|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०१)
भक्तिके कष्टकी निवृत्ति
नारद उवाच –
ज्ञानयज्ञं करिष्यामि शुकशास्त्रकथोज्ज्वलम् ।
भक्तिर्ज्ञानविरागाणां स्थापनार्थं प्रयत्नतः ॥ १ ॥
कुत्र कार्यो मया यज्ञः स्थलं तद्वाच्यतामिह ।
महिमा शुकशास्त्रस्य वक्तव्यो वेदपारगैः ॥ २ ॥
कियद्भिः दिवसैः श्राव्या श्रीमद्भागवती कथा ।
को विधिः तत्र कर्तव्यो ममेदं ब्रुवतामितः ॥ ३ ॥
कुमारा ऊचुः –
श्रृणु नारद वक्ष्यामो विनम्राय विवेकिने ।
गंगाद्वारसमीपे तु तटं आनन्दनामकम् ॥ ४ ॥
नानाऋषिगणैर्जुष्टं देवसिद्धनिषेवनम् ।
नानातरुलताकीर्णं नवकोमलवालुकम् ॥ ५ ॥
रम्यं एकान्तदेशस्थं हेमपद्मसुसौरभम् ।
यत्समीपस्थजीवानां वैरं चेतसि न स्थितम् ॥ ६ ॥
ज्ञानयज्ञस्त्वया तत्र कर्तव्यो हि अप्रयत्नतः ।
अपूर्वरसरूपा च कथा तत्र भविष्यति ॥ ७ ॥
पुरःस्थं निर्बलं चैव जराजीर्णकलेवरम् ।
तद्द्वयं च पुरस्कृत्य भक्तिस्तत्रागमिष्यति ॥ ८ ॥
यत्र भागवती वार्ता तत्र भक्त्यादिकं व्रजेत् ।
कथाशब्दं समाकर्ण्य तत्त्रिकं तरुणायते ॥ ९ ॥
नारदजी कहते हैं—अब मैं भक्ति, ज्ञान और वैराग्यको स्थापित करनेके लिये प्रयत्नपूर्वक श्रीशुकदेवजीके कहे हुए भागवतशास्त्रकी कथा द्वारा उज्ज्वल ज्ञानयज्ञ करूँगा ॥ १ ॥ यह यज्ञ मुझे कहाँ करना चाहिये, आप इसके लिये कोई स्थान बता दीजिये। आपलोग वेद के पारगामी हैं, इसलिये मुझे इस शुकशास्त्र की महिमा सुनाइये ॥ २ ॥ यह भी बताइये कि श्रीमद्भागवत की कथा कितने दिनों में सुनानी चाहिये और उसके सुनने की विधि क्या है ॥ ३ ॥
सनकादि बोले—नारदजी ! आप बड़े विनीत और विवेकी हैं। सुनिये, हम आपको ये सब बातें बताते हैं। हरिद्वार के पास आनन्द नामका एक घाट है ॥ ४ ॥ वहाँ अनेकों ऋषि रहते हैं तथा देवता और सिद्धलोग भी उसका सेवन करते रहते हैं। भाँति-भाँतिके वृक्ष और लताओं के कारण वह बड़ा सघन है और वहाँ बड़ी कोमल नवीन बालू बिछी हुई है ॥ ५ ॥ वह घाट बड़ा ही सुरम्य और एकान्त प्रदेश में है, वहाँ हर समय सुनहले कमलों की सुगन्ध आया करती है। उसके आस-पास रहनेवाले सिंह, हाथी आदि परस्पर-विरोधी जीवोंके चित्तोंमें भी वैरभाव नहीं है ॥ ६ ॥ वहाँ आप बिना किसी विशेष प्रयत्नके ही ज्ञानयज्ञ आरम्भ कर दीजिये, उस स्थानपर कथामें अपूर्व रसका उदय होगा ॥ ७ ॥ भक्ति भी अपनी आँखोंके ही सामने निर्बल और जराजीर्ण अवस्थामें पड़े हुए ज्ञान और वैराग्यको साथ लेकर वहाँ आ जायगी ॥ ८ ॥ क्योंकि जहाँ भी श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वहाँ ये भक्ति आदि अपने-आप पहुँच जाते हैं। वहाँ कानों में कथा के शब्द पडऩे से ये तीनों तरुण हो जायँगे ॥ ९ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०२)
भक्तिके कष्टकी निवृत्ति
सूत उवाच –
एवमुक्त्वा कुमारास्ते नारदेन समं ततः ।
गंगातटं समाजग्मुः कथापानाय सत्वराः ॥ १० ॥
यदा यातास्तटं ते तु तदा कोलाहलोऽप्यभूत् ।
