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लेबल
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रविवार, 12 दिसंबर 2021
श्रीहरि
बुधवार, 8 दिसंबर 2021
!!श्रीहरि:!!
शुक्रवार, 9 जुलाई 2021
गीता और भागवत के श्रीकृष्ण
|| श्रीहरि: ||
गीता और भागवत के श्रीकृष्ण
कुछ लोग गीता के श्रीकृष्ण को निपुण
तत्त्ववेत्ता,
महायोगेश्वर, निर्भय योद्धा और अतुलनीय राजनीति-विशारद मानते हैं, परंतु भागवत के श्रीकृष्ण को इसके
विपरीत नचैया, भोग-विलास-परायण, गाने-बजानेवाला और खिलाड़ी
समझते हैं; इसीसे वे भागवत के श्रीकृष्ण को नीची दृष्टि से देखते
हैं या उनको अस्वीकार करते हैं और गीता के या महाभारत के श्रीकृष्ण को ऊँचा या आदर्श मानते
हैं। वास्तव में यह बात ठीक नहीं है। श्रीकृष्ण जो भागवत के हैं, वे ही महाभारत या गीता के हैं। एक ही भगवान् की भिन्न-भिन्न स्थलों और भिन्न-भिन्न परिस्थितियोंमें भिन्न-भिन्न लीलाएँ हैं। भागवत
के श्रीकृष्ण को भोग-विलास-परायण और साधारण
नचैया-गवैया समझना भारी भ्रम है। अवश्य ही भागवत की लीलामें पवित्र
और महान् दिव्य प्रेम का विकास अधिक था; परंतु वहाँ भी ऐश्वर्य-लीलाकी कमी नहीं थी। असुर-वध, गोवर्द्धन-धारण, अग्नि- पान, वत्स-बालरूप-धारण आदि भगवान्
की ईश्वरीय लीलाएँ ही तो हैं। नवनीत-भक्षण, सखा-सह-विहार, गोपी-प्रेम आदि तो गोलोक की दिव्य लीलाएँ हैं। इसी से
कुछ भक्त भी वृन्दावनविहारी मुरलीधर रसराज प्रेममय भगवान् श्रीकृष्ण की ही उपासना करते
हैं,उनकी मधुर भावना में—
कृष्णोऽन्यो यदुसम्भूतो
यः पूर्णः सोऽस्त्यतः परः ।
वृन्दावनं परित्यज्य स क्वचिन्नैव गच्छति
।
—यदुनन्दन श्रीकृष्ण दूसरे हैं और वृन्दावनविहारी
पूर्ण श्रीकृष्ण दूसरे हैं। पूर्ण श्रीकृष्ण वृन्दावन छोड़कर कभी अन्यत्र गमन नहीं
करते। बात ठीक है—
जिन्ह के रही भावना जैसी। प्रभु मूरति
तिन्ह देखी तैसी ॥
इसी प्रकार कुछ भक्त गीता के
'तोत्त्रवेत्रैकपाणि' योगेश्वर श्रीकृष्ण के ही
उपासक हैं। रुचिके अनुसार उपास्यदेव के स्वरूपभेद में कोई आपत्ति नहीं; परंतु जो लोग भागवत या महाभारत के श्रीकृष्ण को वास्तवमें भिन्न-भिन्न मानते हैं या किसी एक का अस्वीकार करते हैं, उनकी
बात कभी नहीं माननी चाहिये । महाभारत में भागवत के और भागवत में महाभारत के श्रीकृष्ण
के एक होने के अनेक प्रमाण मिलते हैं। एक ही ग्रन्थ की एक बात मानना और दूसरी को मन
के प्रतिकूल होने के कारण न मानना वास्तव में यथेच्छाचार के सिवा और कुछ भी नहीं है।
साधकों को इन सारे बखेड़ों से अलग रहकर
भगवान् को पहचानने और अपने को 'सर्वभावेन'
उनके चरणों में समर्पणकर--शरणागत होकर उन्हें प्राप्त
करने की चेष्टा करनी चाहिये।
.............गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीराधा-माधव-चिन्तन पुस्तक (कोड
49) से
- -::-::- -
रविवार, 27 जून 2021
कलियुग के धर्म (पोस्ट०२)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
कलियुग के धर्म
(पोस्ट०२)
श्री शुकदेवजी कहते हैं -प्रिय परीक्षित् ! जब सब
डाकुओंका संहार हो चुकेगा, तब नगरकी और देशकी सारी प्रजाका हृदय पवित्रतासे भर जायगा;
क्योंकि भगवान् कल्किके शरीरमें लगे हुए अङ्गरागका स्पर्श पाकर
