बुधवार, 20 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

वनं प्रव्रजिते पत्यौ अपत्यविरहातुरा ।
ज्ञाततत्त्वाप्यभून्नष्टे वत्से गौरिव वत्सला ॥ २१ ॥
तमेव ध्यायती देवं अपत्यं कपिलं हरिम् ।
बभूवाचिरतो वत्स निःस्पृहा तादृशे गृहे ॥ २२ ॥
ध्यायती भगवद्‌रूपं यदाह ध्यानगोचरम् ।
सुतः प्रसन्नवदनं समस्तव्यस्तचिन्तया ॥ २३ ॥
भक्तिप्रवाहयोगेन वैराग्येण बलीयसा ।
युक्तानुष्ठानजातेन ज्ञानेन ब्रह्महेतुना ॥ २४ ॥
विशुद्धेन तदात्मानं आत्मना विश्वतोमुखम् ।
स्वानुभूत्या तिरोभूत मायागुणविशेषणम् ॥ २५ ॥

पति के वनगमन के अनन्तर पुत्र का भी वियोग हो जाने से वे(देवहूतिजी) आत्मज्ञानसम्पन्न होकर भी ऐसी व्याकुल हो गयीं, जैसे बछड़े के बिछुड़ जाने से उसे प्यार करनेवाली गौ ॥ २१ ॥ वत्स विदुर ! अपने पुत्र कपिलदेवरूप भगवान्‌ हरिका ही चिन्तन करते-करते वे कुछ ही दिनोंमें ऐसे ऐश्वर्यसम्पन्न घरसे भी उपरत हो गयीं ॥ २२ ॥ फिर वे, कपिलदेवजीने भगवान्‌के जिस ध्यान करनेयोग्य वदनारविन्दयुक्त स्वरूपका वर्णन किया था, उसके एक-एक अवयवका तथा उस समग्र रूपका भी चिन्तन करती हुई ध्यानमें तत्पर हो गयीं ॥ २३ ॥ भगवद्भक्तिके प्रवाह, प्रबल वैराग्य और यथोचित्त कर्मानुष्ठानसे उत्पन्न हुए ब्रह्म साक्षात्कार करानेवाले ज्ञानद्वारा चित्त शुद्ध हो जानेपर वे उस सर्वव्यापक आत्माके ध्यानमें मग्न हो गयीं, जो अपने स्वरूपके प्रकाशसे मायाजनित आवरणको दूर कर देता है ॥ २४-२५ ॥ 

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मंगलवार, 19 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

अभीक्ष्ण अवगाहकपिशान् जटिलान् कुटिलालकान् ।
आत्मानं च उग्रतपसा बिभ्रती चीरिणं कृशम् ॥ १४ ॥
प्रजापतेः कर्दमस्य तपोयोगविजृम्भितम् ।
स्वगार्हस्थ्यमनौपम्यं प्रार्थ्यं वैमानिकैरपि ॥ १५ ॥
पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः ।
आसनानि च हैमानि सुस्पर्शास्तरणानि च ॥ १६ ॥
स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।
रत्न्प्रदीपा आभान्ति ललना रत्नुसंयुताः ॥ १७ ॥
गृहोद्यानं कुसुमितै रम्यं बह्वमरद्रुमैः ।
कूजद् विहङ्गमिथुनं गायन् मत्तमधुव्रतम् ॥ १८ ॥
यत्र प्रविष्टमात्मानं विबुधानुचरा जगुः ।
वाप्यां उत्पलगन्धिन्यां कर्दमेनोपलालितम् ॥ १९ ॥
हित्वा तदीप्सिततमं अप्याखण्डलयोषिताम् ।
किञ्चिच्चकार वदनं पुत्रविश्लेषणातुरा ॥ २० ॥