भूर्लोके देवलोके च ब्रह्मलोके तथैव च ॥ ११ ॥
श्रीभागवतपीयूष पानाय रसलम्पटाः ।
धावन्तोऽप्याययुः सर्वे प्रथमं ये च वैष्णवाः ॥ १२ ॥
भृगुर्वसिष्ठश्च्यवनश्च गौतमो
मेधातिथिर्देवलदेवरातौ ।
रामस्तथा गाधिसुतश्च शाकलो
मृकण्डुपुत्रात्रिजपिप्पलादाः ॥ १३ ॥
योगेश्वरौ व्यासपराशरौ च
छायाशुको जाजलिजह्नुमुख्याः ।
सर्वेऽप्यमी मुनिगणाः सहपुत्रशिष्याः
स्वस्त्रीभिराययुरतिप्रणयेन युक्ताः ॥ १४ ॥
वेदान्तानि च वेदाश्च मन्त्रास्तन्त्राः समूर्तयः ।
दशसप्तपुराणानि षट्शास्त्राणि तथाऽऽययुः ॥ १५ ॥
गंगाद्या सरितस्तत्र पुष्करादिसरांसि च ।
क्षेत्राणि च दिशः सर्वा दण्डकादि वनानि च ॥ १६ ॥
नगादयो ययुस्तत्र देवगन्धर्वदानवाः ।
गुरुत्वात्तत्र नायातान् भृगुः सम्बोध्य चानयत् ॥ १७ ॥
दीक्षिता नारदेनाथ दत्तं आसनमुत्तमम् ।
कुमारा वन्दिताः सर्वैः निषेदुः कृष्णतत्पराः ॥ १८ ॥
सूतजी कहते हैं—इस प्रकार कहकर नारदजी के साथ सनकादि भी श्रीमद्भागवतकथामृत का पान करनेके लिये वहाँसे तुरंत गङ्गातटपर चले आये ॥ १० ॥ जिस समय वे तटपर पहुँचे, भूलोक, देवलोक और ब्रह्मलोक—सभी जगह इस कथा का हल्ला हो गया ॥ ११ ॥ जो-जो भगवत्कथाके रसिक विष्णुभक्त थे, वे सभी श्रीमद्भागवतामृत का पान करनेके लिये सबसे आगे दौड़-दौडक़र आने लगे ॥ १२ ॥ भृगु, वसिष्ठ, च्यवन, गौतम, मेधातिथि, देवल, देवरात, परशुराम, विश्वामित्र, शाकल, मार्कण्डेय, दत्तात्रेय, पिप्पलाद, योगेश्वर व्यास और पराशर, छायाशुक, जाजलि और जह्नु आदि सभी प्रधान-प्रधान मुनिगण अपने-अपने पुत्र, शिष्य और स्त्रियोंसमेत बड़े प्रेमसे वहाँ आये ॥ १३-१४ ॥ इनके सिवा वेद, वेदान्त (उपनिषद्), मन्त्र, तन्त्र, सत्रह पुराण और छहों शास्त्र भी मूर्तिमान् होकर वहाँ उपस्थित हुए ॥ १५ ॥
गङ्गा आदि नदियाँ, पुष्कर आदि सरोवर, कुरुक्षेत्र आदि समस्त क्षेत्र, सारी दिशाएँ, दण्डक आदि वन, हिमालय आदि पर्वत तथा देव, गन्धर्व और दानव आदि सभी कथा सुनने चले आये। जो लोग अपने गौरवके कारण नहीं आये, महर्षि भृगु उन्हें समझा-बुझाकर ले आये ॥ १६-१७ ॥
तब कथा सुनानेके लिये दीक्षित होकर श्रीकृष्ण-परायण सनकादि नारदजीके दिये हुए श्रेष्ठ आसनपर विराजमान हुए। उस समय सभी श्रोताओंने उनकी वन्दना की ॥ १८ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०३)
भक्तिके कष्टकी निवृत्ति
वैष्णवाश्च विरक्ताश्च न्यासिनो ब्रह्मचारिणः ।
मुखभागे स्थितास्ते च तदग्रे नारदः स्थितः ॥ १९ ॥
एकभागे ऋषिगणाः तद् अन्यत्र दिवौकसः ।
वेदोपनिषदो अन्यत्र तीर्थान् यत्र स्त्रियोऽन्यतः ॥ २० ॥
जयशब्दो नमःशब्दोः शंखशब्दस्तथैव च ।
चूर्णलाजा प्रसूनानां निक्षेपः सुमहान् अभूत् ॥ २१ ॥
विमानानि समारुह्य कियन्तो देवनायकाः ।
कल्पवृक्ष प्रसूनैस्तान् सर्वान् तत्र समाकिरन् ॥ २२ ॥
सूत उवाच –
एवं तेष्वकचित्तेषु श्रीमद्भागवस्य च ।
माहात्म्यं ऊचिरे स्पष्टं नारदाय महात्मने ॥ २३ ॥
