शनिवार, 29 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा

 

स याचितः सुरगणैरिन्द्राद्यैरात्मरक्षणे

असुरेभ्यः परित्रस्तैस्तद्रक्षां सोऽकरोच्चिरम् १५

लब्ध्वा गुहं ते स्वःपालं मुचुकुन्दमथाब्रुवन्

राजन्विरमतां कृच्छ्राद्भवान्नः परिपालनात् १६

नरलोकं परित्यज्य राज्यं निहतकण्टकम्

अस्मान्पालयतो वीर कामास्ते सर्व उज्झिताः १७

सुता महिष्यो भवतो ज्ञातयोऽमात्यमन्त्रिणः

प्रजाश्च तुल्यकालीना नाधुना सन्ति कालिताः १८

कालो बलीयान्बलिनां भगवानीश्वरोऽव्ययः

प्रजाः कालयते क्रीडन्पशुपालो यथा पशून् १९

वरं वृणीष्व भद्रं ते ऋते कैवल्यमद्य नः

एक एवेश्वरस्तस्य भगवान्विष्णुरव्ययः २०

एवमुक्तः स वै देवानभिवन्द्य महायशाः

अशयिष्ट गुहाविष्टो निद्रया देवदत्तया २१

स्वापं यातं यस्तु मध्ये बोधयेत्त्वामचेतन:

स त्वयादृष्टमात्रस्तु भस्मी भवतु तत्क्षणात् २२

यवने भस्मसान्नीते भगवान्सात्वतर्षभः

आत्मानं दर्शयामास मुचुकुन्दाय धीमते २३

तमालोक्य घनश्यामं पीतकौशेयवाससम्

श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम् २४

चतुर्भुजं रोचमानं वैजयन्त्या च मालया

चारुप्रसन्नवदनं स्फुरन्मकरकुण्डलम् २५

प्रेक्षणीयं नृलोकस्य सानुरागस्मितेक्षणम्

अपीच्यवयसं मत्तमृगेन्द्रोदारविक्रमम् २६

पर्यपृच्छन्महाबुद्धिस्तेजसा तस्य धर्षितः

शङ्कितः शनकै राजा दुर्धर्षमिव तेजसा २७

 

श्रीमुचुकुन्द उवाच

को भवानिह सम्प्राप्तो विपिने गिरिगह्वरे

पद्भ्यां पद्मपलाशाभ्यां विचरस्युरुकण्टके २८

किं स्वित्तेजस्विनां तेजो भगवान्वा विभावसुः

सूर्यः सोमो महेन्द्रो वा लोकपालो परोऽपि वा २९

मन्ये त्वां देवदेवानां त्रयाणां पुरुषर्षभम्

यद्बाधसे गुहाध्वान्तं प्रदीपः प्रभया यथा ३०

 

एक बार इन्द्र आदि देवता असुरों से अत्यन्त भयभीत हो गये थे। उन्होंने अपनी रक्षा के लिये राजा मुचुकुन्द से प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनों तक उनकी रक्षा की। जब बहुत दिनों के बाद देवताओं को सेनापति के रूप में स्वामी कार्तिकेय मिल गये, तब उन लोगों ने राजा मुचुकुन्द से कहा- ‘राजन! आपने हम लोगों की रक्षा के लिये बहुत श्रम और कष्ट उठाया है। अब आप विश्राम कीजिये। वीर शिरोमणे! आपने हमारी रक्षा के लिये मनुष्य लोक का अपना अकण्टक राज्य छोड़ दिया और जीवन की अभिलाषाएँ तथा भोगों का भी परित्याग कर दिया। अब आपके पुत्र, रानियाँ, बन्धु-बान्धव और अमात्य-मन्त्री तथा आपके समय की प्रजा में से कोई नहीं रहा है। सब-के-सब काल के गाल में चले गये। काल समस्त बलवानों से भी बलवान है। वह स्वयं परम समर्थ अविनाशी और भगवत्स्वरूप है। जैसे ग्वाले पशुओं को अपने वश में रखते हैं, वैसे ही वह खेल-खेल में सारी प्रजा को अपने अधीन रखता है।

 राजन! आपका कल्याण हो। आपकी जो इच्छा हो, हमसे माँग लीजिये। हम कैवल्य-मोक्ष के अतिरिक्त आपको सब कुछ दे सकते हैं। क्योंकि कैवल्य-मोक्ष देने की सामर्थ्य तो केवल अविनाशी भगवान विष्णु में ही है।

