॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध
(उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
जरासन्ध से
युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण
एवं सप्तदशकृत्वस्तावत्यक्षौहिणीबलः
युयुधे मागधो राजा यदुभिः कृष्णपालितैः ४२
अक्षिण्वंस्तद्बलं सर्वं वृष्णयः कृष्णतेजसा
हतेषु स्वेष्वनीकेषु त्यक्तोऽगादरिभिर्नृपः ४३
अष्टादशम सङ्ग्राम आगामिनि तदन्तरा
नारदप्रेषितो वीरो यवनः प्रत्यदृश्यत ४४
रुरोध मथुरामेत्य तिसृभिर्म्लेच्छकोटिभिः
नृलोके चाप्रतिद्वन्द्वो वृष्णीन्श्रुत्वात्मसम्मितान् ४५
तं दृष्ट्वाचिन्तयत्कृष्णः सङ्कर्षण सहायवान्
अहो यदूनां वृजिनं प्राप्तं ह्युभयतो महत् ४६
यवनोऽयं निरुन्धेऽस्मानद्य तावन्महाबलः
मागधोऽप्यद्य वा श्वो वा परश्वो वागमिष्यति ४७
आवयोः युध्यतोरस्य यद्यागन्ता जरासुतः
बन्धून्हनिष्यत्यथ वा नेष्यते स्वपुरं बली ४८
तस्मादद्य विधास्यामो दुर्गं द्विपददुर्गमम्
तत्र ज्ञातीन्समाधाय यवनं घातयामहे ४९
इति सम्मन्त्र्य भगवान्दुर्गं द्वादशयोजनम्
अन्तःसमुद्रे नगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत् ५०
दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्पनैपुणम्
रथ्याचत्वरवीथीभिर्यथावास्तु विनिर्मितम् ५१
सुरद्रुमलतोद्यान विचित्रोपवनान्वितम्
हेमशृङ्गैर्दिविस्पृग्भिः स्फटिकाट्टालगोपुरैः ५२
राजतारकुटैः कोष्ठैर्हेमकुम्भैरलङ्कृतैः
रत्नकूतैर्गृहैर्हेमैर्महामारकतस्थलैः ५३
वास्तोष्पतीनां च गृहैर्वल्लभीभिश्च निर्मितम्
चातुर्वर्ण्यजनाकीर्णं यदुदेवगृहोल्लसत् ५४
सुधर्मां पारिजातं च महेन्द्रः प्राहिणोद्धरेः
यत्र चावस्थितो मर्त्यो मर्त्यधर्मैर्न युज्यते ५५
श्यामैकवर्णान्वरुणो हयान्शुक्लान्मनोजवान्
अष्टौ निधिपतिः कोशान्लोकपालो निजोदयान् ५६
यद्यद्भगवता दत्तमाधिपत्यं स्वसिद्धये
सर्वं प्रत्यर्पयामासुर्हरौ भूमिगते नृप ५७
तत्र योगप्रभावेन नीत्वा सर्वजनं हरिः
प्रजापालेन रामेण कृष्णः समनुमन्त्रितः
निर्जगाम पुरद्वारात्पद्ममाली निरायुधः ५८
परीक्षित्
! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्ध ने
भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंसे युद्ध किया ।। ४२ ।। किन्तु
यादवों ने भगवान् श्रीकृष्णकी शक्तिसे हर बार उसकी सारी सेना नष्ट कर दी। जब सारी
सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियोंके
उपेक्षापूर्वक छोड़ देनेपर जरासन्ध अपनी राजधानीमें लौट जाता ।। ४३ ।। जिस समय
अठारहवाँ संग्राम छिडऩेहीवाला था, उसी समय नारदजीका भेजा हुआ
वीर कालयवन दिखायी पड़ा ।। ४४ ।। युद्धमें कालयवनके सामने खड़ा होनेवाला वीर
संसारमें दूसरा कोई न था। उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान् हैं और
हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छोंकी सेना
लेकर उसने मथुराको घेर लिया ।। ४५ ।।
कालयवनकी यह
असमय चढ़ाई देखकर भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ मिलकर विचार किया—‘अहो ! इस समय तो यदुवंशियोंपर जरासन्ध और
कालयवन—ये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं ।। ४६
।। आज इस परम बलशाली यवनने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसोंमें आ ही जायगा ।। ४७ ।। यदि हम दोनों भाई इसके साथ लडऩेमें लग