कुमारा ऊचुः –
अथ ते वर्ण्यतेऽस्माभिः महिमा शुकशास्त्रजः ।
यस्य श्रवणमात्रेण मुक्तिः करतले स्थिता ॥ २४ ॥
सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा ।
यस्याः श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ॥ २५ ॥
ग्रन्थोऽष्टादशसाहस्त्रो द्वादशस्कन्धसम्मितः ।
परीक्षित् शुकसंवादः श्रृणु भागवतं च तत् ॥ २६ ॥
(भागवत कथा के) श्रोताओं में वैष्णव, विरक्त, संन्यासी और ब्रह्मचारी लोग आगे बैठे और उन सबके आगे नारदजी विराजमान हुए ॥ १९ ॥ एक ओर ऋषिगण, एक ओर देवता, एक ओर वेद और उपनिषदादि तथा एक ओर तीर्थ बैठे, और दूसरी ओर स्त्रियाँ बैठीं ॥ २० ॥ उस समय सब ओर जय-जयकार, नमस्कार और शङ्खों का शब्द होने लगा और अबीर-गुलाल, खील एवं फूलोंकी खूब वर्षा होने लगी ॥ २१ ॥ कोई-कोई देवश्रेष्ठ तो विमानोंपर चढक़र, वहाँ बैठे हुए सब लोगोंपर कल्पवृक्षके पुष्पोंकी वर्षा करने लगे ॥ २२ ॥
सूतजी कहते हैं—इस प्रकार पूजा समाप्त होनेपर जब सब लोग एकाग्रचित्त हो गये, तब सनकादि ऋषि महात्मा नारदको श्रीमद्भागवतका माहात्म्य स्पष्ट करके सुनाने लगे ॥ २३ ॥
सनकादिने कहा—अब हम आपको इस भागवतशास्त्रकी महिमा सुनाते हैं। इसके श्रवणमात्रसे मुक्ति हाथ लग जाती है ॥ २४ ॥ श्रीमद्भागवतकी कथाका सदा-सर्वदा सेवन, आस्वादन करना चाहिये। इसके श्रवणमात्रसे श्रीहरि हृदयमें आ विराजते हैं ॥ २५ ॥ इस ग्रन्थमें अठारह हजार श्लोक और बारह स्कन्ध हैं तथा श्रीशुकदेव और राजा परीक्षित्का संवाद है। आप यह भागवत- शास्त्र ध्यान देकर सुनिये ॥ २६ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०४)
भक्तिके कष्टकी निवृत्ति
तात संसारचक्रेऽस्मिन् भ्रमतेऽज्ञानतः पुमान् ।
यावत् कर्णगता नास्ति शुकशास्त्रकथा क्षणम् ॥ २७ ॥
किं श्रुतैबहुभिः शास्त्रैः पुराणैश्च भ्रमावहैः ।
एकं भागवतं शास्त्रं मुक्तिदानेन गर्जति ॥ २८ ॥
कथा भागवतस्यापि नित्यं भवति यद्गृहे ।
तद्गृहं तीर्थरूपं हि वसतां पापनाशनम् ॥ २९ ॥
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
शुकशास्त्रकथायाश्च कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३० ॥
तावत् पापानि देहेस्मिन् निवसन्ति तपोधनाः ।
यावत् न श्रूयते सम्यक् श्रीमद्भागवतं नरैः ॥ ३१ ॥
न गंगा न गया काशी पुष्करं न प्रयागकम् ।
शुकशास्त्रकथायाश्च फलेन समतां नयेत् ॥ ३२ ॥
यह जीव तभीतक अज्ञानवश इस संसारचक्रमें भटकता है, जबतक क्षणभरके लिये भी कानोंमें इस शुकशास्त्रकी कथा नहीं पड़ती ॥ २७ ॥ बहुत-से शास्त्र और पुराण सुननेसे क्या लाभ है, इससे तो व्यर्थका भ्रम बढ़ता है। मुक्ति देनेके लिये तो एकमात्र भागवतशास्त्र ही गरज रहा है ॥ २८ ॥ जिस घरमें नित्यप्रति श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है और जो लोग उसमें रहते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ २९ ॥ हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ इस शुकशास्त्रकी कथाका सोलहवाँ अंश भी नहीं हो सकते ॥ ३० ॥ तपोधनो ! जबतक लोग अच्छी तरह श्रीमद्भागवतका श्रवण नहीं करते, तभीतक उनके शरीरमें पाप निवास करते हैं ॥ ३१ ॥ फलकी दृष्टिसे इस शुकशास्त्रकथाकी समता गङ्गा, गया, काशी, पुष्कर या प्रयाग—कोई तीर्थ भी नहीं कर सकता ॥ ३२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०५)
