सोमवार, 22 जुलाई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट ०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

कामनाओं के अनुसार विभिन्न देवताओंकी उपासना तथा भगवद्भक्ति के प्राधान्य का निरूपण

एतावानेव यजतां इह निःश्रेयसोदयः ।
भगवत्यचलो भावो यद्‍भागवतसङ्गतः ॥ ११ ॥
    ज्ञानं यदाप्रतिनिवृत्तगुणोर्मिचक्रम् ।
आत्मप्रसाद उत यत्र गुणेष्वसङ्गः ।
    कैवल्यसम्मतपथस्त्वथ भक्तियोगः ।
को निर्वृतो हरिकथासु रतिं न कुर्यात् ॥ १२ ॥

शौनक उवाच ।

इत्यभिव्याहृतं राजा निशम्य भरतर्षभः ।
किमन्यत् पृष्टवान् भूयो वैयासकिं ऋषिं कविम् ॥ १३ ॥
एतद् शुश्रूषतां विद्वन् सूत नोऽर्हसि भाषितुम् ।
कथा हरिकथोदर्काः सतां स्युः सदसि ध्रुवम् ॥ १४ ॥

जितने भी उपासक हैं, उनका सबसे बड़ा हित इसीमें है कि वे भगवान्‌के प्रेमी भक्तोंका सङ्ग करके भगवान्‌ में अविचल प्रेम प्राप्त कर लें ॥ ११ ॥ ऐसे पुरुषोंके सत्सङ्ग में जो भगवान्‌ की लीला-कथाएँ होती हैं, उनसे उस दुर्लभ ज्ञानकी प्राप्ति होती है, जिससे संसार-सागरकी त्रिगुणमयी तरङ्गमालाओंके थपेड़े शान्त हो जाते हैं, हृदय शुद्ध होकर आनन्दका अनुभव होने लगता है, इन्द्रियों  के विषयों में आसक्ति नहीं रहती, कैवल्यमोक्ष का सर्वसम्मत मार्ग भक्तियोग प्राप्त हो जाता है। भगवान्‌ की ऐसी रसमयी कथाओंका चस्का लग जानेपर भला कौन ऐसा है, जो उनमें प्रेम न करे ॥ १२ ॥
शौनकजीने कहा—सूतजी ! राजा परीक्षित्‌ ने शुकदेवजीकी यह बात सुनकर उनसे और क्या पूछा ? वे तो सर्वज्ञ होनेके साथ-ही-साथ मधुर वर्णन करनेमें भी बड़े निपुण थे ॥ १३ ॥ सूतजी ! आप तो सब कुछ जानते हैं, हमलोग उनकी वह बातचीत बड़े प्रेमसे सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये। क्योंकि संतोंकी सभामें ऐसी ही बातें होती हैं, जिनका पर्यवसान भगवान्‌ की रसमयी लीला-कथामें ही होता है ॥ १४ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 21 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौदहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौदहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

कालिय का गरुड के भय से बचने के लिये यमुना-जल में निवास का रहस्य

 

कालिय उवाच -
हेभूमिभर्तर्भुवनेश भूमन्
     भूभारहृत्त्वं ह्यसि भूरिलीलः ।
मां पाहि पाहि प्रभविष्णुपूर्णः
     परात्परस्त्वं पुरुषः पुराणः ॥ २२ ॥

श्रीनारद उवाच -
दीनं भयातुरं दृष्ट्वा कालियं श्रीफणीश्वरः ।
वाचा मधुरया प्रीणन् प्राह देवोजनार्दनः ॥ २३ ॥


शेष उवाच -
हे कालिय महाबुद्धे श्रृणु मे परमं वचः ।
कुत्रापि न हि ते रक्षा भविष्यति न संशयः ॥ २४ ॥
आसीत्पुरा मुनिः सिद्धः सौभरिर्नाम नामतः ।
वृन्दारण्ये तपस्तप्तो वर्षाणामयुतं जले ॥ २५ ॥
मीनराजविहारं यो वीक्ष्य गेहस्पृहोऽभवत् ।
स उवाह महाबुद्धिः मांधातुस्तनुजाशतम् ॥ २६ ॥
तस्मै ददौ हरिः साक्षात् परां भागवतीं श्रियम् ।
वीक्ष्य तां नृप मांधाता विस्मितोऽभूद्‌गतस्मयः ॥ २७ ॥
यमुनांतर्जले दीर्घं सौभरेस्तपतस्तपः ।
पश्यतस्तस्य गरुडो मीनराजं जघान ह ॥ २८ ॥
मीनान्सुदुःखितान् दृष्ट्वा दुःसहा दीनवत्सलः ।
तस्मिन् शापौ ददौ क्रुद्धः सौभरिर्मुनिसत्तमः ॥ २९ ॥


सौभरिरुवाच -
मीनानद्यतनाद् अत्र यद्यत्सि त्वं बलाद्विराट् ।
तदैव र्पाणनाशस्ते भूयान्मे शापतस्त्वरम् ॥ ३० ॥


शेष उवाच -
तद्दिनात्तत्र नायाति गरुडः शापविह्वलः ।
तस्मात् कालिय गच्छाशु वृंदारण्ये हरेर्वने ॥ ३१ ॥
कालिंद्यां च निजं वासं कुरु मद्वाक्यनोदितः ।
निर्भयस्ते भयं तार्क्ष्यान् न भविष्यति कर्हिचित् ॥ ३२ ॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तः कालियो भीतः सकलत्रः सपुत्रकः ।
कालिंद्यां वासकृद् राजन् श्रीकृष्णेन विवासितः ॥ ३३ ॥

 

