गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

चौथा अध्याय

|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.०१)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

सूत उवाच -

अथ वैष्णवचित्तेषु दृष्ट्वा भक्तिं अलौकिकीम् ।
निजलोकं परित्यज्य भगवान् भक्तवत्सलः ॥ १ ॥
वनमाली घनश्यामः पीतवासा मनोहरः ।
काञ्चीकलापरुचिरो लसन् मुकुटकुण्डलः ॥ २ ॥
त्रिभङ्‌गललितश्चारु कौस्तुभेन विराजितः ।
कोटिमन्मथलावण्यो हरिचन्दनचर्चितः ॥ ३ ॥
परमानन्द चिन्मूर्तिः मधुरो मुरलीधरः ।
आविवेश स्वभक्तानां हृदयानि अमलानि च ॥ ४ ॥
वैकुण्ठवासिनो ये च वैष्णवा उद्धवादयः ।
तत्कथाश्रवणार्थं ते गूढरूपेण संस्थिताः ॥ ५ ॥

सूतजी कहते हैंमुनिवर ! उस समय अपने भक्तोंके चित्तमें अलौकिक भक्तिका प्रादुर्भाव हुआ देख भक्तवत्सल श्रीभगवान्‌ अपना धाम छोडक़र वहाँ पधारे ॥ १ ॥ उनके गलेमें वनमाला शोभा पा रही थी, श्रीअङ्ग सजल जलधरके समान श्यामवर्ण था, उसपर मनोहर पीताम्बर सुशोभित था, कटिप्रदेश करधनीकी लडिय़ोंसे सुसज्जित था, सिरपर मुकुटकी लटक और कानोंमें कुण्डलोंकी झलक देखते ही बनती थी ॥ २ ॥ वे त्रिभङ्गललित भावसे खड़े हुए चित्तको चुराये लेते थे। वक्ष:स्थलपर कौस्तुभमणि दमक रही थी, सारा श्रीअङ्ग हरिचन्दनसे चर्चित था। उस रूपकी शोभा क्या कहें, उसने तो मानो करोड़ों कामदेवोंकी रूपमाधुरी छीन ली थी ॥ ३ ॥ वे परमानन्दचिन्मूर्ति मधुरातिमधुर मुरलीधर ऐसी अनुपम छबिसे अपने भक्तोंके निर्मल चित्तोंमें आविर्भूत हुए ॥ ४ ॥ भगवान्‌के नित्य लोकनिवासी लीलापरिकर उद्धवादि वहाँ गुप्तरूपसे उस कथाको सुननेके लिये आये हुए थे ॥ ५ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.०२)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

तदा जयजयारावो रसपुष्टिरलौकिकी ।
चूर्णप्रसून वृष्टिश्च मुहुः शंखरवोऽप्यभूत् ॥ ६ ॥
तत् सभासंस्थितानां च देहगेहात्मविस्मृतिः ।
दृष्ट्वा च तन्मयावस्थां नारदो वाक्यमब्रवीत् ॥ ७ ॥
अलौकिकोऽयं महिमा मुनीश्वराः
     सप्ताहजन्योऽद्य विलोकितो मया ।
मूढाः शठा ये पशुपक्षिणोऽत्र
     सर्वेऽपि निष्पापतमा भवन्ति ॥ ८ ॥
अतो नृलोके ननु नास्ति किंचित्
     चित्तस्य शोधाय कलौ पवित्रम् ।
अघौघविध्वंसकरं तथैव
     कथासमानं भुवि नास्ति चान्यत् ॥ ९ ॥
के के विशुद्ध्यन्ति वदन्तु मह्यं
     सप्ताहयज्ञेन कथामयेन ।
कृपालुभिर्लोकहितं विचार्य
     प्रकाशितः कोऽपि नवीनमार्गः ॥ १० ॥

प्रभुके प्रकट होते ही चारों ओर जय हो ! जय हो !!की ध्वनि होने लगी। उस समय भक्तिरसका अद्भुत प्रवाह चला, बार-बार अबीर-गुलाल और पुष्पोंकी वर्षा तथा शङ्ख- ध्वनि होने लगी ॥ ६ ॥ उस सभामें जो लोग बैठे थे, उन्हें अपने देह, गेह और आत्माकी भी कोई सुधि न रही। उनकी ऐसी तन्मयता देखकर नारदजी कहने लगे॥ ७ ॥ मुनीश्वरगण ! आज सप्ताहश्रवणकी मैंने यह बड़ी ही अलौकिक महिमा देखी। यहाँ तो जो बड़े मूर्ख, दुष्ट और पशु-पक्षी भी हैं, वे सभी अत्यन्त निष्पाप हो गये हैं ॥ ८ ॥ अत: इसमें संदेह नहीं कि कलिकाल में चित्त की शुद्धि के लिये इस भागवतकथा के समान मर्त्यलोकमें पापपुञ्जका नाश करनेवाला कोई दूसरा पवित्र साधन नहीं है ॥ ९ ॥
मुनिवर ! आपलोग बड़े कृपालु हैं, आपने संसारके कल्याणका विचार करके यह बिलकुल निराला ही मार्ग निकाला है। आप कृपया यह तो बताइये कि इस कथारूप सप्ताहयज्ञके द्वारा संसारमें कौन-कौन लोग पवित्र हो जाते हैं ॥ १० ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.०३)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