अत्यन्त पवित्र हुई वायु उनका स्पर्श करेगी और इस प्रकार वे भगवान्के
श्रीविग्रहकी दिव्य गन्ध प्राप्त कर सकेंगे ॥ २१ ॥ उनके पवित्र हृदयोंमें
सत्त्वमूर्ति भगवान् वासुदेव विराजमान होंगे और फिर उनकी सन्तान पहलेकी भाँति
हृष्ट-पुष्ट और बलवान् होने लगेगी ॥ २२ ॥ प्रजाके नयन-मनोहारी हरि ही धर्मके रक्षक
और स्वामी हैं। वे ही भगवान् जब कल्किके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे, उसी समय सत्ययुगका प्रारम्भ हो जायगा और प्रजाकी सन्तान-परम्परा स्वयं ही
सत्त्वगुणसे युक्त हो जायगी ॥ २३ ॥ जिस समय चन्द्रमा, सूर्य
और बृहस्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्रके प्रथम पलमें प्रवेश करते हैं,
एक राशिपर आते हैं, उसी समय सत्ययुगका
प्रारम्भ होता है ॥ २४ ॥
परीक्षित् ! चन्द्रवंश और सूर्यवंशमें जितने राजा हो
गये हैं या होंगे, उन सबका मैंने संक्षेप से वर्णन कर दिया ॥ २५ ॥ तुम्हारे
जन्मसे लेकर राजा नन्दके अभिषेकतक एक हजार एक सौ पंद्रह वर्षका समय लगेगा ॥ २६ ॥
जिस समय आकाशमें सप्तर्षियोंका उदय होता है, उस समय पहले
उनमेंसे दो ही तारे दिखायी पड़ते हैं। उनके बीचमें दक्षिणोत्तर रेखापर समभागमें
अश्विनी आदि नक्षत्रोंमेंसे एक नक्षत्र दिखायी पड़ता है ॥ २७ ॥ उस नक्षत्रके साथ
सप्तर्षिगण मनुष्योंकी गणनासे सौ वर्षतक रहते हैं। वे तुम्हारे जन्मके समय और इस
समय भी मघा नक्षत्रपर स्थित हैं ॥ २८ ॥
स्वयं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान् ही शुद्ध
सत्त्वमय विग्रहके साथ श्रीकृष्णके रूपमें प्रकट हुए थे। वे जिस समय अपनी लीला
संवरण करके परमधामको पधार गये, उसी समय कलियुगने संसारमें प्रवेश
किया। उसीके कारण मनुष्योंकी मति-गति पापकी ओर ढुलक गयी ॥ २९ ॥ जबतक लक्ष्मीपति
भगवान् श्रीकृष्ण अपने चरणकमलोंसे पृथ्वीका स्पर्श करते रहे, तबतक कलियुग पृथ्वीपर अपना पैर न जमा सका ॥ ३० ॥ परीक्षित् ! जिस समय सप्तर्षि
मघा-नक्षत्रपर विचरण करते रहते हैं, उसी समय कलियुगका
प्रारम्भ होता है। कलियुगकी आयु देवताओंकी वर्षगणनासे बारह सौ वर्षोंकी अर्थात्
मनुष्योंकी गणनाके अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्षकी है ॥ ३१ ॥ जिस समय सप्तर्षि
मघासे चलकर पूर्वाषाढ़ा-नक्षत्रमें जा चुके होंगे, उस समय
राजा नन्दका राज्य रहेगा। तभीसे कलियुगकी वृद्धि शुरू होगी ॥ ३२ ॥
पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानोंका कहना है कि जिस दिन भगवान् श्रीकृष्णने
अपने परम-धामको प्रयाण किया, उसी दिन, उसी
समय कलियुगका प्रारम्भ हो गया ॥ ३३ ॥ परीक्षित् ! जब देवताओंकी वर्षगणनाके अनुसार
एक हजार वर्ष बीत चुकेंगे, तब कलियुगके अन्तिम दिनोंमें
फिरसे कल्किभगवान् की कृपासे मनुष्योंके मनमें सात्त्विकताका सञ्चार होगा, लोग अपने वास्तविक स्वरूपको जान सकेंगे और तभीसे सत्ययुगका प्रारम्भ भी
होगा ॥ ३४ ॥
परीक्षित् ! मैंने तो तुमसे केवल मनुवंशका, सो भी संक्षेपसे वर्णन किया है। जैसे मनुवंशकी गणना होती है, वैसे ही प्रत्येक युगमें ब्राह्मण, वैश्य और
शूद्रोंकी भी वंशपरम्परा समझनी चाहिये ॥ ३५ ॥ राजन् ! जिन पुरुषों और महात्माओंका
वर्णन मैंने तुमसे किया है, अब केवल नामसे ही उनकी पहचान होती
