॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- दूसरा अध्याय
यमुना और श्रीकृष्णपत्नियों का संवाद,
कीर्तनोत्सव में उद्धवजी का प्रकट होना
ऋषयः
ऊचुः -
शाण्डिल्ये
तौ समादिश्य परावृत्ती स्वमाश्रमम् ।
किं कथं चक्रतुस्तौ तु राजानौ सूत तद् वद ॥ १ ॥
सूत उवाच -
ततस्तु विष्णुरातेन श्रेणीमुख्याः सहस्रशः ।
इन्द्रप्रस्थान् समानाय्य मथुरास्थानमापिताः ॥ २
॥
माथुरान् ब्राह्मणान् तत्र वानरांश्च पुरातनान्
।
विज्ञाय माननीयत्वं तेषु स्थापैतवान् स्वराट् ॥
३ ॥
वज्रस्तु तत्सहायेन शाण्डिल्यस्याप्यनुग्रहात् ।
गोविन्दगोपगोपीनां लीलास्थानान्यनुक्रमात् ॥ ४ ॥
विज्ञायाभिधयाऽऽस्थाप्य ग्रामानावासयद् बहून् ।
कुण्डकूपादिपूर्तेन शिवादिस्थापनेन च ॥ ५ ॥
गोविन्दहरिदेवादि स्वरूपारोपणेन च ।
कृष्णाइकभक्तिं स्वे राज्ये ततान च मुमोद ह ॥ ६
॥
प्रजास्तु मुदितास्तस्य कृष्णकीर्तनतत्पराः ।
परमानन्दसम्पन्ना राज्यं तस्यैव तुष्टुवुः ॥ ७ ॥
एकदा कृष्णपत्न्यस्तु श्रीकृष्णविरहातुराः ।
कालिन्दीं मुदितां वीक्ष्य तत्तासां
करुणापरमानसा ॥ १० ॥
कालिन्दी उवाच -
आत्मारामस्य
कृष्णस्य ध्रुवमात्मास्ति राधिका ।
तस्या दास्यप्रभावेण विरहोऽस्मान् न संस्पृशेत्
॥ ११ ॥
तस्या एवांशविस्ताराः सर्वाः श्रीकृष्णनायिकाः ।
नित्यसम्भोग एवास्ति तस्याः साम्मुख्ययोगतः ॥ १२
॥
स एव सा स सैवास्ति वंशी तत्प्रेमरूपिका ।
श्रीकृष्णनखचन्द्रालि सङ्घाच्चन्द्रावली स्मृता
॥ १३ ॥
रूपान्तरमगृह्णाना तयोः सेवातिलालसा ।
रुक्मिण्यादिसमावेशो मयात्रैव विलोकितः ॥ १४ ॥
युष्माकमपि कृष्णेन विरहो नैव सर्वतः ।
किन्तु एवं न जानीथ तस्माद् व्याकुलतामिताः ॥ १५
॥
एवमेवात्र गोपीनां अक्रूरावसरे पुरा ।
विरहाभास एवासीद् उद्धवेन समाहितः ॥ १६ ॥
तेनैव भवतीनां चेद् भवेदत्र समागमः ।
तर्हि नित्यं स्वकान्तेन विहारमपि पल्स्यथ ॥ १७
॥
सूत उवाच -
एवमुक्तास्तु ताः पत्न्यः प्रसन्नां
पुनरब्रुवन् ।
उद्धवालोकनेनात्म प्रेष्ठसङ्गमलालसाः ॥ १८ ॥
श्रीकृष्णपत्न्य ऊचुः -
धन्यासि सखि कान्तेन यस्या नैवास्ति विच्युतिः ।
यतस्ते स्वार्थसंसिद्धिः तस्या दास्यो बभूविम ॥
१९ ॥
परन्तूद्धवलाभे स्याद् अस्मत् सर्वार्थसाधनम् ।
तथा वदस्व कालिन्दि तल्लाभोऽपि यथा भवेत् ॥ २० ॥
सूत उवाच -
एवमुक्ता तु कालिन्दी प्रत्युवाचाथ तास्तथा ।
स्मरन्ती कृष्णचन्द्रस्य कलाः षोडशरूपिणीः ॥ २१
॥
साधनभूमिर्बदरी व्रजता कृष्णेन मंत्रिणे
प्रोक्ता ।
तत्रास्ते स तु साक्षात् तद् वयुनं ग्राहयन्
लोकान् ॥ २२ ॥
फलभूमिर्व्रजब्ःउमिः दत्ता तस्मै पुरैव सरहस्यम्
।
फलमिह तिरोहितं सत्तद् इहेदानीं स
उद्धवोऽलक्ष्यः ॥ २३ ॥