कालिय ने कहा - भूमिभर्ता भुवनेश्वर ! भूमन् ! भूमि-भारहारी प्रभो ! आपकी लीलाएँ अपार हैं, आप सर्वसमर्थ पूर्ण परात्पर पुराणपुरुष हैं; मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ २

 

नारदजी कहते हैं—कालियको दीन और भयातुर देख फणीश्वरदेव जनार्दनने मधुर वाणीसे उसको प्रसन्न करते हुए कहा ।। २।।

 

शेष बोले- महामते कालिय ! मेरी उत्तम बात सुनो। इसमें संदेह नहीं कि संसारमें कहीं भी तुम्हारी रक्षा नहीं होगी। (रक्षाका एक ही उपाय है; उसे बताता हूँ, सुनो — ) पूर्वकालमें सौभरि नामसे प्रसिद्ध एक सिद्ध मुनि थे । उन्होंने वृन्दावन में यमुनाके जलमें रहकर दस हजार वर्षोंतक तपस्या की ॥ २४-२५

 

उस जलमें मीनराजका विहार देखकर उनके मनमें भी घर बसानेकी इच्छा हुई। तब उन महाबुद्धि महर्षिने राजा मान्धाताकी सौ पुत्रियोंके साथ विवाह किया। श्रीहरिने उन्हें परम ऐश्वर्यशालिनी वैष्णवी सम्पत्ति प्रदान की, जिसे देखकर राजा मान्धाता आश्चर्यचकित हो गये और उनका धनविषयक सारा अभिमान जाता रहा ॥ २६-२७

 

यमुनाके जल में जब सौभरि मुनिकी दीर्घकालिक तपस्या चल रही थी, उन्हीं दिनों उनके देखते-देखते गरुड ने मीनराज को मार डाला। मीन- परिवा रको अत्यन्त दुःखी देखकर दूसरों का दुःख दूर करनेवाले दीनवत्सल मुनिश्रेष्ठ सौभरि ने कुपित हो गरुड को शाप दे दिया ॥ २८-२९

सौभरि बोले-पक्षिराज ! आजके दिन से लेकर भविष्य में यदि तुम इस कुण्डके भीतर बलपूर्वक मछलियों को खाओगे तो मेरे शापसे  उसी क्षण तुरंत तुम्हारे प्राणों का अन्त हो जायगा ॥ ३०

 

शेषजी कहते हैं—उस दिनसे मुनिके शापसे भयभीत हुए गरुड वहाँ कभी नहीं आते। इसलिये कालिय ! तुम मेरे कहनेसे शीघ्र ही श्रीहरिके विपिन - वृन्दावनमें चले जाओ। वहाँ यमुनामें निर्भय होकर अपना निवास नियत कर लो। वहाँ कभी तुम्हें गरुड से भय नहीं होगा ।। ३-३

 

नारदजी कहते हैं— राजन् ! शेषनागके यों कहनेपर भयभीत कालिय अपने स्त्री- बालकोंके साथ कालिन्दी में निवास करने लगा। फिर श्रीकृष्ण ने ही उसे यमुनाजल से निकालकर बाहर भेजा ॥ ३

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'कालियके उपाख्यानका वर्णन' नामक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट ०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

कामनाओं के अनुसार विभिन्न देवताओं की उपासना तथा भगवद्भक्ति के प्राधान्य का निरूपण

रूपाभिकामो गन्धर्वान् स्त्रीकामोऽप्सर उर्वशीम् ।
आधिपत्यकामः सर्वेषां यजेत परमेष्ठिनम् ॥ ६ ॥
यज्ञं यजेत् यशस्कामः कोशकामः प्रचेतसम् ।
विद्याकामस्तु गिरिशं दाम्पत्यार्थ उमां सतीम् ॥ ७ ॥
धर्मार्थ उत्तमश्लोकं तन्तुं तन्वन् पितॄन् यजेत् ।
रक्षाकामः पुण्यजनान् ओजस्कामो मरुद्‍गणान् ॥ ८ ॥
राज्यकामो मनून् देवान् निर्‌ऋतिं त्वभिचरन् यजेत् ।
कामकामो यजेत्सोमं अकामः पुरुषं परम् ॥ ९ ॥
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ॥ १० ॥

सौन्दर्यकी चाह से गन्धर्वों की, पत्नी की प्राप्ति के लिये उर्वशी अप्सरा की और सबका स्वामी बननेके लिये ब्रह्माकी आराधना करनी चाहिये ॥ ६ ॥ जिसे यशकी इच्छा हो वह यज्ञपुरुषकी, जिसे खजानेकी लालसा हो वह वरुणकी; विद्या प्राप्त करनेकी आकाङ्क्षा हो तो भगवान्‌ शङ्कर की और पति-पत्नीमें परस्पर प्रेम बनाये रखने के लिये पार्वतीजी की उपासना करनी चाहिये ॥ ७ ॥ धर्म उपार्जन करनेके लिये विष्णुभगवान्‌ की, वंशपरम्परा की रक्षाके लिये पितरोंकी, बाधाओंसे बचनेके लिये यक्षोंकी और बलवान् होनेके लिये मरुद्गणों की आराधना करनी चाहिये ॥ ८ ॥ राज्यके लिये मन्वन्तरोंके अधिपति देवोंको, अभिचारके लिये निर्ऋति को, भोगोंके लिये चन्द्रमाको और निष्कामता प्राप्त करनेके लिये परम पुरुष नारायण को भजना चाहिये ॥ ९ ॥ और जो बुद्धिमान् पुरुष है—वह चाहे निष्काम हो, समस्त कामनाओं से युक्त हो अथवा मोक्ष चाहता हो—उसे तो तीव्र भक्तियोगके द्वारा केवल पुरुषोत्तम भगवान्‌ की ही आराधना करनी चाहिये ॥ १० ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 सेP


