।। श्रीहरिः ।।
कामना और आवश्यकता (पोस्ट 02)
इतिहास पढ़ लें, भागवत आदि ग्रन्थ पढ़ लें, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिलेगा, जिसकी सब कामनाएँ पूरी हो गयी हों । कामना का तो त्याग ही
होता है, पूर्ति नहीं
होती । संसार क्षणभंगुर है, प्रतिक्षण नष्ट होनेवाला है, फिर उसकी कामना पूरी कैसे होगी ?[*] शरीर-संसार से सम्बन्ध मानने के कारण हमें अपने में जो कमी
प्रतीत होती है, उसकी पूर्ति
परमात्मा की प्राप्ति से ही होगी । हमें त्रिलोकी का आधिपत्य मिल जाय, संसारमात्र मिल
जाय, अनेक ब्रह्माण्ड
मिल जायँ तो भी हमारी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होगी । न कामना की पूर्ति होगी, न आवश्यकता की ।
क्योंकि जो कुछ मिलेगा, शरीर को ही मिलेगा, हमें (स्वयं को) नहीं मिलेगा । जड़ वस्तु चेतन तक कैसे पहुँच
सकती है ? परमात्मा के अंश
को परमात्मा की ही आवश्यकता है । मेरी मुक्ति हो जाय, मेरा कल्याण हो जाय, मेरे को तत्वज्ञान हो जाय, मैं सम्पूर्ण दुःखों से छूट जाऊँ, मेरे को महान् आनन्द मिल जाय, मेरे को भगवत्प्रेम मिल जाय‒यह सब स्वयं की आवश्यकता है । कामना का तो त्याग ही होता है, पर आवश्यकता का
त्याग कभी हुआ नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । आवश्यकताकी
तो पूर्ति ही होती है । जितने भी सन्त-महात्मा हो चुके हैं, उनकी कामनाओं का
त्याग हुआ है और आवश्यकताकी पूर्ति हुई है । इसलिये गीतामें कामना के त्याग पर
बहुत जोर दिया गया है ।
जहाँ जीव ने प्रकृति के अंश को पकड़ा है, वहीं से कामना और आवश्यकता का भेद उत्पन्न हुआ है । अगर जीव
प्रकृति के अंशको छोड़ दे तो कामना का त्याग हो जायगा और आवश्यकता की पूर्ति हो
जायगी । जड़ता से सम्बन्ध-विच्छेद होते ही कामनाओं का नाश और परमात्मा की प्राप्ति
स्वतः हो जाती है, क्योंकि परमात्मा सब जगह नित्य-निरन्तर विद्यमान हैं । परमात्मा की प्राप्ति में
संसार की कामना ही बाधक है । जड़ता को साथ में रखनेसे ही आवश्यकता की पूर्ति (परमात्मप्राप्ति) नहीं
होती । साधन करनेवाले बहुत-से लोग सांसारिक कामना की पूर्ति की तरह ही पारमार्थिक
आवश्यकता की पूर्ति के लिये भी उद्योग करते हैं । अर्थात् जड़ के द्वारा चेतन की
प्राप्ति चाहते हैं, शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि के द्वारा परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं । परन्तु
यह सिद्धान्त है कि जड़ के द्वारा चेतन की प्राप्ति होती नहीं, होनी सम्भव नहीं ।
किन्तु चेतन की प्राप्ति जड़ के त्याग से ही होती है ।
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[*] कुछ कामनाएँ पूरी होती हैं, कुछ पूरी नहीं होतीं‒यह सबका अनुभव है । इससे सिद्ध होता है कामनाकी पूर्ति-अपूर्ति कामनाके अधीन नहीं है, प्रत्युत किसी
विधान (पूर्वकृत कर्मफल) के अधीन है ।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा
प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‘सत्संग
मुक्ताहार’ पुस्तक’ से