भक्तिके कष्टकी निवृत्ति
श्लोकार्धं श्लोकपादं वा नित्यं भागवतोद्भवम् ।
पठस्व स्वमुखेनैव यदीच्छसि परां गतिम् ॥ ३३ ॥
वेदादिः वेदमाता च पौरुषं सूक्तमेव च ।
त्रयी भागवतं चैव द्वादशाक्षर एव च ॥ ३४ ॥
द्वादशात्मा प्रयागश्च कालं संवत्सरात्मकः ।
ब्राह्मणाश्चाग्निहोत्रं च सुरभिर्द्वादशी तथा ॥ ३५ ॥
तुलसी च वसन्तश्च पुरुषोत्तम एव च ।
एतेषां तत्त्वतः प्राज्ञैः न पृथ्ग्भाव इष्यते ॥ ३६ ॥
यश्च भागवतं शास्त्रं वाचयेत् अर्थतोऽनिशम् ।
जन्मकोटिकृतं पापं नश्यते नात्र संशयः ॥ ३७ ॥
श्लोकार्धं श्लोकपादं वा पठेत् भागवतं च यः ।
नित्यं पुण्यं अवाप्नोति राजसूयाश्वमेधयोः ॥ ३८ ॥
उक्तं भागवतं नित्यं कृतं च हरिचिन्तनम् ।
तुलसीपोषणं चैव धेनूनां सेवनं समम् ॥ ३९ ॥
अन्तकाले तु येनैव श्रूयते शुकशास्त्रवाक् ।
प्रीत्या तस्यैव वैकुण्ठं गोविन्दोऽपि प्रयच्छति ॥ ४० ॥
हेमसिंहयुतं चैतत् वैष्णवाय ददाति च ।
कृष्णेन सह सायुज्यं स पुमान् लभते ध्रुवम् ॥ ४१ ॥
यदि आपको परम गतिकी इच्छा है तो अपने मुखसे ही श्रीमद्भागवतके आधे अथवा चौथाई श्लोकका भी नित्य नियमपूर्वक पाठ कीजिये ॥ ३३ ॥ ॐकार, गायत्री, पुरुषसूक्त, तीनों वेद, श्रीमद्भागवत, ‘ॐनमो भगवते वासुदेवाय’—यह द्वादशाक्षर मन्त्र, बारह मूर्तियोंवाले सूर्यभगवान्, प्रयाग, संवत्सररूप काल, ब्राह्मण, अग्रिहोत्र, गौ, द्वादशी तिथि, तुलसी, वसन्त ऋतु और भगवान् पुरुषोत्तम—इन सबमें बुद्धिमान् लोग वस्तुत: कोई अन्तर नहीं मानते ॥ ३४—३६ ॥ जो पुरुष अहर्निश अर्थसहित श्रीमद्भागवत-शास्त्रका पाठ करता है, उसके करोड़ों जन्मोंका पाप नष्ट हो जाता है—इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ॥ ३७ ॥ जो पुरुष नित्यप्रति भागवतका आधा या चौथाई श्लोक भी पढ़ता है, उसे राजसूय और अश्वमेधयज्ञोंका फल मिलता है ॥ ३८ ॥ नित्य भागवतका पाठ करना, भगवान्का चिन्तन करना, तुलसीको सींचना और गौकी सेवा करना—ये चारों समान हैं ॥ ३९ ॥ जो पुरुष अन्तसमयमें श्रीमद्भागवतका वाक्य सुन लेता है, उसपर प्रसन्न होकर भगवान् उसे वैकुण्ठधाम देते हैं ॥ ४० ॥ जो पुरुष इसे सोनेके सिंहासनपर रखकर विष्णुभक्तको दान करता है, वह अवश्य ही भगवान्का सायुज्य प्राप्त करता है ॥ ४१ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०६)
भक्तिके कष्टकी निवृत्ति
आजन्ममात्रमपि येन शठेन किंचित्
चित्तं विधाय शुकशास्त्रकथा न पीता ।
चाण्डालवत् च खरवत् बत तेन नीतं
मिथ्या स्वजन्म जननी जनिदुःखभाजा ॥ ४२ ॥
