रविवार, 9 दिसंबर 2018

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 11)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 11)
( सम्पादक-कल्याण )
अब रही उपासनाकी पद्धति । सो व्यक्तोपासना भक्तिप्रधान होती है । अव्यक्त और व्यक्त की उपासनामें प्रधान भेद दो हैं--उपास्यके स्वरूपका और भावका । अव्यक्तोपासना में उपास्य निराकार है और व्यक्तोपासनामें साकार । अव्यक्तोपासना का साधक अपनेको ब्रह्म से अभिन्न समझकर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहता है, तो व्यक्तोपासना का साधक भगवान्‌ को ही सर्वरूपों में अभिव्यक्त हुआ समझकर ‘वासुदेव सर्वमिति’ कहता है। उसकी पूजा में कोई आधार नहीं है और इसकी पूजा में भगवान्‌के साकार मनमोहन विग्रह का आधार है। वह सब कुछ स्वप्नवत्‌ मायिक मानता है, तो यह सब कुछ भगवान्‌ की आनन्दमयी लीला समझता है। वह अपने बल पर अग्रसर होता है, तो यह भगवान्‌ की कृपा के बलपर चलता है। उसमें ज्ञानकी प्रधानता है, तो इसमें भक्तिकी । अवश्य ही परस्पर भक्ति और ज्ञान दोनों में ही रहते हैं । अव्यक्तोपासक समझता है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ, गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, वास्तव में कुछ है ही नहीं । व्यक्तोपासक समझता है कि मुझे अपने हाथ की कठपुतली बनाकर भगवान‌ ही सब कुछ करा रहे हैं। कर्ता, भोक्ता सब वे ही हैं । मेरे द्वारा जो कुछ होता है, सब उनकी प्रेरणा से और उन्हीं की शक्ति से होता है। मेरा अस्तित्व ही उनकी इच्छापर अवलम्बित है। यों समझकर वह अपना परम कर्तव्य केवल भगवान्‌का नित्य चिन्तन करना ही मानता है, भगवान्‌ क्या कराते हैं या करायेंगे--इस बातकी वह चिन्ता नहीं करता। वह तो अपने मन-बुद्धि उन्हें सौंपकर निश्चिन्त हो रहता है। भगवान्‌के इन वचनों के अनुसार उसके आचरण होते हैं-
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ॥
.........................( गी० ८ । ७ )
इस उपासनामें दम्भ, दर्प, काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, असत्य और मोहको तनिक-सा भी स्थान नहीं है। उपासक इन दुर्गुणोंसे रहित होकर सारे चराचरमें सर्वत्र अपने उपास्य-देवको देखता हुआ उनके नाम, गुण, प्रभाव और रहस्यके श्रवण, कीर्तन, मनन और ध्यानमें निरत रहता है। भजन-साधन को परम मुख्य माननेपर भी वह कर्त्तव्यकर्मों से कभी मुख नहीं मोड़ता, वरं न्याय से प्राप्त सभी योग्य कर्मोंको निर्भयतापूर्वक धैर्य-बुद्धिसे भगवान्‌के निमित्त करता है। उसके मनमें एक ही सकामभाव रहता है कि अपने प्यारे भगवान्‌की इच्छाके विपरीत कोई भी कार्य मुझसे कभी न बन जाय। उसका यह भाव भी रहता है कि मैं परमात्माका ही प्यारा सेवक हूँ और परमात्मा ही मेरे एकमात्र सेव्य हैं। वे मुझपर दया करके मेरी सेवा स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करनेके लिये ही अपने अव्यक्त अनन्तस्वरूपमें स्थित रहते हुए ही साकार-व्यक्तरूपमें मेरे सामने प्रकट हो रहे हैं। इसलिये वह निरन्तर श्रद्धापूर्वक भगवान्‌का स्मरण करता हुआ ही समस्त कर्म करता है। भगवान्‌ने छठें अध्यायके अन्तमें ऐसे ही भजनपरायण योगीको सर्वश्रेष्ठ योगी माना है-
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्‌ भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः॥
......................( गी० ६ । ४७ )
समस्त योगियोंमें भी जो श्रद्धालु योगी मुझमें लगाये हुए अन्तरात्मासे निरन्तर मुझे भजता है, वही मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ है। इस श्लोकमें आये हुए ‘श्रद्धावान्‌’ और ‘मद्गतैनान्तरात्मना’ के भाव ही द्वादश अध्यायके दूसरे श्लोकमें ‘श्रद्धया परयोपेता’ और ‘मय्यावेश्य मनः’ में व्यक्त हुए हैं । ‘युक्ततम’ शब्द तो दोनों में एक ही है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 10)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 10)
( सम्पादक-कल्याण )
अब व्यक्तोपासक की स्थिति देखिये । गीताका साकारोपासक भक्त अव्यवस्थित चित्त, मूर्ख, अभिमानी, दूसरे का अनिष्ट करनेवाला, धूर्त्त, शोकग्रस्त, आलसी, दीर्घसूत्री, अकर्मण्य, हर्ष-शोकादि से अभिभूत, अशुद्ध आचरण करनेवाला, हिंसक स्वभाववाला, लोभी, कर्मफलका इच्छुक और विषयासक्त नहीं होता। पापके लिये तो उसके अन्दर तनिक भी गुंजायश नहीं रहती । वह अपनी अहंता-ममता अपने प्रियतम परमात्मा के अर्पण कर निर्भय, निश्चिन्त, सिद्धि-असिद्धि में सम, निर्विकार, विषय-विरागी, अनहंवादी, सदाप्रसन्न, सेवा-परायण, धीरज और उत्साह का पुतला, कर्तव्यनिष्ठ और अनासक्त होता है । भगवान्‌ ने यहाँ साकारोपासना का फल और उपासक की महत्ता प्रकट करते हुए संक्षेपमें उसके ये लक्षण बताये हैं कि ‘केवल भगवान्‌ के लिये ही सब कर्म करनेवाला, भगवान्‌ को ही परम गति समझकर उन्हीं के परायण रहनेवाला, भगवान्‌ की ही अनन्य और परम भक्त, सम्पूर्ण सांसारिक विषयों में आसक्तिरहित, सब भूत-प्राणियों में वैरभाव से रहित, मन को परमात्मा में एकाग्र करके नित्य भगवान्‌ के भजन-ध्यान में रत, परम श्रद्धा-सम्पन्न, सर्व कर्मों का भगवान्‌ में भली-भाँति उत्सर्ग करनेवाला और अनन्यभाव से तैलधारावत्‌ परमात्माके ध्यानमें रहकर भजन-चिन्तन करनेवाला ( गीता ११ । १५, १२ । २, १२ । ६-७ )। गीतोक्त व्यक्तोपासक की संक्षेप में यही स्थिति है। भगवान्‌ ने इसी अध्याय के अन्तके ८ श्लोकों में व्यक्तोपासक सिद्ध भक्तके लक्षण विस्तार से बतलाये हैं।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 09)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 09)

