २०

केयं माया समायाता देवगन्धर्वरक्षसाम् ।

नान्या मे मोहिनी माया विना कृष्णस्य साम्प्रतम् ॥ २१

एव' विचार्य रामस्तु लोचने स्वे न्यमीलयन् ।

भूतं भव्यं भविष्यञ्च दिव्यात्ताभ्यां ददर्श ह || २२

सर्वान् वत्साँस्तथा गोपान् व' शीवेत्रविभूषितान् ।

बहिंपक्षधरान् श्यामान् भृग्वङ्घ्रिकृत कौतुकान् ॥ २३

जालकाना मणीनाञ्च गुञ्जानां स्रग्भिरेव च ।

पद्मानां कुमुदानाच ह्येषां स्रग्भिर्विभूषितान् ॥ २४

उष्णीषैर्मुकुटैर्दिव्यैः कुण्डलैरलकैव तान् ।

आनन्दवर्षान् कुर्वाणान् शरत्पद्मदृशैरपि ॥ २५

कोटिकन्दर्प लावण्यान् नासामौक्तिकशोभितान् ।

शिखाभूषणसंयुक्तान् पाणिभूषणभूषितान् ।। २६

द्विभुजान् पीतवस्त्रश्च का चीकटकनूपुरै ।

प्रभातरविकोटीना शोभाभि शोभितान् शुभान् ॥ २७

उत्तरे गिरिराजस्य यमुनायाश्च दक्षिणे ।

आष्ट वृन्दारण्ये सर्वान् कृष्णं हलायुध. ॥ २८

ज्ञात्वा कृष्णकृतं कर्म तथा विधिकृतं बलः ।

पुनवेत्सान् वत्सपाश्च पश्यन् कृष्णमुवाच ह ॥ २९

ब्रह्मानन्तो धर्म इन्द्र. शिवश्च

सेवन्ते तं भक्तियुक्ताः सदैते ।

स्वात्माराम पूर्णकाम: परेश

स्रष्टुं शक्तः कोटिशोऽण्डानि यः खे ॥ ३०

 

नारद उवाच

एवं ब्रुवति श्रीरामे तावत्तत्रागतो विधिः ।

ददर्श कृष्णं रामञ्च वत्सकैर्वत्सपैः समम् ॥ ३१

हो कृष्णेन चानीता यत्र सर्वे धृता मया ।

इति ब्रुवन् ययौ स्थाने तत्र सर्वान् ददर्श सः ॥ ३२

दृष्ट्वा प्रसुप्तान् सर्वास्तु स श्रागत्य व्रजे पुनः ।

वत्सपालैर्हरि वीक्ष्य मनसि प्राह विस्मितः ॥ ३३

विचित्र ये सर्वे कुत्र स्थानात् समागताः ।

क्रीडन्तो पूर्ववञ्चात्र सार्क कृष्णोन क्रीडनै ॥ ३४

मत्त्रुटिवत्सरश्चैको व्यतीतोऽभून्महीतले ।

सर्वे प्रसन्नतां प्राप्ता न ज्ञातः केनचित् कचित् ॥ ३५

एवं संमोहयन् ब्रह्मा मोहनं विश्वमोहनम् ।

स्वमाययान्धकारेण स्वगात्र नैव दृष्टवान् ॥ ३६

 

संकर्षण बलराम ने इस प्रकार जब गोपों को प्रेम- परायण देखा, तब उनके मन में अनेक प्रकार के संदेह उठने लगे। उन्होंने मन-ही-मन कहा – 'अहा ! प्रायः एक वर्ष से व्रज में क्या हो गया है, वह मेरी समझ में नहीं आ रहा है। दिन-प्रतिदिन सब के हृदयों का स्नेह अधिकाधिक बढ़ता जा रहा है । क्या यह देवताओं, गन्धर्वों या राक्षसोंकी माया है ? अब मैं समझता हूँ कि यह मुझे मोहित करने वाली कृष्णकी माया से भिन्न और कुछ नहीं है ।।१९-२१ ॥

 