जीवच्छवो निगदितः स तु पापकर्मा
येन श्रुतं शुककथावचनं न किंचित् ।
धिक् तं नरं पशुसमं भुवि भाररूपम्
एवं वदन्ति दिवि देवसमाजमुख्याः ॥ ४३ ॥
दुर्लभैव कथा लोके श्रीमद्भागवतोद्भवा ।
कोटिजन्मसमुत्थेन पुण्येनैव तु लभ्यते ॥ ४४ ॥
तेन योगनिधे धीमन् श्रोतव्या सा प्रयत्नतः ।
दिनानां नियमो नास्ति सर्वदा श्रवणं मतम् ॥ ४५ ॥
सत्येन ब्रह्मचर्येण सर्वदा श्रवणं मतम् ।
अशक्यत्वात् कलौ बोध्यो विशेषोऽत्र शुकाज्ञया ॥ ४६ ॥
जिस दुष्टने अपनी सारी आयुमें चित्तको एकाग्र करके श्रीमद्भागवतामृतका थोड़ा-सा भी रसास्वादन नहीं किया, उसने तो अपना सारा जन्म चाण्डाल और गधेके समान व्यर्थ ही गँवा दिया; वह तो अपनी माताको प्रसव-पीड़ा पहुँचानेके लिये ही उत्पन्न हुआ ॥ ४२ ॥ जिसने इस शुक- शास्त्रके थोड़े-से भी वचन नहीं सुने, वह पापात्मा तो जीता हुआ ही मुर्देके समान है। ‘पृथ्वीके भारस्वरूप उस पशुतुल्य मनुष्यको धिक्कार है’—यों स्वर्गलोकमें देवताओंमें प्रधान इन्द्रादि कहा करते हैं ॥ ४३ ॥
संसारमें श्रीमद्भागवतकी कथाका मिलना अवश्य ही कठिन है; जब करोड़ों जन्मोंका पुण्य होता है, तभी इसकी प्राप्ति होती है ॥ ४४ ॥ नारदजी ! आप बड़े ही बुद्धिमान् और योगनिधि हैं। आप प्रयत्नपूर्वक कथाका श्रवण कीजिये। इसे सुननेके लिये दिनोंका कोई नियम नहीं है, इसे तो सर्वदा ही सुनना अच्छा है ॥ ४५ ॥ इसे सत्यभाषण और ब्रह्मचर्य-पालनपूर्वक सर्वदा ही सुनना श्रेष्ठ माना गया है। किन्तु कलियुगमें ऐसा होना कठिन है; इसलिये इसकी शुकदेवजीने जो विशेष विधि बतायी है, वह जान लेनी चाहिये ॥ ४६ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०७)
भक्तिके कष्टकी निवृत्ति
मनोवृत्तिजयश्चैव नियमाचरणं तथा ।
दीक्षां कर्तुं अशक्यत्वात् सप्ताहश्रवणं मतम् ॥ ४७ ॥
श्रद्धातः श्रवणे नित्यं माघे तावद्धि यत्फलम् ।
तत्फलं शुकदेवेन सप्ताहश्रवणे कृतम् ॥ ४८ ॥
मनसश्च अजयात् रोगात् पुंसां चैवायुषः क्षयात् ।
कलेर्दोषबहुत्वाच्च सप्ताहश्रवणं मतम् ॥ ४९ ॥
यत्फलं नास्ति तपसा न योगेन समाधिना ।
अनायासेन तत्सर्वं सप्ताहश्रवणे लभेत् ॥ ५० ॥
यज्ञात् गर्जति सप्ताहः सप्ताहो गर्जति व्रतात् ।
तपसो गर्जति प्रोच्चैः तीर्थान्नित्यं हि गर्जति ॥ ५१ ॥
योगात् गर्जति सप्ताहो ध्यानात् ज्ञानाच्च गर्जति ।
किं ब्रूमो गर्जनं तस्य रे रे गर्जति गर्जति ॥ ५२ ॥
शौनक उवाच –
साश्चर्यमेतत्कथितं कथानकं
ज्ञानादिधर्मान् विगणय्य साम्प्रतम् ।
निःश्रेयसे भागवतं पुराणं
जातं कुतो योगविदादिसूचकम् ॥ ५३ ॥