( सम्पादक-कल्याण ) 

मन्दिर में, मन्दिर की मूर्ति में, उसकी दीवारमें, पूजामें, पूजाकी सामग्रीमें और पुजारीमें बाहर-भीतर सभी जगह वे ( भगवान् ) वर्तमान हैं। वे सगुण साकाररूपमें भक्तोंके साथ लीला करते हैं और निर्गुण निराकाररूप से बर्फ में जल की भाँति सर्वत्र व्याप्त हैं-‘मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्त मूर्तिना।’ उन परम दयालु प्रभुको हम किसी भी रूप और किसी भी नामसे देख और पुकार सकते हैं। इस रहस्यको समझते हुए हम ब्रह्म, परमात्मा, आनन्द, विष्णु, ब्रह्मा, शिव, राम, कृष्ण, शक्ति, सूर्य, गणेश, अरिहन्त, बुद्ध, अल्लाह, गॉड, जिहोवा आदि किसी भी नाम-रूपसे उनकी उपासना कर सकते हैं। उपासनाके फलस्वरूप जब उनकी कृपासे उनके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान होगा तब सारे संशय आप ही मिट जायँगे। इस रहस्यसे वञ्चित होनेके कारण ही मनुष्य मोहवश भगवान्‌की सीमा-निदश करने लगता है। भगवान्‌ स्वयं कहते हैं-