त्रिकाल स्नान करने से उनकी(देवहूतिजी की) घुँघराली अलकें भूरी-भूरी जटाओं में परिणत हो गयीं तथा चीर-वस्त्रों से ढका हुआ शरीर उग्र तपस्या के कारण दुर्बल हो गया ॥ १४ ॥ उन्होंने प्रजापति कर्दमके तप और योगबलसे प्राप्त अनुपम गाहर्स्थ्यसुखको, जिसके लिये देवता भी तरसते थे, त्याग दिया ॥ १५ ॥ जिसमें दुग्धफेन के समान स्वच्छ और सुकोमल शय्यासे युक्त हाथी-दाँतके पलंग, सुवर्णके पात्र, सोनेके सिंहासन और उनपर कोमल-कोमल गद्दे बिछे हुए थे तथा जिसकी स्वच्छ स्फटिकमणि और महामरकतमणि की भीतों में रत्नोंकी बनी हुई रमणी-मूर्तियोंके सहित मणिमय दीपक जगमगा रहे थे, जो फूलोंसे लदे हुए अनेकों दिव्य वृक्षोंसे सुशोभित था, जिसमें अनेक प्रकारके पक्षियोंका कलरव और मतवाले भौंरोंका गुंजार होता रहता था, जहाँकी कमलगन्धसे सुवासित बावलियोंमें कर्दमजीके साथ उनका लाड़-प्यार पाकर क्रीडाके लिये प्रवेश करनेपर उसका (देवहूतिका) गन्धर्वगण गुणगान किया करते थे और जिसे पानेके लिये इन्द्राणियाँ भी लालायित रहती थीं—उस गृहोद्यानकी भी ममता उन्होंने त्याग दी। किन्तु पुत्रवियोगसे व्याकुल होनेके कारण अवश्य उनका मुख कुछ उदास हो गया ॥१६—२०॥

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सोमवार, 18 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

मैत्रेय उवाच –
ईडितो भगवानेवं कपिलाख्यः परः पुमान् ।
वाचाविक्लवयेत्याह मातरं मातृवत्सलः ॥ ९ ॥

कपिल उवाच –
मार्गेणानेन मातस्ते सुसेव्येनोदितेन मे ।
आस्थितेन परां काष्ठां अचिराद् अवरोत्स्यसि ॥ १० ॥
श्रद्धत्स्वैतन्मतं मह्यं जुष्टं यद्ब्रयह्मवादिभिः ।
येन मां अभयं याया मृत्युमृच्छन्त्यतद्विदः ॥ ११ ॥

मैत्रेय उवाच -
इति प्रदर्श्य भगवान् सतीं तां आत्मनो गतिम् ।
स्वमात्रा ब्रह्मवादिन्या कपिलोऽनुमतो ययौ ॥ १२ ॥
सा चापि तनयोक्तेन योगादेशेन योगयुक् ।
तस्मिन् आश्रम आपीडे सरस्वत्याः समाहिता ॥ १३ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—माताके इस प्रकार स्तुति करनेपर मातृवत्सल परमपुरुष भगवान्‌ कपिलदेवजीने उनसे गम्भीर वाणीमें कहा ॥ ९ ॥
कपिलदेवजीने कहा—माताजी ! मैंने तुम्हें जो यह सुगम मार्ग बताया है, इसका अवलम्बन करने से तुम शीघ्र ही परमपद प्राप्त कर लोगी ॥ १० ॥ तुम मेरे इस मत में विश्वास करो, ब्रह्मवादी लोगों ने इसका सेवन किया है; इसके द्वारा तुम मेरे जन्म-मरणरहित स्वरूप को प्राप्त कर लोगी। जो लोग मेरे इस मतको नहीं जानते, वे जन्म-मृत्युके चक्रमें पड़ते हैं ॥ ११ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—इस प्रकार अपने श्रेष्ठ आत्मज्ञानका उपदेशकर श्रीकपिलदेवजी अपनी ब्रह्मवादिनी जननीकी अनुमति लेकर वहाँसे चले गये ॥ १२ ॥ तब देवहूतिजी भी सरस्वतीके मुकुटसदृश अपने आश्रममें अपने पुत्रके उपदेश किये हुए योगसाधनके द्वारा योगाभ्यास करती हुई समाधिमें स्थित हो गयीं ॥ १३ ॥
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रविवार, 17 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्
     यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्या
     ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥ ७ ॥
तं त्वामहं ब्रह्म परं पुमांसं
     प्रत्यक्स्रोतस्यात्मनि संविभाव्यम् ।
स्वतेजसा ध्वस्तगुणप्रवाहं
     वन्दे विष्णुं कपिलं वेदगर्भम् ॥ ८ ॥

