शनिवार, 27 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

गौओं और गोपों को दावानल से बचाना

 

ततः समन्ताद् वनधूमकेतुः

यदृच्छयाभूत् क्षयकृत् वनौकसाम् ।

समीरितः सारथिनोल्बणोल्मुकैः

विलेलिहानः स्थिरजङ्‌गमान् महान् ॥ ७ ॥

तं आपतन्तं परितो दवाग्निं

गोपाश्च गावः प्रसमीक्ष्य भीताः ।

ऊचुश्च कृष्णं सबलं प्रपन्ना

यथा हरिं मृत्युभयार्दिता जनाः ॥ ८ ॥

कृष्ण कृष्ण महावीर हे रामामित विक्रम ।

दावाग्निना दह्यमानान् प्रपन्नान् त्रातुमर्हथः ॥ ९ ॥

नूनं त्वद्‍बान्धवाः कृष्ण न चार्हन्त्यवसीदितुम् ।

वयं हि सर्वधर्मज्ञ त्वन्नाथाः त्वत्परायणाः ॥ १० ॥

 

श्रीशुक उवाच ।

वचो निशम्य कृपणं बन्धूनां भगवान् हरिः ।

निमीलयत मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत ॥ ११ ॥

तथेति मीलिताक्षेषु भगवान् अग्निमुल्बणम् ।

पीत्वा मुखेन तान्कृच्छ्राद् योगाधीशो व्यमोचयत् ॥ १२ ॥

ततश्च तेऽक्षीण्युन्मील्य पुनर्भाण्डीरमापिताः ।

निशाम्य विस्मिता आसन् आत्मानं गाश्च मोचिताः ॥ १३ ॥

कृष्णस्य योगवीर्यं तद् योगमायानुभावितम् ।

दावाग्नेरात्मनः क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम् ॥ १४ ॥

गाः सन्निवर्त्य सायाह्ने सहरामो जनार्दनः ।

वेणुं विरणयन् गोष्ठं अगाद् गोपैरभिष्टुतः ॥ १५ ॥

गोपीनां परमानन्द आसीद् गोविन्ददर्शने ।

क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत् ॥ १६ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार भगवान्‌ उन गायोंको पुकार ही रहे थे कि उस वनमें सब ओर अकस्मात् दावाग्नि लग गयी, जो वनवासी जीवोंका काल ही होती है। साथ ही बड़े जोरकी आँधी भी चलकर उस अग्नि के बढऩेमें सहायता देने लगी। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयङ्कर लपटोंसे समस्त चराचर जीवोंको भस्मसात् करने लगी ॥ ७ ॥ जब ग्वालों और गोओंने देखा कि दावानल चारों ओरसे हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गये। और मृत्युके भयसे डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान्‌ की शरणमें आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजीके शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले॥ ८ ॥ महावीर श्रीकृष्ण ! प्यारे श्रीकृष्ण ! परम बलशाली बलराम ! हम तुम्हारे शरणागत हैं। देखो, इस समय हम दावानलसे जलना ही चाहते हैं। तुम दोनों हमें इससे बचाओ ॥ ९ ॥ श्रीकृष्ण ! जिनके तुम्हीं भाई-बन्धु और सब कुछ हो, उन्हें तो किसी प्रकारका कष्ट नहीं होना चाहिये। सब धर्मोंके ज्ञाता श्यामसुन्दर ! तुम्हीं हमारे एकमात्र रक्षक एवं स्वामी हो; हमें केवल तुम्हारा ही भरोसा है॥ १० ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंअपने सखा ग्वालबालोंके ये दीनतासे भरे वचन सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो॥ ११ ॥ भगवान्‌ की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालोंने कहा बहुत अच्छाऔर अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने उस भयङ्कर आगको अपने मुँहसे पी लिया [*] और इस प्रकार उन्हें उस घोर संकटसे छुड़ा दिया ॥ १२ ॥ इसके बाद जब ग्वालबालोंने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा, तब अपनेको भाण्डीर वटके पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओंको दावानलसे बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए ॥ १३ ॥ श्रीकृष्णकी इस योगसिद्धि तथा योगमायाके प्रभावको एवं दावानलसे अपनी रक्षाको देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं ॥ १४ ॥

 

