|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०१)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
सूत उवाच -
पितरि उपरते तेन जननी ताडिता भृशम् ।
क्व वित्तं तिष्ठति ब्रूहि हनिष्ये लत्तया न चेत् ॥ १ ॥
इति तद्वाक्य संत्रासात् जनन्या पुत्रदुःखतः ।
कूपे पातः कृतो रात्रौ तेन सा निधनं गता ॥ २ ॥
गोकर्णः तीर्थयात्रार्थं निर्गतो योगसंस्थितः ।
न दुःखं न सुखं तस्य न वैरी नापि बान्धवः ॥ ३ ॥
धुन्धुकारी गृहेऽतिष्ठत् पंचपण्यवधूवृतः ।
अत्युग्रकर्मकर्ता च तत् पोषणविमूढधीः ॥ ४ ॥
एकदा कुलटास्तास्तु भूषणान्यभिलिप्सवः ।
तदर्थं निर्गतो गेहात् कामान्धो मृत्युमस्मरन् ॥ ५ ॥
यतस्ततश्च संहृत्य वित्तं वेश्म पुनर्गतः ।
ताभ्योऽयच्छत् सुवस्त्राणि भूषणानि कियन्ति च ॥ ६ ॥
सूतजी कहते हैं—शौनकजी ! पिताके वन चले जानेपर एक दिन धुन्धुकारीने अपनी माताको बहुत पीटा और कहा—‘बता, धन कहाँ रखा है ? नहीं तो अभी तेरी लुआठी (जलती लकड़ी) से खबर लूँगा’ ॥ १ ॥ उसकी इस धमकीसे डरकर और पुत्रके उपद्रवोंसे दुखी होकर वह रात्रिके समय कुएँ में जा गिरी और इसी से उसकी मृत्यु हो गयी ॥ २ ॥ योगनिष्ठ गोकर्णजी तीर्थयात्रा के लिये निकल गये। उन्हें इन घटनाओंसे कोई सुख या दु:ख नहीं होता था; क्योंकि उनका न कोई मित्र था न शत्रु ॥ ३ ॥ धुन्धुकारी पाँच वेश्याओंके साथ घरमें रहने लगा। उनके लिये भोग-सामग्री जुटानेकी चिन्ताने उसकी बुद्धि नष्ट कर दी और वह नाना प्रकारके अत्यन्त क्रूर कर्म करने लगा ॥ ४ ॥ एक दिन उन कुलटाओंने उससे बहुत-से गहने माँगे। वह तो कामसे अंधा हो रहा था, मौतकी उसे कभी याद नहीं आती थी। बस, उन्हें जुटानेके लिये वह घरसे निकल पड़ा ॥ ५ ॥ वह जहाँ-तहाँसे बहुत-सा धन चुराकर घर लौट आया तथा उन्हें कुछ सुन्दर वस्त्र और आभूषण लाकर दिये ॥ ६ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
०००००००.....
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०२)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
बहुवित्तचयं दृष्ट्वा रात्रौ नार्यो व्यचारयन् ।
चौर्यं करोत्यसौ नित्यं अतो राजा ग्रहीष्यति ॥ ७ ॥
वित्तं हृत्वा पुनश्चैनं मारयिष्यति निश्चितम् ।
अतोऽर्थगुप्तये गूढं अस्माभिः किं न हन्यते ॥ ८ ॥
निहत्यैनं गृहीत्वार्थं यास्यामो यत्र कुत्रचित् ।
इति ता निश्चयं कृत्वा सुप्तं सम्बद्ध्य रश्मिभिः ॥ ९ ॥
पाशं कण्ठे निधायास्य तन्मृत्युं उपचक्रमुः ।
त्वरितं न ममारासौ चिन्तायुक्ताः तदाभवन् ॥ १० ॥
तप्तांगारसमूहांश्च तन्मुखे हि विचिक्षिपुः ।
अग्निज्वालातिदुःखेन व्याकुलो निधनं गतः ॥ ११ ॥
तं देहं मुमुचुर्गर्ते प्रायः साहसिकाः स्त्रियः ।
न ज्ञातं तद्रहस्यं तु केनापीदं तथैव च ॥ १२ ॥
लोकैः पृष्ट्वा वदन्ति स्म दूरं यातः प्रियो हि नः ।
आगमिष्यति वर्षेऽस्मिन् वित्तलोभविकर्षितः ॥ १३ ॥
स्त्रीणां नैव तु विश्वासं दुष्टानां कारयेत् बुधः ।
विश्वासे यः स्थितो मूढः स दुःखैः परिभूयते ॥ १४ ॥
सुधामयं वचो यासां कामिनां रसवर्धनम् ।
हृदयं क्षुरधाराभं प्रियः को नाम योषिताम् ॥ १५ ॥