गोवर्द्धनगिरिनिकटे सखीस्थले तद्६रजः कामः ।
तत्रत्याङ्कुरवल्लीरूपेणास्ते स उद्धवो नूनम्
॥ २४ ॥
आत्मोत्सवरूपत्वं हरिणा तस्मै समार्पितं नियतम्
।
तस्मात् तत्र स्थित्वा कुसुमसरःपरिसरे सवज्राभिः
॥ २५ ॥
वीणावेणुमृदङ्गैः कीर्तनकाव्यादिसरससङ्गीतैः ।
उत्सव आरब्धव्यो हरिरतलोकान् समानाय्य ॥ २६ ॥
तत्रोद्धवावलोको भविता नियतं महोत्सवे वितते ।
यौष्माकीणां अभिमतसिद्धिं सविता स एव सवितानाम्
॥ २७ ॥
सूत उवाच -
इति श्रुत्वा प्रसन्नास्ताः कालिन्दीं अभिवन्द्य
तत् ।
कथयामासुरागत्य वज्रं प्रति परीक्षितम् ॥ २८ ॥
विष्णुरातस्तु तत् श्रुत्वा प्रसन्नस्तद्युतस्तदा
।
तत्रैवागत्य तत् सर्वं कारयामास सत्वरम् ॥ २९ ॥
गोवर्द्धनाददूरेण वृन्दारण्ये सखीस्थले ।
प्रवृत्तः कुसुमाम्भोधौ कृष्णसंकीर्तनोत्सवः ॥
३० ॥
वृषभानुसुताकान्त विहारे कीर्तनश्रिया ।
साक्षादिव समावृत्ते सर्वेऽनन्यदृशोऽभवन् ॥ ३१ ॥
ततः पश्यत्सु सर्वेषु तृणगुल्मलताचयात् ।
आजगामोद्धवः स्रग्वी श्यामः पीताम्बरावृतः ॥ ३२
॥
गुञ्जमालाधरो गायन् वल्लवीवल्लभं मुहुः ।
तदागमनतो रेजे भृशं सङ्कीर्तनोत्सवः ॥ ३३ ॥
चन्द्रिकागमतो यद्वत् स्फाटिकाट्टालभूमणिः ।
अथ सर्वे सुखाम्भोधौ मग्नाः सर्वं विसस्मरुः ॥
३४ ॥
क्षणेनागतविज्ञाना दृष्ट्वा श्रीकृष्णरूपिणम् ।
उद्धवं पूजयाञ्चक्रुः प्रतिलब्धमनोरथाः ॥ ३५ ॥
ऋषियोंने पूछा—सूतजी ! अब यह बतलाइये कि परीक्षित् और वज्रनाभको इस प्रकार
आदेश देकर जब शाण्डिल्य मुनि अपने आश्रमको लौट गये, तब उन दोनों राजाओंने कैसे-कैसे और
कौन-कौन-सा काम किया ? ॥ १ ॥
सूतजी कहने लगे—तदनन्तर महाराज परीक्षित्ने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) से
हजारों बड़े-बड़े सेठोंको बुलवाकर मथुरामें रहनेकी जगह दी ॥ २ ॥ इनके अतिरिक्त
सम्राट् परीक्षित्ने मथुरामण्डलके ब्राह्मणों तथा प्राचीन वानरोंको, जो भगवान्के बड़े ही
प्रेमी थे, बुलवाया और उन्हें आदरके योग्य समझकर
मथुरानगरीमें बसाया ॥ ३ ॥ इस प्रकार राजा परीक्षित्की सहायता और महर्षि
शाण्डिल्यकी कृपासे वज्रनाभने क्रमश: उन सभी स्थानोंकी खोज की, जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण अपने प्रेमी गोप-गोपियोंके साथ नाना प्रकारकी
लीलाएँ करते थे। लीलास्थानोंका ठीक-ठीक निश्चय हो जानेपर उन्होंने वहाँ-वहाँकी
लीलाके अनुसार उस-उस स्थानका नाम-करण किया, भगवान्के
लीलाविग्रहोंकी स्थापना की तथा उन-उन स्थानोंपर अनेकों गाँव बसाये। स्थान-स्थानपर
भगवान्के नामसे कुण्ड और कुएँ खुदवाये। कुञ्ज और बगीचे लगवाये, शिव आदि देवताओंकी स्थापना की ॥ ४-५ ॥ गोविन्ददेव, हरिदेव