कुमारा ऊचुः –

ये मानवाः पापकृतस्तु सर्वदा
     सदा दुराचाररता विमार्गगाः ।
क्रोधाग्निदग्धाः कुटिलाश्च कामिनः
     सप्ताहयज्ञेन कलौ पुनन्ति ते ॥ ११ ॥
सत्यन हीना पितृमातृदूषकाः
     तृष्णाकुलाचाश्रमधर्मवर्जिताः ।
ये दाम्भिका मत्सरिणोऽपि हिंसकाः
     सप्ताहयज्ञेन कलौ पुनन्ति ते ॥ १२ ॥
पञ्चोग्रपापात् छलछद्मकारिणः
     क्रूराः पिशाचा इव निर्दयाश्च ये ।
ब्रह्मस्वपुष्टा व्यभिचारकारिणः
     सप्ताहयज्ञेन कलौ पुनन्ति ते ॥ १३ ॥
कायेन वाचा मनसापि पातकं
     नित्यं प्रकुर्वन्ति शठा हठेन ये ।
परस्वपुष्टा मलिना दुराशयाः
     सप्ताहयज्ञेन कलौ पुनन्ति ते ॥ १४ ॥

सनकादिने कहाजो लोग सदा तरह-तरह के पाप किया करते हैं, निरन्तर दुराचार में ही तत्पर रहते हैं और उलटे मार्गों से चलते हैं तथा जो क्रोधाग्नि से जलते रहनेवाले, कुटिल और कामपरायण हैं, वे सभी इस कलियुग में सप्ताहयज्ञ से पवित्र हो जाते हैं ॥ ११ ॥ जो सत्यसे च्युत, माता-पिता की निन्दा करनेवाले, तृष्णा के मारे व्याकुल, आश्रमधर्म से रहित, दम्भी, दूसरों की उन्नति देखकर कुढऩे- वाले और दूसरों को दु:ख देनेवाले हैं, वे भी कलियुग में सप्ताहयज्ञ से पवित्र हो जाते हैं ॥ १२ ॥ जो मदिरापान, ब्रह्महत्या, सुवर्णकी चोरी, गुरुस्त्रीगमन और विश्वासघातये पाँच महापाप करनेवाले, छल-छद्मपरायण, क्रूर, पिशाचोंके समान निर्दयी, ब्राह्मणोंके धनसे पुष्ट होनेवाले और व्यभिचारी हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं ॥ १३ ॥ जो दुष्ट आग्रहपूर्वक सर्वदा मन, वाणी या शरीरसे पाप करते रहते हैं, दूसरेके धनसे ही पुष्ट होते हैं तथा मलिन मन और दुष्ट हृदयवाले हैं, वे भी कलियुगमें सप्ताहयज्ञसे पवित्र हो जाते हैं ॥ १४ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.०४)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

अत्र ते कीर्तयिष्याम इतिहासं पुरातनम् ।
यस्य श्रवणमात्रेण पापहानिः प्रजायते ॥ १५ ॥
तुंगभद्रातटे पूर्वं अभूत् पत्तनमुत्तमम् ।
यत्र वर्णाः स्वधर्मेण सत्यसत्कर्मतत्पराः ॥ १६ ॥
आत्मदेवः पुरे तस्मिन् सर्ववेद विशारदः ।
श्रौतस्मार्तेषु निष्णातो द्वितीय इव भास्करः ॥ १७ ॥
भिक्षुको वित्तवान् लोके तत्प्रिया धुन्धुली स्मृता ।
स्ववाक्यस्थापिका नित्यं सुन्दरी सुकुलोद्‌भवा ॥ १८ ॥
लोकवार्तारता क्रूरा प्रायशो बहुजल्पिका ।
शूरा च गृहकृत्येषु कृपणा कलहप्रिया ॥ १९ ॥
एवं निवसतोः प्रेम्णा दंपत्यो रममाणयोः ।
अर्थाः कामास्तयोरासन् न सुखाय गृहादिकम् ॥ २० ॥
पश्चात् धर्माः समारब्धाः ताभ्यां संतानहेतवे ।
गोभूहिरण्यवासांसि दीनेभ्यो यच्छतः सदा ॥ २१ ॥
धनार्धं धर्ममार्गेण ताभ्यां नीतं तथापि च ।
न पुत्रो नापि वा पुत्री ततश्चिन्तातुरो भृशम् ॥ २२ ॥

