॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— सत्तासीवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
वेदस्तुति
अपरिमिता ध्रुवास्तनुभृतो यदि सर्वगताः
तर्हि न
शास्यतेति नियमो ध्रव नेतरथा ।
अजनि च यन्मयं
तदविमुच्य नियन्तृ भवेत्
सममनुजानतां
यदमतं मतदुष्टतया ॥ ३० ॥
न घटत उद्भवः
प्रकृतिपूरुषयोरजयोः
उभययुजा
भवन्त्यसुभृतो जलबुद्बुदवत् ।
त्वयि त इमे ततो
विविधनामगुणैः परमे
सरित इवार्णवे
मधुनि लिल्युरशेषरसाः ॥ ३१ ॥
नृषु तव मयया भ्रमममीष्ववगत्य
भृशं
त्वयि
सुधियोऽभवे दधति भावमनुप्रभवम् ।
कथमनुवर्ततां भवभयं
तव यद्भ्रुकुटिः
सृजति
मुहुस्त्रिणमिरभवच्छरणेषु भयम् ॥ ३२ ॥
विजितहृषीकवायुभिरदान्तमनस्तुरगं
य इह यतन्ति
यन्तुमतिलोलमुपायखिदः ।
व्यसनशतान्विताः
समवहाय गुरोश्चरणं
वणिज इवाज
सन्त्यकृतकर्णधरा जलधौ ॥ ३३ ॥
स्वजनसुतात्मदारधनधामधरासुरथैः
त्वयि सति किं
नृणां श्रयत आत्मनि सर्वरसे ।
इति सदजानतां
मिथुनतो रतये चरतां
सुखयति को
न्विह स्वविहते स्वनिरस्तभगे ॥ ३४ ॥
भुवि
पुरुपुण्यतीर्थसदनान्यृषयो विमदाः
त उत भवत्पदाम्बुजहृदोऽघभिदङ्घ्रिजलाः
।
दधति
सकृन्मनस्त्वयि य आत्मनि नित्यसुखे
न पुनरुपासते
पुरुषसारहरावसथान् ॥ ३५ ॥
भगवन् ! आप नित्य एकरस हैं। यदि जीव असंख्य हों और सब-के-सब
नित्य एवं सर्वव्यापक हों, तब तो वे आपके समान ही हो जायँगे; उस हालत में वे शासित हैं और आप शासक—यह बात बन ही
नहीं सकती, और तब आप उनका नियन्त्रण कर ही नहीं सकते। उनका
नियन्त्रण आप तभी कर सकते हैं, जब वे आपसे उत्पन्न एवं आपकी
अपेक्षा न्यून हों। इसमें सन्देह नहीं कि ये सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या
विभिन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई है। इसलिये आप उनमें कारणरूपसे रहते हुए भी उनके
नियामक हैं। वास्तवमें आप उनमें समरूपसे स्थित हैं। परन्तु यह जाना नहीं जा सकता
कि आपका वह स्वरूप कैसा है। क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हमने जान लिया,
उन्होंने वास्तवमें आपको नहीं जाना; उन्होंने
तो केवल अपनी बुद्धिके विषयको जाना है, जिससे आप परे हैं। और
साथ ही मतिके द्वारा जितनी वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे मतियों
की भिन्नताके कारण भिन्न-भिन्न होती हैं; इसलिये उनकी
दुष्टता, एक मतके साथ दूसरे मतका विरोध प्रत्यक्ष ही है।
अतएव आपका स्वरूप समस्त मतोंके परे है[17] ॥ ३० ॥ स्वामिन् !
जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहनेका ऐसा अर्थ नहीं है कि आप
परिणामके द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही
अजन्मा हैं। अर्थात् उनका वास्तविक स्वरूप—जो आप हैं—
कभी वृत्तियोंके अंदर उतरता नहीं, जन्म नहीं
लेता। तब प्राणियोंका जन्म कैसे होता है ? अज्ञानके कारण
प्रकृतिको पुरुष और पुरुषको प्रकृति समझ लेनेसे, एकका
दूसरेके साथ संयोग हो जानेसे जैसे ‘बुलबुला’ नामकी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु
उपादान-कारण जल और निमित्त-कारण वायुके संयोगसे उसकी सृष्टि हो जाती है।
प्रकृतिमें पुरुष और पुरुषमें प्रकृतिका अध्यास (एकमें दूसरेकी कल्पना) हो जानेके
कारण ही जीवोंके विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं। अन्तमें जैसे समुद्रमें
नदियाँ और मधुमें समस्त पुष्पोंके रस समा जाते हैं, वैसे ही
वे सब-के-सब उपाधिरहित आपमें समा जाते हैं। (इसलिये जीवोंकी भिन्नता और उनका पृथक्
अस्तित्व आपके द्वारा नियन्त्रित है। उनकी पृथक् स्वतन्त्रता और सर्वव्यापकता आदि
वास्तविक सत्यको न जाननेके कारण ही मानी जाती है) [18] ॥ ३१
॥
भगवन् ! सभी जीव आपकी मायासे भ्रममें भटक रहे हैं, अपनेको आपसे पृथक् मानकर जन्म- मृत्युका चक्कर काट रहे हैं।
परन्तु बुद्धिमान् पुरुष इस भ्रमको समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभावसे आपकी शरण
ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्युके चक्करसे
छुड़ानेवाले हैं। यद्यपि शीत, ग्रीष्म और वर्षा—इन तीन भागोंवाला कालचक्र आपका भ्रूविलासमात्र है, वह
सभीको भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हींको बार-बार भयभीत करता
है, जो आपकी शरण नहीं लेते। जो आपके शरणागत भक्त हैं,
उन्हें भला, जन्म-मृत्युरूप संसारका भय कैसे
हो सकता है ?[19] ॥ ३२ ॥ अजन्मा प्रभो! जिन योगियोंने अपनी
इन्द्रियों और प्राणोंको वशमें कर लिया है, वे भी, जब गुरुदेवके चरणोंकी शरण न लेकर उच्छृङ्खल एवं अत्यन्त चञ्चल मन-तुरंगको
अपने वशमें करनेका प्रयत्न करते हैं, तब अपने साधनोंमें सफल
नहीं होते। उन्हें बार-बार खेद और सैकड़ों विपत्तियोंका सामना करना पड़ता है,
केवल श्रम और दु:ख ही उनके हाथ लगता है। उनकी ठीक वही दशा होती है,
जैसी समुद्रमें बिना कर्णधारकी नावपर यात्रा करनेवाले व्यापारियोंकी
होती है। (तात्पर्य यह कि जो मनको वशमें करना चाहते हैं, उनके
लिये कर्णधार—गुरुकी अनिवार्य आवश्यकता है)[20] ॥ ३३ ॥
भगवन् ! आप अखण्ड आनन्दस्वरूप और शरणागतोंके आत्मा हैं।
आपके रहते स्वजन, पुत्र, देह, स्त्री, धन, महल, पृथ्वी, प्राण और रथ आदिसे क्या प्रयोजन है ?
जो लोग इस सत्य सिद्धान्तको न जानकर स्त्री-पुरुषके सम्बन्धसे
होनेवाले सुखोंमें ही रम रहे हैं, उन्हें संसारमें भला,
ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो सुखी कर सके। क्योंकि
संसारकी सभी वस्तुएँ स्वभावसे ही विनाशी हैं, एक-न-एक दिन
मटियामेट हो जानेवाली हैं। और तो क्या, वे स्वरूपसे ही
सारहीन और सत्ताहीन हैं; वे भला, क्या
सुख दे सकती हैं [21] ॥ ३४ ॥ भगवन् ! जो ऐश्वर्य, लक्ष्मी, विद्या, जाति,
तपस्या आदिके घमंडसे रहित हैं, वे संतपुरुष इस
पृथ्वीतलपर परम पवित्र और सबको पवित्र करनेवाले पुण्यमय सच्चे तीर्थस्थान हैं।
क्योंकि उनके हृदयमें आपके चरणारविन्द सर्वदा विराजमान रहते हैं और यही कारण है कि