शनिवार, 20 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) चौदहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

चौदहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

कालिय का गरुड के भय से बचने के लिये यमुना-जल में निवास का रहस्य

 

राजोवाच –

द्वीपे रमणके ब्रह्मन् सर्पान् अन्यान्विना कथम् ।
एतन्मे ब्रूहि सकलं कालियस्याभवद्‌भयम् ॥ १ ॥


श्रीनारद उवाच -
तत्र नागान्तको नित्यं नागसंघं जघान ह ।
गतक्षोभं चैकदा ते तार्क्ष्यं प्राहुर्भयातुराः ॥ २ ॥


नागाः ऊचुः -
हे गरुत्मन् नमस्तुभ्यं त्वं साक्षाद्‌विष्णुवाहनः ।
अस्मानत्सि यदा सर्पान् कथं नो जीवनं भवेत् ॥ ३ ॥
तस्माद्‌बलिं गृहाणाशु मासे मासे गृहात्पृथक् ।
वनस्पतिसुधान्नानां उपचारैर्विधानतः ॥ ४ ॥


गरुड उवाच -
एकः सर्पस्तु मे देयोभवद्‌भिर्वा गृहात्पृथक् ।
कथं पचामि तमृते बलिं वीटकवत्परम् ॥ ५ ॥


श्रीनारद उवाच -
तथास्तु चोक्तास्ते सर्वे गरुडाय महात्मने ।
गोपीथायात्मजो राजन् नित्यं दिव्यं बलिं ददुः ॥ ६ ॥
कालियस्य गृहस्यापि समयोऽभूद्‌यदा नृप ।
तदा तार्क्ष्यबलिं सर्वं बुभुजे कालियो बलात् ॥ ७ ॥
तदाऽऽगतः प्रकुपितो वेगतः कालियोपरि ।
चकार पादविक्षेपं गरुडश्चंडविक्रमः ॥ ८ ॥
गरुडांघ्रिप्रहारेण कालियो मूर्छितोऽभवत् ।
पुनरुत्थाय जिह्वाभिः प्रावलीढन् मुखं श्वसन् ॥ ९ ॥
प्रसार्य स्वं फणशतं कालियः फणिनां वरः ।
व्यदशद्‌गरुडं वेगाद्दद्‌भिर्विषमयैर्बली ॥ १० ॥
गृहीत्वा तं च तुंडेन गरुडो दिव्यवाहनः ।
भूपृष्ठे पोथयामास पक्षाभ्यां ताडयन्मुहुः ॥ ११ ॥
तुण्डाद्‌विनिर्गतः सर्पः तत्पक्षान्विचकर्ष ह
तत्पादौ वेष्टयंस्तुद्यन् फूत्कारं व्यदधन्मुहुः ॥ १२ ॥

तार्क्ष्यपक्षौ च पतितौ भूमध्ये द्वौ विरेजतु: ।

एकेन ब्रह्मिणोऽभूवन् नीलकंठा द्वितीयत: ॥ १३ ॥

 तेषां तु दर्शनं पुण्यं सर्वकामफलप्रदम् ।
शुक्लपक्षे मैथिलेंद्र दशम्यामाश्विनस्य तत् ॥ १४ ॥
कुपितो गरुडस्तं वै नीत्वा तुंडेन कालियम् ।
निपात्य भूम्यां सहसा तत्तनुं विचकर्ष ह ॥ १५ ॥
तदा दुद्राव तत्तुंडात् कालियो भयविह्वह्लः ।
तमन्वधावत् सहसा पक्षिराट् चंडविक्रमः ॥ १६ ॥
सप्त द्वीपान् सप्तखंडान् सप्तसिंधूंस्ततः फणी ।
यत्र यत्र गतस्तार्क्ष्यं तत्र तत्र ददर्श ह ॥ १७ ॥
भूर्लोकं च भुवर्लोकं स्वर्लोकं प्रगतः फणी ।
महर्लोकं ततो धावन् जनलोकं जगाम ह ॥ १८ ॥
यत्रैव गरुडे प्राप्तेऽ धोऽधो लोकं पुनर्गतः ।
श्रीकृष्णस्य भयात्केऽपि रक्षां तस्य न संदधुः ॥ १९ ॥
कुत्रापि न सुखे जाते कालियोऽपि भयातुरः ।
जगाम देवदेवस्य शेषस्य चरणांतिके ॥ २० ॥
नत्वा प्रणम्य तं शेषं परिक्रम्य कृतांजलिः ।
दीनो भयातुरः प्राह दीर्घपृष्ठ प्रकंपितः ॥ २१ ॥

 

राजा बहुलाश्वने पूछा- ब्रह्मन् ! रमणकद्वीपमें रहनेवाले अन्य सर्पोंको छोड़कर केवल कालियनाग- को ही गरुडसे भय क्यों हुआ ? यह सारी बात आप मुझे बताइये ॥ १ ॥

 

श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! रमणकद्वीपमें नागोंका विनाश करनेवाले गरुड प्रतिदिन जाकर बहुत-से नागोंका संहार करते थे। अतः एक दिन भयसे व्याकुल हुए वहाँके सपने उस द्वीपमें पहुँचे हुए क्षुब्ध गरुडसे इस प्रकार कहा ॥ २ ॥

 

