॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति
अभीक्ष्ण अवगाहकपिशान् जटिलान् कुटिलालकान् ।
आत्मानं च उग्रतपसा बिभ्रती चीरिणं कृशम् ॥ १४ ॥
प्रजापतेः कर्दमस्य तपोयोगविजृम्भितम् ।
स्वगार्हस्थ्यमनौपम्यं प्रार्थ्यं वैमानिकैरपि ॥ १५ ॥
पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः ।
आसनानि च हैमानि सुस्पर्शास्तरणानि च ॥ १६ ॥
स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।
रत्न्प्रदीपा आभान्ति ललना रत्नुसंयुताः ॥ १७ ॥
गृहोद्यानं कुसुमितै रम्यं बह्वमरद्रुमैः ।
कूजद् विहङ्गमिथुनं गायन् मत्तमधुव्रतम् ॥ १८ ॥
यत्र प्रविष्टमात्मानं विबुधानुचरा जगुः ।
वाप्यां उत्पलगन्धिन्यां कर्दमेनोपलालितम् ॥ १९ ॥
हित्वा तदीप्सिततमं अप्याखण्डलयोषिताम् ।
किञ्चिच्चकार वदनं पुत्रविश्लेषणातुरा ॥ २० ॥
त्रिकाल स्नान करने से उनकी(देवहूतिजी की) घुँघराली अलकें भूरी-भूरी जटाओं में परिणत हो गयीं तथा चीर-वस्त्रों से ढका हुआ शरीर उग्र तपस्या के कारण दुर्बल हो गया ॥ १४ ॥ उन्होंने प्रजापति कर्दमके तप और योगबलसे प्राप्त अनुपम गाहर्स्थ्यसुखको, जिसके लिये देवता भी तरसते थे, त्याग दिया ॥ १५ ॥ जिसमें दुग्धफेन के समान स्वच्छ और सुकोमल शय्यासे युक्त हाथी-दाँतके पलंग, सुवर्णके पात्र, सोनेके सिंहासन और उनपर कोमल-कोमल गद्दे बिछे हुए थे तथा जिसकी स्वच्छ स्फटिकमणि और महामरकतमणि की भीतों में रत्नोंकी बनी हुई रमणी-मूर्तियोंके सहित मणिमय दीपक जगमगा रहे थे, जो फूलोंसे लदे हुए अनेकों दिव्य वृक्षोंसे सुशोभित था, जिसमें अनेक प्रकारके पक्षियोंका कलरव और मतवाले भौंरोंका गुंजार होता रहता था, जहाँकी कमलगन्धसे सुवासित बावलियोंमें कर्दमजीके साथ उनका लाड़-प्यार पाकर क्रीडाके लिये प्रवेश करनेपर उसका (देवहूतिका) गन्धर्वगण गुणगान किया करते थे और जिसे पानेके लिये इन्द्राणियाँ भी लालायित रहती थीं—उस गृहोद्यानकी भी ममता उन्होंने त्याग दी। किन्तु पुत्रवियोगसे व्याकुल होनेके कारण अवश्य उनका मुख कुछ उदास हो गया ॥१६—२०॥
शेष आगामी पोस्ट में --