श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
बाईसवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
गोपाङ्गनाओंद्वारा
श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर
हंसमुनिके उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका
दर्शन कराना
चंद्रं
प्रतप्तकिरणज्वलनं प्रसन्नं
सर्वं वनांतमसिपत्रवनप्रवेशम् ।
बाणं प्रभंजनमतीव सुमन्दयानं
मन्यामहे किल भवन्तमृते व्यथार्ताः ॥
८ ॥
सौदासराजमहिषीविरहादतीव
जातं सहस्रगुणितं नलपट्टराज्ञ्याः ।
तस्मात्तु कोटिगुणितं जनकात्मजायाः
तस्मादनंतमतिदुःखमलं हरे नः ॥ ९ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्थं राज रुदन्तीनां गोपीनां कमलेक्षणः ।
आविर्बभूव सहसा स्वयमर्थमिवात्मनः ॥ १० ॥
स्फुरत्किरीटकेयूर कुंडलांगदभूषणम् ।
स्निग्धामलसुगन्धाढ्यनीलकुंचितकुंतलम् ॥ ११ ॥
आगतं वीक्ष्य युगपत् समुत्तस्थुर्व्रजांगनाः ।
तन्मात्राणि च यं दृष्ट्वा यथा ज्ञानेंद्रियाणि च ॥ १२ ॥
हरिर्ननर्त तन्मध्ये वंशीवादनतत्परः ।
राधया सहितो राजन् यथा रत्या रतीश्वरः ॥ १३ ॥
यावतीर्गोपिकाः सर्वास्तावद्रूपधरो हरिः ।
गच्छन् ताभिर्व्रजे रेमे स्वावस्थाभिर्मनो यथा ॥ १४ ॥
वनोद्देशे स्थितं कृष्णं गतदुःखा व्रजांगनाः ।
कृतांजलिपुटा ऊचुर्गिरा गद्गदया हरिम् ॥ १५ ॥
गोप्य
ऊचुः -
क्व गतस्त्वं वद हरे त्यक्त्वा गोपीगणो महान् ।
सर्वं जगत्तृणीकृत्य त्वत्पादे प्राप्तमानसम् ॥ १६ ॥
प्राणनाथ ! तुम्हारे
बिना वियोग-व्यथासे पीड़ित हुई हम सब गोपियोंको चन्द्रमा सूर्यकी किरणोंके समान दाहक
प्रतीत होता है । यह सम्पूर्ण वनान्त-भाग जो पहले प्रसन्नताका केन्द्र था, अब इसमें
आनेपर ऐसा जान पड़ता है, मानो हमलोग असिपत्रवन में प्रविष्ट हो
गयी हैं और अत्यन्त मन्द मन्द गतिसे प्रवाहित होनेवाली वायु हमें बाण-सी लगती है। हरे
! राजा सौदासकी रानी मदयन्तीको अपने पतिके विरहसे जो दुःख हुआ था, उससे हजारगुना दुःख
नलकी महारानी दमयन्तीको पति वियोगके कारण प्राप्त हुआ था । उनसे भी कोटिगुना अधिक दुःख
पतिविरहिणी जनकनन्दिनी सीताको हुआ था और उनसे भी अनन्तगुना अधिक दुःख आज हम सबको हो
रहा है ॥ ८ - ९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! इस प्रकार रोती हुई गोपाङ्गनाओंके बीच में कमलनयन श्रीकृष्ण सहसा प्रकट हो
गये, मानो अपना अभीष्ट मनोरथ स्वयं आकर मिल गया हो। उनके मस्तकपर किरीट, भुजाओंमें
केयूर और अङ्गद तथा कानोंमें कुण्डल नामक भूषण अपनी दीप्ति फैला रहे थे। स्निग्ध, निर्मल,
सुगन्धपूर्ण, नीले, घुँघराले केश-कलाप मनको मोहे लेते थे ॥ १०-११ ॥
उन्हें आया हुआ देख समस्त
व्रजाङ्गनाएँ एक साथ उठकर खड़ी हो गयीं, जैसे शब्दादि सूक्ष्म- भूतोंके समूहको देखकर
ज्ञानेन्द्रियाँ सहसा सचेष्ट हो जाती हैं। राजन् ! उन गोपसुन्दरियोंके मध्यभागमें राधाके
साथ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाते हुए इस प्रकार नृत्य करने लगे, मानो रतिके
साथ मूर्तिमान् काम नाच रहा हो। जितनी संख्यामें समस्त गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण
करके श्रीहरि उनके साथ व्रजमें रास-विहार करने लगे-ठीक उसी तरह, जैसे जाग्रत् आदि अवस्थाओं के साथ मन क्रीड़ा कर रहा हो। उस समय उस वनप्रदेश में
दुःखरहित हुई व्रजाङ्गनाएँ वहाँ खड़े हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण से
हाथ जोड़ गद्गद वाणी में बोलीं ॥। १२ -
१५ ॥
गोपियोंने पूछा – श्यामसुन्दर
! जो सारे जगत्- को तिनकेकी भाँति त्यागकर तुम्हारे चरणारविन्दोंमें अपना तन, मन और
प्राण अर्पित कर चुकी हैं, उन्हीं इन गोपियोंके इस महान् समुदायको छोड़कर तुम कहाँ
चले गये थे ? । ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से