(सनकादि कहते हैं) नारदजी ! अब हम तुम्हें इस विषयमें एक प्राचीन इतिहास सुनाते हैं, उसके सुननेसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ १५ ॥ पूर्वकालमें तुङ्गभद्रा नदीके तटपर एक अनुपम नगर बसा हुआ था। वहाँ सभी वर्णोंके लोग अपने-अपने धर्मोंका आचरण करते हुए सत्य और सत्कर्मोंमें तत्पर रहते थे ॥ १६ ॥ उस नगरमें समस्त वेदोंका विशेषज्ञ और श्रौत-स्मार्त कर्मोंमें निपुण एक आत्मदेव नामक ब्राह्मण रहता था, वह साक्षात् दूसरे सूर्यके समान तेजस्वी था ॥ १७ ॥ वह धनी होनेपर भी भिक्षाजीवी था। उसकी प्यारी पत्नी धुन्धुली कुलीन एवं सुन्दरी होनेपर भी सदा अपनी बातपर अड़ जानेवाली थी ॥ १८ ॥ उसे लोगोंकी बात करनेमें सुख मिलता था। स्वभाव था क्रूर। प्राय: कुछ- न-कुछ बकवाद करती रहती थी। गृहकार्यमें निपुण थी, कृपण थी, और थी झगड़ालू भी ॥ १९ ॥ इस प्रकार ब्राह्मण-दम्पति प्रेमसे अपने घरमें रहते और विहार करते थे। उनके पास अर्थ और भोग- विलासकी सामग्री बहुत थी। घर-द्वार भी सुन्दर थे, परन्तु उससे उन्हें सुख नहीं था ॥ २० ॥ जब अवस्था बहुत ढल गयी, तब उन्होंने सन्तानके लिये तरह-तरहके पुण्यकर्म आरम्भ किये और वे दीन-दु:खियोंको गौ, पृथ्वी, सुवर्ण और वस्त्रादि दान करने लगे ॥ २१ ॥ इस प्रकार धर्ममार्गमें उन्होंने अपना आधा धन समाप्त कर दिया, तो भी उन्हें पुत्र या पुत्री किसीका भी मुख देखने को न मिला। इसलिये अब वह ब्राह्मण बहुत ही चिन्तातुर रहने लगा ॥ २२ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.०५)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

एकदा स तु द्विजो दुःखाद् गृहं त्यक्त्वा वनं गतः ।
मध्याह्ने तृषितो जातः तडागं समुपेयिवान् ॥ २३ ॥
पीत्वा जलं निषण्णस्तु प्रजादुःखेन कर्शितः ।
मुहूर्तादपि तत्रैव संन्यासी कश्चित् आगतः ॥ २४ ॥
दृष्ट्वा पीतजलं तं तु विप्रो यातस्तदन्तिकम् ।
नत्वा च पादयोस्तस्य निःश्वसन् संस्थितः पुरः ॥ २५ ॥

यतिरुवाच -
कथं रोदिषि विप्र त्वं का ते चिन्ता बलीयसी ।
वद त्वं सत्वरम् मह्यं स्वस्य दुःखस्य कारणम् ॥ २६ ॥

ब्राह्मण उवाच –
किं ब्रवीमि ऋषे दुःखं पूर्वपापेन संचितम् ।
मदीयाः पूर्वजास्तोयं कवोष्णं उपभुञ्जते ॥ २७ ॥
मद्दत्तं नैव गृह्णन्ति प्रीत्या देवा द्विजातयः ।
प्रजादुःखेन शून्योऽहं प्राणान् त्यक्तुं इहागतः ॥ २८ ॥
धिक् जीवितं प्रजाहीनं धिक् गृहं च प्रजां विना ।
धिक् धनं चानपत्यस्य धिक्कुलं संततिं विना ॥ २९ ॥
पाल्यते या मया धेनुः सा वन्ध्या सर्वथा भवेत् ।
यो मया रोपितो वृक्षः सोऽपि वन्ध्यत्वमाश्रयेत् ॥ ३० ॥
यत्फलं मद्‌गृहायातं तच्च शीघ्रं विनश्यति ।
निर्भाग्यस्यानपत्यस्य किमतो जीवितेन मे ॥ ३१ ॥
इत्युक्त्वा स रुरोदोच्चैः तत्पार्श्वं दुःखपीडितः ।
तदा तस्य यतेश्चित्ते करुणाभूत् गरीयसी ॥ ३२ ॥
तद्‌भालाक्षरमालां च वाचमायास योगवान् ।
सर्वं ज्ञात्वा यतिः पश्चात् विप्रं ऊचे सविस्तरम् ॥ ३३ ॥

यतिरुवाच -
मुञ्च अज्ञानं प्रजारूपं बलिष्ठा कर्मणो गतिः ।
विवेकं तु समासाद्य त्यज संसारवासनाम् ॥ ३४ ॥
श्रुणु विप्र मया तेऽद्य प्रारब्धं तु विलोकितम् ।
सप्तजन्मावधि तव पुत्रो नैव च नैव च ॥ ३५ ॥