है। अब वे नहीं हैं, केवल उनकी कथा रह गयी है। अब उनकी
कीर्ति ही पृथ्वीपर जहाँ-तहाँ सुननेको मिलती है ॥ ३६ ॥ भीष्मपितामहके पिता राजा
शन्तनुके भाई देवापि और इक्ष्वाकुवंशी मरु इस समय कलाप-ग्राममें स्थित हैं। वे
बहुत बड़े योगबलसे युक्त हैं ॥ ३७ ॥ कलियुगके अन्तमें कल्किभगवान्की आज्ञासे वे
फिर यहाँ आयँगे और पहलेकी भाँति ही वर्णाश्रमधर्मका विस्तार करेंगे ॥ ३८ ॥ सत्ययुग,
त्रेता द्वापर और कलियुग—ये ही चार युग हैं; ये
पूर्वोक्त क्रमके अनुसार अपने-अपने समयमें पृथ्वीके प्राणियोंपर अपना प्रभाव
दिखाते रहते हैं ॥ ३९ ॥ परीक्षित् ! मैंने तुमसे जिन राजाओंका वर्णन किया है,
वे सब और उनके अतिरिक्त दूसरे राजा भी इस पृथ्वीको ‘मेरी-मेरी’ करते
रहे, परन्तु अन्तमें मरकर धूलमें मिल गये ॥ ४० ॥ इस शरीरको
भले ही कोई राजा कह ले; परन्तु अन्तमें यह कीड़ा, विष्ठा अथवा राखके रूपमें ही परिणत होगा, राख ही
होकर रहेगा। इसी शरीरके या इसके सम्बन्धियोंके लिये जो किसी भी प्राणीको सताता है,
वह न तो अपना स्वार्थ जानता है और न तो परमार्थ। क्योंकि
प्राणियोंको सताना तो नरकका द्वार है ॥ ४१ ॥ वे लोग यही सोचा करते हैं कि मेरे
दादा-परदादा इस अखण्ड भूमण्डलका शासन करते थे; अब यह मेरे
अधीन किस प्रकार रहे और मेरे बाद मेरे बेटे-पोते, मेरे वंशज
किस प्रकार इसका उपभोग करें ॥ ४२ ॥ वे मूर्ख इस आग, पानी और
मिट्टीके शरीरको अपना आपा मान बैठते हैं और बड़े अभिमानके साथ डींग हाँकते हैं कि
यह पृथ्वी मेरी है। अन्तमें वे शरीर और पृथ्वी दोनोंको छोडक़र स्वयं ही अदृश्य हो
जाते हैं ॥ ४३ ॥ प्रिय परीक्षित् ! जो-जो नरपति बड़े उत्साह और बल-पौरुषसे इस
पृथ्वीके उपभोगमें लगे रहे, उन सबको कालने अपने विकराल
गालमें धर दबाया। अब केवल इतिहासमें उनकी कहानी ही शेष रह गयी है ॥ ४४ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (द्वादश स्कन्ध– दूसरा अध्याय) कोड-1536
शनिवार, 26 जून 2021
कलियुग के धर्म (पोस्ट०१)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
कलियुग के धर्म
(पोस्ट०१)
श्री शुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! समय बड़ा बलवान्
है; ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायगा, त्यों-त्यों
उत्तरोत्तर धर्म, सत्य, पवित्रता,
क्षमा, दया, आयु,
बल और स्मरणशक्तिका लोप होता जायगा ॥ १ ॥ कलियुग में जिसके पास धन
होगा, उसीको लोग कुलीन, सदाचारी और
सद्गुणी मानेंगे। जिसके हाथमें शक्ति होगी वही धर्म और न्यायकी व्यवस्था अपने
अनुकूल करा सकेगा ॥ २ ॥ विवाह-सम्बन्धके लिये कुल-शील-योग्यता आदिकी परख-निरख नहीं
रहेगी, युवक-युवतीकी पारस्परिक रुचिसे ही सम्बन्ध हो जायगा।
व्यवहारकी निपुणता, सच्चाई और ईमानदारीमें नहीं रहेगी;
जो जितना छल-कपट कर सकेगा, वह उतना ही
व्यवहारकुशल माना जायगा। स्त्री और पुरुषकी श्रेष्ठताका आधार उनका शील-संयम न होकर
केवल रतिकौशल ही रहेगा। ब्राह्मणकी पहचान उसके गुण-स्वभावसे नहीं यज्ञोपवीतसे हुआ
करेगी ॥ ३ ॥ वस्त्र, दण्ड- कमण्डलु आदिसे ही ब्रह्मचारी,
संन्यासी आदि आश्रमियोंकी पहचान होगी और एक-दूसरेका चिह्न स्वीकार
कर लेना ही एकसे दूसरे आश्रममें प्रवेशका स्वरूप होगा। जो घूस देने या धन खर्च
