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शुक्रवार, 16 अगस्त 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०६)
गुरुवार, 15 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 04)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 04)
गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका
स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके
उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन
कराना
अथ गोपीगणैः सार्धं यमुनामेत्य माधवः ।
कालिन्दीजलवेगेषु जलकेलिं चकार ह ॥ ३१ ॥
राधाकराल्लक्षदलं पद्मं पीताम्बरं तथा ।
धावन् जलेषु गतवान् प्रहसन् माधवः स्वयम् ॥ ३२ ॥
राधा हरेः पीतपटं वशीवेत्रस्फुरत्प्रभम् ।
गृहीत्वा प्रसहन्ती सा गच्छन्ती यमुनाजले ॥ ३३ ॥
वंशीं देहीति वदतः श्रीकृष्णस्य महात्मनः ।
राधा जगाद कमलं वासो देहीति माधव ॥ ३४ ॥
कृष्णो ददौ राधिकायै पद्ममंबरमेव च ।
राधा ददौ पीतपटं वेत्रं वंशीं महात्मने ॥ ३५ ॥
अथ कृष्णः कलं गायन् मालामाजानुलंबिताम् ।
वैजन्तीमादधानः श्रीभाण्डीरं गजाम ह ॥ ३६ ॥
प्रियायास्तत्र शृङ्गारं चकार कुशलेश्वरः ।
पत्रावलीयावकाग्रैः पुष्पैः कंजलकुंकुमैः ॥ ३७ ॥
चंदनागुरुकस्तूरी केसराद्यैर्हरेर्मुखे ।
पत्रं चकार शृङ्गारे मनोज्ञं कीर्तिनन्दिनी ॥ ३८ ॥
तदनन्तर माधव गोपाङ्गनाओंके
साथ यमुना-तटपर आकर कालिन्दीके वेगपूर्ण प्रवाहमें संतरण-कला- केलि करने लगे। श्रीराधाके
हाथसे उनका लक्षदल कमल और चादर लेकर माधव पानीमें दौड़ते तथा हँसते हुए दूर निकल गये।
तब श्रीराधा भी उनके चमकीले पीताम्बर, वंशी और बेंत लेकर हँसती हुई यमुनाजलमें चली
गयीं । अब महात्मा श्रीकृष्ण उन्हें माँगते हुए बोले- 'राधे ! मेरी बाँसुरी दे दो ।'
श्रीराधा कहने लगी- 'माधव ! मेरा कमल और वस्त्र लौटा दो ।' ॥ ३१-३४ ॥
श्रीकृष्ण ने श्रीराधा को कमल और वस्त्र दे दिये । तब श्रीराधा ने भी महात्मा श्रीकृष्णको वंशी, पीताम्बर और बेंत लौटा दिये । तदनन्तर
श्रीकृष्ण आजानु- लुम्बिनी (घुटनेतक लटकती हुई) वैजयन्ती माला धारण किये, मधुर गीत
गाते हुए भाण्डीरवनमें गये । वहाँ चतुर चूडामणि श्यामसुन्दरने प्रियाका शृङ्गार किया
। भाल तथा कपोलोंपर पत्ररचना की, पैरोंमें महावर लगाया, फूलोंकी माला धारण करायी, वेणीको
भी फूलोंसे सजाया, ललाटमें कुङ्कुमकी दी तथा नेत्रोंमें काजल लगाया। इसी प्रकार कीर्तिनन्दिनी
श्रीराधाने भी उस शृङ्गार-स्थलमें चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर आदिसे श्रीहरिके मुखपर
मनोहर पत्र- रचना की ।। ३५ - ३८ ॥
इस प्रकार श्रीगर्ग-संहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'रास-क्रीड़ा' नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २२ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०५)