इस प्रकार विचार करके बलरामजी- ने अपने नेत्र बंद कर लिये और दिव्यचक्षुसे भूत, भविष्य तथा वर्तमानको देखा। बलरामजीने समस्त गोवत्स एवं पहाड़की तलहटीमें खेलनेवाले गोप- बालकोंको वंशी - वेत्रविभूषित, मयूरपिच्छधारी, श्यामवर्ण, मणिसमूहों एवं गुञ्जाफलोंकी मालासे शोभित, कमल एवं कुमुदिनीकी मालाएँ, दिव्य पगड़ी एवं मुकुट धारण किये हुए, कुण्डलों एवं अलकावली- से सुशोभित, शरत्कालीन कमलसदृश नेत्रोंसे निहारकर आनन्द देनेवाले, करोड़ों कामदेवोंकी शोभासे सम्पन्न, नासिकास्थित मुक्ताभरणसे अलंकृत, शिखा- भूषणसे युक्त, दोनों हाथोंमें आभूषण धारण किये हुए, पीला वस्त्र धारण किये हुए, मेखला, कड़े और नूपुरसे शोभित, करोड़ों बाल-रवियोंकी प्रभासे युक्त और मनोहर देखा ।।२२-२७॥

 

बलरामजीने गोवर्धनसे उत्तर की ओर एवं यमुनाजीसे दक्षिणकी ओर स्थित वृन्दावनमें सब कुछ कृष्णमय देखा । वे इस कार्यको ब्रह्माजी और श्रीकृष्णका किया हुआ जानकर पुनः गोवत्सों एवं वत्सपालोंका दर्शन करते हुए श्रीकृष्णसे बोले— 'ब्रह्मा, अनन्त, धर्म, इन्द्र और शंकर भक्ति युक्त होकर सदा तुम्हारी सेवा किया करते हैं। तुम आत्माराम, पूर्णकाम, परमेश्वर हो। तुम शून्यमें करोड़ों ब्रह्माण्डोंकी सृष्टि करनेमें समर्थ हो' ॥ २८ - ३० ॥

 

श्रीनारदजीने कहा- जिस समय बलरामजी यों कह रहे थे, उसी समय ब्रह्माजी वहाँ आये और उन्होंने गोवत्सों एवं गोप-बालकोंके साथ बलरामजी एवं श्रीकृष्णके दर्शन किये। 'ओहो ! मैं जिस स्थानपर गोवत्स तथा गोप-बालकोंको रख आया था, वहाँसे श्रीकृष्ण उनको ले आये हैं।' –यो कहते हुए ब्रह्माजी उस स्थानपर गये और वहाँपर उन सबको पहलेकी तरह ही पाया ।। ३१-३२ ॥

 

ब्रह्माजी उनको निद्रित देखकर पुनः व्रजमें आये और गोप-बालकोंके साथ श्रीहरिके दर्शन करके विस्मित हो गये। वे मन-ही-मन कहने लगे- 'ओहो, कैसी विचित्रता है ! ये लोग कहाँसे यहाँ आये और पहलेकी ही भाँति श्रीकृष्णके साथ खेल रहे हैं ? ।। ३३-३४ ॥

 

यह सब खेल करनेमें मुझे एक त्रुटि (क्षण) जितना काल लगा, परंतु इतनेमें इस भूलोकमें एक वर्ष पूरा हो गया । तथापि सभी प्रसन्न हैं, कहीं किसीको इस घटनाका पता भी नहीं चला।' इस प्रकार से ब्रह्माजी मोहातीत विश्वमोहनको मोहित करने गये। परंतु अपनी मायाके अन्धकारमें वे स्वयं अपने शरीरको भी नहीं देख सके ।। ३५-३६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



गुरुवार, 27 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

आठवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

ब्रह्माजीके द्वारा श्रीकृष्णके सर्वव्यापी विश्वात्मा स्वरूपका दर्शन

 