अहो ! वह चाण्डाल भी इसीसे सर्वश्रेष्ठ है कि उसकी जिह्वा के अग्रभाग में आपका नाम विराजमान है। जो श्रेष्ठ पुरुष आपका नाम उच्चारण करते हैं, उन्होंने तप, हवन, तीर्थस्नान, सदाचारका पालन और वेदाध्ययन—सब कुछ कर लिया ॥ ७ ॥ कपिलदेवजी ! आप साक्षात् परब्रह्म हैं, आप ही परम पुरुष हैं, वृत्तियोंके प्रवाहको अन्तर्मुख करके अन्त:करणमें आपका ही चिन्तन किया जाता है। आप अपने तेजसे मायाके कार्य गुण-प्रवाहको शान्त कर देते हैं तथा आपके ही उदरमें सम्पूर्ण वेदतत्त्व निहित है। ऐसे साक्षात् विष्णुस्वरूप आपको मैं प्रणाम करती हूँ ॥ ८ ॥

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शनिवार, 16 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

स त्वं भृतो मे जठरेण नाथ
     कथं नु यस्योदर एतदासीत् ।
विश्वं युगान्ते वटपत्र एकः
     शेते स्म मायाशिशुरङ्‌घ्रिपानः ॥ ४ ॥
त्वं देहतन्त्रः प्रशमाय पाप्मनां
     निदेशभाजां च विभो विभूतये ।
यथावतारास्तव सूकरादयः
     तथायमप्यात्म पथोपलब्धये ॥ ५ ॥
यन्नामधेयश्रवणानुकीर्तनाद्
     यत्प्रह्वणाद् यत् स्मरणादपि क्वचित् ।
श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते
     कुतः पुनस्ते भगवन्नु दर्शनात् ॥ ६ ॥

नाथ ! यह कैसी विचित्र बात है कि जिनके उदरमें प्रलयकाल आनेपर यह सारा प्रपञ्च लीन हो जाता है और जो कल्पान्तमें मायामय बालकका रूप धारण कर अपने चरणका अँगूठा चूसते हुए अकेले ही वटवृक्षके पत्तेपर शयन करते हैं, उन्हीं आपको मैंने गर्भमें धारण किया ॥ ४ ॥ विभो ! आप पापियोंका दमन और अपने आज्ञाकारी भक्तोंका अभ्युदय एवं कल्याण करनेके लिये स्वेच्छासे देह धारण किया करते हैं। अत: जिस प्रकार आप के वराह आदि अवतार हुए हैं, उसी प्रकार यह कपिलावतार भी मुमुक्षुओं को ज्ञानमार्ग दिखानेके लिये हुआ है ॥ ५ ॥ भगवन् ! आपके नामों का श्रवण या कीर्तन करनेसे तथा भूले-भटके कभी-कभी आपका वन्दन या स्मरण करनेसे ही कुत्ते का मांस खानेवाला चाण्डाल भी सोमयाजी ब्राह्मणके समान पूजनीय हो सकता है; फिर आपका दर्शन करनेसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाय—इसमें तो कहना ही क्या है ॥ ६ ॥ 

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शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

मैत्रेय उवाच -
एवं निशम्य कपिलस्य वचो जनित्री
     सा कर्दमस्य दयिता किल देवहूतिः ।
विस्रस्तमोहपटला तमभिप्रणम्य
     तुष्टाव तत्त्वविषयाङ्कित सिद्धिभूमिम् ॥ १ ॥