अजोऽपिसन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोपि सन्‌।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
................( गीता ४ । ६ )

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌॥
..................( गी० ७ । २४ )

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌॥
..................( गी० ९ । ११ )

‘मैं अव्ययात्मा, अजन्मा और सर्व भूतप्राणियोंका ईश्वर रहता हुआ ही अपनी प्रकृतिको अधीन करके ( प्रकृतिके अधीन होकर नहीं ) योगमायासे- लीलासे साकाररूपमें प्रकट होता हूँ।’ ‘अज, अविनाशी रहता हुआ ही मैं अपनी लीलासे प्रकट होता हूँ। मेरे इस परमोत्तम अविनाशी परम रहस्यमय भावको-तत्त्वसे न जाननेके कारण ही बुद्धिहीन मनुष्य मुझ मन-इन्द्रियोंसे परे सच्चिदानन्द परमात्माको साधारण मनुष्यकी भाँति व्यक्तभावको प्राप्त हुआ मानते हैं।’ ‘ऐसे परम भावसे अपरिचित मूढ़ लोग ‘मुझ-रूप-धारी’ सर्वभूतमहेश्वर परमात्माको यथार्थतः नहीं पहचानते।’

इससे यह सिद्ध हुआ कि गीताके सगुण साकार-व्यक्त भगवान्‌, निराकार-अव्यक्त अज और अविनाशी रहते हुए ही साकार मनुष्यादि रूपमें प्रकट हो, लोकोद्धारके लिये विविध लीला किया करते हैं। संक्षेपमें ही यही गीतोक्त व्यक्त उपास्य भगवान्‌का स्वरूप है।