बुधवार, 14 अगस्त 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०४)
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका
स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके
उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन
कराना
श्रीभगवानुवाच –
हे गोप्यः
पुष्करद्वीपे हंसो नाम महामुनिः ।
समुद्रे दधिमंडोदे ततापान्तर्गतस्तपः ॥ १७ ॥
चकाराहैतुकीं भक्तिं मम ध्यानपरायणः ।
व्यतीतं तस्य तपतो गोप्यो मन्वन्तरद्वयम् ॥ १८ ॥
तमद्यैवाग्रसन्मत्स्यो योजनार्धवपुर्धरः ।
तन्निर्जगार पौंड्रस्तु मत्स्यरूपधरोऽसुरः ॥ १९ ॥
एवं संप्राप्तकष्टस्य हंसस्यापि मुनेरहम् ।
गत्वाऽथ शीघ्रेण तयोः शिरश्छित्वाऽरिणा मुनिम् ॥ २० ॥
मोचयित्वाऽथ गतवान् श्वेतद्वीपे व्रजांगनाः ।
क्षीराब्धौ शेषपर्यंके शयनं तु मया कृतम् ॥ २१ ॥
दुःखिता भवतीर्ज्ञात्वा निद्रां त्यक्त्वा ततः प्रियाः ।
सहसा भक्तवश्योऽहं पुनरागतवानिह ॥ २२ ॥
जानन्ति सन्तः समदर्शोनि ये
दान्ता महान्तः किल नैरपेक्ष्याः ।
ते नैरपेक्ष्यं परमं सुखं मे
ज्ञानेन्द्रियादीनि यथा रसादीन् ॥ २३
॥
गोप्य ऊचुः -
क्षीराब्दौ शेषपर्यंके यद्रूपं च त्वया धृतम् ।
तद्रूपदर्शनं देहि यदि प्रीतोऽसि माधव ॥ २४ ॥
श्रीनारद उवाच -
तथाऽस्तु चोक्त्वा भगवान् गोपीव्यूहस्य पश्यतः ।
दधाराष्टभुजं रूपं श्रीराधारूपमेव च ॥ २५ ॥
तत्र क्षीरसमुद्रोऽभूल्लोलकल्लोलमण्डितः ।
दिव्यानि रत्नसौधानि बभूवुर्मंगलानि च ॥ २६ ॥
तत्र शेषो बिसश्वेतः कुण्डलीभूतसंस्थितः ।
बालार्कमौलिसाहस्रफणाच्छत्रविराजितः ॥ २७ ॥
तस्मिन् वै शेषपर्यङ्के सुखं सुष्वाप माधवः ।
तस्य श्रीरूपिणी राधा पादसेवां चकार ह ॥ २८ ॥
तद्रूपं सुंदरं दृष्ट्वा कोटिमार्तण्डसन्निभम् ।
नत्वा गोपीगणाः सर्वे विस्मयं परमं गताः ॥ २९ ॥
गोपीभ्यो दर्शनं दत्तं यत्र कृष्णेन मैथिल ।
तत्र क्षेत्रं महापुण्यं जातं पापप्रणाशनम् ॥ ३० ॥
श्रीभगवान् बोले- गोपाङ्गनाओ
! पुष्करद्वीप के दधिमण्डोद समुद्र के भीतर
रहकर 'हंस' नामक महामुनि तपस्या कर रहे थे। वे मेरे ध्यानमें रत रहकर बिना किसी हेतु
या कामना के भजन करते थे । उन तपस्वी महामुनिको तपस्या करते हुए
दो मन्वन्तरका समय इसी तरह बीत गया। उन्हें आज ही आधे योजन लंबा शरीर धारण करनेवाला
एक मत्स्य निगल गया था । फिर उसे भी मत्स्यरूपधारी महान् असुर पौण्ड्र निगल गया ॥ १७-१९ ॥
इस प्रकार कष्टमें पड़े
हुए मुनिवर हंसके उद्धारके लिये मैं शीघ्र वहाँ गया और चक्रसे उन दोनों मत्स्योंका
वध करके मुनिको संकटसे छुड़ाकर श्वेत- द्वीपमें चला गया। व्रजाङ्गनाओ ! वहाँ क्षीरसागरके
भीतर शेषशय्यापर मैं सो गया था। फिर अपनी प्रियतमा तुम सब गोपियोंको दुःखी जान नींद
त्यागकर सहसा यहाँ आ पहुँचा; क्योंकि मैं सदा भक्तोंके वशमें रहता हूँ। जो जितेन्द्रिय,