परीक्षित्‌ ! सायंकाल होनेपर बलरामजीके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णने गौएँ लौटायीं और वंशी बजाते हुए उनके पीछे-पीछे व्रजकी यात्रा की। उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे ॥ १५ ॥ इधर व्रजमें गोपियोंको श्रीकृष्णके बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युगके समान हो रहा था। जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानन्दमें मग्न हो गयीं ॥ १६ ॥

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[*] १. भगवान्‌ श्रीकृष्ण भक्तोंके द्वारा अर्पित प्रेम-भक्ति सुधा-रसका पान करते हैं। अग्नि के मनमें उसीका स्वाद लेनेकी लालसा हो आयी। इसलिये उसने स्वयं ही मुखमें प्रवेश किया।

२. विषाग्नि, मुञ्जाग्नि और दावाग्नितीनोंका पान करके भगवान्‌ ने अपनी त्रितापनाश की शक्ति व्यक्त की।

३. पहले रात्रिमें अग्निपान किया था, दूसरी बार दिनमें। भगवान्‌ अपने भक्तजनोंका ताप हरनेके लिये सदा तत्पर रहते हैं।

४. पहली बार सबके सामने और दूसरी बार सबकी आँखें बंद कराके श्रीकृष्णने अग्निपान किया। इसका अभिप्राय यह है कि भगवान्‌ परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही प्रकार से भक्तजनोंका हित करते हैं।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

गौओं और गोपों को दावानल से बचाना

 

श्रीशुक उवाच ।

क्रीडासक्तेषु गोपेषु तद्‍गावो दूरचारिणीः ।

स्वैरं चरन्त्यो विविशुः तृणलोभेन गह्वरम् ॥ १ ॥

अजा गावो महिष्यश्च निर्विशन्त्यो वनाद् वनम् ।

ईषीकाटवीं निर्विविशुः क्रन्दन्त्यो दावतर्षिताः ॥ २ ॥

तेऽपश्यन्तः पशून् गोपाः कृष्णरामादयस्तदा ।

जातानुतापा न विदुः विचिन्वन्तो गवां गतिम् ॥ ३ ॥

तृणैस्तत्खुरदच्छिन्नैः गोष्पदैः अंकितैर्गवाम् ।

मार्गं अन्वगमन् सर्वे नष्टाजीव्या विचेतसः ॥ ४ ॥

मुञ्जाटव्यां भ्रष्टमार्गं क्रन्दमानं स्वगोधनम् ।

सम्प्राप्य तृषिताः श्रान्ताः ततस्ते संन्यवर्तयन् ॥ ५ ॥

ता आहूता भगवता मेघगम्भीरया गिरा ।

स्वनाम्नां निनदं श्रुत्वा प्रतिनेदुः प्रहर्षिताः ॥ ६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! उस समय जब ग्वालबाल खेल-कूदमें लग गये, तब उनकी गौएँ बेरोक-टोक चरती हुई बहुत दूर निकल गयीं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वनमें घुस गयीं ॥ १ ॥ उनकी बकरियाँ, गायें और भैंसें एक वनसे दूसरे वनमें होती हुई आगे बढ़ गयीं तथा गर्मीके तापसे व्याकुल हो गयीं। वे बेसुध-सी होकर अन्तमें डकराती हुई मुञ्जाटवी (सरकंडोंके वन)में घुस गयीं ॥ २ ॥ जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओंका तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूदपर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करनेपर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके ॥ ३ ॥ गौएँ ही तो व्रजवासियों की जीविका का साधन थीं। उनके न मिलनेसे वे अचेत-से हो रहे थे। अब वे गौओंके खुर और दाँतोंसे कटी हुई घास तथा पृथ्वीपर बने हुए खुरोंके चिह्नोंसे उनका पता लगाते हुए आगे बढ़े ॥ ४ ॥ अन्तमें उन्होंने देखा कि उनकी गौएँ मुञ्जाटवी में रास्ता भूलकर डकरा रही हैं। उन्हें पाकर वे लौटानेकी चेष्टा करने लगे। उस समय वे एकदम थक गये थे और उन्हें प्यास भी बड़े जोरसे लगी हुई थी। इससे वे व्याकुल हो रहे थे ॥ ५ ॥ उनकी यह दशा देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी मेघ के समान गम्भीर वाणीसे नाम ले-लेकर गौओं को पुकारने लगे। गौएँ अपने नामकी ध्वनि सुनकर बहुत हर्षित हुर्ईं। वे भी उत्तर में हुंकारने और रँभाने लगीं ॥ ६ ॥