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 08)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 08)
( सम्पादक-कल्याण )
वास्तव में वे धन्य हैं जिनके लिये निराकार ईश्वर साकार बनकर प्रकट होते हैं, क्योंकि वे निराकार-साकार दोनों स्वरूपोंके तत्त्वको जानते हैं, इसीसे निराकाररूपसे अपने रामको सबमें रमा हुआ जानकर भी अव्यक्तरूपसे अपने कृष्णको सबमें व्याप्त समझकर भी धनुर्धारी मर्यादापुरुषोत्तम दशरथी राम-रूपमें और चित्तको आकर्षण करनेवाले मुरलीमनोहर श्रीकृष्णरूपमें उनकी उपासना करते हैं और उनकी लीला देख-देखकर परम आनन्दमें मग्न रहते हैं।
गोसाईजी महाराजने इसीलिये कहा है—
‘निर्गुनरूप सुलभ अति सगुन न जाने कोय।’
अतएव जो ‘सगुण’ सहित निर्गुणको जानते हैं, वे ही भगवान्‌के मतमें ‘योगवित्तम’ हैं!
अब यह देखना है कि गीता के व्यक्त भगवान्‌ का क्या स्वरूप है, उनके उपासक की कैसी स्थिति और कैसे आचरण हैं और इस उपासनाकी प्रधान पद्धति क्या है? क्रमसे तीनोंपर विचार कीजिये--
गीतोक्त साकार उपास्यदेव एकदेशीय या सीमाबद्ध भगवान्‌ नहीं हैं। वे निराकार भी हैं और साकार भी हैं। जो साकारोपासक अपने भगवान्‌ की सीमा बाँधते हैं, वे अपने ही भगवान्‌ को छोटा बनाते हैं। गीता के साकार भगवान्‌ किसी एक मूर्ति, नाम या धाम विशेष में ही सीमित नहीं हैं। वे सत्‌, चेतन, आनन्दघन, विज्ञानानन्दमय, पूर्ण, सनातन, अनादि, अनन्त, अज, अव्यय, शान्त, सर्वव्यापी होते हुए भी सर्वशक्तिमान्‌, सर्वान्तर्यामी, सृष्टिकर्त्ता, परम दयालु, परम सुहृद्, परम उदार, परम प्रेमी, परम मनोहर, परम रसिक, परम प्रभु और परम शूर-शिरोमणि हैं। वे जन्म लेते हुए दीखनेपर भी अजन्मा हैं। वे साकार व्यक्तरूपमें रहनेपर भी निराकार हैं और निराकार होकर भी साकार हैं। वे एक या एक ही साथ अनेक स्थानों में व्यक्तरूप से अवतीर्ण होकर भी अपने अव्यक्तरूप से, अपनी अनन्त सत्ता से सर्वत्र सर्वदा और सर्वथा स्थित हैं।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 08)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 08)
( सम्पादक-कल्याण )
वास्तव में वे धन्य हैं जिनके लिये निराकार ईश्वर साकार बनकर प्रकट होते हैं, क्योंकि वे निराकार-साकार दोनों स्वरूपोंके तत्त्वको जानते हैं, इसीसे निराकाररूपसे अपने रामको सबमें रमा हुआ जानकर भी अव्यक्तरूपसे अपने कृष्णको सबमें व्याप्त समझकर भी धनुर्धारी मर्यादापुरुषोत्तम दशरथी राम-रूपमें और चित्तको आकर्षण करनेवाले मुरलीमनोहर श्रीकृष्णरूपमें उनकी उपासना करते हैं और उनकी लीला देख-देखकर परम आनन्दमें मग्न रहते हैं।
गोसाईजी महाराजने इसीलिये कहा है—
‘निर्गुनरूप सुलभ अति सगुन न जाने कोय।’
अतएव जो ‘सगुण’ सहित निर्गुणको जानते हैं, वे ही भगवान्‌के मतमें ‘योगवित्तम’ हैं!
अब यह देखना है कि गीता के व्यक्त भगवान्‌ का क्या स्वरूप है, उनके उपासक की कैसी स्थिति और कैसे आचरण हैं और इस उपासनाकी प्रधान पद्धति क्या है? क्रमसे तीनोंपर विचार कीजिये--
गीतोक्त साकार उपास्यदेव एकदेशीय या सीमाबद्ध भगवान्‌ नहीं हैं। वे निराकार भी हैं और साकार भी हैं। जो साकारोपासक अपने भगवान्‌ की सीमा बाँधते हैं, वे अपने ही भगवान्‌ को छोटा बनाते हैं। गीता के साकार भगवान्‌ किसी एक मूर्ति, नाम या धाम विशेष में ही सीमित नहीं हैं। वे सत्‌, चेतन, आनन्दघन, विज्ञानानन्दमय, पूर्ण, सनातन, अनादि, अनन्त, अज, अव्यय, शान्त, सर्वव्यापी होते हुए भी सर्वशक्तिमान्‌, सर्वान्तर्यामी, सृष्टिकर्त्ता, परम दयालु, परम सुहृद्, परम उदार, परम प्रेमी, परम मनोहर, परम रसिक, परम प्रभु और परम शूर-शिरोमणि हैं। वे जन्म लेते हुए दीखनेपर भी अजन्मा हैं। वे साकार व्यक्तरूपमें रहनेपर भी निराकार हैं और निराकार होकर भी साकार हैं। वे एक या एक ही साथ अनेक स्थानों में व्यक्तरूप से अवतीर्ण होकर भी अपने अव्यक्तरूप से, अपनी अनन्त सत्ता से सर्वत्र सर्वदा और सर्वथा स्थित हैं।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 07)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 07)