उन संत पुरुषोंका चरणामृत समस्त पापों और तापोंको सदाके लिये नष्ट कर देनेवाला है।
भगवन् ! आप नित्य-आनन्दस्वरूप आत्मा ही हैं। जो एक बार भी आपको अपना मन समर्पित कर
देते हैं—आपमें मन लगा देते हैं—वे उन
देह-गेहों में कभी नहीं फँसते जो जीवके विवेक, वैराग्य,
धैर्य, क्षमा और शान्ति आदि गुणोंका नाश
करनेवाले हैं। वे तो बस, आपमें ही रम जाते हैं [22] ॥ ३५ ॥
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[17] अन्तर्यन्ता सर्वलोकस्य
गीत: श्रुत्या युक्त्या चैवमेवावसेय:॥१७॥
य: सर्वज्ञ:
सर्वशक्तिर्नृसिंह: श्रीमन्तं तं चेतसैवावलम्बे॥१७॥
श्रुतिने
समस्त दृश्यप्रपञ्चके अन्तर्यामीके रूपमें जिनका गान किया है, और युक्तिसे भी वैसा ही निश्चय होता है। जो
सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और नृसिंह—पुरुषोत्तम
हैं, उन्हीं सर्वसौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्रभुका मैं मन-ही-मन
आश्रय ग्रहण करता हूँ।
[18] यस्मिन्नुद्यद् विलयमपि
यद् भाति विश्वं लयादौ॥१८॥
जीवोपेतं
गुरुकरुणया केवलात्मावबोधे॥१८॥
अत्यन्तान्तं
व्रजति सहसा सिन्धुवत्सिन्धुमध्ये॥१८॥
मध्येचित्तं
त्रिभुवनगुरुं भावये तं नृसिंहम्॥१८॥
जीवोंके सहित
यह सम्पूर्ण विश्व जिनमें उदय होता है और सुषुप्ति आदि अवस्थाओंमें विलयको प्राप्त
होता है तथा भान होता है, गुरुदेवकी करुणा प्राप्त
होनेपर जब शुद्ध आत्माका ज्ञान होता है, तब समुद्रमें नदीके समान
सहसा यह जिनमें आत्यन्तिक प्रलयको प्राप्त हो जाता है, उन्हीं
त्रिभुवनगुरु नृसिंह भगवान्की मैं अपने हृदयमें भावना करता हूँ।
[19] संसारचक्रक्रकचैर्विदीर्णमुदीर्णनानाभवतापतप्तम्॥१९॥
कथञ्चिदापन्नमिह
प्रपन्नं त्वमुद्धर श्रीनृहरे नृलोकम्॥१९॥
नृसिंह ! यह जीव
संसार-चक्रके आरेसे टुकड़े-टुकड़े हो रहा है और नाना प्रकारके सांसारिक पापोंकी
धधकती हुई लपटोंसे झुलस रहा है। यह आपत्तिग्रस्त जीव किसी प्रकार आपकी कृपासे आपकी
शरणमें आया है। आप इसका उद्धार कीजिये।
[20]यदा परानन्दगुरो भवत्पदे
पदं मनो मे भगवँल्लभेत॥१९॥
तदा
निरस्ताखिलसाधनश्रम: श्रयेय सौख्यं भवत: कृपात:॥२०॥
परमानन्दमय
गुरुदेव ! भगवन् ! जब मेरा मन आपके चरणोंमें स्थान प्राप्त कर लेगा, तब मैं आपकी कृपासे समस्त साधनोंके
परिश्रमसे छुटकारा पाकर परमानन्द प्राप्त करूँगा।
[21] भजतां हि भवान्
साक्षात्परमानन्दचिद्घन:॥२१॥
आत्मैव किमत:
कृत्यं तुच्छदारसुतादिभि:॥२१॥
जो आपका भजन
करते हैं, उनके लिये आप स्वयं साक्षात्
परमानन्दचिद्घन आत्मा ही हैं। इसलिये उन्हें तुच्छ स्त्री, पुत्र,
धन आदिसे क्या प्रयोजन है ?
[22] मुञ्चन्नङ्गतदङ्गसङ्गमनिशं
त्वामेव सञ्चिन्तयन्॥१९॥
सन्त: सन्ति यतो
यतो गतमदास्तानाश्रमानावसन्॥१९॥
नित्यं
तन्मुखपङ्कजाद्विगलितत्वत्पुण्यगाथामृत-॥१९॥
स्रोत:सम्प£वसंप्लुतो नरहरे न स्यामहं देहभृत्॥२२॥
मैं शरीर और
उसके सम्बन्धियोंकी आसक्ति छोडक़र रात-दिन आपका ही चिन्तन करूँगा और जहाँ-जहाँ
निरभिमान सन्त निवास करते हैं, उन्हीं-उन्हीं आश्रमोंमें रहूँगा। उन सत्पुरुषोंके मुख-कमलसे नि:सृत आपकी
पुण्यमयी कथा-सुधाकी नदियोंकी धारामें प्रतिदिन स्नान करूँगा और नृसिंह ! फिर मैं
कभी देहके बन्धनमें नहीं पडूँगा।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
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