॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
गौओं
और गोपों को दावानल से बचाना
ततः
समन्ताद् वनधूमकेतुः
यदृच्छयाभूत्
क्षयकृत् वनौकसाम् ।
समीरितः
सारथिनोल्बणोल्मुकैः
विलेलिहानः
स्थिरजङ्गमान् महान् ॥ ७ ॥
तं
आपतन्तं परितो दवाग्निं
गोपाश्च
गावः प्रसमीक्ष्य भीताः ।
ऊचुश्च
कृष्णं सबलं प्रपन्ना
यथा
हरिं मृत्युभयार्दिता जनाः ॥ ८ ॥
कृष्ण
कृष्ण महावीर हे रामामित विक्रम ।
दावाग्निना
दह्यमानान् प्रपन्नान् त्रातुमर्हथः ॥ ९ ॥
नूनं
त्वद्बान्धवाः कृष्ण न चार्हन्त्यवसीदितुम् ।
वयं
हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथाः त्वत्परायणाः ॥ १० ॥
श्रीशुक
उवाच ।
वचो
निशम्य कृपणं बन्धूनां भगवान् हरिः ।
निमीलयत
मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत ॥ ११ ॥
तथेति
मीलिताक्षेषु भगवान् अग्निमुल्बणम् ।
पीत्वा
मुखेन तान्कृच्छ्राद् योगाधीशो व्यमोचयत् ॥ १२ ॥
ततश्च
तेऽक्षीण्युन्मील्य पुनर्भाण्डीरमापिताः ।
निशाम्य
विस्मिता आसन् आत्मानं गाश्च मोचिताः ॥ १३ ॥
कृष्णस्य
योगवीर्यं तद् योगमायानुभावितम् ।
दावाग्नेरात्मनः
क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम् ॥ १४ ॥
गाः
सन्निवर्त्य सायाह्ने सहरामो जनार्दनः ।
वेणुं
विरणयन् गोष्ठं अगाद् गोपैरभिष्टुतः ॥ १५ ॥
गोपीनां
परमानन्द आसीद् गोविन्ददर्शने ।
क्षणं
युगशतमिव यासां येन विनाभवत् ॥ १६ ॥
परीक्षित्
! इस प्रकार भगवान् उन गायोंको पुकार ही रहे थे कि उस वनमें सब ओर अकस्मात्
दावाग्नि लग गयी,
जो वनवासी जीवोंका काल ही होती है। साथ ही बड़े जोरकी आँधी भी चलकर
उस अग्नि के बढऩेमें सहायता देने लगी। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी
भयङ्कर लपटोंसे समस्त चराचर जीवोंको भस्मसात् करने लगी ॥ ७ ॥ जब ग्वालों और गोओंने
देखा कि दावानल चारों ओरसे हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब
वे अत्यन्त भयभीत हो गये। और मृत्युके भयसे डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान् की
शरणमें आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजीके शरणापन्न
होकर उन्हें पुकारते हुए बोले— ॥ ८ ॥ ‘महावीर
श्रीकृष्ण ! प्यारे श्रीकृष्ण ! परम बलशाली बलराम ! हम तुम्हारे शरणागत हैं। देखो,
इस समय हम दावानलसे जलना ही चाहते हैं। तुम दोनों हमें इससे बचाओ ॥
९ ॥ श्रीकृष्ण ! जिनके तुम्हीं भाई-बन्धु और सब कुछ हो, उन्हें
तो किसी प्रकारका कष्ट नहीं होना चाहिये। सब धर्मोंके ज्ञाता श्यामसुन्दर !
तुम्हीं हमारे एकमात्र रक्षक एवं स्वामी हो; हमें केवल
तुम्हारा ही भरोसा है’ ॥ १० ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—अपने सखा ग्वालबालोंके ये दीनतासे भरे वचन सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो’ ॥ ११ ॥ भगवान् की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालोंने कहा ‘बहुत अच्छा’ और अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर
भगवान् श्रीकृष्णने उस भयङ्कर आगको अपने मुँहसे पी लिया [*] और इस प्रकार उन्हें
उस घोर संकटसे छुड़ा दिया ॥ १२ ॥ इसके बाद जब ग्वालबालोंने अपनी-अपनी आँखें खोलकर
देखा, तब अपनेको भाण्डीर वटके पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको
और गौओंको दावानलसे बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए ॥ १३ ॥ श्रीकृष्णकी
इस योगसिद्धि तथा योगमायाके प्रभावको एवं दावानलसे अपनी रक्षाको देखकर उन्होंने
यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं ॥ १४ ॥
परीक्षित्
! सायंकाल होनेपर बलरामजीके साथ भगवान् श्रीकृष्णने गौएँ लौटायीं और वंशी बजाते
हुए उनके पीछे-पीछे व्रजकी यात्रा की। उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे
॥ १५ ॥ इधर व्रजमें गोपियोंको श्रीकृष्णके बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युगके समान हो
रहा था। जब भगवान् श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानन्दमें मग्न हो
गयीं ॥ १६ ॥
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[*]
१. भगवान् श्रीकृष्ण भक्तोंके द्वारा अर्पित प्रेम-भक्ति सुधा-रसका पान करते हैं।
अग्नि के मनमें उसीका स्वाद लेनेकी लालसा हो आयी। इसलिये उसने स्वयं ही मुखमें
प्रवेश किया।
२.
विषाग्नि,
मुञ्जाग्नि और दावाग्नि—तीनोंका पान करके
भगवान् ने अपनी त्रितापनाश की शक्ति व्यक्त की।
३.
पहले रात्रिमें अग्निपान किया था, दूसरी बार दिनमें। भगवान् अपने
भक्तजनोंका ताप हरनेके लिये सदा तत्पर रहते हैं।
४.
पहली बार सबके सामने और दूसरी बार सबकी आँखें बंद कराके श्रीकृष्णने अग्निपान
किया। इसका अभिप्राय यह है कि भगवान् परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही प्रकार से
भक्तजनोंका हित करते हैं।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से