नाग बोले- हे गरुत्मन् ! तुम्हें नमस्कार है। तुम साक्षात् भगवान् विष्णुके वाहन हो। जब इस प्रकार हम सर्पोंको खाते रहोगे तो हमारा जीवन कैसे सुरक्षित रहेगा। इसलिये प्रत्येक मासमें एक बार पृथक्-पृथक् एक-एक घरसे एक सर्पकी बलि ले लिया करो । उसके साथ वनस्पति तथा अमृतके समान मधुर अन्नकी सेवा भी प्रस्तुत की जायगी। यह सब विधानके अनुसार तुम शीघ्र स्वीकार करो ॥ ३-४ ॥

 

गरुडजी बोले- आपलोग एक-एक घरसे एक-एक नागकी बलि प्रतिदिन दिया करें; अन्यथा सर्पके बिना दूसरी वस्तुओंकी बलिसे मैं कैसे पेट भर सकूँगा ? वह तो मेरे लिये पानके बीड़ेके तुल्य होगी ॥ ५

 

नारदजी कहते हैं- राजन् ! उनके यों कहनेपर सब सपने आत्मरक्षाके लिये एक-एक करके उन महात्मा गरुडके लिये नित्य दिव्य बलि देना आरम्भ किया ॥ ६ ॥

 

नरेश्वर ! जब कालियके घरसे बलि मिलनेका अवसर आया, तब उसने गरुडको दी जानेवाली बलिकी सारी वस्तुएँ बलपूर्वक स्वयं ही भक्षण कर लीं। उस समय प्रचण्ड पराक्रमी गरुड बड़े रोषमें भरकर आये। आते ही उन्होंने कालियनागके ऊपर अपने पंजेसे प्रहार किया। गरुडके उस पाद-प्रहारसे कालिय मूर्च्छित हो गया। फिर उठकर लंबी साँस लेते और जिह्वाओं से मुँह चाटते हुए नागोंमें श्रेष्ठ बलवान् कालियने अपने सौ फण फैलाकर विषैले दाँतोंसे गरुडको वेगपूर्वक डँस लिया ॥ ९-१०

 

तब दिव्य वाहन गरुड- ने उसे चोंच में पकड़कर पृथ्वीपर दे मारा और पाँखों से बारंबार पीटना आरम्भ किया । गरुड की चोंच से निकल कर सर्पने उनके दोनों पंजों को आवेष्टित कर लिया और बारंबार फुंकार करते हुए उनकी पाँखोंको खींचना आरम्भ किया ॥ ११-१२

 

उस समय उनकी पाँखसे दो पक्षी उत्पन्न हुए — नीलकण्ठ और मयूर । मिथिलेश्वर ! आश्विन शुक्ला दशमीको उन पक्षियोंका दर्शन पवित्र एवं सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंका देनेवाला माना गया है ॥ १३-१४

 

रोष से भरे हुए गरुड ने पुनः कालिय को चोंच से पकड़कर पृथ्वी पर पटक दिया और सहसा वे उसके शरीर को घसीटने लगे। तब भयसे विह्वल हुआ कालिय गरुडकी चोंचसे छूटकर भागा। प्रचण्ड पराक्रमी पक्षिराज गरुड भी सहसा उसका पीछा करने लगे । सात द्वीपों, सात खण्डों और सात समुद्रोंतक वह जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ उसने गरुडको पीछा करते देखा । वह नाग भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक और महर्लोकमें क्रमशः जा पहुँचा और वहाँसे भागता हुआ जनलोकमें पहुँच गया ॥ १५-१८

 

जहाँ जाता, वहीं गरुड भी पहुँच जाते । इसलिये वह पुनः नीचे-नीचेके लोकोंमें क्रमशः गया; किंतु श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) के भयसे किसीने उसकी रक्षा नहीं की। जब उसे कहीं भी चैन नहीं मिली, तब भयसे व्याकुल कालिय देवाधिदेव शेषके चरणोंके निकट गया और भगवान् शेषको प्रणाम करके परिक्रमापूर्वक हाथ जोड़ विशाल पृष्ठवाला कालिय दीन, भयातुर और कम्पित होकर बोला ॥ १९- २

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट ०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

कामनाओं के अनुसार विभिन्न देवताओं की उपासना तथा भगवद्भक्ति के प्राधान्य का निरूपण

श्रीशुक उवाच ।

एवमेतन्निगदितं पृष्टवान् यद् भवान् मम ।
नृणां यन्म्रियमाणानां मनुष्येषु मनीषिणाम् ॥ १ ॥
ब्रह्मवर्चसकामस्तु यजेत ब्रह्मणस्पतिम् ।
इन्द्रं इन्द्रियकामस्तु प्रजाकामः प्रजापतीन् ॥ २ ॥
देवीं मायां तु श्रीकामः तेजस्कामो विभावसुम् ।
वसुकामो वसून् रुद्रान् वीर्यकामोऽथ वीर्यवान् ॥ ३ ॥
अन्नाद्यकामस्तु अदितिं स्वर्गकामोऽदितेः सुतान् ।
विश्वान् देवान् राज्यकामः साध्यान् संसाधको विशाम् ॥ ४ ॥
आयुष्कामोऽश्विनौ देवौ पुष्टिकाम इलां यजेत् ।
प्रतिष्ठाकामः पुरुषो रोदसी लोकमातरौ ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—परीक्षित्‌ ! तुमने मुझसे जो पूछा था कि मरते समय बुद्धिमान् मनुष्यको क्या करना चाहिये, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया ॥ १ ॥ जो ब्रह्मतेज का इच्छुक हो, वह बृहस्पतिकी; जिसे इन्द्रियोंकी विशेष शक्तिकी कामना हो, वह इन्द्रकी और जिसे सन्तानकी लालसा हो, वह प्रजापतियोंकी उपासना करे ॥ २ ॥ जिसे लक्ष्मी चाहिये वह मायादेवीकी, जिसे तेज चाहिये वह अग्रि की, जिसे धन चाहिये वह वसुओं की और जिस प्रभावशाली पुरुष को वीरता की चाह हो उसे रुद्रोंकी उपासना करनी चाहिये ॥ ३ ॥ जिसे बहुत अन्न प्राप्त करनेकी इच्छा हो वह अदितिका; जिसे स्वर्गकी कामना हो वह अदितिके पुत्र देवताओंका, जिसे राज्यकी अभिलाषा हो वह विश्वेदेवोंका और जो प्रजाको अपने अनुकूल बनानेकी इच्छा रखता हो उसे साध्य देवताओंका आराधन करना चाहिये ॥ ४ ॥ आयुकी इच्छा से अश्विनीकुमारों का, पुष्टि की इच्छासे पृथ्वीका और प्रतिष्ठा की चाह हो तो लोकमाता पृथ्वी और द्यौ (आकाश) का सेवन करना चाहिये ॥ ५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 19 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 03 )