 परम यशस्वी राजा मुचुकुन्द ने देवताओं के इस प्रकार कहने पर उनकी वन्दना की और बहुत थके होने के कारण निद्रा का ही वर माँगा तथा उनसे वर पाकर वे नींद से भरकर पर्वत की गुफ़ा में जा सोये। उस समय देवताओं ने कह दिया था कि ‘राजन! सोते समय यदि आपको कोई मूर्ख बीच में ही जगा देगा तो वह आपकी दृष्टि पड़ते ही उसी क्षण भस्म हो जायगा।'

 परीक्षित! जब कालयवन भस्म हो गया, तब यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने परम बुद्धिमान राजा मुचुमुन्द को अपना दर्शन दिया। भगवान श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह वर्षाकालीन मेघ के समान साँवला था। रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स और गले में कौस्तुभ मणि अपनी दिव्य ज्योति बिखेर रहे थे। चार भुजाएँ थीं। वैजयन्ती माला अलग ही घुटनों तक लटक रही थी। मुखकमल अत्यन्त सुन्दर और प्रसन्नता से खिला हुआ था। कानों में मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। होठों पर प्रेम भरी मुस्कुराहट थी और नेत्रों की चितवन अनुराग की वर्षा कर रही थी। अत्यन्त दर्शनीय तरुण-अवस्था और मतवाले सिंह के समान निर्भीक चाल। राजा मुचुकुन्द यद्यपि बड़े बुद्धिमान और धीर पुरुष थे, फिर भी भगवान की यह दिव्य ज्योतिर्मयी मूर्ति देखकर कुछ चकित हो गये। उनके तेज से हतप्रतिभ हो सकपका गये। भगवान अपने तेज से दुर्द्धुर्ष जान पड़ते थे; राजा ने तनिक शंकित होकर पूछा।

 राजा मुचुकुन्द ने कहा- ‘आप कौन हैं? इस काँटों से भरे हुए घोर जंगल में आप कमल के समान कोमल चरणों से क्यों विचर रहे हैं? और इस पर्वत की गुफ़ा में ही पधारने का क्या प्रयोजन था? क्या आप समस्त तेजस्वियों के मूर्तिमान तेज अथवा भगवान अग्निदेव तो नहीं हैं? क्या आप सूर्य, चन्द्रमा, देवराज इन्द्र या कोई दूसरे लोकपाल हैं? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप देवताओं के आराध्यदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर- इन तीनों में से पुरुषोत्तम भगवान नारायण ही हैं। क्योंकि जैसे श्रेष्ठ दीपक अँधेरे को दूर कर देता है, वैसे ही आप अपनी अंगकान्ति से इस गुफ़ा का अँधेरा भगा रहे हैं ।।१५-३० ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— इक्यावनवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा

 

श्रीशुक उवाच

तं विलोक्य विनिष्क्रान्तमुज्जिहानमिवोडुपम्

दर्शनीयतमं श्यामं पीतकौशेयवाससम् १

श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकन्धरम्

पृथुदीर्घचतुर्बाहुं नवकञ्जारुणेक्षणम् २

नित्यप्रमुदितं श्रीमत्सुकपोलं शुचिस्मितम्

मुखारविन्दं बिभ्राणं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ३

वासुदेवो ह्ययमिति पुमान्श्रीवत्सलाञ्छनः

चतुर्भुजोऽरविन्दाक्षो वनमाल्यतिसुन्दरः ४

लक्षणैर्नारदप्रोक्तैर्नान्यो भवितुमर्हति

निरायुधश्चलन्पद्भ्यां योत्स्येऽनेन निरायुधः ५

इति निश्चित्य यवनः प्राद्रवन्तं पराङ्मुखम्

अन्वधावज्जिघृक्षुस्तं दुरापमपि योगिनाम् ६

हस्तप्राप्तमिवात्मानं हरिणा स पदे पदे

नीतो दर्शयता दूरं यवनेशोऽद्रिकन्दरम् ७

पलायनं यदुकुले जातस्य तव नोचितम्

इति क्षिपन्ननुगतो नैनं प्रापाहताशुभः ८

एवं क्षिप्तोऽपि भगवान्प्राविशद्गिरिकन्दरम्

सोऽपि प्रविष्टस्तत्रान्यं शयानं ददृशे नरम् ९

नन्वसौ दूरमानीय शेते मामिह साधुवत्

इति मत्वाच्युतं मूढस्तं पदा समताडयत् १०

स उत्थाय चिरं सुप्तः शनैरुन्मील्य लोचने

दिशो विलोकयन्पार्श्वे तमद्राक्षीदवस्थितम् ११

स तावत्तस्य रुष्टस्य दृष्टिपातेन भारत

देहजेनाग्निना दग्धो भस्मसादभवत्क्षणात् १२

 