करनेमें असमर्थ होगा, उसे अदालतोंसे ठीक-ठीक न्याय न मिल
सकेगा। जो बोल-चालमें जितना चालाक होगा, उसे उतना ही बड़ा
पण्डित माना जायगा ॥ ४ ॥ असाधुताकी—दोषी होनेकी एक ही पहचान रहेगी—गरीब होना। जो
जितना अधिक दम्भ-पाखण्ड कर सकेगा, उसे उतना ही बड़ा साधु
समझा जायगा। विवाहके लिये एक-दूसरेकी स्वीकृति ही पर्याप्त होगी, शास्त्रीय विधि-विधानकी— संस्कार आदिकी कोई आवश्यकता न समझी जायगी। बाल
आदि सँवारकर कपड़े-लत्तेसे लैस हो जाना ही स्नान समझा जायगा ॥ ५ ॥ लोग दूरके
तालाबको तीर्थ मानेंगे और निकटके तीर्थ गङ्गा- गोमती, माता-पिता
आदिकी उपेक्षा करेंगे। सिरपर बड़े-बड़े बाल—काकुल रखाना ही शारीरिक सौन्दर्यका
चिह्न समझा जायगा और जीवनका सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा—अपना पेट भर लेना। जो जितनी
ढिठाईसे बात कर सकेगा, उसे उतना ही सच्चा समझा जायगा ॥ ६ ॥
योग्यता चतुराईका सबसे बड़ा लक्षण यह होगा कि मनुष्य अपने कुटुम्बका पालन कर ले।
धर्मका सेवन यशके लिये किया जायगा। इस प्रकार जब सारी पृथ्वीपर दुष्टोंका बोलबाला
हो जायगा, तब राजा होनेका कोई नियम न रहेगा; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य
अथवा शूद्रोंमें जो बली होगा, वही राजा बन बैठेगा। उस समयके
नीच राजा अत्यन्त निर्दय एवं क्रूर होंगे; लोभी तो इतने
होंगे कि उनमें और लुटेरोंमें कोई अन्तर न किया जा सकेगा। वे प्रजाकी पूँजी एवं
पत्नियोंतकको छीन लेंगे। उनसे डरकर प्रजा पहाड़ों और जंगलोंमें भाग जायगी। उस समय
प्रजा तरह-तरहके शाक, कन्द-मूल, मांस,
मधु, फल-फूल और बीज-गुठली आदि खा-खाकर अपना
पेट भरेगी ॥ ७—९ ॥ कभी वर्षा न होगी—सूखा पड़ जायगा; तो कभी
कर-पर-कर लगाये जायँगे। कभी कड़ाकेकी सर्दी पड़ेगी, तो कभी
पाला पड़ेगा, कभी आँधी चलेगी, कभी गरमी
पड़ेगी, तो कभी बाढ़ आ जायगी। इन उत्पातोंसे तथा आपसके
सङ्घर्षसे प्रजा अत्यन्त पीडि़त होगी, नष्ट हो जायगी ॥ १० ॥
लोग भूख- प्यास तथा नाना प्रकारकी चिन्ताओंसे दुखी रहेंगे। रोगोंसे तो उन्हें
छुटकारा ही न मिलेगा। कलियुग में मनुष्यों की परमायु केवल बीस या तीस वर्षकी होगी
॥ ११ ॥
परीक्षित् ! कलिकाल के दोषसे प्राणियोंके शरीर
छोटे-छोटे, क्षीण और रोगग्रस्त होने लगेंगे। वर्ण और आश्रमोंका धर्म
बतलानेवाला वेद-मार्ग नष्टप्राय हो जायगा ॥ १२ ॥ धर्ममें पाखण्डकी प्रधानता हो
जायगी। राजे-महाराजे डाकू-लुटेरोंके समान हो जायँगे। मनुष्य चोरी, झूठ तथा निरपराध हिंसा आदि नाना प्रकारके कुकर्मोंसे जीविका चलाने लगेंगे
॥ १३ ॥ चारों वर्णोंके लोग शूद्रोंके समान हो जायँगे। गौएँ बकरियोंकी तरह
छोटी-छोटी और कम दूध देनेवाली हो जायँगी। वानप्रस्थी और संन्यासी आदि विरक्त
आश्रमवाले भी घर-गृहस्थी जुटाकर गृहस्थोंका-सा व्यापार करने लगेंगे। जिनसे वैवाहिक
सम्बन्ध है, उन्हींको अपना सम्बन्धी माना जायगा ॥ १४ ॥ धान,
जौ, गेहूँ आदि धान्योंके पौधे छोटे-छोटे होने
लगेंगे। वृक्षोंमें अधिकांश शमीके समान छोटे और कँटीले वृक्ष ही रह जायँगे।
बादलोंमें बिजली तो बहुत चमकेगी, परन्तु वर्षा कम होगी।
गृहस्थोंके घर अतिथि-सत्कार या वेदध्वनिसे रहित होनेके कारण अथवा जनसंख्या घट