 

मुनिवर वेदशिरा और अश्वशिरा का परस्पर के श्राप से क्रमशः कालियनाग और काकभुशुण्ड होना तथा शेषनाग का भूमण्डल को धारण करना

 

शेष उवाच -
अवधिं कुरु यावत्त्वं धरोद्धारस्य मे प्रभो ।
भूभारं धारयिष्यामि तावत्ते वचनादिह ॥ २५ ॥


श्रीभगवानुवाच -
नित्यं सहस्रवदनैरुच्चारं च पृथक् पृथक् ।
मद्‌गुणस्फुरतां नाम्नां कुरु सर्पेंद्र सर्वतः ॥ २६ ॥
मन्नामानि च दिव्यानि यदा यांत्यवसानताम् ।
तदा भूभारमुत्तार्य फणिस्त्वं सुसुखी भव ॥ २७ ॥


शेष उवाच -
आधारोऽहं भविष्यामि मदाधारश्च को भवेत् ।
निराधारः कथं तोये तिष्ठामि कथय प्रभो ॥ २८ ॥


श्रीभगवानुवाच -
अहं च कमठो भूत्वा धारयिष्यामि ते तनुम् ।
महाभारमयीं दीर्घां मा शोचं क्रु मत्सखे ॥ २९ ॥


श्रीनारद उवाच -
तदा शेषः समुत्थाय नत्वा श्रीगरुडध्वजम् ।
जगाम नृप पातालादधो वै लक्षयोजनम् ॥ ३० ॥
गृहीत्वा स्वकरेणेदं गरिष्ठं भूमिमंडलम् ।
दधार स्वफणे शेषोऽप्येकस्मिंश्चंडविक्रमः ॥ ३१ ॥
संकर्षणेऽथ पाताले गतेऽनन्तपरात्परे ।
अन्ये फणीन्द्रास्तमनु विविशुर्ब्रह्मणोदिताः ॥ ३२ ॥
अतले वितले केचित्सुतले च महातले ।
तलातले तथा केचित्संप्राप्तास्ते रसातले ॥ ३३ ॥
तेभ्यस्तु ब्रह्मणा दत्तं द्वीपं रमणकं भुवि ।
कालियप्रमुखास्तस्मिन् अवसन्सुखसंवृताः ॥ ३४ ॥
इति ते कथितं राजन् कालियस्य कथानकम् ।
भुक्तिदं मुक्तिदं सारं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३५ ॥

 

शेषने कहा - प्रभो ! पृथ्वीका भार उठानेके लिये आप कोई अवधि निश्चित कर दीजिये। जितने दिनकी अवधि होगी, उतने समयतक मैं आपकी आज्ञासे भूमि का भार अपने सिरपर धारण करूँगा ।। २५ ।।

 

श्रीभगवान् बोले – नागराज ! तुम अपने सहस्र मुखोंसे प्रतिदिन पृथक्-पृथक् मेरे गुणोंसे स्फुरित होनेवाले नूतन नामोंका सब ओर उच्चारण किया करो। जब मेरे दिव्य नाम समाप्त हो जायँ, तब तुम अपने सिरसे पृथ्वीका भार उतारकर सुखी हो जाना ।। २६-२७ ॥

 

शेष ने कहा - प्रभो ! पृथ्वीका आधार तो मैं हो जाऊँगा, किंतु मेरा आधार कौन होगा ? बिना किसी आधारके मैं जल के ऊपर कैसे स्थित रहूँगा ? ॥ २८ ॥

 

श्रीभगवान् बोले- मेरे मित्र ! इसकी चिन्ता मत करो। मैं 'कच्छप' बनकर महान् भारसे युक्त तुम्हारे विशाल शरीर को धारण करूँगा ॥ २९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! तब शेषने उठकर भगवान् श्रीगरुडध्वजको नमस्कार किया । फिर वे पातालसे लाख योजन नीचे चले गये । वहाँ अपने हाथसे इस अत्यन्त गुरुतर भूमण्डलको पकड़कर प्रचण्ड पराक्रमी शेषने अपने एक ही फनपर धारण कर लिया । परात्पर अनन्तदेव संकर्षणके पाताल चले जानेपर ब्रह्माजीकी प्रेरणासे अन्यान्य नागराज भी उनके पीछे-पीछे चले गये। कोई अतलमें, कोई वितलमें, कोई सुतल और महातलमें तथा कितने ही तलातल एवं रसातलमें जाकर रहने लगे। ब्रह्माजीने उन सपक लिये पृथ्वीपर 'रमणकद्वीप' प्रदान किया था। कालिय आदि नाग उसीमें सुखपूर्वक निवास करने लगे। राजन् ! इस प्रकार मैंने तुमसे कालियका कथानक कह सुनाया, जो सारभूत तथा भोग और मोक्ष देनेवाला है। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ३० – ३५ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्ग संहितामें वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'शेषके उपाख्यानका वर्णन' नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट ११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट११)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