श्रीराजोवाच

को नाम स पुमान्ब्रह्मन्कस्य किं वीर्य एव च

कस्माद्गुहां गतः शिष्ये किं तेजो यवनार्दनः १३

 

श्रीशुक उवाच

स इक्ष्वाकुकुले जातो मान्धातृतनयो महान्

मुचुकुन्द इति ख्यातो ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः १४

         

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- प्रिय परीक्षित! जिस समय भगवान श्रीकृष्ण मथुरा नगर के मुख्य द्वार से निकले, उस समय ऐसा मालूम पड़ा मानो पूर्व दिशा से चंद्रोदय हो रहा हो। उनका श्यामल शरीर अत्यन्त ही दर्शनीय था, उस पर रेशमी पीताम्बर की छटा निराली ही थी; वक्षःस्थल पर स्वर्ण रेखा के रूप में श्रीवत्स चिह्न शोभा पा रहा था और गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। चार भुजाएँ थीं, जो लम्बी-लम्बी और कुछ मोटी-मोटी थीं। हाल के खिले हुए कमल के समान कोमल और रतनारे नेत्र थे। मुखकमल पर राशि-राशि आनन्द खेल रहा था। कपोलों की छटा निराली हो रही थी। मन्द-मन्द मुस्कान देखने वालों का मन चुराये लेती थी। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल झलक रहे थे। उन्हें देखकर कालयवन ने निश्चय किया कि ‘यही पुरुष वासुदेव है। क्योंकि नारद जी ने जो-जो लक्षण बतलाये थे- वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, चार भुजाएँ, कमल के से नेत्र, गले में वनमाला और सुन्दरता की सीमा; वे सब इसमें मिल रहे हैं। इसलिये यह कोई दूसरा नहीं हो सकता। इस समय यह बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के पैदल ही इस ओर चला आ रहा है, इसलिये मैं भी इसके साथ बिना अस्त्र-शस्त्र के ही लडूँगा।'

ऐसा निश्चय करके जब कालयवन भगवान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुँह करके रणभूमि से भाग चले और उन योगिदुर्लभ प्रभु को पकड़ने के लिये कालयवन उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। रणछोड़ भगवान लीला करते हुए भाग रहे थे; कालयवन पग-पग पर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान उसे बहुत दूर एक पहाड़ की गुफ़ा में ले गये। कालयवन पीछे से बार-बार आक्षेप करता कि ‘अरे भाई! तुम परम यशस्वी यदुवंश में पैदा हुए हो, तुम्हारा इस प्रकार युद्ध छोड़कर भागना उचित नहीं है।’ परन्तु अभी उसके अशुभ निःशेष नहीं हुए थे, इसलिये वह भगवान को पाने में समर्थ न ओ सका। उसके आक्षेप करते रहने पर भी भगवान उस पर्वत की गुफा में घुस गये। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहाँ उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा। उसे देखकर कालयवन ने सोचा ‘देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह- मानो इसे कुछ पता ही न हो- साधु बाबा बनकर सो रहा है।’ यह सोचकर उस मूढ़ ने उसे कसकर एक लात मारी। वह पुरुष वहाँ बहुत दिनों से सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखायी दिया।

 परीक्षित! वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाये जाने से कुछ रुष्ट हो गया था। उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गयी और वह क्षणभर में जलकर ढेर हो गया।

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन! जिसके दृष्टिपात मात्र से कालयवन जलकर भस्म हो गया, वह पुरुष कौन था? किस वंश का था? उसमें कैसी शक्ति थी और वह किसका पुत्र था? आप कृपा करके यह भी बतलाइये कि वह पर्वत की गुफ़ा में जाकर क्यों सो रहा था?