नारद उवाच

अदृष्ट्वा वत्सकानेत्य वस्सपान् पुलिने हरिः ।

उभौ विचिन्वन् विपिने मेने कर्म्म विधेः कृतम् ॥ १

ततो गवा गोपिकानां मुदं कर्तुं स लीलया ।

सर्वन्तु विश्वकुच्चक्रे ह्यात्मानमुभयायितम् ॥ २

यावद्वत्सपवत्सानां वपुः पाणिपदादिकान् ।

यावद्यष्टिविषाणादीन् यावच्छ्रीलगुणादिकान् ॥ ३

यावद् भूषणवस्त्रादीन् तावच्छ्रीहरिणा स्वतः ।

'सर्व विष्णुमयं विश्वमिति वाक्यं प्रदर्शितम् ॥ ४

आत्मवत्सानात्मगोपैश्चारयन् क्रीडया हरि. |

प्राविशन् नन्दनगरमस्तं गिरि गते रखौ ॥ ५

तत्तद्गोष्ठे पृथङ नीत्वा तत्तद्वत्सान् प्रवेश्य च ।

कृष्णोऽभवत्तत्तदात्मा तत्तद्गेहं प्रविष्टवान् ॥ ६

श्रुत्वा वंशीरवं गोप्यः सम्भ्रमाच्छीघ्रमुत्थिता ।

पयांसि पाययामासुर्लालयित्वा सुतान् पृथक् ॥ ७

स्वान् स्वान् क्त्साँस्तथा गावो रम्भमाणा निरीक्ष्य च ।

लिहन्त्यो जिह्वयाङ्गानि पयांसि च ह्यपाययन् ॥ ८

अभवन् मातरः सर्वा गोप्यो गावो हरेरहो ।

प्रतिस्नेह ववृधे पूर्वतो हि चतुगुणम् ॥ ९

स्वपुत्राँल्लालयित्वा तु मज्जनोन्मर्द्दनादिभिः ।

पश्चाद् गोप्यश्च कृष्णस्य दर्शनं कर्तुमाययुः ।। १०

अनेकानान्तु बालानामुद्वाहा: कृष्णरूपिणाम् ।

बभूवुस्ता व्रजे बो रताः कृष्णे तु कोटिशः ॥ ११

वत्सपालमिषेणापि स्वात्मानं ह्यात्मना हरेः ।

पालितो वत्सरश्चैको बभूव व्रजमण्डले || १२

सरामश्चैकदा वत्साश्चारण्यं चारयन् ययौ ।

हायना पूरणीष्वत्र पञ्चषासु च रात्रिषु ।। १३

तत्रापि दूराच्चरतश्च गावो

वत्सानुपव्रज्य गिरेश्च शृङ्गात् ।

लिहन्ति चाङ्गानि विलोकयन्त्यां

हापाययंस्ता अमृतानि सद्यः ॥ १४

गोवर्द्धनादधो वत्सान् पीतदुग्धान् विलोक्य च ।

स्नेहावृता स्थिता गाश्च गोपाला ददृशुर्नृप । १५

ततः क्रोधेन महता पर्वतादवतीर्य च ।

ताडनार्थेसु पुत्राणामाजग्मुः कच्छतो द्रुतम् ।। १६

यदागता समीपे तु पुत्राणां गोपनायकाः ।

स्वान् स्वान् सुतांस्तदोन्नीय के कृत्वा मिलन्ति वै ॥ १७

यथा युवानो वृद्धाश्च स्नेहादश्रु परिप्लुताः ।

स्वान् स्वान् पौत्रान् गृहीत्वा तु ह्य् पविष्टा मिलन्ति हि ॥ १८

 

श्रीनारदजी कहते हैं— श्रीकृष्ण गोवत्सों को न पाकर यमुना किनारे आये, परंतु वहाँ गोप-बालक भी नहीं दिखायी दिये । बछड़ों और वत्सपालों—दोनों को ढूँढ़ते समय उनके मनमें आया कि 'यह तो ब्रह्माजी का कार्य है । तदनन्तर अखिल विश्वविधायक श्रीकृष्णने गायों और गोपियोंको आनन्द देनेके लिये लीलासे ही अपने-आपको दो भागों में विभक्त कर लिया ।। १-२ ॥

 

वे स्वयं एक भागमें रहे तथा दूसरे भागसे समस्त बछड़े और गोप-बालकोंकी सृष्टि की। उन लोगोंके जैसे शरीर, हाथ, पैर आदि थे; जैसी लाठी, सींगा आदि थे; जैसे स्वभाव और

गुण थे, जैसे आभूषण और वस्त्रादि थे; भगवान् श्रीहरिने अपने श्रीविग्रहसे ठीक वैसी ही सृष्टि उत्पन्न करके यह प्रत्यक्ष दिखला दिया कि यह अखिल विश्व विष्णुमय है। ।। ३-४ ॥

 