भगवान् ब्रह्म कार्त्स्न्येन त्रिरन् वीक्ष्य मनीषया ।
तदध्यवस्यत् कूटस्थो रतिरात्मन् यतो भवेत् ॥ ३४ ॥
भगवान् सर्वभूतेषु लक्षितः स्वात्मना हरिः ।
दृश्यैर्बुद्ध्यादिभिर्द्रष्टा लक्षणैः अनुमापकैः ॥ ३५ ॥
तस्मात् सर्वात्मना राजन् हरिः सर्वत्र सर्वदा ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च स्मर्तव्यो भगवान् नृणाम् ॥ ३६ ॥
पिबन्ति ये भगवत आत्मनः
    सतां कथामृतं श्रवणपुटेषु सम्भृतम् ।
पुनन्ति ते विषयविदूषिताशयं
    व्रजन्ति तच्चरणसरोरुहान्तिकम् ॥ ३७ ॥

भगवान्‌ ब्रह्माने एकाग्र चित्तसे सारे वेदोंका तीन बार अनुशीलन करके अपनी बुद्धिसे यही निश्चय किया कि जिससे सर्वात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रति अनन्य प्रेम प्राप्त हो, वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है ॥ ३४ ॥ समस्त चर-अचर प्राणियोंमें उनके आत्मारूप से भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही लक्षित होते हैं; क्योंकि ये बुद्धि आदि दृश्य पदार्थ उनका अनुमान करानेवाले लक्षण हैं, वे इन सबके साक्षी एकमात्र द्रष्टा हैं ॥ ३५ ॥ परीक्षित्‌ ! इसलिये मनुष्योंको चाहिये कि सब समय और सभी स्थितियोंमें अपनी सम्पूर्ण शक्तिसे भगवान्‌ श्रीहरिका ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण करें ॥ ३६ ॥ राजन् ! संत पुरुष आत्मस्वरूप भगवान्‌की कथाका मधुर अमृत बाँटते ही रहते हैं; जो अपने कान के दोनों में भर-भरकर उनका पान करते हैं, उनके हृदयसे विषयोंका विषैला प्रभाव जाता रहता है, वह शुद्ध हो जाता है और वे भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंकी सन्निधि प्राप्त कर लेते हैं ॥ ३७ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गुरुवार, 18 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 02 )

 

मुनिवर वेदशिरा और अश्वशिरा का परस्पर के श्राप से क्रमशः कालियनाग और काकभुशुण्ड होना तथा शेषनाग का भूमण्डल को धारण करना

 

श्रीनारद उवाच -
उत्युक्त्वाथ गते विष्णौ मुनिरश्वशिरा नृप ।
साक्षात्काकभुषंडोऽभूद्‌योगींद्रो नीलपर्वते ॥ १५ ॥
रामभक्तो महातेजाः सर्वशास्त्रार्थदीपकः ।
रामायणं जगौ यो वै गरुडाय महात्मने ॥ १६ ॥
चाक्षुषे ह्यन्तरे प्राप्ते दक्षः प्राचेतसो नृप ।
कश्यपाय ददौ कन्या एकादश मनोहराः ॥ १७ ॥
तासां कद्रूश्च या श्रेष्ठा साऽद्यैव रोहिणी स्मृता ।
वसुदेवप्रिया यस्यां बलदेवोऽभवत्सुतः ॥ १८ ॥
सा कद्रूश्च महासर्पान् जनयामास कोटिशः ।
महोद्‌भटान् विषबलानुग्रान् पंचशताननान् ॥ १९ ॥
महाफणिधरान् कांश्चिद्दुःसहांश्च शताननान् ।
तेषां वेदशिरा नाम कालियोऽभून्महाफणी ॥ २० ॥
तेषामादौ फणीन्द्रोऽभूच्छेषोऽनन्तः परात्परः ।
सोऽद्यैव बलदेवोऽस्ति रामोऽनन्तोऽच्युताग्रजः ॥ २१ ॥
एकदा श्रीहरिः साक्षाद्‌भगवान् प्रकृतेः परः ।
शेषं प्राह प्रसन्नात्मा मेघगंभीरया गिरा ॥ २२ ॥


श्रीभगवानुवाच –

भूमंडलं समाधातुं सामर्थ्यं कस्यचिन्न हि ।
तस्मादेनं महीगोलं मूर्ध्नि तं हि समुद्धर ॥ २३ ॥
अनंतविक्रमस्त्वं वै यतोऽनन्त इति स्मृतः ।
इदं कार्यं प्रकर्तव्यं जनकल्याणहेतवे ॥ २४ ॥

नारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! यों कहकर भगवान् विष्णु जब चले गये, तब अश्वशिरा मुनि साक्षात् योगीन्द्र काकभुशुण्ड हो गये और नीलपर्वतपर रहने लगे। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थको प्रकाशित करनेवाले महातेजस्वी रामभक्त हो गये। उन्होंने ही महात्मा गरुडको रामायणकी कथा सुनायी थी ।। १५-१६॥

 