 श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! वे इक्ष्वाकुवंशी महाराज मान्धाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे। वे ब्राह्मणों के परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्रामविजयी और महापुरुष थे। ।।१-१४ ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

         

 




शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

एवं सप्तदशकृत्वस्तावत्यक्षौहिणीबलः

युयुधे मागधो राजा यदुभिः कृष्णपालितैः ४२

अक्षिण्वंस्तद्बलं सर्वं वृष्णयः कृष्णतेजसा

हतेषु स्वेष्वनीकेषु त्यक्तोऽगादरिभिर्नृपः ४३

अष्टादशम सङ्ग्राम आगामिनि तदन्तरा

नारदप्रेषितो वीरो यवनः प्रत्यदृश्यत ४४

रुरोध मथुरामेत्य तिसृभिर्म्लेच्छकोटिभिः

नृलोके चाप्रतिद्वन्द्वो वृष्णीन्श्रुत्वात्मसम्मितान् ४५

तं दृष्ट्वाचिन्तयत्कृष्णः सङ्कर्षण सहायवान्

अहो यदूनां वृजिनं प्राप्तं ह्युभयतो महत् ४६

यवनोऽयं निरुन्धेऽस्मानद्य तावन्महाबलः

मागधोऽप्यद्य वा श्वो वा परश्वो वागमिष्यति ४७

आवयोः युध्यतोरस्य यद्यागन्ता जरासुतः

बन्धून्हनिष्यत्यथ वा नेष्यते स्वपुरं बली ४८

तस्मादद्य विधास्यामो दुर्गं द्विपददुर्गमम्

तत्र ज्ञातीन्समाधाय यवनं घातयामहे ४९

इति सम्मन्त्र्य भगवान्दुर्गं द्वादशयोजनम्

अन्तःसमुद्रे नगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत् ५०

दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्पनैपुणम्

रथ्याचत्वरवीथीभिर्यथावास्तु विनिर्मितम् ५१

सुरद्रुमलतोद्यान विचित्रोपवनान्वितम्

हेमशृङ्गैर्दिविस्पृग्भिः स्फटिकाट्टालगोपुरैः ५२

राजतारकुटैः कोष्ठैर्हेमकुम्भैरलङ्कृतैः

रत्नकूतैर्गृहैर्हेमैर्महामारकतस्थलैः ५३

वास्तोष्पतीनां च गृहैर्वल्लभीभिश्च निर्मितम्

चातुर्वर्ण्यजनाकीर्णं यदुदेवगृहोल्लसत् ५४

सुधर्मां पारिजातं च महेन्द्रः प्राहिणोद्धरेः

यत्र चावस्थितो मर्त्यो मर्त्यधर्मैर्न युज्यते ५५

श्यामैकवर्णान्वरुणो हयान्शुक्लान्मनोजवान्

अष्टौ निधिपतिः कोशान्लोकपालो निजोदयान् ५६

यद्यद्भगवता दत्तमाधिपत्यं स्वसिद्धये

सर्वं प्रत्यर्पयामासुर्हरौ भूमिगते नृप ५७

तत्र योगप्रभावेन नीत्वा सर्वजनं हरिः

प्रजापालेन रामेण कृष्णः समनुमन्त्रितः

निर्जगाम पुरद्वारात्पद्ममाली निरायुधः ५८

 

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्ध ने भगवान्‌ श्रीकृष्णके द्वारा सुरक्षित यदुवंशियोंसे युद्ध किया ।। ४२ ।। किन्तु यादवों ने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शक्तिसे हर बार उसकी सारी सेना नष्ट कर दी। जब सारी सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियोंके उपेक्षापूर्वक छोड़ देनेपर जरासन्ध अपनी राजधानीमें लौट जाता ।। ४३ ।। जिस समय अठारहवाँ संग्राम छिडऩेहीवाला था, उसी समय नारदजीका भेजा हुआ वीर कालयवन दिखायी पड़ा ।। ४४ ।। युद्धमें कालयवनके सामने खड़ा होनेवाला वीर संसारमें दूसरा कोई न था। उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान् हैं और हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छोंकी सेना लेकर उसने मथुराको घेर लिया ।। ४५ ।।