एक दिन वह ब्राह्मणदेवता बहुत दुखी होकर घरसे निकलकर वनको चल दिया। दोपहरके समय उसे प्यास लगी, इसलिये वह एक तालाबपर आया ॥ २३ ॥ सन्तानके अभावके दु:खने उसके शरीरको बहुत सुखा दिया था, इसलिये थक जानेके कारण जल पीकर वह वहीं बैठ गया। दो घड़ी बीतनेपर वहाँ एक संन्यासी महात्मा आये ॥ २४ ॥ जब ब्राह्मणदेवताने देखा कि वे जल पी चुके हैं, तब वह उनके पास गया और चरणोंमें नमस्कार करनेके बाद सामने खड़े होकर लंबी- लंबी साँसें लेने लगा ॥ २५ ॥ संन्यासीने पूछाकहो, ब्राह्मणदेवता ! रोते क्यों हो ? ऐसी तुम्हें क्या भारी चिन्ता है ? तुम जल्दी ही मुझे अपने दु:खका कारण बताओ ॥ २६ ॥
ब्राह्मणने कहामहाराज ! मैं अपने पूर्वजन्मके पापोंसे संचित दु:खका क्या वर्णन करूँ ? अब मेरे पितर मेरे द्वारा दी हुई जलाञ्जलिके जलको अपनी चिन्ताजनित साँससे कुछ गरम करके पीते हैं ॥ २७ ॥ देवता और ब्राह्मण मेरा दिया हुआ प्रसन्न मनसे स्वीकार नहीं करते। सन्तानके लिये मैं इतना दुखी हो गया हूँ कि मुझे सब सूना-ही-सूना दिखायी देता है। मैं प्राण त्यागनेके लिये यहाँ आया हूँ ॥ २८ ॥ सन्तानहीन जीवनको धिक्कार है, सन्तानहीन गृहको धिक्कार है ! सन्तानहीन धनको धिक्कार है और सन्तानहीन कुलको धिक्कार है !! ॥ २९ ॥ मैं जिस गायको पालता हूँ, वह भी सर्वथा बाँझ हो जाती है; जो पेड़ लगाता हूँ, उसपर भी फल-फूल नहीं लगते ॥ ३० ॥ मेरे घरमें जो फल आता है, वह भी बहुत जल्दी सड़ जाता है। जब मैं ऐसा अभागा और पुत्रहीन हूँ, तब फिर इस जीवनको ही रखकर मुझे क्या करना है ॥ ३१ ॥ यों कहकर वह ब्राह्मण दु:खसे व्याकुल हो उन संन्यासी महात्माके पास फूट-फूटकर रोने लगा। तब उन यतिवरके हृदयमें बड़ी करुणा उत्पन्न हुई ॥ ३२ ॥ वे योगनिष्ठ थे; उन्होंने उसके ललाटकी रेखाएँ देखकर सारा वृत्तान्त जान लिया और फिर उसे विस्तारपूर्वक कहने लगे ॥ ३३ ॥
संन्यासीने कहाब्राह्मणदेवता ! इस प्रजाप्राप्तिका मोह त्याग दो। कर्मकी गति प्रबल है, विवेकका आश्रय लेकर संसारकी वासना छोड़ दो ॥ ३४ ॥ विप्रवर ! सुनो; मैंने इस समय तुम्हारा प्रारब्ध देखकर निश्चय किया है कि सात जन्मतक तुम्हारे कोई सन्तान किसी प्रकार नहीं हो सकती ॥ ३५ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.०६)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

संततेः सगरो दुःखं अवाप अङ्‌गः पुरा तथा ।
रे मुञ्चाद्य कुटुम्बाशां संन्यासे सर्वथा सुखम् ॥ ३६ ॥

ब्राह्मण उवाच –

विवेकेन भवेत्किं मे पुत्रं देहि बलादपि ।
नो चेत् त्यजाम्यहं प्राणान् त्वदग्रे शोकमूर्छितः ॥ ३७ ॥
पुत्रादिसुखहीनोऽयं संन्यासः शुष्क एव हि ।
गृहस्थः सरसो लोके पुत्रपौत्रसमन्वितः ॥ ३८ ॥
इति विप्राग्रहं दृष्ट्वा प्राब्रवीत् स तपोधनः ।
चित्रकेतुर्गतः कष्टं विधिलेखविमार्जनात् ॥ ३९ ॥
न यास्यसि सुखं पुत्रात् यथा दैवहतोद्यमः ।
अतो हठेन युक्तोऽसि ह्यर्थिनं किं वदाम्यहम् ॥ ४० ॥
तस्याग्रहं समालोक्य फलमेकं स दत्तवान् ।
इदं भक्षय पत्‍न्या त्वं ततः पुत्रो भविष्यति ॥ ४१ ॥
सत्यं शौचं दया दानं एकभक्तं तु भोजनम् ।
वर्षावधि स्त्रिया कार्यं तेन पुत्रोऽतिनिर्मलः ॥ ४२ ॥
एवमुक्त्वा ययौ योगी विप्रस्तु गृहमागतः ।
पत्‍न्याः पाणौ फलं दत्त्वा स्वयं यातस्तु कुत्रचित् ॥ ४३ ॥