जानेके कारण सूने- सूने हो जायँगे ॥ १५ ॥ परीक्षित् ! अधिक क्या कहें—कलियुगका
अन्त होते-होते मनुष्योंका स्वभाव गधों-जैसा दु:सह बन जायगा, लोग प्राय: गृहस्थीका भार ढोनेवाले और विषयी हो जायँगे। ऐसी स्थितिमें
धर्मकी रक्षा करनेके लिये सत्त्वगुण स्वीकार करके स्वयं भगवान् अवतार ग्रहण
करेंगे ॥ १६ ॥
प्रिय परीक्षित् ! सर्वव्यापक भगवान् विष्णु
सर्वशक्तिमान् हैं। वे सर्वस्वरूप होनेपर भी चराचर जगत् के सच्चे शिक्षक—सद्गुरु
हैं। वे साधु—सज्जन पुरुषोंके धर्मकी रक्षाके लिये, उनके
कर्मका बन्धन काटकर उन्हें जन्म-मृत्युके चक्रसे छुड़ानेके लिये अवतार ग्रहण करते
हैं ॥ १७ ॥ उन दिनों शम्भल-ग्राममें विष्णुयश नामके एक श्रेष्ठ ब्राह्मण होंगे।
उनका हृदय बड़ा उदार एवं भगवद्भक्तिसे पूर्ण होगा। उन्हींके घर कल्किभगवान् अवतार
ग्रहण करेंगे ॥ १८ ॥ श्रीभगवान् ही अष्टसिद्धियोंके और समस्त सद्गुणोंके एकमात्र
आश्रय हैं। समस्त चराचर जगत्के वे ही रक्षक और स्वामी हैं। वे देवदत्त नामक
शीघ्रगामी घोड़ेपर सवार होकर दुष्टोंको तलवारके घाट उतारकर ठीक करेंगे ॥ १९ ॥ उनके
रोम-रोमसे अतुलनीय तेजकी किरणें छिटकती होंगी। वे अपने शीघ्रगामी घोड़े से
पृथ्वीपर सर्वत्र विचरण करेंगे और राजाके वेषमें छिपकर रहनेवाले कोटि-कोटि
डाकुओंका संहार करेंगे ॥ २० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (द्वादश स्कन्ध– दूसरा अध्याय) कोड-1536
गुरुवार, 24 जून 2021
शिवसंकल्पसूक्त (कल्याणसूक्त)
शिवसंकल्पसूक्त
(कल्याणसूक्त)
[मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है, परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है; क्योंकि मन सभीको नियन्त्रित
करनेवाला, विलक्षण शक्तिसम्पन्न तथा सर्वाधिक प्रभावशाली है।
इसकी गति सर्वत्र है, सभी कर्मेन्द्रियाँ-ज्ञानेन्द्रियाँ, सुख-दुःख मनके
ही अधीन हैं। स्पष्ट है कि व्यक्तिका अभ्युदय मनके शुभ संकल्पयुक्त होनेपर निर्भर करता
है, यही प्रार्थना मन्त्रद्रष्टा ऋषिने इस सूक्तमें व्यक्त की
है। यह सूक्त शुक्लयजुर्वेदके ३४वें अध्यायमें पठित है। इसमें छ: मन्त्र हैं। यहाँ सूक्तको भावानुवाद के साथ दिया जा रहा है-]
यजाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥१॥
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु
॥२॥
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु
।।३।।
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु
॥४॥
यस्मिन्नृचः साम यजूᳬषि यस्मिन्
प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिंश्चित्तᳬसर्वमोतं
प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ५॥ सुषारथिरश्वानिव यन्यनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन
इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु
॥ ६ ॥
步步步步步步步步牙牙牙先
जो
जागते हुए पुरुष का [मन] दूर चला जाता है और सोते हुए पुरुषका वैसे ही निकट
आ जाता है, जो परमात्माके साक्षात्कार का प्रधान साधन है;
जो भूत, भविष्य, वर्तमान,
संनिकृष्ट एवं व्यवहित पदार्थोंका एकमात्र ज्ञाता है तथा जो विषयोंका
ज्ञान प्राप्त करनेवाले श्रोत्र आदि इन्द्रियोंका एकमात्र प्रकाशक और प्रवर्तक है,
मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥१॥
कर्मनिष्ठ
एवं धीर विद्वान् जिसके द्वारा यज्ञिय पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके यज्ञमें कर्मोंका
विस्तार करते हैं,
जो इन्द्रियोंका पूर्वज अथवा आत्मस्वरूप है, जो
पूज्य है और समस्त प्रजाके हृदयमें निवास करता है, मेरा वह मन
कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥२॥
जो
विशेष प्रकारके ज्ञानका कारण है, जो सामान्य ज्ञानका कारण है,
जो धैर्यरूप है, जो समस्त प्रजा के हृदयमें रहकर
उनकी समस्त इन्द्रियोंको प्रकाशित करता है, जो स्थूल शरीरकी मृत्यु
होनेपर भी अमर रहता है और जिसके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो ॥३॥
-
--
जिस
अमृतस्वरूप मनके द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्यत्सम्बन्धी सभी वस्तुएँ
ग्रहण की जाती हैं तथा जिसके द्वारा सात होतावाला अग्निष्टोम यज्ञ सम्पन्न होता है,
मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥४॥
जिस
मनमें रथचक्रकी नाभिमें अरोंके समान ऋग्वेद और सामवेद प्रतिष्ठित हैं तथा जिसमें यजुर्वेद
प्रतिष्ठित है,
जिसमें प्रजाका सब पदार्थों से सम्बन्ध रखनेवाला सम्पूर्ण ज्ञान ओतप्रोत
है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥५॥
श्रेष्ठ
सारथि जैसे घोड़ों का संचालन और रासके द्वारा घोड़ोंका नियन्त्रण करता है, वैसे ही जो प्राणियों का संचालन तथा नियन्त्रण करनेवाला है, जो हृदयमें रहता है, जो कभी बूढ़ा नहीं होता और जो अत्यन्त
वेगवान् है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त
हो ॥६॥
… ……….[शुक्लयजुर्वेद अ० ३४]
………......गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित वैदिक सूक्त-संग्रह पुस्तक (कोड 1885) से
शुक्रवार, 18 जून 2021
भिक्षु गीता (पोस्ट०३)
|| श्रीहरि: ||
भिक्षु गीता (पोस्ट०३)
कालस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनस्तत्र तदात्मकोऽसौ ।
नाग्नेर्हि तापो न हिमस्य तत्स्यात्-
क्रुध्येत कस्मै न परस्य द्वन्द्वम् ॥ ५६ ॥
न केनचित्क्वापि कथञ्चनास्य
द्वन्द्वोपरागः परतः परस्य ।
यथाहमः संसृतिरूपिणः स्या-
देवं प्रबुद्धो न बिभेति भूतैः ॥ ५७ ॥
एतां स आस्थाय परात्मनिष्ठा-
मध्यासितां पूर्वतमैर्महर्षिभिः ।
अहं तरिष्यामि दुरन्तपारं
तमो मुकुन्दाङ्घ्रिनिषेवयैव ॥ ५८ ॥
श्रीभगवानुवाच
निर्विद्य नष्टद्रविणे गतक्लमः
प्रव्रज्य गां पर्यटमान इत्थम् ।
निराकृतोऽसद्भिरपि स्वधर्मा-
दकम्पितोऽमूं मुनिराह गाथाम् ॥ ५९ ॥
सुखदुःखप्रदो नान्यः पुरुषस्यात्मविभ्रमः
मित्रोदासीनरिपवः संसारस्तमसः कृतः ॥ ६० ॥
तस्मात्सर्वात्मना तात निगृहाण मनो धिया
मय्यावेशितया युक्त एतावान्योगसङ्ग्रहः ॥ ६१ ॥
य एतां भिक्षुणा गीतां ब्रह्मनिष्ठां समाहितः
धारयञ्छ्रावयञ्छृण्वन्द्वन्द्वैर्नैवाभिभूयते ॥ ६२ ॥
यदि ऐसा मानें कि काल ही सुख-दु:ख का
कारण है, तो आत्मापर उसका क्या प्रभाव ? क्योंकि काल तो आत्मस्वरूप ही है।
जैसे आग आगको नहीं जला सकती, और बर्फ बर्फको नहीं गला सकता, वैसे ही आत्मस्वरूप काल अपने
आत्माको ही सुख-दु:ख नहीं पहुँचा सकता। फिर किसपर क्रोध किया जाय ? आत्मा शीत- उष्ण, सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंसे सर्वथा