कालयवनकी यह असमय चढ़ाई देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ मिलकर विचार किया—‘अहो ! इस समय तो यदुवंशियोंपर जरासन्ध और कालयवनये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं ।। ४६ ।। आज इस परम बलशाली यवनने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसोंमें आ ही जायगा ।। ४७ ।। यदि हम दोनों भाई इसके साथ लडऩेमें लग गये और उसी समय जरासन्ध आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओंको मार डालेगा या तो कैद करके अपने नगरमें ले जायगा। क्योंकि वह बहुत बलवान् है ।। ४८ ।। इसलिये आज हमलोग एक ऐसा दुर्गऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्यका प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा। अपने स्वजन-सम्बन्धियोंको उसी किलेमें पहुँचाकर फिर इस यवनका वध करायेंगे।। ४९ ।। बलरामजीसे इस प्रकार सलाह करके भगवान्‌ श्रीकृष्णने समुद्रके भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाया, जिसमें सभी वस्तुएँ अद्भुत थीं और उस नगरकी लंबाई-चौड़ाई अड़तालीस कोसकी थी ।। ५० ।। उस नगरकी एक-एक वस्तुमें विश्वकर्माका विज्ञान (वास्तु- विज्ञान) और शिल्पकला की निपुणता प्रकट होती थी। उसमें वास्तुशास्त्रके अनुसार बड़ी-बड़ी सडक़ों, चौराहों और गलियोंका यथास्थान ठीक-ठीक विभाजन किया गया था ।। ५१ ।। वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनोंसे युक्त था, जिनमें देवताओंके वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं। सोनेके इतने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे, जो आकाशसे बातें करते थे। स्फटिकमणिकी अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे दरवाजे बड़े ही सुन्दर लगते थे ।। ५२ ।। अन्न रखनेके लिये चाँदी और पीतलके बहुत-से कोठे बने हुए थे। वहाँके महल सोनेके बने हुए थे और उनपर कामदार सोनेके कलश सजे हुए थे। उनके शिखर रत्नोंके थे तथा गच पन्नेकी बनी हुई बहुत भली मालूम होती थी ।। ५३ ।। इसके अतिरिक्त उस नगरमें वास्तुदेवताके मन्दिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने हुए थे। उसमें चारों वर्णके लोग निवास करते थे और सबके बीचमें यदुवंशियोंके प्रधान उग्रसेनजी, वसुदेवजी, बलरामजी तथा भगवान्‌ श्रीकृष्णके महल जगमगा रहे थे ।। ५४ ।। परीक्षित्‌ ! उस समय देवराज इन्द्रने भगवान्‌ श्रीकृष्णके लिये पारिजात वृक्ष और सुधर्मा-सभाको भेज दिया। वह सभा ऐसी दिव्य थी कि उसमें बैठे हुए मनुष्यको भूख-प्यास आदि मर्त्यलोक के धर्म नहीं छू पाते थे ।। ५५ ।। वरुणजीने ऐसे बहुत-से श्वेत घोड़े भेज दिये, जिनका एक-एक कान श्याम- वर्णका था, और जिनकी चाल मनके समान तेज थी। धनपति कुबेरजीने अपनी आठों निधियाँ भेज दीं और दूसरे लोकपालोंने भी अपनी-अपनी विभूतियाँ भगवान्‌के पास भेज दीं ।। ५६ ।। परीक्षित्‌ ! सभी लोकपालोंको भगवान्‌ श्रीकृष्णने ही उनके अधिकार के निर्वाहके लिये शक्तियाँ और सिद्धियाँ दी हैं। जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण पृथ्वीपर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे, तब सभी सिद्धियाँ उन्होंने भगवान्‌के चरणोंमें समॢपत कर दीं ।। ५७ ।। भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने समस्त स्वजन-सम्बन्धियोंको अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाके द्वारा द्वारकामें पहुँचा दिया। शेष प्रजाकी रक्षाके लिये बलरामजीको मथुरापुरीमें रख दिया और उनसे सलाह लेकर गलेमें कमलोंकी माला पहने, बिना कोई अस्त्र-शस्त्र लिये स्वयं नगरके बड़े दरवाजेसे बाहर निकल आये ।। ५८ ।।

 