 

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शुक्रवार, 26 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

प्रलम्बासुर-उद्धार

 

पशूंश्चारयतोर्गोपैस्तद्वने रामकृष्णयोः

गोपरूपी प्रलम्बोऽगादसुरस्तज्जिहीर्षया ॥ १७ ॥

तं विद्वानपि दाशार्हो भगवान्सर्वदर्शनः

अन्वमोदत तत्सख्यं वधं तस्य विचिन्तयन् ॥ १८ ॥

तत्रोपाहूय गोपालान्कृष्णः प्राह विहारवित्

हे गोपा विहरिष्यामो द्वन्द्वीभूय यथायथम् ॥ १९ ॥

तत्र चक्रुः परिवृढौ गोपा रामजनार्दनौ

कृष्णसङ्घट्टिनः केचिदासन्रामस्य चापरे ॥ २० ॥

आचेरुर्विविधाः क्रीडा वाह्यवाहकलक्षणाः

यत्रारोहन्ति जेतारो वहन्ति च पराजिताः ॥ २१ ॥

वहन्तो वाह्यमानाश्च चारयन्तश्च गोधनम्

भाण्डीरकं नाम वटं जग्मुः कृष्णपुरोगमाः ॥ २२ ॥

रामसङ्घट्टिनो यर्हि श्रीदामवृषभादयः

क्रीडायां जयिनस्तांस्तानूहुः कृष्णादयो नृप ॥ २३ ॥

उवाह कृष्णो भगवान्श्रीदामानं पराजितः

वृषभं भद्रसेनस्तु प्रलम्बो रोहिणीसुतम् ॥ २४ ॥

अविषह्यं मन्यमानः कृष्णं दानवपुङ्गवः

वहन् द्रुततरं प्रागादवरोहणतः परम् ॥ २५ ॥

तमुद्वहन्धरणिधरेन्द्र गौरवं

महासुरो विगतरयो निजं वपुः

स आस्थितः पुरटपरिच्छदो बभौ

तडिद्द्युमानुडुपतिवाडिवाम्बुदः ॥ २६ ॥

निरीक्ष्य तद्वपुरलमम्बरे चरत्-

प्रदीप्तदृग्भ्रुकुटितटोग्रदंष्ट्रकम्

ज्वलच्छिखं कटककिरीटकुण्डल-

त्विषाद्भुतं हलधर ईषदत्रसत् ॥ २७ ॥

अथागतस्मृतिरभयो रिपुं बलो

विहाय सार्थमिव हरन्तमात्मनः

रुषाहनच्छिरसि दृढेन मुष्टिना

सुराधिपो गिरिमिव वज्ररंहसा ॥ २८ ॥

स आहतः सपदि विशीर्णमस्तको

मुखाद्वमन्रुधिरमपस्मृतोऽसुरः

महारवं व्यसुरपतत्समीरयन्-

गिरिर्यथा मघवत आयुधाहतः ॥ २९ ॥

दृष्ट्वा प्रलम्बं निहतं बलेन बलशालिना

गोपाः सुविस्मिता आसन्साधु साध्विति वादिनः ॥ ३० ॥

आशिषोऽभिगृणन्तस्तं प्रशशंसुस्तदर्हणम्

प्रेत्यागतमिवालिङ्ग्य प्रेमविह्वलचेतसः ॥ ३१ ॥

पापे प्रलम्बे निहते देवाः परमनिर्वृताः

अभ्यवर्षन्बलं माल्यैः शशंसुः साधु साध्विति ॥ ३२ ॥

 