समदर्शी तथा किसी भी वस्तुकी इच्छा न रखनेवाले महान् संत हैं, वे निरपेक्षताको ही मेरा
परम सुख जानते हैं; जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ आदि रस आदि सूक्ष्म भूतोंको ही सुख समझते
हैं । ॥ २० – २३ ॥
गोपियोंने
कहा-
माधव ! यदि हमपर प्रसन्न हों तो क्षीरसागरमें शेषशय्यापर तुमने जो रूप धारण किया था,
उसका हमें भी दर्शन कराओ ॥ २४ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-तब
'तथास्तु' कहकर भगवान् गोपी-समुदायके देखते-देखते आठ भुजाधारी नारायण हो गये और श्रीराधा
लक्ष्मीरूपा हो गयीं । वहीं चञ्चल तरङ्गमालाओं से मण्डित क्षीरसागर
प्रकट हो गया। दिव्य रत्नमय मङ्गलरूप प्रासाद दृष्टिगोचर होने लगे। वहीं कमलनालके सदृश
श्वेत शेषनाग कुण्डली बाँधे स्थित दिखायी दिये, जो बालसूर्यके समान तेजस्वी सहस्र फनोंके
छत्रसे सुशोभित थे । उस शेषशय्यापर माधव सुखसे सो गये तथा लक्ष्मीरूप- धारिणी श्रीराधा
उनके चरण दबानेकी सेवा करने लगीं । करोड़ों सूर्योके समान तेजस्वी उस सुन्दर रूपको
देखकर गोपियोंने प्रणाम किया और वे सभी परम आश्चर्यमें निमग्न हो गयीं। मैथिल ! जहाँ
श्रीकृष्णने गोपियोंको इस रूपमें दर्शन दिया था, वह परम पुण्यमय पापनाशक क्षेत्र बन
गया ।। २५–३० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
मंगलवार, 13 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
श्रीगर्ग-संहिता
( श्रीवृन्दावनखण्ड
)
बाईसवाँ
अध्याय (पोस्ट 02)
गोपाङ्गनाओंद्वारा
श्रीकृष्णका स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर
हंसमुनिके उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका
दर्शन कराना
चंद्रं
प्रतप्तकिरणज्वलनं प्रसन्नं
सर्वं वनांतमसिपत्रवनप्रवेशम् ।
बाणं प्रभंजनमतीव सुमन्दयानं
मन्यामहे किल भवन्तमृते व्यथार्ताः ॥
८ ॥
सौदासराजमहिषीविरहादतीव
जातं सहस्रगुणितं नलपट्टराज्ञ्याः ।
तस्मात्तु कोटिगुणितं जनकात्मजायाः
तस्मादनंतमतिदुःखमलं हरे नः ॥ ९ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्थं राज रुदन्तीनां गोपीनां कमलेक्षणः ।
आविर्बभूव सहसा स्वयमर्थमिवात्मनः ॥ १० ॥
स्फुरत्किरीटकेयूर कुंडलांगदभूषणम् ।
स्निग्धामलसुगन्धाढ्यनीलकुंचितकुंतलम् ॥ ११ ॥
आगतं वीक्ष्य युगपत् समुत्तस्थुर्व्रजांगनाः ।
तन्मात्राणि च यं दृष्ट्वा यथा ज्ञानेंद्रियाणि च ॥ १२ ॥
हरिर्ननर्त तन्मध्ये वंशीवादनतत्परः ।
राधया सहितो राजन् यथा रत्या रतीश्वरः ॥ १३ ॥
यावतीर्गोपिकाः सर्वास्तावद्रूपधरो हरिः ।
गच्छन् ताभिर्व्रजे रेमे स्वावस्थाभिर्मनो यथा ॥ १४ ॥
वनोद्देशे स्थितं कृष्णं गतदुःखा व्रजांगनाः ।
कृतांजलिपुटा ऊचुर्गिरा गद्गदया हरिम् ॥ १५ ॥
गोप्य
ऊचुः -
क्व गतस्त्वं वद हरे त्यक्त्वा गोपीगणो महान् ।
सर्वं जगत्तृणीकृत्य त्वत्पादे प्राप्तमानसम् ॥ १६ ॥
प्राणनाथ ! तुम्हारे