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे

दुर्गनिवेशनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

जग्राह विरथं रामो जरासन्धं महाबलम्

हतानीकावशिष्टासुं सिंहः सिंहमिवौजसा ३१

बध्यमानं हतारातिं पाशैर्वारुणमानुषैः

वारयामास गोविन्दस्तेन कार्यचिकीर्षया ३२

सा मुक्तो लोकनाथाभ्यां व्रीडितो वीरसम्मतः

तपसे कृतसङ्कल्पो वारितः पथि राजभिः ३३

वाक्यैः पवित्रार्थपदैर्नयनैः प्राकृतैरपि

स्वकर्मबन्धप्राप्तोऽयं यदुभिस्ते पराभवः ३४

हतेषु सर्वानीकेषु नृपो बार्हद्रथस्तदा

उपेक्षितो भगवता मगधान्दुर्मना ययौ ३५

मुकुन्दोऽप्यक्षतबलो निस्तीर्णारिबलार्णवः

विकीर्यमाणः कुसुमैस्त्रीदशैरनुमोदितः ३६

माथुरैरुपसङ्गम्य विज्वरैर्मुदितात्मभिः

उपगीयमानविजयः सूतमागधबन्दिभिः ३७

शङ्खदुन्दुभयो नेदुर्भेरीतूर्याण्यनेकशः

वीणावेणुमृदङ्गानि पुरं प्रविशति प्रभौ ३८

सिक्तमार्गां हृष्टजनां पताकाभिरभ्यलङ्कृताम्

निर्घुष्टां ब्रह्मघोषेण कौतुकाबद्धतोरणाम् ३९

निचीयमानो नारीभिर्माल्यदध्यक्षताङ्कुरैः

निरीक्ष्यमाणः सस्नेहं प्रीत्युत्कलितलोचनैः ४०

आयोधनगतं वित्तमनन्तं वीरभूषणम्

यदुराजाय तत्सर्वमाहृतं प्रादिशत्प्रभुः ४१

 

इस प्रकार जरासन्धकी सारी सेना मारी गयी। रथ भी टूट गया। शरीरमें केवल प्राण बाकी रहे। तब भगवान्‌ श्रीबलरामजीने जैसे एक ङ्क्षसह दूसरे सिंह को पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्धको पकड़ लिया ।। ३१ ।। जरासन्धने पहले बहुत-से विपक्षी नरपतियोंका वध किया था, परंतु आज उसे बलरामजी वरुणकी फाँसी और मनुष्योंके फंदेसे बाँध रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वीका भार उतार सकेंगे, बलरामजीको रोक दिया ।। ३२ ।। बड़े-बड़े शूरवीर जरासन्धका सम्मान करते थे। इसलिये उसे इस बातपर बड़ी लज्जा मालूम हुई कि मुझे श्रीकृष्ण और बलरामने दया करके दीनकी भाँति छोड़ दिया है। अब उसने तपस्या करनेका निश्चय किया। परंतु रास्तेमें उसके साथी नरपतियोंने बहुत समझाया कि राजन् ! यदुवंशियोंमें क्या रखा है ? वे आपको बिलकुल ही पराजित नहीं कर सकते थे। आपको प्रारब्धवश ही नीचा देखना पड़ा है।उन लोगोंने भगवान्‌की इच्छा, फिर विजय प्राप्त करनेकी आशा आदि बतलाकर तथा लौकिक दृष्टान्त एवं युक्तियाँ दे-देकर यह बात समझा दी कि आपको तपस्या नहीं करनी चाहिये।। ३३-३४ ।। परीक्षित्‌ ! उस समय मगधराज जरासन्धकी सारी सेना मर चुकी थी। भगवान्‌ बलरामजीने उपेक्षापूर्वक उसे छोड़ दिया था, इससे वह बहुत उदास होकर अपने देश मगधको चला गया ।। ३५ ।।