एक दिन जब बलराम और श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ उस वनमें गौएँ चरा रहे थे, तब ग्वाल के वेष में प्रलम्ब नाम का एक असुर आया। उसकी इच्छा थी कि मैं श्रीकृष्ण और बलराम को हर ले जाऊँ ॥ १७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे देखते ही पहचान गये। फिर भी उन्होंने उसका मित्रता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वे मन-ही-मन यह सोच रहे थे कि किस युक्ति से इसका वध करना चाहिये ॥ १८ ॥ ग्वालबालों में सबसे बड़े खिलाड़ी, खेलोंके आचार्य श्रीकृष्ण ही थे। उन्होंने सब ग्वालबालोंको बुलाकर कहामेरे प्यारे मित्रो ! आज हमलोग अपनेको उचित रीतिसे दो दलोंमें बाँट लें और फिर आनन्दसे खेलें ॥ १९ ॥ उस खेलमें ग्वालबालोंने बलराम और श्रीकृष्णको नायक बनाया। कुछ श्रीकृष्णके साथी बन गये और कुछ बलरामके ॥ २० ॥ फिर उन लोगोंने तरह-तरहसे ऐसे बहुत-से खेल खेले, जिनमें एक दलके लोग दूसरे दलके लोगोंको अपनी पीठपर चढ़ाकर एक निॢदष्ट स्थानपर ले जाते थे। जीतनेवाला दल चढ़ता था और हारनेवाला दल ढोता था ॥ २१ ॥ इस प्रकार एक-दूसरेकी पीठपर चढ़ते-चढ़ाते श्रीकृष्ण आदि ग्वालबाल गौएँ चराते हुए भाण्डीर नामक वटके पास पहुँच गये ॥ २२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! एक बार बलरामजीके दल वाले श्रीदामा, वृषभ आदि ग्वालबालों ने खेलमें बाजी मार ली। तब श्रीकृष्ण आदि उन्हें अपनी पीठपर चढ़ाकर ढोने लगे ॥ २३ ॥ हारे हुए श्रीकृष्णने श्रीदामाको अपनी पीठपर चढ़ाया, भद्रसेनने वृषभको और प्रलम्बने बलरामजीको ॥ २४ ॥ दानवपुङ्गव प्रलम्बने देखा कि श्रीकृष्ण तो बड़े बलवान् हैं, उन्हें मैं नहीं हरा सकूँगा। अत: वह उन्हींके पक्षमें हो गया और बलरामजीको लेकर फुर्तीसे भाग चला, और पीठपरसे उतारनेके लिये जो स्थान नियत था, उससे आगे निकल गया ॥ २५ ॥ बलरामजी बड़े भारी पर्वतके समान बोझवाले थे। उनको लेकर प्रलम्बासुर दूरतक न जा सका, उसकी चाल रुक गयी। तब उसने अपना स्वाभाविक दैत्यरूप धारण कर लिया। उसके काले शरीरपर सोनेके गहने चमक रहे थे और गौरसुन्दर बलरामजीको धारण करनेके कारण उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजलीसे युक्त काला बादल चन्द्रमाको धारण किये हुए हो ॥ २६ ॥ उसकी आँखें आगकी तरह धधक रही थीं और दाढ़ें भौंहोंतक पहुँची हुई बड़ी भयावनी थीं। उसके लाल-लाल बाल इस तरह बिखर रहे थे, मानो आगकी लपटें उठ रही हों। उसके हाथ और पाँवोंमें कड़े, सिरपर मुकुट और कानोंमें कुण्डल थे। उनकी कान्तिसे वह बड़ा अद्भुत लग रहा था, उस भयानक दैत्यको बड़े वेगसे आकाशमें जाते देख पहले तो बलरामजी कुछ घबड़ा-से गये ॥ २७ ॥ परंतु दूसरे ही क्षणमें अपने स्वरूपकी याद आते ही उनका भय जाता रहा। बलरामजीने देखा कि जैसे चोर किसीका धन चुराकर ले जाय, वैसे ही यह शत्रु मुझे चुराकर आकाश-मार्गसे लिये जा रहा है। उस समय जैसे इन्द्रने पर्वतोंपर वज्र चलाया था, वैसे ही उन्होंने क्रोध करके उसके सिरपर एक घूँसा कसकर जमाया ॥ २८ ॥ घूँसा लगना था कि उसका सिर चूर-चूर हो गया। वह मुँहसे खून उगलने लगा, चेतना जाती रही और बड़ा भयङ्कर शब्द करता हुआ इन्द्रके द्वारा वज्रसे मारे हुए पर्वतके समान वह उसी समय प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २९ ॥

 

बलरामजी परम बलशाली थे। जब ग्वालबालोंने देखा कि उन्होंने प्रलम्बासुरको मार डाला, तब उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। वे बार-बार वाह-वाहकरने लगे ॥ ३० ॥ ग्वालबालों का चित्त प्रेमसे विह्वल हो गया। वे उनके लिये शुभ कामनाओंकी वर्षा करने लगे और मानो मरकर लौट आये हों, इस भावसे आलिङ्गन करके प्रशंसा करने लगे। वस्तुत: बलरामजी इसके योग्य ही थे ॥ ३१ ॥ प्रलम्बासुर मूर्तिमान् पाप था। उसकी मृत्युसे देवताओंको बड़ा सुख मिला। वे बलरामजी पर फूल बरसाने लगे और बहुत अच्छा किया’, ‘बहुत अच्छा कियाइस प्रकार कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ ३२ ॥