श्रीकृष्णने खेल में ही आत्मस्वरूप गोप-बालकों के द्वारा आत्मस्वरूप गो-वत्सों को चराया और सूर्यास्त होनेपर उनके साथ नन्दालयमें पधारे। वे बछड़ों को उनके अपने-अपने गोष्ठों में अलग-अलग ले गये और स्वयं उन-उन गोप-बालकों के वेष में अन्यान्य दिनों की भाँति उनके घरोंमें प्रवेश किया ।। ५-६ ॥

 

गोपियाँ वंशीध्वनि सुनकर आदरके साथ शीघ्रतासे उठीं और अपने बालकोंको प्यारसे दूध पिलाने लगीं । गायें भी अपने-अपने बछड़ोंको निकट आया देखकर रँभाती हुई उनको चाटने और दूध पिलाने लगीं । अहा ! गोपियाँ और गायें श्रीहरिकी माता बन गयीं। गोप-बालक एवं गोवत्स स्नेहाधिक्य के कारण पहले की अपेक्षा चौगुने अधिक बढ़ने लगे। गोपियाँ अपने बालकों की उबटन-स्नानादि के द्वारा स्नेहमयी सेवा करके तब श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये आयीं ॥ -१० ॥

 

इसके बाद अनेक बालकोंका विवाह हो गया। अब श्रीकृष्णस्वरूप अपने पति उन बालकोंके साथ करोड़ों गोपवधुएँ प्रीति करने लगीं ।। ११ ॥

 

इस प्रकार वत्स-पालन के बहाने अपनी आत्माकी अपनी ही आत्माद्वारा रक्षा करते हुए श्रीहरिको एक वर्ष बीत गया। एक दिन बलरामजी गोचारण करते हुए वनमें पहुँचे। उस समयतक ब्रह्माजीद्वारा वत्सों एवं वत्सपालोंका हरण हुए एक वर्ष पूर्ण होनेमें केवल पाँच-छः रात्रियाँ शेष रही थीं ।। १२-१३ ॥

 

उस वनमें स्थित पहाड़की चोटीपर गायें चर रही थीं। दूरसे बछड़ोंको घास चरते देखकर वे उनके निकट आ गयीं और उनको चाटने तथा अपना अमृत तुल्य दूध पिलाने लगीं। राजन् ! गोपोंने देखा कि गायें बछड़ोंको दूध पिलाकर स्नेहके कारण गोवर्धनकी तलहटीमें ही रुक गयी हैं, तब वे अत्यन्त क्रोधमें भरकर पहाड़से नीचे उतरे और अपने बालकोंको दण्ड देनेके लिये शीघ्रतासे वहाँ पहुँचे । परंतु निकट पहुँचते ही (स्नेहके वशीभूत होकर ) गोपोंने अपने बालकोंको गोदमें उठा लिया। युवक अथवा वृद्ध – सभीके नेत्रोंमें स्नेहके आँसू आ गये और वे अपने पुत्र-पौत्रोंके साथ मिलकर वहाँ बैठ गये ॥ १ – १८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध उन्नीसवां अध्याय..(पोस्ट ०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध- उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

परीक्षित्‌ का अनशनव्रत और शुकदेवजी का आगमन

परीक्षिदुवाच ।

अहो अद्य वयं ब्रह्मन् सत्सेव्याः क्षत्रबन्धवः ।
कृपयातिथिरूपेण भवद्‌भिस्तीर्थकाः कृताः ॥ ३२ ॥
येषां संस्मरणात् पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः ।
किं पुनर्दर्शनस्पर्श पादशौचासनादिभिः ॥ ३३ ॥
सान्निध्यात्ते महायोगिन् पातकानि महान्त्यपि ।
सद्यो नश्यन्ति वै पुंसां विष्णोरिव सुरेतराः ॥ ३४ ॥
अपि मे भगवान् प्रीतः कृष्णः पाण्डुसुतप्रियः ।
पैतृष्वसेयप्रीत्यर्थं तद्‍गोत्रस्यात्तबान्धवः ॥ ३५ ॥