(धुन्धुकारी के)चोरी का बहुत माल देखकर रात्रिके समय स्त्रियोंने विचार किया कि ‘यह नित्य ही चोरी करता है, इसलिये इसे किसी दिन अवश्य राजा पकड़ लेगा ॥ ७ ॥ राजा यह सारा धन छीनकर इसे निश्चय ही प्राणदण्ड देगा। जब एक दिन इसे मरना ही है, तब हम ही धनकी रक्षाके लिये गुप्तरूपसे इसको क्यों न मार डालें ॥ ८ ॥ इसे मारकर हम इसका माल-मता लेकर जहाँ-कहीं चली जायँगी।’ ऐसा निश्चय कर उन्होंने सोये हुए धुन्धुकारीको रस्सियोंसे कस दिया और उसके गलेमें फाँसी लगाकर उसे मारनेका प्रयत्न किया। इससे जब वह जल्दी न मरा, तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई ॥ ९-१० ॥ तब उन्होंने उसके मुखपर बहुत-से दहकते अँगारे डाले; इससे वह अग्नि की लपटोंसे बहुत छटपटाकर मर गया ॥ ११ ॥ उन्होंने उसके शरीरको एक गड्ढेमें डालकर गाड़ दिया। सच है, स्त्रियाँ प्राय: बड़ी दु:साहसी होती हैं। उनके इस कृत्यका किसीको भी पता न चला ॥ १२ ॥ लोगों के पूछनेपर कह देती थीं कि ‘हमारे प्रियतम पैसेके लोभसे अबकी बार कहीं दूर चले गये हैं, इसी वर्षके अंदर लौट आयेंगे’ ॥ १३ ॥ बुद्धिमान् पुरुषको दुष्टा स्त्रियोंका कभी विश्वास न करना चाहिये। जो मूर्ख इनका विश्वास करता है, उसे दुखी होना पड़ता है ॥ १४ ॥ इनकी वाणी तो अमृत के समान कामियों के हृदयमें रस का सञ्चार करती है; किन्तु हृदय छूरे की धार के समान तीक्ष्ण होता है। भला, इन स्त्रियों का कौन प्यारा है ? ॥ १५ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000....
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०३)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
संहृत्य वित्तं ता याताः कुलटा बहुभर्तृकाः ।
धुन्धुकारी बभूवाथ महान् प्रेतः कुकर्मतः ॥ १६ ॥
वात्यारूपधरो नित्यं धावन् दशदिशोन्तरम् ।
शीतातप परिक्लिष्टो निराहारः पिपासितः ॥ १७ ॥
न लेभे शरणं क्वापि हा दैवेति मुहुर्वदन् ।
कियत्कालेन गोकर्णो मृतं लोकादबुध्यत ॥ १८ ॥
अनाथं तं विदित्वैव गयाश्राद्धं अचीकरत् ।
यस्मिन् तीर्थे तु संयाति तत्र श्राद्धं अवर्तयत् ॥ १९ ॥
एवं भ्रमन् स गोकर्णः स्वपुरं समुपेयिवान् ।
रात्रौ गृहांगणे स्वप्तुं आगतोऽलक्षितः परैः ॥ २० ॥
तत्र सुप्तं स विज्ञाय धुन्धुकारी स्वबान्धवम् ।
निशीथे दर्शयामास महारौद्रतरं वपुः ॥ २१ ॥
सकृन्मेषः सकृद्धस्ती सकृच्च महिषोऽभवत् ।
सकृदिन्द्र सकृच्चाग्निः पुनश्च पुरुषोऽभवत् ॥ २२ ॥
वैपरीत्यं इदं दृष्ट्वा गोकर्णो धैर्यसंयुतः ।
अयं दुर्गतिकं कोऽपि निश्चित्याथ तमब्रवीत् ॥ २३ ॥
गोकर्ण उवाच –
कस्त्वं उग्रतरो रात्रौ कुतो यातो दशां इमाम् ।
किंवा प्रेतः पिशाचो वा राक्षसोऽसीति शंस नः ॥ २४ ॥
वे कुलटाएँ धुन्धुकारीकी सारी सम्पत्ति समेटकर वहाँसे चंपत हो गयीं; उनके ऐसे न जाने कितने पति थे। और धुन्धुकारी अपने कुकर्मोंके कारण भयंकर प्रेत हुआ ॥ १६ ॥ वह बवंडरके रूपमें सर्वदा दसों दिशाओंमें भटकता रहता था तथा शीत-घामसे सन्तप्त और भूख-प्याससे व्याकुल होनेके कारण ‘हा दैव ! हा दैव !’ चिल्लाता रहता था। परन्तु उसे कहीं भी कोई आश्रय न मिला। कुछ काल बीतनेपर गोकर्णने भी लोगोंके मुखसे धुन्धुकारीकी मृत्युका समाचार सुना ॥ १७-१८ ॥ तब उसे अनाथ समझकर उन्होंने उसका गयाजीमें श्राद्ध किया; और भी जहाँ- जहाँ वे जाते थे, उसका श्राद्ध अवश्य करते थे ॥ १९ ॥ इस प्रकार घूमते-घूमते गोकर्णजी अपने नगरमें आये और रात्रिके समय दूसरोंकी दृष्टिसे बचकर सीधे अपने घरके आँगनमें सोनेके लिये पहुँचे ॥ २० ॥ वहाँ अपने भाईको सोया देख आधी रातके समय धुन्धुकारीने अपना बड़ा विकट रूप दिखाया ॥ २१ ॥ वह कभी भेड़ा, कभी हाथी, कभी भैंसा, कभी इन्द्र और कभी अग्रिका रूप धारण करता। अन्तमें वह मनुष्यके आकार- में प्रकट हुआ ॥ २२ ॥ ये विपरीत अवस्थाएँ देखकर गोकर्णने निश्चय किया कि यह कोई दुर्गतिको प्राप्त हुआ जीव है। तब उन्होंने उससे धैर्यपूर्वक पूछा ॥ २३ ॥ गोकर्णने कहा—तू कौन है ? रात्रिके समय ऐसे भयानक रूप क्यों दिखा रहा है ? तेरी यह दशा कैसे हुई ? हमें बता तो सही—तू प्रेत है, पिशाच है अथवा कोई राक्षस है ? ॥ २४ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535 से
0000000...
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०४)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
सूत उवाच -
एवं पृष्टस्तदा तेन रुरोदोच्चैः पुनः पुनः ।
अशक्तो वचनोच्चारे संज्ञामात्रं चकार ह ॥ २५ ॥
ततोऽञ्जलौ जलं कृत्वा गोकर्णस्तमुदैरयत् ।
तत्सेकहतपापोऽसौ प्रवक्तुं उपचक्रमे ॥ २६ ॥
प्रेत उवाच –
अहं भ्राता त्वदीयोऽस्मि धुन्धुकारीरि नामतः ।
स्वकीयेनैव दोषेण ब्रह्मत्वं नाशितं मया ॥ २७ ॥
कर्मणो नास्ति संख्या मे महाज्ञाने विवर्तिनः ।
लोकानां हिंसकः सोऽहं स्त्रीभिर्दुःखेन मारितः ॥ २८ ॥
अतः प्रेतत्वं आपन्नो दुर्दशां च वहाम्यहम् ।
वाताहारेण जीवामि दैवाधीनफलोदयात् ॥ २९ ॥
अहो बन्धो कृपासिन्धो भ्रातर्मामाशु मोचय ।
गोकर्णो वचनं श्रुत्वा तस्मै वाक्यं अथाब्रवीत् ॥ ३० ॥
गोकर्ण उवाच –
त्वदर्थं तु गयापिण्डो मया दत्तो विधानतः ।
तत्कथं नैव मुक्तोऽसि ममाश्चर्यं इदं महत् ॥ ३१ ॥
गयाश्राद्धान्न मुक्तिश्चेत् उपायो नापरस्त्विह ।
किं विधेयं मया प्रेत तत्त्वं वद सविस्तरम् ॥ ३२ ॥
सूतजी कहते हैं—गोकर्ण के इस प्रकार पूछनेपर वह(धुंधुकारी) बार-बार जोर-जोरसे रोने लगा। उसमें बोलनेकी शक्ति नहीं थी, इसलिये उसने केवल संकेतमात्र किया ॥ २५ ॥ तब गोकर्णने अञ्जलिमें जल लेकर उसे अभिमंत्रित करके उसपर छिडक़ा। इससे उसके पापोंका कुछ शमन हुआ और वह इस प्रकार कहने लगा ॥ २६ ॥—‘मैं तुम्हारा भाई हूँ। मेरा नाम है धुन्धुकारी। मैंने अपने ही दोषसे अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया ॥ २७ ॥ मेरे कुकर्मोंकी गिनती नहीं की जा सकती। मैं तो महान् अज्ञानमें चक्कर काट रहा था। इसीसे मैंने लोगोंकी बड़ी हिंसा की। अन्तमें कुलटा स्त्रियोंने मुझे तड़पा-तड़पाकर मार डाला ॥ २८ ॥ इसीसे अब प्रेत-योनिमें पडक़र यह दुर्दशा भोग रहा हूँ। अब दैववश कर्मफलका उदय होनेसे मैं केवल वायुभक्षण करके जी रहा हूँ ॥ २९ ॥ भाई ! तुम दयाके समुद्र हो; अब किसी प्रकार जल्दी ही मुझे इस योनिसे छुड़ाओ।’ गोकर्णने धुन्धुकारीकी सारी बातें सुनीं और तब उससे बोले ॥ ३० ॥ गोकर्णने कहा—भाई ! मुझे इस बातका बड़ा आश्चर्य है—मैंने तुम्हारे लिये विधिपूर्वक गयाजीमें पिण्डदान किया, फिर भी तुम प्रेतयोनिसे मुक्त कैसे नहीं हुए ? ॥ ३१ ॥ यदि गया-श्राद्ध- से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हुई, तब इसका और कोई उपाय ही नहीं है। अच्छा, तुम सब बात खोलकर कहो—मुझे अब क्या करना चाहिये ? ॥ ३२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535 से
000000000....