( सम्पादक-कल्याण )
वे व्यक्तोपासक, भगवान्‌ की सगुण लीलाओंका आनन्द विशेष पाते हैं और उसे त्रिताप-तप्त लोगोंमें बाँटकर उनका उद्धार करते हैं। वयक्तोपासक अव्यक्त-तत्त्वज्ञानके साथ ही व्यक्त-तत्त्वको भी जानते हैं, व्यक्तोपासनाका मार्ग जानते हैं, उसके आनन्दको उपलब्ध करते हैं और लोगोंको दे सकते हैं। वे दोनों प्रकारके तत्त्व जानते, उनका आनन्द लेते और लोगोंको बतला सकते हैं। इसलिये भगवान्‌के मतमें वे ‘योगवित्तम’ हैं, योगियोंमें उत्तम है।
वास्तवमें बात भी यही है। प्रेमके बिना रहस्यकी गुह्य बातें नहीं जानी जा सकतीं। किसी राजाके एक तो दीवान है और दूसरा राजाका परम विश्वासपात्र व्यक्तिगत प्रेमी सेवक है। दीवानको राजव्यवस्थाके सभी अधिकार प्राप्त हैं। वह राज्य-सम्बन्धी सभी कार्योंकी देख-रेख और सुव्यवस्था करता है। इतना होनेपर भी राजाके मनकी गुप्त बातोंको नहीं जानता और न वह राजाके साथ अन्तःपुर आदि सभी स्थानों में अबाधरूप से जा ही सकता है। ‘विहार-शय्यासन-भोजनादि’ में एकान्त देश में उसको राजाके साथ रहनेका कोई अधिकार नहीं है। यद्यपि राज्य-सम्बन्धी सारे काम उसी की सलाह से होते हैं। इधर वह राजाका व्यक्तिगत प्रेमी मित्र यद्यपि राज्यसम्बन्धी कार्यमें प्रकाश्यरूपसे कुछ भी दखल नहीं रखता, परन्तु राजाकी इच्छानुसार प्रत्येक कार्यमें वह राजाको प्राइवेटमें अपनी सम्मति देता है और राजा भी उसीकी सम्मतिके अनुसार कार्य करता है। राजा अपने मनकी गोपनीयसे गोपनीय भी सारी बातें उसके सामने निःशंक भावसे कह देता है। राजाका यह निश्चय रहता है कि यह मेरा प्रेमी सखा दीवानसे किसी हालतमें कम नहीं है। दीवानी का पद तो यह चाहे तो इसको अभी दिया जा सकता है। जब मैं ही इसका हूँ, तब दीवानी का पद कौन बड़ी बात है ? परन्तु उस मन्त्री के पद को न तो वह प्रेमी चाहता है और न राजा उसे देने में ही सुभीता समझता है, क्योंकि दीवानी का पद दे देनेपर मर्यादा के अनुसार वह राजकार्य के सिवा राजा के निजी कार्यों में साथ नहीं रह सकता, जिनमें उसकी परम आवश्यकता है। क्योंकि वह मन्त्रीत्व पदका त्यागी प्रेमी सेवक राजाका अत्यन्त प्रियपात्र है, उसका सखा है, इष्ट है। यहाँ राजाके स्थानमें परमात्मा, दीवान के स्थान में अव्यक्तोपासक ज्ञानी और प्रेमी सखा के स्थानमें व्यक्तोपासक प्यारा भक्त है। अव्यक्तोपासक पूर्ण अधिकारी है, परन्तु वह राजा ( परमात्मा )का अन्तरंग सखा नहीं। उसकी निजी लीलाओं से न तो परिचित है और न उसके आनन्दमें सम्मिलित है। वह राज्य का सेवक है, राजा का नहीं। परन्तु वह प्यारा भक्त तो राजा का निजी सेवक है। राजा का विश्वासपात्र होनेके नाते राज्यका सेवक तो हो ही गया। इसीलिये व्यक्तोपासक मुक्ति न लेकर भगवच्चरणों की नित्य सेवा माँगा करते हैं, भगवान्‌ की लीला में शामिल रहनेमें ही उन्हें आनन्द मिलता है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 07)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 07)
( सम्पादक-कल्याण )
वे व्यक्तोपासक, भगवान्‌ की सगुण लीलाओंका आनन्द विशेष पाते हैं और उसे त्रिताप-तप्त लोगोंमें बाँटकर उनका उद्धार करते हैं। वयक्तोपासक अव्यक्त-तत्त्वज्ञानके साथ ही व्यक्त-तत्त्वको भी जानते हैं, व्यक्तोपासनाका मार्ग जानते हैं, उसके आनन्दको उपलब्ध करते हैं और लोगोंको दे सकते हैं। वे दोनों प्रकारके तत्त्व जानते, उनका आनन्द लेते और लोगोंको बतला सकते हैं। इसलिये भगवान्‌के मतमें वे ‘योगवित्तम’ हैं, योगियोंमें उत्तम है।