परीक्षित्‌ ने कहा—ब्रह्मस्वरूप भगवन् ! आज हम बड़भागी हुए; क्योंकि अपराधी क्षत्रिय होनेपर भी हमें संत-समागम का अधिकारी समझा गया। आज कृपापूर्वक अतिथिरूप से पधारकर आपने हमें तीर्थ के तुल्य पवित्र बना दिया ॥ ३२ ॥ आप-जैसे महात्माओं के स्मरणमात्र से ही गृहस्थों के घर तत्काल पवित्र हो जाते हैं; फिर दर्शन, स्पर्श, पादप्रक्षालन और आसन दानादि का सुअवसर मिलनेपर तो कहना ही क्या है ॥ ३३ ॥ महायोगिन् ! जैसे भगवान्‌ विष्णुके सामने दैत्यलोग नहीं ठहरते, वैसे ही आपकी सन्निधिसे बड़े-बड़े पाप भी तुरंत नष्ट हो जाते हैं ॥ ३४ ॥ अवश्य ही पाण्डवोंके सुहृद् भगवान्‌ श्रीकृष्ण मुझपर अत्यन्त प्रसन्न हैं; उन्होंने अपने फुफेरे भाइयोंकी प्रसन्नताके लिये उन्हींके कुलमें उत्पन्न हुए मेरे साथ भी अपनेपन का व्यवहार किया है ॥ ३५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


बुधवार, 26 जून 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) सातवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

सातवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

ब्रह्माजी के द्वारा गौओं, गोवत्सों एवं गोप-बालकों का हरण

 

बाला ऊचुः -
यस्य मातामहा मूढा शृणु नन्दकुमारक ।
न ज्ञानं भोजने तस्य तस्मात्स्वादु न विद्यते ॥ १९ ॥
ततो ददौ च कवलं श्रीदामा माधवाय च ।
अन्यान् सर्वान् बहुश्रेष्ठं जगुः सर्वे व्रजार्भकाः ॥ २० ॥
पुनः कृष्णाय प्रददौ कवलं च वरूथपः ।
अन्यान् बालान् तथा सर्वान् किंचित्किंचित्प्रयत्‍नतः ।
भुक्त्वा तु जहसुः सर्वे श्रीकृष्णाद्या व्रजार्भकाः ॥ २१ ॥


बालाः ऊचुः -
तादृशं भोजनञ्चास्य यादृशं सुबलस्य वै ॥ २२ ॥
भुक्त्वा‍त्युद्विग्नमनसः सर्वे वयमतः किल ।
एतं पृथक्पृथक् सर्वे दर्शयन्तः स्वभोजनम् ॥ २३ ॥
हासयन्तो हसन्तश्च चक्रुः क्रीडां परस्परम् ।
जठरस्य पटे वेणुं वेत्रं शृङ्‍गश्च कक्षके ॥ २४ ॥
वामे पाणौ च कवलं ह्यंगुलीषु फलानि च ।
शिरसा मुकुटं बिभ्रत्स्कन्धे पीतपटं तथा ॥ २५ ॥
हृदये वनमालाश्च कटौ काञ्चीं तथैव च ।
पादयोर्नूपुरौ बिभ्रच्छ्रीवत्सं कौस्तुभं हृदि ॥ २६ ॥
तिष्ठन् मध्ये गोपगोष्ठ्यां हासयन्नर्मभिः स्वकैः ।
स्वर्गे लोके च मिषति बुभुजे यज्ञभुग्‌हरिः ॥ २७ ॥
एवं कृष्णात्मनाथेषु भुंजानेष्वर्भकेषु च ।
विविशुर्गह्वरे दूरं तृणलोभेन वत्सकाः ॥ २८ ॥
विलोक्य तान् भयत्रस्तान् गोपान् कृष्ण उवाच ह ।
यूयं गच्छन्तु माहं तु ह्यानेष्ये वत्सकानिह ॥ २९ ॥
इत्युक्त्वा कृष्ण उत्थाय गृहीत्वा कवलं करे ।
विचिकाय दरीकुञ्जगह्वरे वत्सकान् स्वकान् ॥ ३० ॥
तदैव चाम्भोजभवः समागतो
     विलोक्य मुक्तिं ह्यघराक्षसस्य च ।
ददर्श कृष्णं मनसा यथारुचि
     भुंजानमन्नं व्रजबालकैः सह ॥ ३१ ॥
दृष्ट्वा च कृष्णं मनसा स ऊचे
     त्वयं हि गोपो न हि देवदेवः ।
हरिर्यदि स्याद्‌बहुकुत्सितान्ने
     कथं रतो वा व्रजगोपबालैः ॥ ३२ ॥
इत्युक्त्वा मोहितो ब्रह्मा मायया परमात्मनः ।
द्रष्टुं मञ्जु महत्त्वं तु मनश्चक्रे ह्यहो नृप ॥ ३३ ॥
सर्वान् वत्सानितो गोपान्नीत्वा खेऽवस्थितः पुरा ।
अन्तर्दधे विस्मितोऽजो दृष्ट्वाघासुरमोक्षणम् ॥ ३४ ॥