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०५)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
प्रेत उवाच -
गयाश्राद्धशतेनापि मुक्तिर्मे न भविष्यति ।
उपायं अपरं कंचित् त्वं विचारय साम्प्रतम् ॥ ३३ ॥
इति तद्वाक्यमाकर्ण्य गोकर्णो विस्मयं गतः ।
शतश्राद्धैर्न मुक्तिश्चेत् असाध्यं मोचनं तव ॥ ३४ ॥
इदानीं तु निजं स्थानं आतिष्ठ प्रेत निर्भयः ।
त्वन्मुक्तिसाधकं किंचित् आचरिष्ये विचार्य च ॥ ३५ ॥
धुन्धुकारी निजस्थानं तेनादिष्टस्ततो गतः ।
गोकर्णश्चिन्तयामास तां रात्रिं न तदध्यगात् ॥ ३६ ॥
प्रातस्तं आगतं दृष्ट्वा लोकाः प्रीत्याः समागताः ।
तत्सर्वं कथितं तेन यत् जातं च यथा निशि ॥ ३७ ॥
विद्वांसो योगनिष्ठाश्च ज्ञानिनो ब्रह्मवादिनः ।
तन्मुक्तिं नैव तेऽपश्यन् पश्यन्तः शास्त्रसंचयान् ॥ ३८ ॥
ततः सर्वैः सूर्यवाक्यं तन्मुक्तौ स्थापितं परम् ।
गोकर्णः स्तम्भनं चक्रे सूर्यवेगस्य वै तदा ॥ ३९ ॥
तुभ्यं नमो जगत् साक्षिन् ब्रूहि मे मुक्तिहेतुकम् ।
तत् श्रुत्वा दूरतः सूर्यः स्फुटमित्यभ्यभाषत ॥ ४० ॥
श्रीमद्भागवतान् मुक्तिः सप्ताहं वाचनं कुरु ।
इति सूर्यवचः सर्वैः धर्मरूपं तु विश्रुतम् ॥ ४१ ॥
सर्वेऽब्रुवन् प्रयत्नेन कर्तव्यं सुकरं त्विदम् ।
गोकर्णो निश्चयं कृत्वा वाचनार्थं प्रवर्तितः ॥ ४२ ॥
प्रेत (धुंधुकारी)ने कहा—मेरी मुक्ति सैकड़ों गया-श्राद्ध करनेसे भी नहीं हो सकती। अब तो तुम इसका कोई और उपाय सोचो ॥ ३३ ॥ प्रेतकी यह बात सुनकर गोकर्णको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे कहने लगे—‘यदि सैकड़ों गया- श्राद्धोंसे भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती, तब तो तुम्हारी मुक्ति असम्भव ही है ॥ ३४ ॥ अच्छा, अभी तो तुम निर्भय होकर अपने स्थान पर रहो; मैं विचार करके तुम्हारी मुक्तिके लिये कोई दूसरा उपाय करूँगा’ ॥ ३५ ॥ गोकर्णकी आज्ञा पाकर धुन्धुकारी वहाँसे अपने स्थानपर चला आया। इधर गोकर्णने रातभर विचार किया, तब भी उन्हें कोई उपाय नहीं सूझा ॥ ३६ ॥ प्रात:काल उनको आया देख लोग प्रेमसे उनसे मिलने आये। तब गोकर्णने रातमें जो कुछ जिस प्रकार हुआ था, वह सब उन्हें सुना दिया ॥ ३७ ॥ उनमें जो लोग विद्वान्, योगनिष्ठ, ज्ञानी और वेदज्ञ थे, उन्होंने भी अनेकों शास्त्रोंको उलट-पलटकर देखा; तो भी उसकी मुक्तिका कोई उपाय न मिला ॥ ३८ ॥ तब सबने यही निश्चय किया कि इस विषयमें सूर्यनारायण जो आज्ञा करें, वही करना चाहिये। अत: गोकर्णने अपने तपो- बलसे सूर्यकी गतिको रोक दिया ॥ ३९ ॥ उन्होंने स्तुति की—‘भगवन् ! आप सारे संसारके साक्षी हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप मुझे कृपा करके धुन्धुकारीकी मुक्तिका साधन बताइये।’ गोकर्णकी यह प्रार्थना सुनकर सूर्यदेव ने दूर से ही स्पष्ट शब्दोंमें कहा—‘श्रीमद्भागवतसे मुक्ति हो सकती है, इसलिये तुम उसका सप्ताह-पारायण करो।’ सूर्यका यह धर्ममय वचन वहाँ सभीने सुना ॥ ४०-४१ ॥ तब सबने यही कहा कि ‘प्रयत्नपूर्वक यही करो, है भी यह साधन बहुत सरल।’ अत: गोकर्णजी भी तदनुसार निश्चय करके कथा सुनानेके लिये तैयार हो गये ॥ ४२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535 से
00000000...
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०६)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
तत्र संश्रवणार्थाय देशग्रामाज्जना ययुः ।
पङ्ग्वन्ध वृद्धमन्दाश्च तेऽपि पापक्षयाय वै ॥ ४३ ॥
समाजस्तु महाञ्जातो देवविस्मयकारकः ।
यदैवासनमास्थाय गोकर्णोऽकथयत्कथाम् ॥ ४४ ॥
स प्रेतोऽपि तदाऽऽयातः स्थानं पश्यन् इतस्ततः ।
सप्तग्रन्थियुतं तत्र अपश्यत् कीचकमुछ्रितम् ॥ ४५ ॥
तन्मूलच्छिद्रमाविश्य श्रवणार्थं स्थितौ ह्यसौ ।
वातरूपी स्थितिं कर्तुं अशक्तो वंशमाविशत् ॥ ४६ ॥
वैष्णवं ब्राह्मणं मुख्यं श्रोतारं परिकल्प्य सः ।
प्रथमस्कन्धतः स्पष्टं आख्यानं धेनुजोऽकरत् ॥ ४७ ॥
दिनान्ते रक्षिता गाथा तदा चित्रं बभूव ह ।
वंशैकग्रन्थिभेदोऽभूत् सशब्दं पश्यतां सताम् ॥ ४८ ॥
द्वितीयेऽह्नि तथा सायं द्वितीयग्रन्थिभेदनम् ।
तृतीयेऽह्नि तथा सायं तृतीयग्रन्थिभेदनम् ॥ ४९ ॥
एवं सप्तदिनैश्चैव सप्तग्रन्थिविभेदनम् ।
कृत्वा स द्वादशस्कन्ध श्रवणात् प्रेततां जहौ ॥ ५० ॥
दिव्यरूपधरो जातः तुलसीदाममंडितः ।
पीतवासा घनश्यमो मुकुटी कुण्डलान्वितः ॥ ५१ ॥
ननाम भ्रातरं सद्यो गोकर्णं इति चाब्रवीत् ।
त्वयाहं मोचितो बन्धो कृपया प्रेतकश्मलात् ॥ ५२ ॥
देश और गाँवोंसे अनेकों लोग (श्रीमद्भागवत की) कथा सुननेके लिये आये। बहुत-से लँगड़े-लूले, अंधे, बूढ़े और मन्दबुद्धि पुरुष भी अपने पापोंकी निवृत्तिके उद्देश्यसे वहाँ आ पहुँचे ॥ ४३ ॥ इस प्रकार वहाँ इतनी भीड़ हो गयी कि उसे देखकर देवताओंको भी आश्चर्य होता था। जब गोकर्णजी व्यासगद्दी पर बैठकर कथा कहने लगे, तब वह प्रेत भी वहाँ आ पहुँचा और इधर-उधर बैठनेके लिये स्थान ढूँढऩे लगा। इतनेमें ही उसकी दृष्टि एक सीधे रखे हुए सात गाँठके बाँसपर पड़ी ॥ ४४-४५ ॥ उसीके नीचेके छिद्रमें घुसकर वह कथा सुननेके लिये बैठ गया। वायुरूप होनेके कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था, इसलिये बाँसमें घुस गया ॥ ४६ ॥