कलियुगमें बहुत दिनों तक चित्त की वृत्तियों को वशमें रखना, नियमों में बँधे रहना और किसी पुण्यकार्य के लिये दीक्षित रहना कठिन है; इसलिये सप्ताह- श्रवणकी विधि है ॥ ४७ ॥ श्रद्धापूर्वक कभी भी श्रवण करने से अथवा माघमास में श्रवण करने से जो फल होता है, वही फल श्रीशुकदेवजी ने सप्ताहश्रवण में निर्धारित किया है ॥ ४८ ॥ मनके असंयम, रोगोंकी बहुलता और आयुकी अल्पताके कारण तथा कलियुगमें अनेकों दोषोंकी सम्भावनासे ही सप्ताहश्रवणका विधान किया गया है ॥ ४९ ॥ जो फल तप, योग और समाधिसे भी प्राप्त नहीं हो सकता, वह सर्वाङ्गरूप में सप्ताह श्रवणसे सहज में ही मिल जाता है ॥ ५० ॥ सप्ताहश्रवण यज्ञ से बढक़र है, व्रतसे बढक़र है, तपसे कहीं बढक़र है। तीर्थसेवनसे तो सदा ही बड़ा है, योगसे बढक़र है—यहाँतक कि ध्यान और ज्ञानसे भी बढक़र है, अजी ! इसकी विशेषताका कहाँतक वर्णन करें, यह तो सभीसे बढ़-चढक़र है ॥ ५१-५२ ॥
शौनकजीने पूछा—सूतजी ! यह तो आपने बड़े आश्चर्यकी बात कही। अवश्य ही यह भागवत-पुराण योगवेत्ता ब्रह्माजीके भी आदिकारण श्रीनारायणका निरूपण करता है; परन्तु यह मोक्षकी प्राप्तिमें ज्ञानादि सभी साधनोंका तिरस्कार करके इस युगमें उनसे भी कैसे बढ़ गया ? ॥ ५३ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०८)
भक्तिके कष्टकी निवृत्ति
सूत उवाच –
यदा कृष्णो धरां त्यक्त्वा स्वपदं गन्तुमुद्यतः ।
एकादशं परिश्रुत्यापि उद्धवो वाक्यमब्रवीत् ॥ ५४ ॥
उद्धव उवाच –
त्वं तु यास्यसि गोविन्द भक्तकार्यं विधाय च ।
मच्चित्ते महती चिन्ता तां श्रुत्वा सुखमावह ॥ ५५ ॥
आगतोऽयं कलिर्घोरो भविष्यन्ति पुनः खलाः ।
तत्संगेनैव सन्तोऽपि गमिष्यन्ति उग्रतां यदा ॥ ५६ ॥
तदा भारवती भूमिः गोरूपेयं कमाश्रयेत् ।
अन्यो न दृश्यते त्राता त्वत्तः कमललोचन ॥ ५७ ॥
अतः सस्तु दयां कृत्वा भक्तवत्सल मा व्रज ।
भक्तार्थं सगुणो जातो निराकारोऽपि चिन्मयः ॥ ५८ ॥
त्वद् वियोगेन ते भक्ताः कथं स्थास्यन्ति भूतले ।
निर्गुणोपासने कष्टं अतः किंचिद् विचारय ॥ ५९ ॥
सूतजीने कहा—शौनकजी ! जब भगवान् श्रीकृष्ण इस धराधामको छोडक़र अपने नित्यधामको जाने लगे, तब उनके मुखारविन्दसे एकादश स्कन्धका ज्ञानोपदेश सुनकर भी उद्धवजीने पूछा ॥ ५४ ॥
उद्धवजी बोले—गोविन्द ! अब आप तो अपने भक्तोंका कार्य करके परमधामको पधारना चाहते हैं; किन्तु मेरे मनमें एक बड़ी चिन्ता है। उसे सुनकर आप मुझे शान्त कीजिये ॥ ५५ ॥ अब घोर कलिकाल आया ही समझिये, इसलिये संसारमें फिर अनेकों दुष्ट प्रकट हो जायँगे; उनके संसर्गसे जब अनेकों सत्पुरुष भी उग्र प्रकृतिके हो जायँगे, तब उनके भारसे दबकर यह गोरूपिणी पृथ्वी किसकी शरणमें जायगी ? कमलनयन ! मुझे तो आपको छोडक़र इसकी रक्षा करनेवाला कोई दूसरा नहीं दिखायी देता ॥ ५६-५७ ॥ इसलिये भक्तवत्सल ! आप साधुओंपर कृपा करके यहाँसे मत जाइये। भगवन् ! आपने निराकार और चिन्मात्र होकर भी भक्तोंके लिये ही तो यह सगुण रूप धारण किया है ॥ ५८ ॥ फिर भला, आपका वियोग होनेपर वे भक्तजन पृथ्वीपर कैसे रह सकेंगे ? निर्गुणोपासनामें तो बड़ा कष्ट है। इसलिये कुछ और विचार कीजिये ॥ ५९ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.०९)
भक्तिके कष्टकी निवृत्ति
इति उद्धववचः श्रुत्वा प्रभासेऽचिन्तयत् हरिः ।