आदि नामोंसे भगवद्विग्रह स्थापित किये। इन सब शुभ कर्मोंके द्वारा वज्रनाभने अपने
राज्यमें सब ओर एकमात्र श्रीकृष्णभक्तिका प्रचार किया और बड़े ही आनन्दित हुए ॥ ६
॥ उनके प्रजाजनोंको भी बड़ा आनन्द था, वे सदा भगवान्के मधुर
नाम तथा लीलाओंके कीर्तनमें संलग्र हो परमानन्दके समुद्रमें डूबे रहते थे और सदा
ही वज्रनाभके राज्यकी प्रशंसा किया करते थे ॥ ७ ॥
एक दिन भगवान् श्रीकृष्णकी विरह-वेदनासे व्याकुल सोलह हजार रानियाँ अपने
प्रियतम पतिदेवकी चतुर्थ पटरानी कालिन्दी (यमुनाजी) को आनन्दित देखकर सरलभावसे
उनसे पूछने लगीं। उनके मनमें सौतियाडाह लेशमात्र भी नहीं था ॥ ८ ॥
श्रीकृष्णकी रानियोंने कहा—बहिन कालिन्दी ! जैसे हम सब श्रीकृष्णकी
धर्मपत्नी हैं, वैसे ही तुम भी तो हो। हम तो उनकी विरहाग्रिमें जली जा रही हैं, उनके वियोग-दु:खसे हमारा हृदय व्यथित हो रहा है; किन्तु
तुम्हारी यह स्थिति नहीं है, तुम प्रसन्न हो। इसका क्या कारण
है ? कल्याणी ! कुछ बताओ तो सही ॥ ९ ॥
उनका प्रश्र सुनकर यमुनाजी हँस पड़ीं। साथ ही यह सोचकर कि मेरे प्रियतमकी
पत्नी होनेके कारण ये भी मेरी ही बहिनें हैं, पिघल गयीं; उनका
हृदय दयासे द्रवित हो उठा। अत: वे इस प्रकार कहने लगीं ॥ १० ॥
यमुनाजीने कहा—अपनी आत्मामें ही रमण करनेके कारण भगवान् श्रीकृष्ण
आत्माराम हैं और उनकी आत्मा हैं—श्रीराधाजी। मैं दासीकी भाँति राधाजीकी सेवा करती
रहती हूँ; उनकी सेवाका ही यह
प्रभाव है कि विरह हमारा स्पर्श नहीं कर सकता ॥ ११ ॥ भगवान् श्रीकृष्णकी जितनी भी
रानियाँ हैं, सब-की-सब श्रीराधाजीके ही अंशका विस्तार हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण और राधा सदा एक- दूसरेके सम्मुख हैं, उनका
परस्पर नित्य संयोग है; इसलिये राधाके स्वरूपमें अंशत:
विद्यमान जो श्रीकृष्णकी अन्य रानियाँ हैं, उनको भी भगवान्का
नित्य-संयोग प्राप्त है ॥ १२ ॥ श्रीकृष्ण ही राधा हैं और राधा ही श्रीकृष्ण हैं।
उन दोनोंका प्रेम ही वंशी है। तथा राधाकी प्यारी सखी चन्द्रावली भी
श्रीकृष्ण-चरणोंके नखरूपी चन्द्रमाओंकी सेवामें आसक्त रहनेके कारण ही ‘चन्द्रावली’
नामसे कही जाती है ॥ १३ ॥ श्रीराधा और श्रीकृष्णकी सेवामें उसकी बड़ी लालसा,
बड़ी लगन है; इसीलिये वह कोई दूसरा स्वरूप
धारण नहीं करती। मैंने यहीं श्रीराधामें ही रुक्मिणी आदिका समावेश देखा है ॥ १४ ॥
तुमलोगोंका भी सर्वांशमें श्रीकृष्णके साथ वियोग नहीं हुआ है, किन्तु तुम इस रहस्यको इस रूपमें जानती नहीं हो, इसीलिये
इतनी व्याकुल हो रही हो ॥ १५ ॥ इसी प्रकार पहले भी जब अक्रूर श्रीकृष्णको
नन्दगाँवसे मथुरामें ले आये थे, उस अवसरपर जो गोपियोंको