बिना वियोग-व्यथासे पीड़ित हुई हम सब गोपियोंको चन्द्रमा सूर्यकी किरणोंके समान दाहक
प्रतीत होता है । यह सम्पूर्ण वनान्त-भाग जो पहले प्रसन्नताका केन्द्र था, अब इसमें
आनेपर ऐसा जान पड़ता है, मानो हमलोग असिपत्रवन में प्रविष्ट हो
गयी हैं और अत्यन्त मन्द मन्द गतिसे प्रवाहित होनेवाली वायु हमें बाण-सी लगती है। हरे
! राजा सौदासकी रानी मदयन्तीको अपने पतिके विरहसे जो दुःख हुआ था, उससे हजारगुना दुःख
नलकी महारानी दमयन्तीको पति वियोगके कारण प्राप्त हुआ था । उनसे भी कोटिगुना अधिक दुःख
पतिविरहिणी जनकनन्दिनी सीताको हुआ था और उनसे भी अनन्तगुना अधिक दुःख आज हम सबको हो
रहा है ॥ ८ - ९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! इस प्रकार रोती हुई गोपाङ्गनाओंके बीच में कमलनयन श्रीकृष्ण सहसा प्रकट हो
गये, मानो अपना अभीष्ट मनोरथ स्वयं आकर मिल गया हो। उनके मस्तकपर किरीट, भुजाओंमें
केयूर और अङ्गद तथा कानोंमें कुण्डल नामक भूषण अपनी दीप्ति फैला रहे थे। स्निग्ध, निर्मल,
सुगन्धपूर्ण, नीले, घुँघराले केश-कलाप मनको मोहे लेते थे ॥ १०-११ ॥
उन्हें आया हुआ देख समस्त
व्रजाङ्गनाएँ एक साथ उठकर खड़ी हो गयीं, जैसे शब्दादि सूक्ष्म- भूतोंके समूहको देखकर
ज्ञानेन्द्रियाँ सहसा सचेष्ट हो जाती हैं। राजन् ! उन गोपसुन्दरियोंके मध्यभागमें राधाके
साथ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाते हुए इस प्रकार नृत्य करने लगे, मानो रतिके
साथ मूर्तिमान् काम नाच रहा हो। जितनी संख्यामें समस्त गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण
करके श्रीहरि उनके साथ व्रजमें रास-विहार करने लगे-ठीक उसी तरह, जैसे जाग्रत् आदि अवस्थाओं के साथ मन क्रीड़ा कर रहा हो। उस समय उस वनप्रदेश में
दुःखरहित हुई व्रजाङ्गनाएँ वहाँ खड़े हुए श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण से
हाथ जोड़ गद्गद वाणी में बोलीं ॥। १२ -
१५ ॥
गोपियोंने पूछा – श्यामसुन्दर
! जो सारे जगत्- को तिनकेकी भाँति त्यागकर तुम्हारे चरणारविन्दोंमें अपना तन, मन और
प्राण अर्पित कर चुकी हैं, उन्हीं इन गोपियोंके इस महान् समुदायको छोड़कर तुम कहाँ
चले गये थे ? । ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
सोमवार, 12 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
बाईसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
गोपाङ्गनाओंद्वारा श्रीकृष्णका
स्तवन; भगवान् का उनके बीचमें प्रकट होना; उनके पूछनेपर हंसमुनिके
उद्धारकी कथा सुनाना तथा गोपियोंको क्षीरसागर- श्वेतद्वीपके नारायण-स्वरूपोंका दर्शन
कराना
श्रीनारद
उवाच -
अथ कृष्णगुणान् रम्यान् समेताः सर्वयोषितः ।
जगुस्तालस्वरैः रम्यैः कृष्णागमनहेतवे ॥ १ ॥
गोप्य ऊचुः -
लोकाभिराम जनभूषण विश्वदीप