 

बालक बोले- 'नन्दनन्दन ! सुनो! जिसके नाना मूढ़ (मूर्ख) हैं, उसको भोजनका ज्ञान नहीं रहता। इसलिये तुमको स्वाद प्राप्त नहीं हुआ' ॥ १९ ॥

 

इसके उपरान्त श्रीदामाने माधव को और अन्य बालकोंको भोजन के ग्रास दिये । व्रज-बालकों ने उसको उत्तम बताकर उसकी बहुत प्रशंसा की। इसके बाद वरूथप नाम के एक बालक ने पुनः श्रीकृष्णको एवं अन्य बालकोंको आग्रहपूर्वक कौर दिये। श्रीकृष्ण आदि वे सभी लोग थोड़ा-थोड़ा खाकर हँसने लगे ।। २०-२१ ॥

 

बालकोंने कहा – 'यह भी सुबलके ग्रास-जैसा ही है। हम सभी उसे खाकर उद्विग्न हुए हैं।' इस प्रकार सभी ने अपने-अपने ग्रास चखाये और सभी परस्पर हँसने-हँसाने और खेलने लगे। कटिवस्त्र में वेणु, बगलमें लकुटी एवं सींगा, बायें हाथमें भोजन का कौर, अंगुलियोंके बीचमें फल, माथेपर मुकुट, कंधेपर पीला दुपट्टा, गलेमें वनमाला, कमर में करधनी, पैरोंमें नूपुर और हृदयपर श्रीवत्स तथा कौस्तुभमणि धारण किये हुए श्रीकृष्ण गोप-बालकोंके बीचमें बैठकर अपनी विनोदभरी बातोंसे बालकों को हँसाने लगे ।। २२-२६ ॥

 

इस प्रकार यज्ञभोक्ता श्रीहरि भोजन करने लगे, जिसको देवता एवं मनुष्य आश्चर्यचकित होकर देखते रहे । इस प्रकार श्रीकृष्णके द्वारा रक्षित बालकोंका जिस समय भोजन हो रहा था, उसी समय बछड़े घासकी लालचमें पड़कर दूरके एक गहन वनमें घुस गये । गोप-बालक भयसे व्याकुल हो गये। यह देखकर श्रीकृष्ण बोले- 'तुमलोग मत जाओ। मैं बछड़ोंको यहाँ ले आऊँगा ।' यों कहकर श्रीकृष्ण उठे और भोजनका कौर हाथमें लिये ही गुफाओं एवं कुञ्जोंमें तथा गहन वनमें बछड़ोंको ढूंढ़ने लगे ॥ २ - ३० ॥

 

जिस समय व्रजवासी बालकों के साथ श्रीकृष्ण यमुनातटपर रुचिपूर्वक भोजन कर रहे थे, उसी समय पद्मयोनि ब्रह्माजी अघासुरकी मुक्ति देखकर उसी स्थानपर पहुँच गये। इस दृश्यको देखकर ब्रह्माजी मन-ही-मन कहने लगे- 'ये तो देवाधिदेव श्रीहरि नहीं हैं, अपितु कोई गोपकुमार हैं। यदि ये श्रीहरि होते तो गोप-बालकोंके साथ इतने अपवित्र अन्नका

के साथ भोजन कैसे करते ?' राजन् ! ब्रह्माजी परमात्माकी मायासे मोहित होकर इस प्रकार बोल गये । उन्होंने उनकी (भगवान्‌की) मनोज्ञ महिमाको जाननेका निश्चय किया । ब्रह्माजी स्वयं आकाशमें अवस्थित थे। इसके उपरान्त अघासुर- उद्धारकी लीलाके दर्शनसे चकित होकर समस्त गायों-बछड़ों तथा गोप-बालकोंका हरण करके वे अन्तर्धान हो गये ॥ ३१ - ३४ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें श्रीवृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'ब्रह्माजीके द्वारा गौओं, गोवत्सों और गोप-बालकों का हरण' नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०१) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन श्र...