गोकर्णजीने एक वैष्णव ब्राह्मणको मुख्यश्रोता बनाया और प्रथमस्कन्धसे ही स्पष्ट स्वरमें कथा सुनानी आरम्भ कर दी ॥ ४७ ॥ सायंकालमें जब कथाको विश्राम दिया गया, तब एक बड़ी विचित्र बात हुई। वहाँ सभासदोंके देखते-देखते उस बाँसकी एक गाँठ तड़-तड़ शब्द करती फट गयी ॥ ४८ ॥ इसी प्रकार दूसरे दिन सायंकालमें दूसरी गाँठ फटी और तीसरे दिन उसी समय तीसरी ॥ ४९ ॥ इस प्रकार सात दिनोंमें सातों गाँठोंको फोडक़र धुन्धुकारी बारहों स्कन्धोंके सुननेसे पवित्र होकर प्रेतयोनिसे मुक्त हो गया और दिव्यरूप धारण करके सबके सामने प्रकट हुआ। उसका मेघके समान श्याम शरीर पीताम्बर और तुलसीकी मालाओंसे सुशोभित था तथा सिरपर मनोहर मुकुट और कानोंमें कमनीय कुण्डल झिलमिला रहे थे ॥ ५०-५१ ॥ उसने तुरंत अपने भाई गोकर्णको प्रणाम करके कहा—‘भाई ! तुमने कृपा करके मुझे प्रेतयोनिकी यातनाओंसे मुक्त कर दिया ॥ ५२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535 से
0000000000.....
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०७)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
धन्या भागवती वार्ता प्रेतपीडाविनाशिनी ।
सप्ताहोऽपि तथा धन्यः कृष्णलोकफलप्रदः ॥ ५३ ॥
कम्पन्ते सर्वपापानि सप्ताहश्रवणे स्थिते ।
अस्माकं प्रलयं सद्यः कथा चेयं करिष्यति ॥ ५४ ॥
आर्द्रं शुष्कं लघु स्थूलं वाङ्मनः कर्मभिः कृतम् ।
श्रवणं विदहेत्पापं पावकं समिधो यथा ॥ ५५ ॥
अस्मिन् वै भारते वर्षे सूरिभिः देवसंसदि ।
अकथाश्राविणां पुंसां निष्फलं जन्म कीर्तितम् ॥ ५६ ॥
किं मोहतो रक्षितेन सुपुष्टेन बलीयसा ।
अध्रुवेण शरीरेण शुकशास्त्रकथां विना ॥ ५७ ॥
यह प्रेतपीड़ाका नाश करनेवाली श्रीमद्भागवतकी कथा धन्य है। तथा श्रीकृष्णचन्द्रके धामकी प्राप्ति करानेवाला इसका सप्ताह-पारायण भी धन्य है ! ॥ ५३ ॥ जब सप्ताह-श्रवण का योग लगता है, तब सब पाप थर्रा उठते हैं कि अब यह भागवतकी कथा जल्दी ही हमारा अन्त कर देगी ॥ ५४ ॥ जिस प्रकार आग गीली-सूखी, छोटी-बड़ी—सब तरहकी लकडिय़ोंको जला डालती है, उसी प्रकार यह सप्ताह-श्रवण मन, वचन और कर्मद्वारा किये हुए नये- पुराने, छोटे-बड़े—सभी प्रकारके पापोंको भस्म कर देता है ॥ ५५ ॥
विद्वानों ने देवताओं की सभामें कहा है कि जो लोग इस भारतवर्ष में श्रीमद्भागवत की कथा नहीं सुनते, उनका जन्म वृथा ही है ॥ ५६ ॥ भला, मोहपूर्वक लालन-पालन करके यदि इस अनित्य शरीरको हृष्ट-पुष्ट और बलवान् भी बना लिया तो भी श्रीमद्भागवतकी कथा सुने बिना इससे क्या लाभ हुआ ? ॥ ५७ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000....