कंदर्पमोहन जगद्वृजिनार्तिहारिन् ।
आनंदकंद यदुनंदन नंदसूनो
स्वच्छन्दपद्ममकरंद नमो नमस्ते ॥ २ ॥
गोविप्रसाधुविजयध्वज देववंद्य
कंसादिदैत्यवधहेतुकृतावतार ।
श्रीनंदराजकुलपद्मदिनेश देव
देवादिमुक्तजनदर्पण ते जयोऽस्तु ॥ ३
॥
गोपालसिंधुपरमौक्तिक रूपधारिन्
गोपालवंशगिरिनीलमणे परात्मन् ।
गोपालमंडलसरोवरकञ्जमूर्ते
गोपालचन्दनवने कलहंसमुख्य ॥ ४ ॥
श्रीराधिकावदनपंकज षट्पदस्त्वं
श्रीराधिकावदनचंद्रचकोररूपः ।
श्रीराधिकाहृदयसुन्दरचन्द्रहार
श्रीराधिकामधुलताकुसुमाकरोऽसि ॥ ५ ॥
यो रासरंगनिजवैभवभूरिलीला
यो गोपिकानयनजीवनमूलहारः ।
मानं चकार रहसा किल मानवत्यां
सोऽयं हरिर्भवतु नो नयनाग्रगामी ॥ ६
॥
यो गोपिकासकलयूथमलंचकार
वृंदावनं च निजपादरजोभिरद्रिम् ।
यः सर्वलोकविभवाय बभूव भूमौ
तं भूरिलीलमुरगेंद्रभुजं भजामः ॥ ७ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
राजन् ! तदनन्तर श्रीकृष्णके शुभागमनके लिये समस्त व्रजाङ्गनाएँ मिलकर सुरम्य तालस्वरके
साथ उन श्रीहरिके रमणीय गुणोंका गान करने लगीं ॥ १ ॥
गोपियाँ बोलीं- लोकसुन्दर!
जनभूषण ! विश्वदीप ! मदनमोहन ! तथा जगत् की पापराशि एवं पीड़ा
हर लेनेवाले ! आनन्दकन्द यदुनन्दन ! नन्दनन्दन ! तुम्हारे चरणारविन्दोंका मकरन्द भी
परम स्वच्छन्द है, तुम्हें बारंबार नमस्कार है। गौओं, ब्राह्मणों और साधु-संतों के विजयध्वजरूप ! देववन्द्य तथा कंसादि दैत्योंके वध के लिये अवतार धारण करनेवाले !
श्रीनन्दराज - कुल-कमल-
दिवाकर! देवाधिदेवोंके भी आदिकारण ! मुक्त- जनदर्पण ! तुम्हारी जय हो । गोपवंशरूपी
सागरमें परम उज्ज्वल मोतीके समान रूप धारण करने वाले ! गोपालकुलरूपी गिरिराजके नीलरत्न
! परमात्मन् ! गोपालमण्डलरूपी सरोवरके प्रफुल्ल कमल ! तथा गोपवृन्दरूपी
चन्दनवनके प्रधान कलहंस ! तुम्हारी जय हो । प्यारे श्यामसुन्दर ! तुम श्रीराधिका के मुखारविन्द का मकरन्द पान करनेवाले मधुप हो;
श्रीराधाके मुखचन्द्रकी सुधामयी चन्द्रिका के आस्वादक चकोर हो; श्रीराधाके वक्षःस्थलपर
विद्योतमान चन्द्रहार हो तथा श्रीराधिकारूपिणी माधवीलताके लिये कुसुमाकर (ऋतुराज वसन्त)
हो ॥ २-५ ॥
जो रास-रङ्गस्थलीमें
अपने वैभव (लीला- शक्ति) से भूरि-भूरि लीलाएँ प्रकट करते हैं, जो गोपाङ्गनाओंके नेत्रों
और जीवनके मूलाधार एवं हारस्वरूप हैं तथा श्रीराधाके मान करनेपर जिन्होंने स्वयं मान
कर लिया है, वे श्यामसुन्दर श्रीहरि हमारे नेत्रोंके समक्ष प्रकट हों । जिन्होंने गोपिकाओंके
समस्त यूथोंको, श्रीवृन्दावनकी भूमिको तथा गिरिराज गोंवर्धनको अपनी चरण धूलिसे अलंकृत
किया है; जो सम्पूर्ण जगत्के उद्भव तथा पालनके लिये भूतलपर प्रकट हुए हैं; जिनकी कान्ति
अत्यन्त श्याम है और भुजाएँ नागराजके शरीरको भाँति सुशोभित होती हैं, उन नन्दनन्दन
माधवकी हम आराधना करती हैं ॥ ६-७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)