अतीत है ॥ ५६ ॥ आत्मा प्रकृतिके स्वरूप, धर्म, कार्य, लेश, सम्बन्ध और गन्धसे भी रहित है। उसे
कभी कहीं किसीके द्वारा किसी भी प्रकारसे द्वन्द्वका स्पर्श ही नहीं होता। वह तो
जन्म-मृत्युके चक्र में भटकने वाले अहङ्कार को ही होता है। जो इस बात को जान लेता
है, वह फिर किसी भी भय के निमित्त से भयभीत नहीं होता ॥ ५७ ॥ बड़े-बड़े प्राचीन
ऋषि-मुनियों ने इस परमात्मनिष्ठा का आश्रय ग्रहण किया है। मैं भी इसीका आश्रय
ग्रहण करूँगा और मुक्ति तथा प्रेमके दाता भगवान् के चरणकमलों की सेवाके द्वारा ही
इस दुरन्त अज्ञान-सागरको अनायास ही पार कर लूँगा ॥ ५८ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण कहते
हैं—उद्धवजी ! उस ब्राह्मणका धन क्या नष्ट हुआ, उसका सारा क्लेश ही दूर हो गया। अब
वह संसारसे विरक्त हो गया था और संन्यास लेकर पृथ्वीमें स्वच्छन्द विचर रहा था।
यद्यपि दुष्टोंने उसे बहुत सताया, फिर भी वह अपने धर्ममें अटल रहा, तनिक भी विचलित न हुआ। उस समय वह
मौनी अवधूत मन-ही-मन इस प्रकारका गीत गाया करता था ॥ ५९ ॥ उद्धवजी ! इस संसार में
मनुष्य को कोई दूसरा सुख या दु:ख नहीं देता, यह तो उसके चित्तका भ्रममात्र है।
यह सारा संसार और इसके भीतर मित्र, उदासीन और शत्रु के भेद
अज्ञानकल्पित हैं ॥ ६० ॥ इसलिये प्यारे उद्धव ! अपनी वृत्तियों को मुझ में तन्मय कर दो और इस प्रकार अपनी सारी शक्ति
लगाकर मनको वशमें कर लो और फिर मुझमें ही नित्ययुक्त होकर स्थित हो जाओ। बस, सारे योगसाधन का इतना ही सार-संग्रह है ॥ ६१ ॥ यह भिक्षुक का
गीत क्या है, मूर्तिमान् ब्रह्मज्ञान-निष्ठा ही है। जो पुरुष एकाग्रचित्त से इसे सुनता, सुनाता और धारण करता है वह कभी सुख-दु:खादि
द्वन्द्वों के वशमें नहीं होता। उनके बीचमें भी वह सिंहके समान दहाड़ता रहता है ॥
६२ ॥
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1536 (स्कन्ध 11/अध्याय 23) से
भिक्षु गीता (पोस्ट०२)
|| श्रीहरि: ||
भिक्षु गीता (पोस्ट०२)
मनोवशेऽन्ये ह्यभवन्स्म देवा
मनश्च नान्यस्य वशं समेति ।
भीष्मो हि देवः सहसः सहीया-
न्युञ्ज्याद्वशे तं स हि देवदेवः ॥ ४८ ॥
तं दुर्जयं शत्रुमसह्यवेग-
मरुन्तुदं तन्न विजित्य केचित् ।
कुर्वन्त्यसद्विग्रहमत्र मर्त्यै-
र्मित्राण्युदासीनरिपून्विमूढाः ॥ ४९ ॥
देहं मनोमात्रमिमं गृहीत्वा
ममाहमित्यन्धधियो मनुष्याः ।
एषोऽहमन्योऽयमिति भ्रमेण
दुरन्तपारे तमसि भ्रमन्ति ॥ ५० ॥
जनस्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनश्चात्र हि भौमयोस्तत् ।
जिह्वां क्वचित्सन्दशति स्वदद्भि-
स्तद्वेदनायां कतमाय कुप्येत् ॥ ५१ ॥
दुःखस्य हेतुर्यदि देवतास्तु
किमात्मनस्तत्र विकारयोस्तत् ।
यदङ्गमङ्गेन निहन्यते क्वचित्-
क्रुध्येत कस्मै पुरुषः स्वदेहे ॥ ५२ ॥
आत्मा यदि स्यात्सुखदुःखहेतुः
किमन्यतस्तत्र निजस्वभावः ।
न ह्यात्मनोऽन्यद्यदि तन्मृषा स्या-
त्क्रुध्येत कस्मान्न सुखं न दुःखम् ॥ ५३ ॥
ग्रहा निमित्तं सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनोऽजस्य जनस्य ते वै ।
ग्रहैर्ग्रहस्यैव वदन्ति पीडां
क्रुध्येत कस्मै पुरुषस्ततोऽन्यः ॥ ५४ ॥
कर्मास्तु हेतुः सुखदुःखयोश्चे-
त्किमात्मनस्तद्धि जडाजडत्वे ।