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०८)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
अस्थिस्तम्भं स्नायुबद्धं मांसशोणितलेपितम् ।
चर्मावनद्धं दुर्गन्धं पात्रं मूत्रपुरीषयोः ॥ ५८ ॥
जराशोकविपाकार्तं रोगमन्दिरमातुरम् ।
दूष्पूरं दुर्धरं दुष्टं सदोषं क्षणभंगुरम् ॥ ५९ ॥
कृमिविड् भस्म संज्ञान्तं शरीरं इति वर्णितम् ।
अस्थिरेण स्थिरं कर्म कुतोऽयं साधयेत् न हि ॥ ६० ॥
यत्प्रातः संस्कृतं चान्नं सायं तच्च विनश्यति ।
तदीयरससम्पुष्टे काये का नाम नित्यता ॥ ६१ ॥
सप्ताहश्रवणात् लोके प्राप्यते निकटे हरिः ।
अतो दोषनिवृत्त्यर्थं एतद् एव हि साधनम् ॥ ६२ ॥
अस्थियाँ ही इस शरीरके आधारस्तम्भ हैं, नस-नाडीरूप रस्सियोंसे यह बँधा हुआ है, ऊपरसे इसपर मांस और रक्त थोपकर इसे चर्मसे मँढ़ दिया गया है। इसके प्रत्येक अङ्गमें दुर्गन्ध आती है; क्योंकि है तो यह मल-मूत्रका भाण्ड ही ॥ ५८ ॥ वृद्धावस्था और शोकके कारण यह परिणाममें दु:खमय ही है, रोगोंका तो घर ही ठहरा। यह निरन्तर किसी-न-किसी कामनासे पीडि़त रहता है, कभी इसकी तृप्ति नहीं होती। इसे धारण किये रहना भी एक भार ही है; इसके रोम-रोममें दोष भरे हुए हैं और नष्ट होनेमें इसे एक क्षण भी नहीं लगता ॥ ५९ ॥ अन्तमें यदि इसे गाड़ दिया जाता है तो इसके कीड़े बन जाते हैं; कोई पशु खा जाता है तो यह विष्ठा हो जाता है और अग्रिमें जला दिया जाता है तो भस्मकी ढेरी हो जाता है। ये तीन ही इसकी गतियाँ बतायी गयी हैं। ऐसे अस्थिर शरीरसे मनुष्य अविनाशी फल देनेवाला काम क्यों नहीं बना लेता ? ॥ ६० ॥ जो अन्न प्रात:काल पकाया जाता है, वह सायंकालतक बिगड़ जाता है; फिर उसीके रससे पुष्ट हुए शरीरकी नित्यता कैसी ॥ ६१ ॥इस लोकमें सप्ताह-श्रवण करनेसे भगवान्की शीघ्र ही प्राप्ति हो सकती है। अत: सब प्रकारके दोषोंकी निवृत्तिके लिये एकमात्र यही साधन है ॥ ६२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000....
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.०९)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
बुद्बुदा इव तोयेषु मशका इव जन्तुषु ।
जायन्ते मरणायैव कथाश्रवणवर्जिताः ॥ ६३ ॥
जडस्य शुष्कवंशस्य यत्र ग्रन्थिविभेदनम् ।
चित्रं किमु तदा चित्त ग्रन्थिभेदः कथाश्रवात् ॥ ६४ ॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि सप्ताहश्रवणे कृते ॥ ६५ ॥
संसारकर्दमालेप प्रक्षालनपटीयसि ।
कथातीर्थे स्थिते चित्ते मुक्तिरेव बुधैः स्मृता ॥ ६६ ॥
एवं ब्रुवति वै तस्मिन् विमानं आगमत् तदा ।
वैकुण्ठवासिभिर्युक्तं प्रस्फुरत् दीप्तिमण्डलम् ॥ ६७ ॥
जो लोग भागवतकी कथासे वञ्चित हैं, वे तो जलमें बुद्बुदे और जीवोंमें मच्छरोंके समान केवल मरनेके लिये ही पैदा होते हैं ॥ ६३ ॥ भला, जिसके प्रभावसे जड़ और सूखे हुए बाँसकी गाँठे फट सकती हैं, उस भागवतकथाका श्रवण करनेसे चित्तकी गाँठोंका खुल जाना कौन बड़ी बात है ॥ ६४ ॥ सप्ताह-श्रवण करनेसे मनुष्यके हृदयकी गाँठ खुल जाती है, उसके समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और सारे कर्म क्षीण हो जाते हैं ॥ ६५ ॥ यह भागवतकथारूप तीर्थ संसारके कीचडक़ो धोनेमें बड़ा ही पटु है। विद्वानोंका कथन है कि जब यह हृदयमें स्थित हो जाता है, तब मनुष्यकी मुक्ति निश्चित ही समझनी चाहिये ॥ ६६ ॥ जिस समय धुन्धुकारी ये सब बातें कह रहा था, जिसके लिये वैकुण्ठवासी पार्षदोंके सहित एक विमान उतरा; उससे सब ओर मण्डलाकार प्रकाश फैल रहा था ॥ ६७ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535 से