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णकी सेनामें किसीका बाल भी बाँका न हुआ और उन्होंने जरासन्धकी तेईस अक्षौहिणी सेनापर, जो समुद्रके समान थी, सहज ही विजय प्राप्त कर ली। उस समय बड़े-बड़े देवता उनपर नन्दनवनके पुष्पोंकी वर्षा और उनके इस महान् कार्यका अनुमोदनप्रशंसा कर रहे थे ।। ३६ ।। जरासन्धकी सेनाके पराजयसे मथुरावासी भयरहित हो गये थे और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी विजयसे उनका हृदय आनन्दसे भर रहा था। भगवान्‌ श्रीकृष्ण आकर उनमें मिल गये। सूत, मागध और वन्दीजन उनकी विजयके गीत गा रहे थे ।। ३७ ।। जिस समय भगवान्‌ श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया, उस समय वहाँ शङ्ख, नगारे, भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदङ्ग आदि बाजे बजने लगे थे ।। ३८ ।। मथुराकी एक-एक सडक़ और गलीमें छिडक़ाव कर दिया गया था। चारों ओर हँसते-खेलते नागरिकोंकी चहल-पहल थी। सारा नगर छोटी-छोटी झंडियों और बड़ी-बड़ी विजय-पताकाओंसे सजा दिया गया था। ब्राह्मणोंकी वेदध्वनि गूँज रही थी और सब ओर आनन्दोत्सवके सूचक बंदनवार बाँध दिये गये थे ।। ३९ ।। जिस समय श्रीकृष्ण नगरमें प्रवेश कर रहे थे, उस समय नगरकी नारियाँ प्रेम और उत्कण्ठासे भरे हुए नेत्रोंसे उन्हें स्नेहपूर्वक निहार रही थीं और फूलोंके हार, दही, अक्षत और जौ आदिके अङ्कुरोंकी उनके ऊपर वर्षा कर रही थीं ।। ४० ।। भगवान्‌ श्रीकृष्ण रणभूमिसे अपार धन और वीरोंके आभूषण ले आये थे। वह सब उन्होंने यदुवंशियोंके राजा उग्रसेनके पास भेज दिया ।। ४१ ।।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




गुरुवार, 27 अगस्त 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)—पचासवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

जरासन्ध से युद्ध और द्वारकापुरी का निर्माण

 

