योगक्षेमं वहाम्यहम्
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : हे अर्जुन ! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, मैं ही जलको ग्रहण करता हूँ और (फिर उस जलको मैं ही) वर्षारूपसे बरसा देता हूँ । (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।
तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरस को पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा (इन्द्ररूपसे) मेरा पूजन करके स्वर्गप्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं, वे (पुण्योंके फलस्वरूप) पवित्र इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गके देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं।
वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं।
जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भलीभाँति उपासना करते हैं, मुझमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।
हे कुन्तीनन्दन ! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधिपूर्वक अर्थात् देवताओंको मुझसे अलग मानते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ; किन्तु वे मुझे तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।
(सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोडऩेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।
जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्त:करणवाले भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट)-को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।
हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।
इस प्रकार (मेरे अर्पण करनेसे) कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे प्राप्त हो जायगा।
मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। (उन प्राणियोंमें) न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।
अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है । हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्तका पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।
श्रीमद्भगवद्गीता.....नँवे अध्याय से
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]
श्रीहरि
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