श्रीकृष्णसे विरहकी प्रतीति हुई थी, वह भी वास्तविक विरह
नहीं, केवल विरहका आभास था। इस बातको जबतक वे नहीं जानती थीं,
तबतक उन्हें बड़ा कष्ट था; फिर जब उद्धवजीने
आकर उनका समाधान किया, तब वे इस बातको समझ सकीं ॥ १६ ॥ यदि
तुम्हें भी उद्धवजीका सत्संग प्राप्त हो जाय तो तुम सब भी अपने प्रियतम श्रीकृष्णके
साथ नित्यविहारका सुख प्राप्त कर लोगी ॥ १७ ॥
सूतजी कहते हैं—ऋषिगण ! जब उन्होंने इस प्रकार समझाया, तब श्रीकृष्णकी
पत्नियाँ सदा प्रसन्न रहनेवाली यमुनाजीसे पुन: बोलीं। उस समय उनके हृदयमें इस
बातकी बड़ी लालसा थी कि किसी उपायसे उद्धवजीका दर्शन हो, जिससे
हमें अपने प्रियतमके नित्य-संयोगका सौभाग्य प्राप्त हो सके ॥ १८ ॥
श्रीकृष्णपत्नियोंने कहा—सखी ! तुम्हारा ही जीवन धन्य है; क्योंकि तुम्हें कभी
भी अपने प्राणनाथके वियोगका दु:ख नहीं भोगना पड़ता। जिन श्रीराधिकाजीकी कृपासे
तुम्हारे अभीष्ट अर्थकी सिद्धि हुई है, उनकी अब हमलोग भी
दासी हुर्ईं ॥ १९ ॥ किन्तु तुम अभी कह चुकी हो कि उद्धवजीके मिलनेपर ही हमारे सभी
मनोरथ पूर्ण होंगे; इसलिये कालिन्दी ! अब ऐसा कोई उपाय बताओ,
जिससे उद्धवजी भी शीघ्र ही मिल जायँ ॥ २० ॥
सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्णकी रानियोंने जब यमुनाजीसे इस प्रकार कहा, तब वे भगवान्
श्रीकृष्णचन्द्रकी सोलह कलाओंका चिन्तन करती हुई उनसे कहने लगीं— ॥ २१ ॥ ‘‘जब
भगवान् श्रीकृष्ण अपने परमधामको पधारने लगे, तब उन्होंने
अपने मन्त्री उद्धवसे कहा—‘उद्धव ! साधना करनेकी भूमि है बदरिकाश्रम, अत: अपनी साधना पूर्ण करनेके लिये तुम वहीं जाओ।’ भगवान्की इस आज्ञाके
अनुसार उद्धवजी इस समय अपने साक्षात् स्वरूपसे बदरिकाश्रममें विराजमान हैं और वहाँ
जानेवाले जिज्ञासुलोगोंको भगवान्के बताये हुए ज्ञानका उपदेश करते रहते हैं ॥ २२ ॥
साधनकी फलरूपा भूमि है—व्रजभूमि; इसे भी इसके रहस्योंसहित
भगवान्ने पहले ही उद्धवको दे दिया था। किन्तु वह फलभूमि यहाँसे भगवान्के
अन्तर्धान होनेके साथ ही स्थूल दृष्टिसे परे जा चुकी है; इसीलिये
इस समय यहाँ उद्धव प्रत्यक्ष दिखायी नहीं पड़ते ॥ २३ ॥ फिर भी एक स्थान है,
जहाँ उद्धवजीका दर्शन हो सकता है। गोवर्धन पर्वतके निकट भगवान्की
लीलासहचरी गोपियोंकी विहार- स्थली है; वहाँकी लता, अङ्कुर और बेलोंके रूपमें अवश्य ही उद्धवजी वहाँ निवास करते हैं। लताओंके
रूपमें उनके रहनेका यही उद्देश्य है कि भगवान्की प्रियतमा गोपियोंकी चरणरज उनपर
पड़ती रहे ॥ २४ ॥ उद्धवजीके सम्बन्धमें एक निश्चित बात यह भी है कि उन्हें भगवान्ने