मिथिलानरेश ! चाक्षुष मन्वन्तर के प्रारम्भ में प्रचेताओं के पुत्र प्रजापति दक्ष ने महर्षि कश्यप को अपनी परम मनोहर ग्यारह कन्याएँ पत्नीरूपमें प्रदान कीं। उन कन्याओं में जो श्रेष्ठ कद्रू थी, वही इस समय वसुदेवप्रिया रोहिणी होकर प्रकट हुई हैं, जिनके पुत्र बलदेवजी हैं। उस कद्रूने करोड़ों महासर्पों को जन्म दिया। वे सभी सर्प अत्यन्त उद्भट, विषरूपी बलसे सम्पन्न, उग्र तथा पाँच सौ फनों से युक्त थे ॥ १७-१९

 

वे महान् मणिरत्न धारण किये रहते थे। उनमें से कोई-कोई सौ मुखोंवाले एवं दुस्सह विषधर थे। उन्हींमें वेदशिरा 'कालिय' नामसे प्रसिद्ध महानाग हुए। उन सबमें प्रथम राजा फणिराज शेष हुए, जो अनन्त एवं परात्पर परमेश्वर हैं। वे ही आजकल 'बलदेव' के नामसे प्रसिद्ध हैं। वे ही राम, अनन्त और अच्युताग्रज आदि नाम धारण करते हैं ।। २० - २१ ॥

 

एक दिनकी बात है। प्रकृतिसे परे साक्षात् भगवान् श्रीहरिने प्रसन्नचित्त होकर मेघके समान गम्भीर वाणीमें शेषसे कहा ॥ २२ ॥

 

श्रीभगवान् बोले- इस भूमण्डलको अपने ऊपर धारण करनेकी शक्ति दूसरे किसीमें नहीं है, इसलिये इस भूगोलको तुम्हीं अपने मस्तकपर धारण करो। तुम्हारा पराक्रम अनन्त है, इसीलिये तुम्हें 'अनन्त' कहा गया है। जन-कल्याणके हेतु तुम्हें यह कार्य अवश्य करना चाहिये ।। २३-२४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट १०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
द्वितीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट१०)

भगवान्‌ के स्थूल और सूक्ष्म रूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

तेनात्मनात्मानमुपैति शान्तं
    आनंदमानंदमयोऽवसाने ।
एतां गतिं भागवतीं गतो यः
    स वै पुनर्नेह विषज्जतेऽङ्ग ॥ ३१ ॥
एते सृती ते नृप वेदगीते
    त्वयाभिपृष्टे च सनातने च ।
ये वै पुरा ब्रह्मण आह तुष्ट
    आराधितो भगवान् वासुदेवः ॥ ३२ ॥
न ह्यतोऽन्यः शिवः पन्था विशतः संसृताविह ।
वासुदेवे भगवति भक्तियोगो यतो भवेत् ॥ ३३ ॥

परीक्षित्‌ ! महाप्रलय के समय प्रकृतिरूप आवरण का भी लय हो जानेपर वह योगी स्वयं आनन्दस्वरूप होकर अपने उस निरावरण रूपसे आनन्दस्वरूप शान्त परमात्माको प्राप्त हो जाता है। जिसे इस भगवन्मयी गतिकी प्राप्ति हो जाती है, उसे फिर इस संसारमें नहीं आना पड़ता ॥ ३१ ॥ परीक्षित्‌ ! तुमने जो पूछा था, उसके उत्तर में मैंने वेदोक्त द्विविध सनातन मार्ग सद्योमुक्ति और क्रममुक्ति का तुमसे वर्णन किया। पहले ब्रह्माजीने भगवान्‌ वासुदेवकी आराधना करके उनसे जब प्रश्न किया था, तब उन्होंने उत्तरमें इन्हीं दोनों मार्गों की बात ब्रह्माजीसे कही थी ॥ ३२ ॥
संसार-चक्रमें पड़े हुए मनुष्यके लिये, जिस साधनके द्वारा उसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाय, उसके अतिरिक्त और कोई भी कल्याणकारी मार्ग नहीं है ॥ ३३ ॥ 

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बुधवार, 17 जुलाई 2024

श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

( श्रीवृन्दावनखण्ड )

तेरहवाँ अध्याय ( पोस्ट 01 )

 

मुनिवर वेदशिरा और अश्वशिरा का परस्पर के श्राप से क्रमशः कालियनाग और काकभुशुण्ड होना तथा शेषनाग का भूमण्डल को धारण करना

 

वैदेह उवाच -
यद्‌रजो दुर्लभं लोके योगिनां बहुजन्मभिः ।
तत्पादाब्जं हरेः साक्षाद्‌बभौ कालियमूर्द्धसु ॥ १ ॥
कोऽयं पूर्वं कुशलकृत्कालियो फणिनां वरः ।
एनं वेदितुमिच्छामि ब्रूहि देवर्षिसत्तम ॥ २ ॥


श्रीनारद उवाच -
स्वायंभुवान्तरे पूर्वं नाम्ना वेदशिरा मुनिः ।
विंध्याचले तपोऽकार्षीद्‌भृगुवंशसमुद्‌भवः ॥ ३ ॥
तदाश्रमे तपः कर्तुं प्राप्तो ह्यश्वशिरा मुनिः ।
तं वीक्ष्य रक्तनयनः प्राह वेदशिरा रुषा ॥ ४ ॥


वेदशिरा उवाच -
ममाश्रमे तपो विप्र मा कुर्याः सुखदं न हि ।
अन्यत्र ते तपोयोग्या भूमिर्नास्ति तपोधन ॥ ५ ॥


श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वाऽथ वेदशिरसो वाक्यं ह्यश्वशिरा मुनिः ।
क्रोधयुक्तो रक्तनेत्रः प्राह तं मुनिपुंगवम् ॥ ६ ॥