वास्तवमें बात भी यही है। प्रेमके बिना रहस्यकी गुह्य बातें नहीं जानी जा सकतीं। किसी राजाके एक तो दीवान है और दूसरा राजाका परम विश्वासपात्र व्यक्तिगत प्रेमी सेवक है। दीवानको राजव्यवस्थाके सभी अधिकार प्राप्त हैं। वह राज्य-सम्बन्धी सभी कार्योंकी देख-रेख और सुव्यवस्था करता है। इतना होनेपर भी राजाके मनकी गुप्त बातोंको नहीं जानता और न वह राजाके साथ अन्तःपुर आदि सभी स्थानों में अबाधरूप से जा ही सकता है। ‘विहार-शय्यासन-भोजनादि’ में एकान्त देश में उसको राजाके साथ रहनेका कोई अधिकार नहीं है। यद्यपि राज्य-सम्बन्धी सारे काम उसी की सलाह से होते हैं। इधर वह राजाका व्यक्तिगत प्रेमी मित्र यद्यपि राज्यसम्बन्धी कार्यमें प्रकाश्यरूपसे कुछ भी दखल नहीं रखता, परन्तु राजाकी इच्छानुसार प्रत्येक कार्यमें वह राजाको प्राइवेटमें अपनी सम्मति देता है और राजा भी उसीकी सम्मतिके अनुसार कार्य करता है। राजा अपने मनकी गोपनीयसे गोपनीय भी सारी बातें उसके सामने निःशंक भावसे कह देता है। राजाका यह निश्चय रहता है कि यह मेरा प्रेमी सखा दीवानसे किसी हालतमें कम नहीं है। दीवानी का पद तो यह चाहे तो इसको अभी दिया जा सकता है। जब मैं ही इसका हूँ, तब दीवानी का पद कौन बड़ी बात है ? परन्तु उस मन्त्री के पद को न तो वह प्रेमी चाहता है और न राजा उसे देने में ही सुभीता समझता है, क्योंकि दीवानी का पद दे देनेपर मर्यादा के अनुसार वह राजकार्य के सिवा राजा के निजी कार्यों में साथ नहीं रह सकता, जिनमें उसकी परम आवश्यकता है। क्योंकि वह मन्त्रीत्व पदका त्यागी प्रेमी सेवक राजाका अत्यन्त प्रियपात्र है, उसका सखा है, इष्ट है। यहाँ राजाके स्थानमें परमात्मा, दीवान के स्थान में अव्यक्तोपासक ज्ञानी और प्रेमी सखा के स्थानमें व्यक्तोपासक प्यारा भक्त है। अव्यक्तोपासक पूर्ण अधिकारी है, परन्तु वह राजा ( परमात्मा )का अन्तरंग सखा नहीं। उसकी निजी लीलाओं से न तो परिचित है और न उसके आनन्दमें सम्मिलित है। वह राज्य का सेवक है, राजा का नहीं। परन्तु वह प्यारा भक्त तो राजा का निजी सेवक है। राजा का विश्वासपात्र होनेके नाते राज्यका सेवक तो हो ही गया। इसीलिये व्यक्तोपासक मुक्ति न लेकर भगवच्चरणों की नित्य सेवा माँगा करते हैं, भगवान्‌ की लीला में शामिल रहनेमें ही उन्हें आनन्द मिलता है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)
( सम्पादक-कल्याण )
अव्यक्तोपासक परम धाममें पहुँचकर मुक्त हो वहीं रह जाते हैं। वे परमात्मामें घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। वे वहाँसे वापस लौट ही नहीं सकते। इससे न तो उन्हें परमधाम जानेके मार्गमें साकार भगवान्‌के संग, उनके दर्शन, उनके साथ वार्तालाप और उनकी लीला देखनेका आनन्द मिलता है और न वे परमधामके पट्टेदार होकर सगुण भगवान्‌की लीलामें सम्मिलित हो उन्हींकी भाँति निपुण नाविक बनकर वापस ही आते हैं। ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’के अनुसार उनके बुद्धि आदि करण जो उनको दिव्यधाममें छोड़कर वहाँसे वापस लौटते हैं, वे भी साधारण मनुष्योंके सामने अव्यक्तोपासना-पथके उन्हीं नाना प्रकारके क्लेशोंके दृश्य रखकर परम धामकी प्राप्तिको ऐसी कष्टसाध्य और दुःख-लब्ध बता देते हैं कि लोग सहम जाते हैं। उनका वैसे दृश्य सामने रखना ठीक ही है, क्योंकि उन्होंने अव्यक्तोपासनाके कण्टकाकीर्ण मार्ग में वही देखे हैं । उन्हें प्रेममय श्यामसुन्दर के सलोने मुखड़े का तो कभी दर्शन हुआ ही नहीं, तब वे उस दिव्य रस का स्वाद लोगों को कैसे बतलाते ? इसके विपरीत व्यक्तोपासक अपनी मुक्ति को भगवान्‌ के खजाने में धरोहर के रूपमें रखकर उनकी मंगलमयी आज्ञा से पुनः संसार में आते हैं और भगवत्प्रेम के परम आनन्द-रस-समुद्रमें निमग्न हुए, देहाभिमानी होनेपर भी भगवान्‌ के मंगलमय मनोहर साकाररूपमें एकान्तरूप से मनको एकाग्र करके उन्हींके लिये सर्व कर्म करनेवाले असंख्य लोगोंको दृढ़ और सुखपूर्ण नौकाओंपर चढ़ा-चढ़ा-कर संसारसे पार उतार देते हैं। यहाँ कोई यह कहे कि ‘जैसे निराकारोपासक साकारके दर्शन और उनकी लीलाके आनन्दसे वञ्चित रहते हैं, वैसे ही साकार के उपासक ब्रह्मानन्दसे वञ्चित रहते होंगे।’ उन्हें परमात्मा का तत्त्वज्ञान नहीं होता होगा, परन्तु यह बात नहीं है।