गये और उसी समय जरासन्ध आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओंको मार
डालेगा या तो कैद करके अपने नगरमें ले जायगा। क्योंकि वह बहुत बलवान् है ।। ४८ ।।
इसलिये आज हमलोग एक ऐसा दुर्ग—ऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्यका प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा। अपने
स्वजन-सम्बन्धियोंको उसी किलेमें पहुँचाकर फिर इस यवनका वध करायेंगे’ ।। ४९ ।। बलरामजीसे इस प्रकार सलाह करके भगवान् श्रीकृष्णने समुद्रके
भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाया, जिसमें सभी वस्तुएँ अद्भुत
थीं और उस नगरकी लंबाई-चौड़ाई अड़तालीस कोसकी थी ।। ५० ।। उस नगरकी एक-एक वस्तुमें
विश्वकर्माका विज्ञान (वास्तु- विज्ञान) और शिल्पकला की निपुणता प्रकट होती थी।
उसमें वास्तुशास्त्रके अनुसार बड़ी-बड़ी सडक़ों, चौराहों और
गलियोंका यथास्थान ठीक-ठीक विभाजन किया गया था ।। ५१ ।। वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर
उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनोंसे युक्त था, जिनमें
देवताओंके वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं। सोनेके इतने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे,
जो आकाशसे बातें करते थे। स्फटिकमणिकी अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे दरवाजे
बड़े ही सुन्दर लगते थे ।। ५२ ।। अन्न रखनेके लिये चाँदी और पीतलके बहुत-से कोठे
बने हुए थे। वहाँके महल सोनेके बने हुए थे और उनपर कामदार सोनेके कलश सजे हुए थे।
उनके शिखर रत्नोंके थे तथा गच पन्नेकी बनी हुई बहुत भली मालूम होती थी ।। ५३ ।।
इसके अतिरिक्त उस नगरमें वास्तुदेवताके मन्दिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने
हुए थे। उसमें चारों वर्णके लोग निवास करते थे और सबके बीचमें यदुवंशियोंके प्रधान
उग्रसेनजी, वसुदेवजी, बलरामजी तथा
भगवान् श्रीकृष्णके महल जगमगा रहे थे ।। ५४ ।। परीक्षित् ! उस समय देवराज
इन्द्रने भगवान् श्रीकृष्णके लिये पारिजात वृक्ष और सुधर्मा-सभाको भेज दिया। वह
सभा ऐसी दिव्य थी कि उसमें बैठे हुए मनुष्यको भूख-प्यास आदि मर्त्यलोक के धर्म
नहीं छू पाते थे ।। ५५ ।। वरुणजीने ऐसे बहुत-से श्वेत घोड़े भेज दिये, जिनका एक-एक कान श्याम- वर्णका था, और जिनकी चाल
मनके समान तेज थी। धनपति कुबेरजीने अपनी आठों निधियाँ भेज दीं और दूसरे लोकपालोंने
भी अपनी-अपनी विभूतियाँ भगवान्के पास भेज दीं ।। ५६ ।। परीक्षित् ! सभी
लोकपालोंको भगवान् श्रीकृष्णने ही उनके अधिकार के निर्वाहके लिये शक्तियाँ और
सिद्धियाँ दी हैं। जब भगवान् श्रीकृष्ण पृथ्वीपर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे,
तब सभी सिद्धियाँ उन्होंने भगवान्के चरणोंमें समॢपत कर दीं ।। ५७
।। भगवान् श्रीकृष्णने अपने समस्त स्वजन-सम्बन्धियोंको अपनी अचिन्त्य महाशक्ति
योगमायाके द्वारा द्वारकामें पहुँचा दिया। शेष प्रजाकी रक्षाके लिये बलरामजीको
मथुरापुरीमें रख दिया और उनसे सलाह लेकर गलेमें कमलोंकी माला पहने, बिना कोई अस्त्र-शस्त्र लिये स्वयं नगरके बड़े दरवाजेसे बाहर निकल आये ।।
५८ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे
दुर्गनिवेशनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से