भक्तावलम्बनार्थाय किं विधेयं मयेति च ॥ ६० ॥
स्वकीयं यद् भवेत् तेजः तच्च भागवतेऽदधात् ।
तिरोधाय प्रविष्टोऽयं श्रीमद् भागवतार्णवम् ॥ ६१ ॥
तेनेयं वाङ्मयी मूर्तिः प्रत्यक्षा वर्तते हरेः ।
सेवनात् श्रवणात् पाठात् दर्शनात् पापनाशिनी ॥ ६२ ॥
सप्ताहश्रवणं तेन सर्वेभ्योऽप्यधिकं कृतम् ।
साधनानि तिरस्कृत्य कलौ धर्मोऽयमीरितः ॥ ६३ ॥
दुःखदारिद्र्य दौर्भाग्य पापप्रक्षालनाय च ।
कामक्रोध जयार्थं हि कलौ धर्मोऽयमीरितः ॥ ६४ ॥
अन्यथा वैष्णवी माया देवैरपि सुदुस्त्यजा ।
कथं त्याज्या भवेत् पुम्भिः सप्ताहोऽतः प्रकीर्तितः ॥ ६५ ॥
प्रभासक्षेत्रमें उद्धवजीके ये वचन सुनकर भगवान् सोचने लगे कि भक्तोंके अवलम्बके लिये मुझे क्या व्यवस्था करनी चाहिये ॥ ६० ॥ शौनकजी ! तब भगवान्ने अपनी सारी शक्ति भागवतमें रख दी; वे अन्तर्धान होकर इस भागवतसमुद्रमें प्रवेश कर गये ॥ ६१ ॥ इसलिये यह भगवान्की साक्षात् शब्दमयी मूर्ति है। इसके सेवन, श्रवण, पाठ अथवा दर्शनसे ही मनुष्यके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ ६२ ॥ इसीसे इसका सप्ताहश्रवण सबसे बढक़र माना गया है और कलियुगमें तो अन्य सब साधनोंको छोडक़र यही प्रधान धर्म बताया गया है ॥ ६३ ॥ कलिकालमें यही ऐसा धर्म है, जो दु:ख, दरिद्रता, दुर्भाग्य और पापोंकी सफाई कर देता है तथा काम-क्रोधादि शत्रुओंपर विजय दिलाता है ॥ ६४ ॥ अन्यथा, भगवान्की इस मायासे पीछा छुड़ाना देवताओंके लिये भी कठिन है, मनुष्य तो इसे छोड़ ही कैसे सकते हैं। अत: इससे छूटनेके लिये भी सप्ताहश्रवणका विधान किया गया है ॥ ६५ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.१०)
भक्तिके कष्टकी निवृत्ति
सूत उवाच –
एवं नगाहश्रवणोरुधर्मे
प्रकाश्यमाने ऋषिभिः सभायाम् ।
आश्चर्यमेकं समभूत् तदानीं
तदुच्यते संश्रृणु शौनको त्वम् ॥ ६६ ॥
भक्तिः सुतौ तौ तरुणौ गृहीत्वा
प्रेमैकरूपा सहसाऽविरासीत् ।
श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे
नाथेति नामानि मुहुर्वदन्ती ॥ ६७ ॥
तां चागतां भागवतार्थभूषां
सुचारुवेषां ददृशुः सदस्याः ।
कथं प्रविष्टा कथमागतेयं
मध्ये मुनीनामिति तर्कयन्तः ॥ ६८ ॥
ऊचुः कुमारा वचनं तदानीं
कथार्थतो निश्पतिताधुनेयम् ।
एवं गिरः सा ससुता निशम्य
सनत्कुमारं निजगाद नम्रा ॥ ६९ ॥
भक्तिरुवाच –
भवद्भिः अद्यैव कृतास्मि पुष्टा
कलिप्रणष्टापि कथारसेन ।
क्वाहं तु तिष्ठाम्यधुना ब्रुवन्तु
ब्राह्मा इदं तां गिरमूचिरे ते ॥ ७० ॥
भक्तेषु गोविन्दसरूपकर्त्री
प्रेमैकधर्त्री भवरोगहन्त्री ।
सा त्वं च तिष्ठस्व सुधैर्यसंश्रया
निरंतरं वैष्णवमानसानि ॥ ७१ ॥
ततोऽपि दोषाः कलिजा इमे त्वां
द्रष्टुं न शक्ताः प्रभवोऽपि लोके ।
एवं तदाज्ञावसरेऽपि भक्तिः
तदा निषण्णा हरिदासचित्ते ॥ ७२ ॥
सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! जिस समय सनकादि मुनीश्वर इस प्रकार सप्ताहश्रवणकी महिमाका बखान कर रहे थे, उस सभामें एक बड़ा आश्चर्य हुआ; उसे मैं तुम्हें बतलाता हूँ, सुनो ॥ ६६ ॥ वहाँ तरुणावस्थाको प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रोंको साथ लिये विशुद्ध प्रेमरूपा भक्ति बार-बार ‘श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारे ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !’ आदि भगवन्नामोंका उच्चारण करती हुई अकस्मात् प्रकट हो गयीं ॥ ६७ ॥ सभी सदस्योंने देखा कि परम सुन्दरी भक्तिरानी भागवतके अर्थोंका आभूषण पहने वहाँ पधारीं। मुनियोंकी उस सभामें सभी यह तर्क-वितर्क करने लगे कि ये यहाँ कैसे आयीं, कैसे प्रविष्ट हुर्ईं ॥ ६८ ॥ तब सनकादिने कहा—‘ये भक्तिदेवी अभी-अभी कथाके अर्थसे निकली हैं।’ उनके ये वचन सुनकर भक्तिने अपने पुत्रोंसमेत अत्यन्त विनम्र होकर सनत्कुमारजीसे कहा ॥ ६९ ॥
भक्ति बोलीं—मैं कलियुगमें नष्टप्राय हो गयी थी, आपने कथामृतसे सींचकर मुझे फिर पुष्ट कर दिया। अब आप यह बताइये कि मैं कहाँ रहूँ ? यह सुनकर सनकादिने उससे कहा— ॥ ७० ॥ ‘तुम भक्तोंको भगवान्का स्वरूप प्रदान करनेवाली, अनन्यप्रेमका सम्पादन करनेवाली और संसार- रोगको निर्मूल करनेवाली हो; अत: तुम धैर्य धारण करके नित्य-निरन्तर विष्णुभक्तोंके हृदयोंमें ही निवास करो ॥ ७१ ॥ ये कलियुगके दोष भले ही सारे संसारपर अपना प्रभाव डालें, किन्तु वहाँ तुमपर इनकी दृष्टि भी नहीं पड़ सकेगी।’ इस प्रकार उनकी आज्ञा पाते ही भक्ति तुरन्त भगवद्भक्तोंके हृदयोंमें जा विराजीं ॥ ७२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
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|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
तीसरा अध्याय (पोस्ट.११)
भक्तिके कष्ट की निवृत्ति
सकलभुवनमध्ये निर्धनास्तेऽपि धन्या
निवसति हृदि येषां श्रीहरेर्भक्तिरेका ।
हरिरपि निजलोकं सर्वथातो विहाय
प्रविशति हृदि तेषां भक्तिसूत्रोपनद्धः ॥ ७३ ॥
ब्रूमोऽद्य ते किमधिकं महमानमेवं
ब्रह्मात्मकस्य भुवि भागवताभिधस्य ।
यत्संश्रयात् निगदिते लभते सुवक्ता
श्रोतापि कृष्णसमतामलमन्यधर्मैः ॥ ७४ ॥
जिनके हृदयमें एकमात्र श्रीहरिकी भक्ति निवास करती है; वे त्रिलोकीमें अत्यन्त निर्धन होनेपर भी परम धन्य हैं; क्योंकि इस भक्तिकी डोरीसे बँधकर तो साक्षात् भगवान् भी अपना परमधाम छोडक़र उनके हृदयमें आकर बस जाते हैं ॥ ७३ ॥ भूलोकमें यह भागवत साक्षात् परब्रह्मका विग्रह है, हम इसकी महिमा कहाँतक वर्णन करें। इसका आश्रय लेकर इसे सुनानेसे तो सुनने और सुनाने- वाले दोनोंको ही भगवान् श्रीकृष्णकी समता प्राप्त हो जाती है। अत: इसे छोडक़र अन्य धर्मोंसे क्या प्रयोजन है ॥ ७४ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये
भक्तिकष्टनिवर्तनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
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