निरे निराकारोपासक अपने बलसे जिस तत्त्वज्ञान को प्राप्त करते हैं, भगवान्‌ के प्रेमी साकारोपासकों को वही तत्त्वज्ञान भगवत्कृपासे मिल जाता है। भक्तराज ध्रुवजी का इतिहास प्रसिद्ध है। ध्रुव व्यक्तोपासक थे। ‘पद्म-पलाश-लोचन’ नारायण को आँखों से देखना चाहते थे। उनके प्रेमके प्रभावसे परमात्मा श्रीनारायण प्रकट हुए और अपना दिव्य शंख कपोलोंसे स्पर्श कराकर उन्हें उसी क्षण परम तत्त्वज्ञ बना दिया। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्तोपासक को अव्यक्तोपासकों का ध्येय तत्त्वज्ञान तो भगवत्कृपा से मिल ही जाता है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)
( सम्पादक-कल्याण )
अव्यक्तोपासक परम धाममें पहुँचकर मुक्त हो वहीं रह जाते हैं। वे परमात्मामें घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। वे वहाँसे वापस लौट ही नहीं सकते। इससे न तो उन्हें परमधाम जानेके मार्गमें साकार भगवान्‌के संग, उनके दर्शन, उनके साथ वार्तालाप और उनकी लीला देखनेका आनन्द मिलता है और न वे परमधामके पट्टेदार होकर सगुण भगवान्‌की लीलामें सम्मिलित हो उन्हींकी भाँति निपुण नाविक बनकर वापस ही आते हैं। ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’के अनुसार उनके बुद्धि आदि करण जो उनको दिव्यधाममें छोड़कर वहाँसे वापस लौटते हैं, वे भी साधारण मनुष्योंके सामने अव्यक्तोपासना-पथके उन्हीं नाना प्रकारके क्लेशोंके दृश्य रखकर परम धामकी प्राप्तिको ऐसी कष्टसाध्य और दुःख-लब्ध बता देते हैं कि लोग सहम जाते हैं। उनका वैसे दृश्य सामने रखना ठीक ही है, क्योंकि उन्होंने अव्यक्तोपासनाके कण्टकाकीर्ण मार्ग में वही देखे हैं । उन्हें प्रेममय श्यामसुन्दर के सलोने मुखड़े का तो कभी दर्शन हुआ ही नहीं, तब वे उस दिव्य रस का स्वाद लोगों को कैसे बतलाते ? इसके विपरीत व्यक्तोपासक अपनी मुक्ति को भगवान्‌ के खजाने में धरोहर के रूपमें रखकर उनकी मंगलमयी आज्ञा से पुनः संसार में आते हैं और भगवत्प्रेम के परम आनन्द-रस-समुद्रमें निमग्न हुए, देहाभिमानी होनेपर भी भगवान्‌ के मंगलमय मनोहर साकाररूपमें एकान्तरूप से मनको एकाग्र करके उन्हींके लिये सर्व कर्म करनेवाले असंख्य लोगोंको दृढ़ और सुखपूर्ण नौकाओंपर चढ़ा-चढ़ा-कर संसारसे पार उतार देते हैं। यहाँ कोई यह कहे कि ‘जैसे निराकारोपासक साकारके दर्शन और उनकी लीलाके आनन्दसे वञ्चित रहते हैं, वैसे ही साकार के उपासक ब्रह्मानन्दसे वञ्चित रहते होंगे।’ उन्हें परमात्मा का तत्त्वज्ञान नहीं होता होगा, परन्तु यह बात नहीं है।
निरे निराकारोपासक अपने बलसे जिस तत्त्वज्ञान को प्राप्त करते हैं, भगवान्‌ के प्रेमी साकारोपासकों को वही तत्त्वज्ञान भगवत्कृपासे मिल जाता है। भक्तराज ध्रुवजी का इतिहास प्रसिद्ध है। ध्रुव व्यक्तोपासक थे। ‘पद्म-पलाश-लोचन’ नारायण को आँखों से देखना चाहते थे। उनके प्रेमके प्रभावसे परमात्मा श्रीनारायण प्रकट हुए और अपना दिव्य शंख कपोलोंसे स्पर्श कराकर उन्हें उसी क्षण परम तत्त्वज्ञ बना दिया। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्तोपासक को अव्यक्तोपासकों का ध्येय तत्त्वज्ञान तो भगवत्कृपा से मिल ही जाता है।
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४९)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४९)