पूर्वकालमें राजा सगर एवं अङ्गको सन्तानके कारण दु:ख भोगना पड़ा था। ब्राह्मण ! अब तुम कुटुम्बकी आशा छोड़ दो। संन्यासमें ही सब प्रकारका सुख है ॥ ३६ ॥
ब्राह्मणने कहामहात्माजी ! विवेकसे मेरा क्या होगा। मुझे तो बलपूर्वक पुत्र दीजिये; नहीं तो मैं आपके सामने ही शोकमूर्च्छित होकर अपने प्राण त्यागता हूँ ॥ ३७ ॥ जिसमें पुत्र-स्त्री आदिका सुख नहीं है, ऐसा संन्यास तो सर्वथा नीरस ही है। लोकमें सरस तो पुत्र-पौत्रादिसे भरा-पूरा गृहस्थाश्रम ही है ॥ ३८ ॥ ब्राह्मणका ऐसा आग्रह देखकर उन तपोधनने कहा, ‘विधाताके लेखको मिटानेका हठ करनेसे राजा चित्रकेतुको बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था ॥ ३९ ॥ इसलिये दैव जिसके उद्योगको कुचल देता है, उस पुरुषके समान तुम्हें भी पुत्रसे सुख नहीं मिल सकेगा। तुमने तो बड़ा हठ पकड़ रखा है और अर्थी के रूपमें तुम मेरे सामने उपस्थित हो; ऐसी दशामें मैं तुमसे क्या कहूँ॥ ४० ॥ जब महात्माजीने देखा कि यह किसी प्रकार अपना आग्रह नहीं छोड़ता, तब उन्होंने उसे एक फल देकर कहा—‘इसे तुम अपनी पत्नीको खिला देना, इससे उसके एक पुत्र होगा ॥ ४१ ॥ तुम्हारी स्त्रीको एक सालतक सत्य, शौच, दया, दान और एक समय एक ही अन्न खानेका नियम रखना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगी तो बालक बहुत शुद्ध स्वभाववाला होगा॥ ४२ ॥ यों कहकर वे योगिराज चले गये और ब्राह्मण अपने घर लौट आया। वहाँ आकर उसने वह फल अपनी स्त्रीके हाथमें दे दिया और स्वयं कहीं चला गया ॥ ४३ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.०७)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

तरुणी कुटिला तस्य सख्यग्रे च रुरोद ह ।
अहो चिन्ता ममोत्पन्ना फलं चाहं न भक्ष्यये ॥ ४४ ॥
फलभक्षेण गर्भः स्याद् गर्भेण उदरवृद्धिता ।
स्वल्पभक्षं ततोऽशक्तिः गृहकार्यं कथं भवेत् ॥ ४५ ॥
दैवाद् धाटी व्रजेद्‌ग्रामे पलायेद्‌गर्भिणी कथम् ।
शुकवत् निवसेत् गर्भः तं कुक्षेः कथमुत्सृजेत् ॥ ४६ ॥
तिर्यक् चेदागतो गर्भः तदा मे मरणं भवेत् ।
प्रसूतौ दारुणं दुःखं सुकुमारी कथं सहे ॥ ४७ ॥
मन्दायां मयि सर्वस्वं ननान्दा संहरेत् तदा ।
सत्यशौचादिनियमो दुराराध्यः स दृश्यते ॥ ४८ ॥
लालने पालने दुःखं प्रसूतायाश्च वर्तते ।
वन्ध्या वा विधवा नारी सुखिनी चेति मे मतिः ॥ ४९ ॥
एवं कुतर्कयोगेन तत्फलं नैव भक्षितम् ।
पत्या पृष्टं फलं भुक्तं भुक्तं चेति तयेरितम् ॥ ५० ॥
एकदा भगिनी तस्याः तद्‌गृहः स्वेच्छयाऽऽगता ।
तदग्रे कथितं सर्वं चिन्तेयं महती हि मे ॥ ५१ ॥
दुर्बला तेन दुःखेन ह्यनुजे करवाणि किम् ।
साब्रवीत् मम गर्भोस्ति तं दास्यामि प्रसूतितः ॥ ५२ ॥
तावत्कालं सगर्भेव गुप्ता तिष्ठ गृहे सुखम् ।
वित्तं त्वं मत्पतेर्यच्छ स ते दास्यति बालकम् ॥ ५३ ॥
षण्मासिको मृतो बाल इति लोको वदिष्यति ।
तं बालं पोषयिष्यामि नित्यमागत्य ते गृहे ॥ ५४ ॥
फलमर्पय धेन्वै त्वं परीक्षार्थं तु साम्प्रतम् ।
तत् तद् आचरितं सर्वं तथैव स्त्रीस्वभावतः ॥ ५५ ॥