अपना उत्सव- स्वरूप प्रदान किया है। भगवान्का उत्सव उद्धवजीका अंग है, वे उससे अलग नहीं रह सकते; इसलिये अब तुमलोग
वज्रनाभको साथ लेकर वहाँ जाओ और कुसुमसरोवरके पास ठहरो ॥ २५ ॥ भगवद्भक्तोंकी
मण्डली एकत्र करके वीणा, वेणु और मृदङ्ग आदि बाजोंके साथ
भगवान्के नाम और लीलाओंके कीर्तन, भगवत्सम्बन्धी
काव्य-कथाओंके श्रवण तथा भगवद्गुणगानसे युक्त सरस संगीतोंद्वारा महान् उत्सव आरम्भ
करो ॥ २६ ॥ इस प्रकार जब उस महान् उत्सवका विस्तार होगा, तब
निश्चय है कि वहाँ उद्धवजीका दर्शन मिलेगा। वे ही भलीभाँति तुम सब लोगोंके मनोरथ
पूर्ण करेंगे’’ ॥ २७ ॥
सूतजी कहते हैं—यमुनाजीकी बतायी हुई
बातें सुनकर श्रीकृष्णकी रानियाँ बहुत प्रसन्न हुर्ईं। उन्होंने यमुनाजीको प्रणाम
किया और वहाँसे लौटकर वज्रनाभ तथा परीक्षित्से वे सारी बातें कह सुनायीं ॥ २८ ॥
सब बातें सुनकर परीक्षित्को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने वज्रनाभ तथा
श्रीकृष्णपत्नियोंको उसी समय साथ ले उस स्थानपर पहुँचकर तत्काल वह सब कार्य आरम्भ
करवा दिया, जो कि यमुनाजीने बताया
था ॥ २९ ॥ गोवर्धनके निकट वृन्दावनके भीतर कुसुमसरोवरपर जो सखियोंकी विहारस्थली है,
वहाँ ही श्रीकृष्णकीर्तनका उत्सव आरम्भ हुआ ॥ ३० ॥ वृषभानुनन्दिनी
श्रीराधाजी तथा उनके प्रियतम श्रीकृष्णकी वह लीलाभूभि जब साक्षात् सङ्कीर्तनकी
शोभासे सम्पन्न हो गयी, उस समय वहाँ रहनेवाले सभी भक्तजन
एकाग्र हो गये; उनकी दृष्टि, उनके मनकी
वृत्ति कहीं अन्यत्र न जाती थी ॥ ३१ ॥ तदनन्तर सबके देखते-देखते वहाँ फैले हुए तृण,
गुल्म और लताओंके समूहसे प्रकट होकर श्रीउद्धवजी सबके सामने आये।
उनका शरीर श्यामवर्ण था, उसपर पीताम्बर शोभा पा रहा था। वे
गलेमें वनमाला और गुंजाकी माला धारण किये हुए थे तथा मुखसे बारंबार गोपीवल्लभ
श्रीकृष्णकी मधुर लीलाओंका गान कर रहे थे। उद्धवजीके आगमनसे उस सङ्कीर्तनोत्सवकी
शोभा कई गुनी बढ़ गयी। जैसे स्फटिकमणिकी बनी हुई अट्टालिकाकी छतपर चाँदनी छिटकनेसे
उसकी शोभा बहुत बढ़ जाती है। उस समय सभी लोग आनन्दके समुद्रमें निमग्र हो अपना सब
कुछ भूल गये, सुध-बुध खो बैठे ॥ ३२—३४ ॥ थोड़ी देर बाद जब
उनकी चेतना दिव्य लोकसे नीचे आयी, अर्थात् जब उन्हें होश हुआ,
तब उद्धवजीको भगवान् श्रीकृष्णके स्वरूपमें उपस्थित देख, अपना मनोरथ पूर्ण हो जानेके कारण प्रसन्न हो, वे
उनकी पूजा करने लगे ॥ ३५ ॥
इति
श्रीस्कान्दे महापुराण एकशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे
श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये
गोवर्धनपर्वतसमीपे परीक्षिदादीनां उद्धवदर्शनवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