अन्नमय कोश

पाणिपादादिमान्देहो नात्मा व्यंगेऽपि जीवनात् ।
तत्तच्छक्तेरनाशाच्च न नियम्यो नियामकः ॥ १५८ ॥

(यह हाथ-पैरों वाला शरीर आत्मा नहीं हो सकता,क्योंकि उसके अंग-भंग होने पर भी अपनी शक्ति का नाश न होने के कारण पुरुष जीवित रहता है | इसके सिवा जो शरीर स्वयं शासित है , वह शासक आत्मा कभी नहीं हो सकता)

देहतद्धर्मतत्कर्मतदवस्थादिसाक्षिणः ।
स्वत एव स्वतः सिद्धं तद्वैलक्षण्यमात्मन: ॥ १५९ ॥

(देह, उसके धर्म, उसके कर्म तथा उसकी अवस्थाओं के साक्षी आत्मा की उससे पृथकता स्वयं ही स्वत:सिद्ध है)

कुल्यराशिर्मांसलिप्तो मलपूर्णोऽतिकश्मलः ।
कथं भवेदयं वेत्ता स्वयमेतद्विलक्षणः ॥ १६० ॥

(हड्डियों का समूह, मांस से लिथड़ा हुआ और मल से भरा हुआ यह अति कुत्सित देह, अपने से भिन्न अपना जानने वाला स्वयं ही कैसे हो सकता है ?)

त्वङ्मांसमेदोऽस्थिपुरीषराशा-
वहंमतिं मूढजनः करोति ।
विलक्षणं वेत्ति विचारशीलो
निजस्वरूपं परमार्थभूतम् ॥ १६१ ॥

(त्वचा, मांस, मेद, अस्थि और मल की राशिरूप इस देह में मूढजन ही अहंबुद्धि करते हैं | विचारशील तो अपने पारमार्थिक स्वरूप को इससे पृथक् ही जानते हैं)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...