उस(ब्राह्मण)की स्त्री तो कुटिल स्वभावकी थी ही, वह रो-रोकर अपनी एक सखीसे कहने लगी—‘सखी ! मुझे तो बड़ी चिन्ता हो गयी, मैं तो यह फल नहीं खाऊँगी ॥ ४४ ॥ फल खानेसे गर्भ रहेगा और गर्भसे पेट बढ़ जायगा। फिर कुछ खाया-पीया जायेगा नहीं, इससे मेरी शक्ति क्षीण हो जायगी; तब बता, घर का धंधा कैसे होगा ? ॥ ४५ ॥ औरदैववशयदि कहीं गाँव में डाकुओं का आक्रमण हो गया तो गर्भिणी स्त्री कैसे भागेगी। यदि शुकदेवजी की तरह यह गर्भ भी पेट में ही रह गया तो इसे बाहर कैसे निकाला जायगा ॥ ४६ ॥ और कहीं प्रसवकालके समय वह टेढ़ा हो गया तो फिर प्राणोंसे ही हाथ धोना पड़ेगा। यों भी प्रसवके समय बड़ी भयंकर पीड़ा होती है; मैं सुकुमारी भला, यह सब कैसे सह सकूँगी ? ॥ ४७ ॥ मैं जब दुर्बल पड़ जाऊँगी, तब ननदरानी आकर घरका सब माल-मता समेट ले जायँगी। और मुझसे तो सत्य-शौचादि नियमोंका पालन होना भी कठिन ही जान पड़ता है ॥ ४८ ॥ जो स्त्री बच्चा जनती है, उसे उस बच्चेके लालन-पालनमें भी बड़ा कष्ट होता है। मेरे विचारसे तो वन्ध्या या विधवा स्त्रियाँ ही सुखी हैं॥ ४९ ॥
मनमें ऐसे ही तरह-तरहके कुतर्क उठनेसे उसने वह फल नहीं खाया और जब उसके पतिने पूछा—‘फल खा लिया ?’ तब उसने कह दिया—‘हाँ, खा लिया॥ ५० ॥ एक दिन उसकी बहिन अपने-आप ही उसके घर आयी; तब उसने अपनी बहिनको सारा वृत्तान्त सुनाकर कहा कि मेरे मनमें इसकी बड़ी चिन्ता है ॥ ५१ ॥ मैं इस दु:खके कारण दिनोंदिन दुबली हो रही हूँ। बहिन ! मैं क्या करूँ ?’ बहिनने कहा, ‘मेरे पेटमें बच्चा है, प्रसव होनेपर वह बालक मैं तुझे दे दूँगी ॥ ५२ ॥ तबतक तू गर्भवतीके समान घरमें गुप्तरूपसे सुखसे रह। तू मेरे पतिको कुछ धन दे देगी तो वे तुझे अपना बालक दे देंगे ॥ ५३ ॥ (हम ऐसी युक्ति करेंगी) कि जिसमें सब लोग यही कहें कि इसका बालक छ: महीनेका होकर मर गया और मैं नित्यप्रति तेरे घर आकर उस बालकका पालन-पोषण करती रहूँगी ॥ ५४ ॥ तू इस समय इसकी जाँच करनेके लिये यह फल गौको खिला दे।ब्राह्मणीने स्त्रीस्वभाववश जो-जो उसकी बहिनने कहा था, वैसे ही सब किया ॥ ५५ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.०८)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

अथ कालेन सा नारी प्रसूता बालकं तदा ।
आनीय जनको बालं रहस्ये धुन्धुलीं ददौ ॥ ५६ ॥
तया च कथितं भर्त्रे प्रसूतः सुखमर्भकः ।
लोकस्य सुखमुत्पन्नं आत्मदेव प्रजोदयात् ॥ ५७ ॥
ददौ दानं द्विजातिभ्यो जातकर्म विधाय च ।
गीतवादित्रघोषोऽभूत् तद्‌द्वारं मंगलं बहु ॥ ५८ ॥
भर्तुरग्रेऽब्रवीत् वाक्यं स्तन्यं नास्ति कुचे मम ।
अन्यस्तन्येन निर्दुग्धा कथं पुष्णामि बालकम् ॥ ५९ ॥
मत्स्वसुश्च प्रसूताया मृतो बालस्तु वर्तते ।
तामाकार्य गृहे रक्ष सा तेऽर्भं पोषयिष्यति ॥ ६० ॥
पतिना तत्कृतं सर्वं पुत्ररक्षणहेतवे ।
पुत्रस्य धुन्धुकारीति नाम मात्रा प्रतिष्ठितन् ॥ ६१ ॥
त्रिमासे निर्गते चाथ सा धेनुः सुषुवेऽर्भकम् ।
सर्वांगसुन्दरं दिव्यं निर्मलं कनकप्रभम् ॥ ६२ ॥
दृष्ट्वा प्रसन्नो विप्रस्तु संस्कारान् स्वयमादधे ।
मत्वा‌ऽऽश्चर्यं जनाः सर्वे दिदृक्षार्थं समागताः ॥ ६३ ॥
भाग्योदयोऽधुना जात आत्मदेवस्य पश्यत ।
धेन्वा बालः प्रसूतस्तु देवरूपीति कौतुकम् ॥ ६४ ॥
न ज्ञातं तद्‍रहस्यं तु केनापि विधियोगतः ।
गोकर्णं तं सुतं दृष्ट्वा गोकर्णं नाम चाकरोत् ॥ ६५ ॥