देहस्त्वचित्पुरुषोऽयं सुपर्णः
क्रुध्येत कस्मै न हि कर्म मूलम् ॥ ५५ ॥
सभी इन्द्रियाँ मनके वशमें हैं ।
मन किसी भी इन्द्रियके वशमें नहीं है। यह मन बलवान् से भी बलवान्, अत्यन्त भयङ्कर देव है। जो इसको
अपने वशमें कर लेता है, वही देव-देव—इन्द्रियोंका विजेता है ॥ ४८ ॥ सचमुच मन बहुत बड़ा शत्रु है। इसका
आक्रमण असह्य है। यह बाहरी शरीर को ही नहीं, हृदयादि मर्मस्थानों को भी बेधता
रहता है। इसे जीतना बहुत ही कठिन है। मनुष्यों को चाहिये कि सबसे पहले इसी शत्रुपर
विजय प्राप्त करे; परन्तु होता है यह कि मूर्ख लोग इसे तो जीतनेका प्रयत्न करते नहीं, दूसरे मनुष्योंसे झूठमूठ झगड़ा-बखेड़ा
करते रहते हैं और इस जगत् के लोगोंको ही मित्र-शत्रु-उदासीन बना लेते हैं ॥ ४९ ॥
साधारणत: मनुष्योंकी बुद्धि अंधी हो रही है। तभी तो वे इस मन:कल्पित शरीरको ‘मैं’
और ‘मेरा’ मान बैठते हैं और फिर इस भ्रमके फंदेमें फँस जाते हैं कि ‘यह मैं हूँ और
यह दूसरा।’ इसका परिणाम यह होता है कि वे इस अनन्त अज्ञानान्धकार में ही भटकते
रहते हैं ॥ ५० ॥
यदि मान लें कि मनुष्य ही
सुख-दु:खका कारण है, तो भी उनसे आत्माका क्या सम्बन्ध ? क्योंकि सुख-दु:ख पहुँचानेवाला भी
मिट्टीका शरीर है और भोगनेवाला भी। कभी भोजन आदिके समय यदि अपने दाँतोंसे ही अपनी
जीभ कट जाय और उससे पीड़ा होने लगे, तो मनुष्य किसपर क्रोध करेगा ? ॥ ५१ ॥ यदि ऐसा मान लें कि देवता
ही दु:खके कारण हैं, तो भी इस दु:खसे आत्माकी क्या हानि ? क्योंकि यदि दु:खके कारण देवता हैं, तो इन्द्रियाभिमानी देवताओंके
रूपमें उनके भोक्ता भी तो वे ही हैं। और देवता सभी शरीरोंमें एक हैं; जो देवता एक शरीरमें हैं; वे ही दूसरेमें भी हैं। ऐसी दशामें
यदि अपने ही शरीरके किसी एक अङ्गसे दूसरे अङ्गको चोट लग जाय तो भला, किसपर क्रोध किया जायगा ? ॥ ५२ ॥ यदि ऐसा मानें कि आत्मा ही
सुख-दु:खका कारण है तो वह तो अपना आप ही है, कोई दूसरा नहीं; क्योंकि आत्मासे भिन्न कुछ और है
ही नहीं। यदि दूसरा कुछ प्रतीत होता है, तो वह मिथ्या है। इसलिये न सुख है, न दु:ख; फिर क्रोध कैसा ? क्रोधका निमित्त ही क्या ? ॥ ५३ ॥ यदि ग्रहोंको सुख-दु:खका
निमित्त मानें, तो उनसे भी अजन्मा आत्माकी क्या हानि ? उनका प्रभाव भी जन्म-मृत्युशील
शरीरपर ही होता है। ग्रहोंकी पीड़ा तो उनका प्रभाव ग्रहण करनेवाले शरीरको ही होती
है और आत्मा उन ग्रहों और शरीरोंसे सर्वथा परे है। तब भला वह किसपर क्रोध करे ? ॥ ५४ ॥ यदि कर्मोंको ही सुख-दु:खका
कारण मानें, तो उनसे आत्माका क्या प्रयोजन ? क्योंकि वे तो एक पदार्थके जड और
चेतन—उभयरूप होनेपर ही हो सकते हैं। (जो वस्तु विकारयुक्त और अपना हिताहित
जाननेवाली होती है, उसीसे कर्म हो सकते हैं; अत: वह विकारयुक्त होनेके कारण जड होनी चाहिये और
हिताहित का ज्ञान रखने के कारण चेतन) किन्तु देह तो अचेतन है और उसमें पक्षीरूपसे
रहनेवाला आत्मा सर्वथा निर्विकार और साक्षीमात्र है। इस प्रकार कर्मोंका तो कोई
आधार ही सिद्ध नहीं होता। फिर क्रोध किस पर
करें ? ॥ ५५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1536 (स्कन्ध 11/अध्याय 23) से
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