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे

प्रलम्बवधो नामाष्टादशोऽध्यायः ॥१८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

प्रलम्बासुर-उद्धार

 

श्रीशुक उवाच

अथ कृष्णः परिवृतो ज्ञातिभिर्मुदितात्मभिः

अनुगीयमानो न्यविशद्व्रजं गोकुलमण्डितम् ॥ १ ॥

व्रजे विक्रीडतोरेवं गोपालच्छद्ममायया

ग्रीष्मो नामर्तुरभवन्नातिप्रेयाञ्छरीरिणाम् ॥ २ ॥

स च वृन्दावनगुणैर्वसन्त इव लक्षितः

यत्रास्ते भगवान्साक्षाद्रा मेण सह केशवः ॥ ३ ॥

यत्र निर्झरनिर्ह्राद निवृत्तस्वनझिल्लिकम्

शश्वत्तच्छीकरर्जीष द्रुममण्डलमण्डितम् ॥ ४ ॥

सरित्सरःप्रस्रवणोर्मिवायुना

कह्लारकञ्जोत्पलरेणुहारिणा

न विद्यते यत्र वनौकसां दवो

निदाघवह्न्यर्कभवोऽतिशाद्वले ॥ ५ ॥

अगाधतोयह्रदिनीतटोर्मिभि-

र्द्रवत्पुरीष्याः पुलिनैः समन्ततः

न यत्र चण्डांशुकरा विषोल्बणा

भुवो रसं शाद्वलितं च गृह्णते ॥ ६ ॥

वनं कुसुमितं श्रीमन्नदच्चित्रमृगद्विजम्

गायन्मयूरभ्रमरं कूजत्कोकिलसारसम् ॥ ७ ॥

क्रीडिष्यमाणस्तत्क्र्ष्णो भगवान्बलसंयुतः

वेणुं विरणयन्गोपैर्गोधनैः संवृतोऽविशत् ॥ ८ ॥

प्रवालबर्हस्तबक स्रग्धातुकृतभूषणाः

रामकृष्णादयो गोपा ननृतुर्युयुधुर्जगुः ॥ ९ ॥

कृष्णस्य नृत्यतः केचिज्जगुः केचिदवादयन्

वेणुपाणितलैः शृङ्गैः प्रशशंसुरथापरे ॥ १० ॥

गोपजातिप्रतिच्छन्ना देवा गोपालरूपिणौ

ईडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नटं नृप ॥ ११ ॥

भ्रमणैर्लङ्घनैः क्षेपैरास्फोटनविकर्षणैः

चिक्रीडतुर्नियुद्धेन काकपक्षधरौ क्वचित् ॥ १२ ॥

क्वचिन्नृत्यत्सु चान्येषु गायकौ वादकौ स्वयम्

शशंसतुर्महाराज साधु साध्विति वादिनौ ॥ १३ ॥

क्वचिद्बिल्वैः क्वचित्कुम्भैः क्वचामलकमुष्टिभिः ॥

अस्पृश्यनेत्रबन्धाद्यैः क्वचिन्मृगखगेहया ॥ १४ ॥

क्वचिच्च दर्दुरप्लावैर्विविधैरुपहासकैः

कदाचित्स्यन्दोलिकया कर्हिचिन्नृपचेष्टया ॥ १५ ॥

एवं तौ लोकसिद्धाभिः क्रीडाभिश्चेरतुर्वने

नद्यद्रि द्रोणिकुञ्जेषु काननेषु सरःसु च ॥ १६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब आनन्दित स्वजन सम्बन्धियोंसे घिरे हुए एवं उनके मुखसे अपनी कीर्तिका गान सुनते हुए श्रीकृष्णने गोकुलमण्डित गोष्ठमें प्रवेश किया ॥ १ ॥ इस प्रकार अपनी योगमायासे ग्वालका-सा वेष बनाकर राम और श्याम व्रजमें क्रीडा कर रहे थे। उन दिनों ग्रीष्म ऋतु थी। यह शरीरधारियोंको बहुत प्रिय नहीं है ॥ २ ॥ परंतु वृन्दावनके स्वाभाविक गुणोंसे वहाँ वसन्तकी ही छटा छिटक रही थी। इसका कारण था, वृन्दावनमें परम मधुर भगवान्‌ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और बलरामजी निवास जो करते थे ॥ ३ ॥ झींगुरोंकी तीखी झंकार झरनोंके मधुर झर-झरमें छिप गयी थी। उन झरनोंसे सदा-सर्वदा बहुत ठंडी जलकी फुहियाँ उड़ा करती थीं, जिनसे वहाँके वृक्षोंकी हरियाली देखते ही बनती थी ॥ ४ ॥ जिधर देखिये, हरी-हरी दूबसे पृथ्वी हरी-हरी हो रही है। नदी, सरोवर एवं झरनोंकी लहरोंका स्पर्श करके जो वायु चलती थी उसमें लाल-पीले-नीले तुरंतके खिले हुए, देरके खिले हुए कह्लार, उत्पल आदि अनेकों प्रकारके कमलोंका पराग मिला हुआ होता था। इस शीतल, मन्द और सुगन्ध वायुके कारण वनवासियोंको गर्मीका किसी प्रकारका क्लेश नहीं सहना पड़ता था। न दावाग्रिका ताप लगता था और न तो सूर्यका घाम ही ॥ ५ ॥ नदियोंमें अगाध जल भरा हुआ था। बड़ी-बड़ी लहरें उनके तटोंको चूम जाया करती थीं। वे उनके पुलिनोंसे टकरातीं और उन्हें स्वच्छ बना जातीं। उनके कारण आस-पासकी भूमि गीली बनी रहती और सूर्यकी अत्यन्त उग्र तथा तीखी किरणें भी वहाँकी पृथ्वी और हरी-भरी घासको नहीं सुखा सकती थीं; चारों ओर हरियाली छा रही थी ॥ ६ ॥ उस वनमें वृक्षोंकी पाँत-की- पाँत फूलोंसे लद रही थी। जहाँ देखिये, वहींसे सुन्दरता फूटी पड़ती थी। कहीं रंग-बिरंगे पक्षी चहक रहे हैं, तो कहीं तरह-तरहके हरिन चौकड़ी भर रहे हैं। कहीं मोर कूक रहे हैं, तो कहीं भौंरे गुंजार कर रहे हैं। कहीं कोयलें कुहक रही हैं, तो कहीं सारस अलग ही अपना अलाप छेड़े हुए हैं ॥ ७ ॥ ऐसा सुन्दर वन देखकर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलरामजीने उसमें विहार करनेकी इच्छा की। आगे-आगे गौएँ चलीं, पीछे-पीछे ग्वालबाल और बीचमें अपने बड़े भाईके साथ बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण ॥ ८ ॥

 

राम, श्याम और ग्वालबालों ने नव पल्लवों, मोरपंखके गुच्छों, सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंके हारों और गेरू आदि रंगीन धातुओंसे अपनेको भाँति-भाँतिसे सजा लिया। फिर कोई आनन्दमें मग्र होकर नाचने लगा, तो कोई ताल ठोंककर कुश्ती लडऩे लगा और किसी-किसीने राग अलापना शुरू कर दिया ॥ ९ ॥ जिस समय श्रीकृष्ण नाचने लगते, उस समय कुछ ग्वालबाल गाने लगते और कुछ बाँसुरी तथा सिंगी बजाने लगते। कुछ हथेलीसे ही ताल देते, तो कुछ वाह-वाहकरने लगते ॥ १० ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय नट जैसे अपने नायक की प्रशंसा करते हैं, वैसे ही देवतालोग ग्वालबालों का रूप धारण करके वहाँ आते और गोपजातिमें जन्म लेकर छिपे हुए बलराम और श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगते ॥ ११ ॥ घुँघराली अलकोंवाले श्याम और बलराम कभी एक- दूसरेका हाथ पकडक़र कुम्हार के चाककी तरह चक्कर काटतेघुमरी-परेता खेलते। कभी एक- दूसरेसे अधिक फाँद जानेकी इच्छासे कूदतेकूँड़ी डाकते, कभी कहीं होड़ लगाकर ढेले फेंकते, तो कभी ताल ठोंक-ठोंककर रस्साकसी करतेएक दल दूसरे दलके विपरीत रस्सी पकडक़र खींचता और कभी कहीं एक-दूसरेसे कुश्ती लड़ते-लड़ाते। इस प्रकार तरह-तरहके खेल खेलते ॥ १२ ॥ कहीं-कहीं जब दूसरे ग्वालबाल नाचने लगते तो श्रीकृष्ण और बलरामजी गाते या बाँसुरी, सिंगी आदि बजाते। और महाराज ! कभी-कभी वे वाह-वाहकहकर उनकी प्रशंसा भी करने लगते ॥ १३ ॥ कभी एक-दूसरे पर बेल, जायफल या आँवले के फल हाथमें लेकर फेंकते। कभी एक-दूसरेकी आँख बंद करके छिप जाते और वह पीछेसे ढूँढ़ताइस प्रकार आँखमिचौनी खेलते। कभी एक-दूसरेको छूनेके लिये बहुत दूर-दूरतक दौड़ते रहते और कभी पशु-पक्षियोंकी चेष्टाओंका अनुकरण करते ॥ १४ ॥ कहीं मेढकोंकी तरह फुदक-फुदककर चलते, तो कभी मुँह बना-बनाकर एक-दूसरेकी हँसी उड़ाते। कहीं रस्सियोंसे वृक्षोंपर झूला डालकर झूलते, तो कभी दो बालकोंको खड़ा कराकर उनकी बाँहोंके बलपर ही लटकने लगते। कभी किसी राजाकी नकल करने लगते ॥ १५ ॥ इस प्रकार राम और श्याम वृन्दावनकी नदी, पर्वत, घाटी, कुञ्ज, वन और सरोवरोंमें वे सभी खेल खेलते, जो साधारण बच्चे संसारमें खेला करते हैं ॥ १६ ॥