अश्वशिरा उवाच -
महाविष्णोरियं भूमिः न ते मे मुनिसत्तम ।
कतिभिर्मुनिभिश्चात्र न कृतं तप उत्तमम् ॥ ७ ॥
श्वसन् सर्प इव त्वं भो वृथा क्रोधं करोषि हि ।
तदा सर्पो भव त्वं हि भूयात्ते गरुडाद्‌भयम् ॥ ८ ॥


वेदशिरा उवाच -
त्वं महादुरभिप्रायो लघुद्रोहे महोद्यमः ।
कार्यार्थी काम इव कौ त्वं काको भव दुर्मते ॥ ९ ॥
आविरासीत्ततो विष्णुरित्थं च शपतोस्तयोः ।
स्वस्वशापाद्दुःखितयोः सांत्वयामास तौ गिरा ॥ १० ॥


श्रीभगवानुवाच -
युवां तु मे समौ भक्तौ भुजाविव तनौ मुनी ।
स्ववाक्यं तु मृषा कर्तुं समर्थोऽहं मुनीश्वरौ ॥ ११ ॥
भक्तवाक्यं मृषा कर्तुं नेच्छामि शपथो मम ।
ते मूर्ध्नि हे वेदशिरः चरणौ मे भविष्यतः ॥ १२ ॥
तदा ते गरुडाद्‌भीतिः न भविष्यति कर्हिचित् ।
शृणु मेऽश्वशिरो वाक्यं शोचं मा कुरु मा कुरु ॥ १३ ॥
काकरूपेऽपि सुज्ञानं ते भविष्यति निश्चितम् ।
परं त्रैकालिकं ज्ञानं संयुतं योगसिद्धिभिः ॥ १४ ॥

विदेहराज बहुलाश्वने पूछा- देवर्षे ! संसारमें जिनकी धूलि अनेक जन्मोंमें योगियोंके लिये भी दुर्लभ है, भगवान्‌के साक्षात् वे ही चरणारविन्द कालियके मस्तकोंपर सुशोभित हुए। नागोंमें श्रेष्ठ यह = कालिय पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्य कर्म कर चुका था, जिससे इसको यह सौभाग्य प्राप्त हुआ— यह मैं जानना चाहता हूँ। देवर्षिशिरोमणे ! यह बात मुझे बताइये ॥ १-२ ॥

 

नारदजीने कहा- राजन् ! पूर्वकालकी बात है। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें वेदशिरा नामक मुनि, जिनकी उत्पत्ति भृगुवंशमें हुई थी, विन्ध्य पर्वतपर तपस्या करते थे। उन्हींके आश्रमपर तपस्या करनेके लिये अश्वशिरा मुनि आये। उन्हें देखकर वेदशिरा मुनिके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और वे रोषपूर्वक बोले ।। ३-४ ॥

 

वेदशिराने कहा - ब्रह्मन् ! मेरे आश्रममें तुम तपस्या न करो; क्योंकि वह सुखद नहीं होगी । तपोधन ! क्या और कहीं तुम्हारे तपके योग्य भूमि नहीं है ? ॥ ५ ॥

 

नारदजी कहते हैं- राजन् ! वेदशिराकी यह बात सुनकर अश्वशिरा मुनिके भी नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और वे मुनिपुंगवसे बोले ॥ ६ ॥

 

अश्वशिराने कहा – मुनिश्रेष्ठ ! यह भूमि तो महाविष्णुकी है; न तुम्हारी है न मेरी यहाँ कितने

मुनियोंने उत्तम तपका अनुष्ठान नहीं किया है ? तुम व्यर्थ ही सर्पकी तरह फुफकारते हुए क्रोध प्रकट करते हो, इसलिये सदाके लिये सर्प हो जाओ और तुम्हें गरुडसे भय प्राप्त हो । ७-८ ।।

 

वेदशिरा बोले- दुर्मते ! तुम्हारा भाव बड़ा ही बडा दूषित हैं। तुम छोटे-से द्रोह या अपराधपर भी महान् दण्ड देनेके लिये उद्यत रहते हो और अपना काम बनानेके लिये कौएकी तरह इस पृथ्वीपर डोलते-फिरते हो; अतः तुम भी कौआ हो जाओ ।। ९ ।।

नारदजी कहते हैं— इसी समय भगवान् विष्णु परस्पर शाप देते हुए दोनों ऋषियोंके बीच प्रकट हो गये वे दोनों अपने-अपने शापसे बहुत दुखी थे । भगवान् ने अपनी वाणीद्वारा उन दोनोंको सान्त्वना दी ॥ १० ॥

 

श्रीभगवान् बोले – मुनियो ! जैसे शरीरमें दोनों भुजाएँ समान हैं, उसी प्रकार तुम दोनों समानरूपसे मेरे भक्त हो । मुनीश्वरो ! मैं अपनी बात तो झूठी कर सकता हूँ, परंतु भक्तकी बातको मिथ्या करना नहीं चाहता यह मेरी प्रतिज्ञा है । वेदशिरा ! सर्पकी अवस्थामें तुम्हारे मस्तकपर मेरे दोनों चरण अङ्कित होंगे। उस समयसे तुम्हें गरुडसे कदापि भय नहीं होगा । अश्वशिरा ! अब तुम मेरी बात सुनो। सोच न करो, सोच न करो । काकरूपमें रहनेपर भी तुम्हें निश्चय ही उत्तम ज्ञान प्राप्त होगा। योगसिद्धियोंसे युक्त उच्चकोटिका त्रिकालदर्शी ज्ञान सुलभ होगा ।। ११ – १४ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति स त्...