श्रीशुक उवाच

जरासुतस्तावभिसृत्य माधवौ

महाबलौघेन बलीयसाऽऽवृणोत्

ससैन्ययानध्वजवाजिसारथी

सूर्यानलौ वायुरिवाभ्ररेणुभिः २१

सुपर्णतालध्वजचिह्नितौ रथाव्

अलक्षयन्त्यो हरिरामयोर्मृधे

स्त्रियः पुराट्टालकहर्म्यगोपुरं

समाश्रिताः सम्मुमुहुः शुचार्दितः २२

हरिः परानीकपयोमुचां मुहुः

शिलीमुखात्युल्बणवर्षपीडितम्

स्वसैन्यमालोक्य सुरासुरार्चितं

व्यस्फूर्जयच्छार्ङ्गशरासनोत्तमम् २३

गृह्णन्निशङ्गादथ सन्दधच्छरान्

विकृष्य मुञ्चन्शितबाणपूगान्

निघ्नन्रथान्कुञ्जरवाजिपत्तीन्

निरन्तरं यद्वदलातचक्रम् २४

निर्भिन्नकुम्भाः करिणो निपेतु-

रनेकशोऽश्वाः शरवृक्णकन्धराः

रथा हताश्वध्वजसूतनायकाः

पदायतश्छिन्नभुजोरुकन्धराः २५

सञ्छिद्यमानद्विपदेभवाजिना-

मङ्गप्रसूताः शतशोऽसृगापगाः

भुजाहयः पूरुषशीर्षकच्छपा

हतद्विपद्वीपहय ग्रहाकुलाः २६

करोरुमीना नरकेशशैवला

धनुस्तरङ्गायुधगुल्मसङ्कुलाः

अच्छूरिकावर्तभयानका महा-

मणिप्रवेकाभरणाश्मशर्कराः २७

प्रवर्तिता भीरुभयावहा मृधे

मनस्विनां हर्षकरीः परस्परम्

विनिघ्नतारीन्मुषलेन दुर्मदान्-

सङ्कर्षणेनापरीमेयतेजसा २८

बलं तदङ्गार्णवदुर्गभैरवं

दुरन्तपारं मगधेन्द्र पालितम्

क्षणं प्रणीतं वसुदेवपुत्रयो-

र्विक्रीडितं तज्जगदीशयो:परम् २९

स्थित्युद्भवान्तं भुवनत्रयस्य यः

समीहितेऽनन्तगुणः स्वलीलया

न तस्य चित्रं परपक्षनिग्रहस्

तथापि मर्त्यानुविधस्य वर्ण्यते ३०

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जैसे वायु बादलोंसे सूर्यको और धूएँसे आगको ढक लेती है, किन्तु वास्तवमें वे ढकते नहीं, उनका प्रकाश फिर फैलता ही है; वैसे ही मगधराज जरासन्धने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामके सामने आकर अपनी बहुत बड़ी बलवान् और अपार सेनाके द्वारा उन्हें चारों ओरसे घेर लियायहाँतक कि उनकी सेना, रथ, ध्वजा, घोड़ों और सारथियोंका दीखना भी बंद हो गया ।। २१ ।। मथुरापुरीकी स्त्रियाँ अपने महलोंकी अटारियों, छज्जों और फाटकोंपर चढक़र युद्धका कौतुक देख रही थीं। जब उन्होंने देखा कि युद्ध भूमिमें भगवान्‌ श्रीकृष्णकी गरुड़चिह्नसे चिह्नित और बलरामजीकी तालचिह्नसे चिह्नित ध्वजावाले रथ नहीं दीख रहे हैं, तब वे शोकके आवेगसे मूर्च्छित हो गयीं ।। २२ ।। जब भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि शत्रु-सेनाके वीर हमारी सेनापर इस प्रकार बाणोंकी वर्षा कर रहे हैं, मानो बादल पानीकी अनगिनत बूँदें बरसा रहे हों और हमारी सेना उससे अत्यन्त पीडि़त, व्यथित हो रही है; तब उन्होंने अपने देवता और असुर-दोनोंसे सम्मानित शार्ङ्गधनुष का टङ्कार किया ।। २३ ।। इसके बाद वे तरकस में से बाण निकालने, उन्हें धनुषपर चढ़ाने और धनुषकी डोरी खींचकर झुंड-के-झुंड बाण छोडऩे लगे। उस समय उनका वह धनुष इतनी फुर्तीसे घूम रहा था, मानो कोई बड़े वेगसे अलातचक्र (लुकारी) घुमा रहा हो। इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण जरासन्ध की चतुरङ्गिणीहाथी, घोड़े, रथ और पैदलसेनाका संहार करने लगे ।। २४ ।। इससे बहुत-से हाथियोंके सिर फट गये और वे मर-मरकर गिरने लगे। बाणोंकी बौछारसे अनेकों घोड़ोंके सिर धड़से अलग हो गये। घोड़े, ध्वजा, सारथि और रथियोंके नष्ट हो जानेसे बहुत-से रथ बेकाम हो गये। पैदल सेनाकी बाँहें, जाँघ और सिर आदि अंग-प्रत्यङ्ग कट-कटकर गिर पड़े ।। २५ ।। उस युद्धमें अपार तेजस्वी भगवान्‌ बलरामजीने अपने मूसलकी चोटसे बहुत-से मतवाले शत्रुओंको मार-मारकर उनके अङ्ग-प्रत्यङ्गसे निकले हुए खूनकी सैकड़ों नदियाँ बहा दीं। कहीं मनुष्य कट रहे हैं तो कहीं हाथी और घोड़े छटपटा रहे हैं। उन नदियोंमें मनुष्योंकी भुजाएँ साँपके समान जान पड़तीं और सिर इस प्रकार मालूम पड़ते, मानो कछुओंकी भीड़ लग गयी हो। मरे हुए हाथी दीप-जैसे और घोड़े ग्राहों के समान जान पड़ते। हाथ और जाँघें मछलियोंकी तरह, मनुष्योंके केश सेवारके समान, धनुष तरङ्गोंकी भाँति और अस्त्र-शस्त्र लता एवं तिनकोंके समान जान पड़ते। ढालें ऐसी मालूम पड़तीं, मानो भयानक भँवर हों। बहुमूल्य मणियाँ और आभूषण पत्थरके रोड़ों तथा कंकड़ोंके समान बहे जा रहे थे। उन नदियोंको देखकर कायर पुरुष डर रहे थे और वीरोंका आपसमें खूब उत्साह बढ़ रहा था ।। २६२८ ।। परीक्षित्‌ ! जरासन्धकी वह सेना समुद्रके समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाईसे जीतनेयोग्य थी। परंतु भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीने थोड़े ही समयमें उसे नष्ट कर डाला। वे सारे जगत्के स्वामी हैं। उनके लिये एक सेनाका नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है ।। २९ ।। परीक्षित्‌ ! भगवान्‌के गुण अनन्त हैं। वे खेल-खेलमें ही तीनों लोकोंकी उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि वे शत्रुओंकी सेनाका इस प्रकार बात-की-बातमें सत्यानाश कर दें। तथापि जब वे मनुष्यका-सा वेष धारण करके मनुष्यकी-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है ।। ३० ।।

 

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