इसके पश्चात् समयानुसार जब( ब्राह्मण की)उस स्त्रीके पुत्र हुआ, तब उसके पिता ने चुपचाप लाकर उसे धुन्धुली को दे दिया ॥ ५६ ॥ और उसने आत्मदेव को सूचना दे दी कि मेरे सुखपूर्वक बालक हो गया है। इस प्रकार आत्मदेवके पुत्र हुआ सुनकर सब लोगोंको बड़ा आनन्द हुआ ॥ ५७ ॥ ब्राह्मणने उसका जातकर्म-संस्कार करके ब्राह्मणोंको दान दिया और उसके द्वारपर गाना-बजाना तथा अनेक प्रकारके माङ्गलिक कृत्य होने लगे ॥ ५८ ॥ धुन्धुलीने अपने पतिसे कहा, ‘मेरे स्तनोंमें तो दूध ही नहीं है; फिर गौ आदि किसी अन्य जीवके दूधसे मैं इस बालकका किस प्रकार पालन करूँगी ? ॥ ५९ ॥ मेरी बहिनके अभी बालक हुआ था, वह मर गया है; उसे बुलाकर अपने यहाँ रख लें तो वह आपके इस बच्चेका पालन-पोषण कर लेगी॥ ६० ॥ तब पुत्र की रक्षाके लिये आत्मदेवने वैसा ही किया तथा माता-धुन्धुलीने उस बालकका नाम धुन्धुकारी रखा ॥ ६१ ॥ इसके बाद तीन महीने बीतनेपर उस गौके भी एक मनुष्याकार बच्चा हुआ। वह सर्वाङ्गसुन्दर, दिव्य, निर्मल तथा सुवर्णकी-सी कान्तिवाला था ॥ ६२ ॥ उसे देखकर ब्राह्मणदेवताको बड़ा आनन्द हुआ और उसने स्वयं ही उसके सब संस्कार किये। इस समाचारसे और सब लोगोंको भी बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बालकको देखनेके लिये आये ॥ ६३ ॥ तथा आपसमें कहने लगे,‘देखो, भाई ! अब आत्मदेवका कैसा भाग्य उदय हुआ है ! कैसे आश्चर्यकी बात है कि गौके भी ऐसा दिव्यरूप बालक उत्पन्न हुआ है॥ ६४ ॥ दैवयोगसे इस गुप्त रहस्यका किसीको भी पता न लगा। आत्मदेवने उस बालकके गौके-से कान देखकर उसका नाम गोकर्णरखा ॥ ६५ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

शेष आगामी पोस्ट में --
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.०९)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

कियत्कालेन तौ जातौ तरुणौ तनयावुभौ ।
गोकर्णः पण्डितो ज्ञानी धुन्धुकारी महाखलः ॥ ६६ ॥
स्नानशौचक्रियाहीनो दुर्भक्षी क्रोधवर्जितः ।
दुष्परिग्रहकर्ता च शवहस्तेन भोजनम् ॥ ६७ ॥
चौरः सर्वजनद्वेषी परवेश्मप्रदीपकः ।
लालनायार्भकान् धृत्वा सद्यः कूपे न्यपातयत् ॥ ६८ ॥
हिंसकः शस्त्रधारी च दीनान्धानां प्रपीडकः ।
चाण्डालाभिरतो नित्यं पाशहस्तः श्वसंगतः ॥ ६९ ॥
तेन वेश्याकुसंगेन पित्र्यं वित्तं तु नाशितम् ।
एकदा पितरौ ताड्य पात्राणि स्वयमाहरत् ॥ ७० ॥
तत्पिता कृपणः प्रोच्चैः धनहीनो रुरोद ह ।
वध्यतवं तु समीचीनं कुपुत्रो दुःखदायकः ॥ ७१ ॥
क्व तिष्ठामि क्व गच्छामि को मे दुःखं व्यपोहयेत् ।
प्राणान् त्यजामि दुःखेन हा कष्टं मम संस्थितम् ॥ ७२ ॥
तदानीं तु समागत्य गोकर्णो ज्ञानसंयुतः ।
बोधयामास जनकं वैराग्यं परिदर्शयन् ॥ ७३ ॥
असारः खलु संसारो दुःखरूपी विमोहकः ।
सुतः कस्य धनं कस्य स्नेहवान् ज्वलतेऽनिशम् ॥ ७४ ॥
ते च इंद्रस्य सुखं किंचित् न सुखं चक्रवर्तिनः ।
सुखमस्ति विरक्तस्य मुनेः एकान्तजीविनः ॥ ७५ ॥
मुञ्च अज्ञानं प्रजारूपं मोहतो नरके गतिः ।
निपतिष्यति देहोऽयं सर्वं त्यक्त्वा वनं व्रज ॥ ७६ ॥