देवहूतिरुवाच -
अथाप्यजोऽन्तःसलिले शयानं
     भूतेन्द्रियार्थात्ममयं वपुस्ते ।
गुणप्रवाहं सदशेषबीजं
     दध्यौ स्वयं यत् जठराब्जजातः ॥ २ ॥
स एव विश्वस्य भवान् विधत्ते
     गुणप्रवाहेण विभक्तवीर्यः ।
सर्गाद्यनीहोऽवितथाभिसन्धिः
     आत्मेश्वरोऽतर्क्य सहस्रशक्तिः ॥ ३ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! श्रीकपिल भगवान्‌के ये वचन सुनकर कर्दमजी की प्रिय पत्नी माता देवहूति के मोह का पर्दा फट गया और वे तत्त्वप्रतिपादक सांख्यशास्त्र के ज्ञान की आधारभूमि भगवान्‌ श्रीकपिलजी को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगीं ॥ १ ॥
देवहूतिजी ने कहा—कपिलजी ! ब्रह्माजी आपके ही नाभिकमल से प्रकट हुए थे । उन्होंने प्रलयकालीन जल में शयन करनेवाले आपके पञ्चभूत, इन्द्रिय, शब्दादि विषय और मनोमय विग्रह का, जो सत्त्वादि गुणों के प्रवाहसे युक्त, सत्स्वरूप और कार्य एवं कारण दोनोंका बीज है, ध्यान ही किया था ॥ २ ॥ आप निष्क्रिय, सत्यसङ्कल्प, सम्पूर्ण जीवों के प्रभु तथा सहस्रों अचिन्त्य शक्तियोंसे सम्पन्न हैं। अपनी शक्तिको गुणप्रवाहरूपसे ब्रह्मादि अनन्त मूर्तियोंमें विभक्त करके उनके द्वारा आप स्वयं ही विश्वकी रचना आदि करते हैं ॥ ३ ॥ 

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गुरुवार, 14 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका 
और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन

प्रावोचं भक्तियोगस्य स्वरूपं ते चतुर्विधम् ।
कालस्य च अक्तगतेः योऽन्तर्धावति जन्तुषु ॥ ३७ ॥
जीवस्य संसृतीर्बह्वीः अविद्याकर्म निर्मिताः ।
यास्वङ्ग प्रविशन्नात्मा न वेद गतिमात्मनः ॥ ३८ ॥
नैतत्खलायोपदिशेन् नाविनीताय कर्हिचित् ।
न स्तब्धाय न भिन्नाय नैव धर्मध्वजाय च ॥ ३९ ॥
न लोलुपायोपदिशेत् न गृहारूढचेतसे ।
नाभक्ताय च मे जातु न मद्भूक्तद्विषामपि ॥ ४० ॥
श्रद्दधानाय भक्ताय विनीताय अनसूयवे ।
भूतेषु कृतमैत्राय शुश्रूषाभिरताय च ॥ ४१ ॥
बहिर्जातविरागाय शान्तचित्ताय दीयताम् ।
निर्मत्सराय शुचये यस्याहं प्रेयसां प्रियः ॥ ४२ ॥
य इदं श्रृणुयाद् अम्ब श्रद्धया पुरुषः सकृत् ।
यो वाभिधत्ते मच्चित्तः स ह्येति पदवीं च मे ॥ ४३ ॥