 

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गुरुवार, 25 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कालिय के कालियदह में आने की कथा तथा

भगवान्‌ का व्रजवासियों को दावानल से बचाना

 

कृष्णं ह्रदाद् विनिष्क्रान्तं दिव्यस्रग् गन्धवाससम् ।

महामणिगणाकीर्णं जाम्बूनदपरिष्कृतम् ॥ १३ ॥

उपलभ्योत्थिताः सर्वे लब्धप्राणा इवासवः ।

प्रमोदनिभृतात्मानो गोपाः प्रीत्याभिरेभिरे ॥ १४ ॥

यशोदा रोहिणी नन्दो गोप्यो गोपाश्च कौरव ।

कृष्णं समेत्य लब्धेहा आसन् लब्धमनोरथा ॥ १५ ॥

रामश्चाच्युतमालिङ्‌ग्य जहासास्यानुभाववित् ।

नगो गावो वृषा वत्सा लेभिरे परमां मुदम् ॥ १६ ॥

नन्दं विप्राः समागत्य गुरवः सकलत्रकाः ।

ऊचुस्ते कालियग्रस्तो दिष्ट्या मुक्तस्तवात्मजः ॥ १७ ॥

देहि दानं द्विजातीनां कृष्णनिर्मुक्तिहेतवे ।

नन्दः प्रीतमना राजन् गाः सुवर्णं तदादिशत् ॥ १८ ॥

यशोदापि महाभागा नष्टलब्धप्रजा सती ।

परिष्वज्याङ्‌कमारोप्य मुमोचाश्रुकलां मुहुः ॥ १९ ॥

तां रात्रिं तत्र राजेन्द्र क्षुत्तृड्भ्यां श्रमकर्षिताः ।

ऊषुर्व्रयौकसो गावः कालिन्द्या उपकूलतः ॥ २० ॥

तदा शुचिवनोद्‍भूतो दावाग्निः सर्वतो व्रजम् ।

सुप्तं निशीथ आवृत्य प्रदग्धुमुपचक्रमे ॥ २१ ॥

तत उत्थाय सम्भ्रान्ता दह्यमाना व्रजौकसः ।

कृष्णं ययुस्ते शरणं मायामनुजमीश्वरम् ॥ २२ ॥

कृष्ण कृष्ण महाभाग हे रामामितविक्रम ।

एष घोरतमो वह्निः तावकान् ग्रसते हि नः ॥ २३ ॥

सुदुस्तरान्नः स्वान् पाहि कालाग्नेः सुहृदः प्रभो ।

न शक्नुमः त्वच्चरणं संत्यक्तुं अकुतोभयम् ॥ २४ ॥

इत्थं स्वजनवैक्लव्यं निरीक्ष्य जगदीश्वरः ।

तं अग्निं अपिबत् तीव्रं अनंतोऽनन्त शक्तिधृक् ॥ २५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इधर भगवान्‌ श्रीकृष्ण दिव्य माला, गन्ध, वस्त्र, महामूल्य मणि और सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित हो उस कुण्डसे बाहर निकले ॥ १३ ॥ उनको देखकर सब-के-सब व्रजवासी इस प्रकार उठ खड़े हुए, जैसे प्राणोंको पाकर इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं। सभी गोपोंका हृदय आनन्दसे भर गया। वे बड़े प्रेम और प्रसन्नतासे अपने कन्हैयाको हृदयसे लगाने लगे ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा, गोपी और गोपसभी श्रीकृष्णको पाकर सचेत हो गये। उनका मनोरथ सफल हो गया ॥ १५ ॥ बलरामजी तो भगवान्‌का प्रभाव जानते ही थे। वे श्रीकृष्णको हृदयसे लगाकर हँसने लगे। पर्वत, वृक्ष, गाय, बैल, बछड़ेसब-के-सब आनन्दमग्र हो गये ॥ १६ ॥ गोपोंके कुलगुरु ब्राह्मणोंने अपनी पत्नियोंके साथ नन्दबाबाके पास आकर कहा—‘नन्दजी ! तुम्हारे बालकको कालिय नागने पकड़ लिया था। सो छूटकर आ गया। यह बड़े सौभाग्यकी बात है ! ॥ १७ ॥ श्रीकृष्णके मृत्युके मुखसे लौट आनेके उपलक्ष्यमें तुम ब्राह्मणोंको दान करो।परीक्षित्‌ ! ब्राह्मणोंकी बात सुनकर नन्दबाबाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बहुत-सा सोना और गौएँ ब्राह्मणोंको दान दीं ॥ १८ ॥ परमसौभाग्यवती देवी यशोदाने भी कालके गालसे बचे हुए अपने लालको गोदमें लेकर हृदयसे चिपका लिया। उनकी आँखोंसे आनन्दके आँसुओंकी बूँदें बार-बार टपकी पड़ती थीं ॥ १९ ॥

राजेन्द्र! व्रजवासी और गौएँ सब बहुत ही थक गये थे। ऊपरसे भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिये उस रात वे व्रजमें नहीं गये, वहीं यमुनाजीके तटपर सो रहे ॥ २० ॥ गर्मीके दिन थे, उधरका वन सूख गया था। आधी रातके समय उसमें आग लग गयी। उस आगने सोये हुए व्रजवासियोंको चारों ओरसे घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी ॥ २१ ॥ आगकी आँच लगनेपर व्रजवासी घबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला-मनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शरणमें गये ॥ २२ ॥ उन्होंने कहा—‘प्यारे श्रीकृष्ण ! श्यामसुन्दर ! महाभाग्यवान् बलराम ! तुम दोनोंका बल-विक्रम अनन्त है। देखो, देखो, भयङ्कर आग तुम्हारे सगे-सम्बन्धी हम स्वजनोंको जलाना ही चाहती है ॥ २३ ॥ तुममें सब सामर्थ्य है। हम तुम्हारे सुहृद् हैं, इसलिये इस प्रलयकी अपार आग से हमें बचाओ। प्रभो ! हम मृत्युसे नहीं डरते, परंतु तुम्हारे अकुतोभय चरणकमल छोडऩे में हम असमर्थ हैं ॥ २४ ॥ भगवान्‌ अनन्त हैं; वे अनन्त शक्तियोंको धारण करते हैं, उन जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयङ्कर आग को पी गये [*] ॥ २५ ॥

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[*] अग्नि-पान

 

१. मैं सबका दाह दूर करनेके लिये ही अवतीर्ण हुआ हूँ। इसलिये यह दाह दूर करना भी मेरा कर्तव्य है।

२. रामावतारमें श्रीजानकीजी को सुरक्षित रखकर अग्नि ने मेरा उपकार किया था। अब उसको अपने मुखमें स्थापित करके उसका सत्कार करना कर्तव्य है।

३. कार्यका कारण में लय होता है। भगवान्‌ के मुख से अग्नि प्रकट हुआमुखाद् अग्निरजायत। इसलिये भगवान्‌ ने उसे मुखमें ही स्थापित किया।

४. मुख के द्वारा अग्नि शान्त करके यह भाव प्रकट किया कि भव-दावाग्नि को शान्त करनेमें भगवान्‌ के मुख-स्थानीय ब्राह्मण ही समर्थ हैं।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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