कुछ काल बीतनेपर वे दोनों बालक जवान हो गये। उनमें गोकर्ण तो बड़ा पंडित और ज्ञानी हुआ, किन्तु धुन्धुकारी बड़ा ही दुष्ट निकला ॥ ६६ ॥ स्नान-शौचादि ब्राह्मणोचित आचारोंका उसमें नाम भी न था और न खान-पानका ही कोई परहेज था। क्रोध उसमें बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वह बुरी- बुरी वस्तुओंका संग्रह किया करता था। मुर्देके हाथसे छुआया हुआ अन्न भी खा लेता था ॥ ६७ ॥ दूसरोंकी चोरी करना और सब लोगोंसे द्वेष बढ़ाना उसका स्वभाव बन गया था। छिपे-छिपे वह दूसरोंके घरोंमें आग लगा देता था। दूसरोंके बालकोंको खेलानेके लिये गोदमें लेता और उन्हें चट कुएँमें डाल देता ॥ ६८ ॥ हिंसाका उसे व्यसन-सा हो गया था। हर समय वह अस्त्र-शस्त्र धारण किये रहता और बेचारे अंधे और दीन-दुखियोंको व्यर्थ तंग करता। चाण्डालोंसे उसका विशेष प्रेम था; बस, हाथमें फंदा लिये कुत्तोंकी टोलीके साथ शिकारकी टोहमें घूमता रहता ॥ ६९ ॥ वेश्याओंके जालमें फँसकर उसने अपने पिताकी सारी सम्पत्ति नष्ट कर दी। एक दिन माता-पिताको मार-पीटकर घरके सब बर्तन-भाँड़े उठा ले गया ॥ ७० ॥ इस प्रकार जब सारी सम्पत्ति स्वाहा हो गयी, तब उसका कृपण पिता फूट-फूटकर रोने लगा और बोला—‘इससे तो इसकी माँका बाँझ रहना ही अच्छा था; कुपुत्र तो बड़ा ही दु:खदायी होता है ॥ ७१ ॥ अब मैं कहाँ रहूँ ? कहाँ जाऊँ ? मेरे इस संकटको कौन काटेगा ? हाय ! मेरे ऊपर तो बड़ी विपत्ति आ पड़ी है, इस दु:खके कारण अवश्य मुझे एक दिन प्राण छोडऩे पड़ेंगे ॥ ७२ ॥ उसी समय परम ज्ञानी गोकर्णजी वहाँ आये और उन्होंने पिताको वैराग्यका उपदेश करते हुए बहुत समझाया ॥ ७३ ॥ वे बोले,‘पिताजी ! यह संसार असार है। यह अत्यन्त दु:खरूप और मोहमें डालनेवाला है। पुत्र किसका ? धन किसका ? स्नेहवान् पुरुष रात-दिन दीपकके समान जलता रहता है ॥ ७४ ॥ सुख न तो इन्द्रको है और न चक्रवर्ती राजाको ही; सुख है तो केवल विरक्त, एकान्तजीवी मुनिको ॥ ७५ ॥ यह मेरा पुत्र हैइस अज्ञानको छोड़ दीजिये। मोहसे नरककी प्राप्ति होती है। यह शरीर तो नष्ट होगा ही। इसीलिये सब कुछ छोडक़र वनमें चले जाइये ॥ ७६ ॥

हरिः ॐ तत्सत्

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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
चौथा अध्याय (पोस्ट.१०)

गोकर्णोपाख्यान प्रारम्भ

तद्वाक्यं तु समाकर्ण्य गन्तुकामः पिताब्रवीत् ।
किंकर्तव्यं वने तात तत्त्वं वद सविस्तरम् ॥ ७७ ॥
अन्धकूपे स्नेहपाशे बद्धः पंगुरहं शठः ।
कर्मणा पतितो नूनं मामुद्धर दयानिधे ॥ ७८ ॥
देहेऽस्थिमांसरुधिरेऽभिमतिं त्यज त्वं
जायासुतादिषु सदा ममतां विमुञ्च ।
पश्यानिशं जगदिदं क्षणभंगनिष्ठं
वैराग्यरागरसिको भव भक्तिनिष्ठः ॥ ७९ ॥
धर्म भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान्
सेवस्व साधुपुरुषान् ‍जहि कामतृष्णाम् ।
अन्यस्य दोषगुणचिन्तनमाशु मुक्त्वा
सेवाकथारसमहो नितरां पिब त्वम् ॥ ८० ॥
एवं सुतोक्तिवशतोऽपि गृहं विहाय
यातो वनं स्थिरमतिर्गतषष्टिवर्षः ।
युक्तो हरेरनुदिनं परिचर्ययासौ
श्रीकृष्णमाप नियतं दशमस्य पाठात् ॥ ८१ ॥

गोकर्णके वचन सुनकर आत्मदेव वनमें जानेके लिये तैयार हो गया और उनसे कहने लगा, ‘बेटा ! वनमें रहकर मुझे क्या करना चाहिये, यह मुझसे विस्तारपूर्वक कहो ॥ ७७ ॥ मैं बड़ा मूर्ख हूँ, अबतक कर्मवश स्नेह-पाशमें बँधा हुआ अपङ्गकी भाँति इस घररूप अँधेरे कुएँमें ही पड़ा रहा हूँ। तुम बड़े दयालु हो, इससे मेरा उद्धार करो॥ ७८ ॥ गोकर्णने कहापिताजी ! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिरका पिण्ड है; इसे आप मैंमानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादिको अपनाकभी न मानें। इस संसारको रात-दिन क्षणभङ्गुर देखें, इसकी किसी भी वस्तुको स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एकमात्र वैराग्य-रसके रसिक होकर भगवान्‌की भक्तिमें लगे रहें ॥ ७९ ॥ भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरन्तर उसीका आश्रय लिये रहें। अन्य सब प्रकारके लौकिक धर्मोंसे मुख मोड़ लें। सदा साधुजनोंकी सेवा करें। भोगोंकी लालसाको पास न फटकने दें तथा जल्दी-से-जल्दी दूसरोंके गुण-दोषोंका विचार करना छोडक़र एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान्‌की कथाओंके रसका ही पान करें ॥ ८० ॥ इस प्रकार पुत्रकी वाणीसे प्रभावित होकर आत्मदेवने घर छोड़ दिया और वनकी यात्रा की। यद्यपि उसकी आयु उस समय साठ वर्षकी हो चुकी थी, फिर भी बुद्धिमें पूरी दृढ़ता थी। वहाँ रात- दिन भगवान्‌की सेवा-पूजा करनेसे और नियमपूर्वक भागवतके दशमस्कन्धका पाठ करनेसे उसने भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रको प्राप्त कर लिया ॥ ८१ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्‌भागवतमाहात्म्ये
विप्रमोक्षो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

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