(कपिलदेवजी कहते हैं) माताजी ! सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुण- भेदसे चार प्रकारके भक्तियोगका और जो प्राणियोंके जन्मादि विकारोंका हेतु है तथा जिसकी गति जानी नहीं जाती, उस कालका स्वरूप मैं तुमसे कह ही चुका हूँ ॥ ३७ ॥ देवि ! अविद्याजनित कर्मके कारण जीवकी अनेकों गतियाँ होती हैं; उनमें जानेपर वह अपने स्वरूपको नहीं पहचान सकता ॥ ३८ ॥ मैंने तुम्हें जो ज्ञानोपदेश दिया है—उसे दुष्ट, दुर्विनीत, घमंडी, दुराचारी और धर्मध्वजी (दम्भी) पुरुषोंको नहीं सुनाना चाहिये ॥ ३९ ॥ जो विषयलोलुप हो, गृहासक्त हो, मेरा भक्त न हो अथवा मेरे भक्तोंसे द्वेष करनेवाला हो, उसे भी इसका उपदेश कभी न करे ॥ ४० ॥ जो अत्यन्त श्रद्धालु, भक्त, विनयी, दूसरोंके प्रति दोषदृष्टि न रखनेवाला, सब प्राणियोंसे मित्रता रखनेवाला, गुरुसेवामें तत्पर, बाह्य विषयोंमें अनासक्त, शान्तचित्त, मत्सरशून्य और पवित्रचित्त हो तथा मुझे परम प्रियतम माननेवाला हो, उसे इसका अवश्य उपदेश करे ॥ ४१-४२ ॥ मा ! जो पुरुष मुझमें चित्त लगाकर इसका श्रद्धापूर्वक एक बार भी श्रवण या कथन करेगा, वह मेरे परमपदको प्राप्त होगा ॥ ४३ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे कपिलेये द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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बुधवार, 13 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका 
और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन

इत्येतत्कथितं गुर्वि ज्ञानं तद्ब्र ह्मदर्शनम् ।
येन अनुबुद्ध्यते तत्त्वं प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥ ३१ ॥
ज्ञानयोगश्च मन्निष्ठो नैर्गुण्यो भक्तिलक्षणः ।
द्वयोरप्येक एवार्थो भगवत् शब्दलक्षणः ॥ ३२ ॥
यथेन्द्रियैः पृथग्द्वारैः अर्थो बहुगुणाश्रयः ।
एको नानेयते तद्वद् भगवान् शास्त्रवर्त्मभिः ॥ ३३ ॥
क्रियया क्रतुभिर्दानैः तपःस्वाध्यायमर्शनैः ।
आत्मेन्द्रियजयेनापि सन्न्यासेन च कर्मणाम् ॥ ३४ ॥
योगेन विविधाङ्गेन भक्तियोगेन चैव हि ।
धर्मेणोभयचिह्नेन यः प्रवृत्तिनिवृत्तिमान् ॥ ३५ ॥
आत्मतत्त्वावबोधेन वैराग्येण दृढेन च ।
ईयते भगवानेभिः सगुणो निर्गुणः स्वदृक् ॥ ३६ ॥

पूजनीय माताजी ! मैंने तुम्हें यह ब्रह्मसाक्षात्कारका साधनरूप ज्ञान सुनाया, इसके द्वारा प्रकृति और पुरुषके यथार्थस्वरूपका बोध हो जाता है ॥ ३१ ॥ देवि ! निर्गुणब्रह्म-विषयक ज्ञानयोग और मेरे प्रति किया हुआ भक्तियोग—इन दोनोंका फल एक ही है। उसे ही भगवान्‌ कहते हैं ॥ ३२ ॥ जिस प्रकार रूप, रस एवं गन्ध आदि अनेक गुणोंका आश्रयभूत एक ही पदार्थ भिन्न-भिन्न इन्द्रियों द्वारा विभिन्नरूप से अनुभूत होता है, वैसे ही शास्त्र के विभिन्न मार्गों द्वारा एक ही भगवान्‌ की अनेक प्रकारसे अनुभूति होती है ॥ ३३ ॥ नाना प्रकारके कर्मकलाप, यज्ञ, दान, तप, वेदाध्ययन, वेदविचार (मीमांसा), मन और इन्द्रियों के संयम, कर्मों के त्याग, विविध अङ्गोंवाले योग, भक्तियोग, निवृत्ति और प्रवृत्तिरूप सकाम और निष्काम दोनों प्रकारके धर्म, आत्मतत्त्वके ज्ञान और दृढ़ वैराग्य—इन सभी साधनोंसे सगुण-निर्गुणरूप स्वयंप्रकाश भगवान्‌को ही प्राप्त किया जाता है ॥ ३४—३६ ॥

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मंगलवार, 12 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका 
और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन

ज्ञानमेकं पराचीनैः इन्द्रियैर्ब्रह्म निर्गुणम् ।
अवभात्यर्थरूपेण भ्रान्त्या शब्दादिधर्मिणा ॥ २८ ॥
यथा महान् अहंरूपः त्रिवृत् पञ्चविधः स्वराट् ।
एकादशविधस्तस्य वपुरण्डं जगद्यतः ॥ २९ ॥
एतद्वै श्रद्धया भक्त्या योगाभ्यासेन नित्यशः ।
समाहितात्मा निःसङ्गो विरक्त्या परिपश्यति ॥ ३० ॥

ब्रह्म एक है, ज्ञानस्वरूप और निर्गुण है, तो भी वह बाह्य वृत्तियोंवाली इन्द्रियोंके द्वारा भ्रान्तिवश शब्दादि धर्मोंवाले विभिन्न पदार्थोंके रूपमें भास रहा है ॥ २८ ॥ जिस प्रकार एक ही परब्रह्म महत्तत्त्व, वैकारिक, राजस और तामस—तीन प्रकारका अहंकार, पञ्चमहाभूत एवं ग्यारह इन्द्रियरूप बन गया और फिर वही स्वयंप्रकाश इनके संयोगसे जीव कहलाया, उसी प्रकार उस जीवका शरीररूप यह ब्रह्माण्ड भी वस्तुत: ब्रह्म ही है, क्योंकि ब्रह्मसे ही इसकी उत्पत्ति हुई है ॥ २९ ॥ किन्तु इसे ब्रह्मरूप वही देख सकता है, जो श्रद्धा, भक्ति और वैराग्य तथा निरन्तरके योगाभ्यासके द्वारा एकाग्रचित्त और असङ्गबुद्धि हो गया है ॥ ३० ॥

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सोमवार, 11 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका 
और भक्तियोग की उत्कृष्टता का वर्णन

यदास्य चित्तमर्थेषु समेष्विन्द्रियवृत्तिभिः ।
न विगृह्णाति वैषम्यं प्रियं अप्रियमित्युत ॥ २४ ॥
स तदैवात्मनात्मानं निःसङ्गं समदर्शनम् ।
हेयोपादेय रहितं आरूढं पदमीक्षते ॥ २५ ॥
ज्ञानमात्रं परं ब्रह्म परमात्मेश्वरः पुमान् ।
दृश्यादिभिः पृथग्भावैः भगवान् एक ईयते ॥ २६ ॥
एतावानेव योगेन समग्रेणेह योगिनः ।
युज्यतेऽभिमतो ह्यर्थो यद् असङ्गस्तु कृत्स्नशः ॥ २७ ॥

वस्तुत: सभी विषय भगवद्रूप होनेके कारण समान हैं। अत: जब इन्द्रियोंकी वृत्तियोंके द्वारा भी भगवद्भक्तका चित्त उनमें प्रिय-अप्रियरूप विषमता का अनुभव नहीं करता—सर्वत्र भगवान्‌ का ही दर्शन करता है—उसी समय वह सङ्गरहित, सबमें समानरूपसे स्थित, त्याग और ग्रहण करनेयोग्य, दोष और गुणोंसे रहित, अपनी महिमामें आरूढ़ अपने आत्माका ब्रह्मरूपसे साक्षात्कार करता है ॥ २४-२५ ॥ वही ज्ञानस्वरूप है, वही परब्रह्म है, वही परमात्मा है, वही ईश्वर है, वही पुरुष है; वही एक भगवान्‌ स्वयं जीव, शरीर, विषय, इन्द्रियों आदि अनेक रूपोंमें प्रतीत होता है ॥ २६ ॥ सम्पूर्ण संसारमें आसक्तिका अभाव हो जाना—बस, यही योगियोंके सब प्रकारके योग-साधनका एकमात्र अभीष्ट फल है ॥ २७ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - बाईसवां अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५) महाराज पृथुको सनकादिका उपदेश भ्रश्यत्यनु स्मृतिश्च...