रविवार, 11 अगस्त 2024
श्रीगर्ग-संहिता ( श्रीवृन्दावनखण्ड ) इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
इक्कीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
गोपाङ्गनाओंके साथ श्रीकृष्णका
वन-विहार, रास-क्रीड़ा, मानवती गोपियोंको छोड़कर श्रीराधाके साथ एकान्त-विहार तथा मानिनी
श्रीराधाको भी छोड़कर उनका अन्तर्धान होना
राधोवाच -
चलितुं न समर्थाऽहं मन्दिरान्ना विनिर्गता ।
सुकुमारी स्वेदयुक्ता कथं मां नयसि प्रिय ॥ ३१ ॥
नारच उवाच -
इति वाक्यं ततः श्रुत्वा श्रीकृष्णो राधिकेश्वरः ।
पीतांबरेण दिव्येन वायुं तस्यै चकार ह ॥ ३२ ॥
हस्तं गृहीत्वा तामाह गच्छ राधे यथासुखम् ।
कृष्णेनापि तदा प्रोक्ता न ययौ तेन वै पुनः ॥ ३३ ॥
पृष्ठं दत्त्वाऽथ हरये तूष्णींभूता स्थिता पुनः ।
प्रियां मानवतीं राधां प्राह कृष्णः सतां प्रियः ॥ ३४ ॥
श्रीभगवानुवाच -
विहाय गोपीरिह कामयाना
भजाम्यहं मानिनि चेतसा त्वाम् ।
यत्ते प्रियं तत्प्रकरोमि राधे
मे स्कंधमारुह्य सुखं व्रजाशु ॥ ३५ ॥
श्रीनारद उवाच -
एवं प्रियां प्रियतमः स्कंधयानेप्सितां नृप ।
विहायान्तर्दधे कृष्णो स्वच्छन्दगतिरीश्वरः ॥ ३६ ॥
गतमाना कीर्तिसुता भगवद्विरहातुरा ।
उच्चै रुरोद राजेन्द्र कोकिलाख्ये वने परे ॥ ३७ ॥
तदैव यूथाः संप्राप्ता गोपीनां मैथिलेश्वर ।
तद् रोदनं दुःखतरं श्रुत्वा जग्मुस्त्रपातुराः ॥ ३८ ॥
काश्चित्तां मकरंदैश्च स्नापयांचक्रुरीश्वरीम् ।
चंदनागुरु कस्तूरी कुङ्कुमद्रवसीकरैः ॥ ३९ ॥
वायुं चक्रुस्तदंगेषु व्यजनान्दोलचामरैः ।
आश्वास्य वाग्भिः परमां नानाऽनुनयकोविदैः ॥ ४० ॥
तन्मुखान्मानिनो मानं श्रुत्वा कृष्णस्य गोपिकाः ।
मानवंत्यो मैथिलेन्द्र विस्मयं परमं ययुः ॥ ४१ ॥
श्रीराधाने कहा- प्यारे
! मैं कभी राजभवनसे बाहर नहीं निकली थी, किंतु आज अधिक चलना पड़ा है; अतः अब एक पग
भी चलनेमें समर्थ नहीं हूँ। देखते नहीं, मैं सुकुमारी राजकुमारी पसीना पसीना हो गयी
हूँ ? फिर मुझे कैसे ले चलोगे ? ॥ ३१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-
यह वचन सुनकर राधिकावल्लभ श्रीकृष्ण श्रीराधाके ऊपर अपने दिव्य पीताम्बरसे हवा करने
लगे। फिर उनका हाथ थामकर बोले- 'श्रीराधे ! अब तुम अपनी मौजसे धीरे-धीरे चलो।' उस समय
श्रीकृष्णके बारंबार कहनेपर भी श्रीराधाने अपना पैर आगे नहीं बढ़ाया। वे श्रीहरिकी
ओर पीठ करके चुपचाप खड़ी रहीं। तब संतोंके प्रिय श्रीकृष्णने मानिनी प्रिया राधासे
कहा ॥ ३२ – ३४ ॥
श्रीभगवान् बोले—मानिनि
! यहाँ अन्य गोपियाँ भी मुझसे मिलनेकी हार्दिक कामना रखती हैं, तथापि उन्हें छोड़कर
मैं मनसे तुम्हारी आराधना करता हूँ; तुम्हें जो प्रिय हो, वहीं करता हूँ । राधे ! मेरे
कंधेपर चढ़कर तुम सुखपूर्वक शीघ्र यहाँसे चलो ॥ ३५ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—
नरेश्वर ! उनके यों कहने- पर प्रियाने जब उनके कंधेपर चढ़ना चाहा, तभी स्वच्छन्द गतिवाले
ईश्वर प्रियतम श्रीकृष्ण वहाँसे अन्तर्धान हो गये। राजेन्द्र ! फिर तो कीर्तिकुमारी
राधाका मान उतर गया। वे उस महान् कोकिलावनमें भगवद्-विरहसे व्याकुल हो उच्चस्वरसे रोदन
करने लगीं ॥। ३६-३७ ।।
मिथिलेश्वर ! उसी समय
गोपियोंके यूथ वहाँ आ पहुँचे। श्रीराधाका अत्यन्त दुःखजनक रोदन सुनकर उन्हें बड़ी दया
और लज्जा आयी। कोई अपनी स्वामिनीको पुष्प- मकरन्दों (इत्र आदि) से नहलाने लगीं; कुछ
चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और केसर से मिश्रित जल के
छींटे देने लगीं || कुछ व्यजन और चंवर डुलाकर अङ्गों में हवा देने लगीं तथा अनुनय-विनय में कुशल नाना
वचनों द्वारा परादेवी श्रीराधा को धीरज
बँधाने लगीं। मैथिलेन्द्र ! श्रीराधा के मुख से
मानी श्रीकृष्णके द्वारा दिये गये सम्मान की बात सुनकर मानवती
गोपाङ्गनाओं को बड़ा विस्मय हुआ ।। ३८-४१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत 'रास-क्रीड़ा' नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०२)
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...
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सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय — रहस्यात्मक पुरा...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि ...
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हम लोगों को भगवान की चर्चा व संकीर्तन अधिक से अधिक करना चाहिए क्योंकि भगवान् वहीं निवास करते हैं जहाँ उनका संकीर्तन होता है | स्वयं भगवान...
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||ॐश्रीपरमात्मने नम:|| प्रश्नोत्तरी (स्वामी श्रीशंकराचार्यरचित ‘मणिरत्नमाला’) वक्तव्य श्रीस्वामी शंकराचार्य जी ...
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || “ सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा | यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||” श्रीमद्भाग...
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निगमकल्पतरोर्गलितं फलं , शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं , मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः || महामुनि व्यासदेव के द्वारा न...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्...
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☼ श्रीदुर्गादेव्यै नम: ☼ क्षमा-प्रार्थना अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरी ।। 1...
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शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय परीक्षित् और वज्रनाभ का समागम , शाण्डिल...