00000000000
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१०)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
सर्वेषां पश्यतां भेजे विमानं धुन्धुलीसुतः ।
विमाने वैष्णवान् वीक्ष्य गोकर्णो वाक्यमब्रवीत् ॥ ६८ ॥
गोकर्ण उवाच -
अत्रैव बहवः सन्ति श्रोतारो मम निर्मलाः ।
आनीतानि विमानानि न तेषां युगपत्कुतः ॥ ६९ ॥
श्रवणं समभागेन सर्वेषामिह दृश्यते ।
फलभेदः कुतो जातः प्रब्रुवन्तु हरिप्रियाः ॥ ७० ॥
हरिदासा ऊचुः -
श्रवणस्य विभेदेन फलभेदोऽत्र संस्थितः ।
श्रवणं तु कृतं सर्वैः न तथा मननं कृतम् ।
फलभेदोस्ततो जातो भजनादपि मानद ॥ ७१ ॥
सप्तरात्रं उपोषैव प्रेतेन श्रवणं कृतम् ।
मननादि तथा तेन स्थिरचित्ते कृतं भृशम् ॥ ७२ ॥
सब लोगोंके सामने ही धुन्धुकारी उस विमानपर चढ़ गया। तब उस विमानपर आये हुए पार्षदों को देखकर उनसे गोकर्ण ने यह बात कही ॥ ६८ ॥ गोकर्ण ने पूछा—भगवान् के प्रिय पार्षदो ! यहाँ तो हमारे अनेकों शुद्धहृदय श्रोतागण हैं, उन सबके लिये आपलोग एक साथ बहुत-से विमान क्यों नहीं लाये ? हम देखते हैं कि यहाँ सभी ने समानरूप से कथा सुनी है, फिर फलमें इस प्रकारका भेद क्यों हुआ, यह बताइये ॥ ६९-७० ॥
भगवान्के सेवकोंने (गोकर्ण से) कहा—हे मानद ! इस फलभेदका कारण इनके श्रवणका भेद ही है। यह ठीक है कि श्रवण तो सबने समानरूपसे ही किया है, किन्तु इसके-जैसा मनन नहीं किया। इसीसे एक साथ भजन करनेपर भी उसके फलमें भेद रहा ॥ ७१ ॥ इस प्रेतने सात दिनोंतक निराहार रहकर श्रवण किया था, तथा सुने हुए विषय का स्थिरचित्त से यह खूब मनन-निदिध्यासन भी करता रहता था ॥ ७२ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण)पुस्तककोड1535 से
0000000000....
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.११)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
अदृढं च हतं ज्ञानं प्रमादेन हतं श्रुतम् ।
संदिग्धो हि हतो मंत्रो व्यग्रचित्तो हतो जपः ॥ ७३ ॥
अवैष्णवो हतो देशो हतं श्राद्धं अपात्रकम् ।
हतं अश्रोत्रिये दानं अनाचारं हतं कुलम् ॥ ७४ ॥
विश्वासो गुरुवाक्येषु स्वस्मिन् दीनत्वभावना ।
मनोदोषजयश्चैव कथायां निश्चला मतिः ॥ ७५ ॥
एवं आदि कृतं चेत् स्यात् तदा वै श्रवणे फलम् ।
पुनः श्रवान्ते सर्वेषां वैकुण्ठे वसतिर्ध्रुवम् ॥ ७६ ॥
गोकर्ण तव गोविन्दो गोलोकं दास्यति स्वयम् ।
एवमुक्त्वा ययुः सर्वे वैकुण्ठ हरिकीर्तनाः ॥ ७७ ॥
जो ज्ञान दृढ़ नहीं होता, वह व्यर्थ हो जाता है। इसी प्रकार ध्यान न देनेसे श्रवणका, संदेहसे मन्त्रका और चित्तके इधर-उधर भटकते रहनेसे जपका भी कोई फल नहीं होता ॥ ७३ ॥ वैष्णवहीन देश, अपात्रको कराया हुआ श्राद्धका भोजन, अश्रोत्रियको दिया हुआ दान एवं आचारहीन कुल—इन सबका नाश हो जाता है ॥ ७४ ॥ गुरुवचनोंमें विश्वास, दीनताका भाव, मनके दोषोंपर विजय और कथामें चित्तकी एकाग्रता इत्यादि नियमोंका यदि पालन किया जाय तो श्रवण का यथार्थ फल मिलता है । यदि ये श्रोता फिर से श्रीमद्भागवत की कथा सुनें तो निश्चय ही सब को वैकुण्ठ की प्राप्ति होगी ॥ ७५-७६ ॥ और गोकर्णजी ! आपको तो भगवान् स्वयं आकर गोलोकधाम में ले जायँगे । यों कहकर वे सब पार्षद हरिकीर्तन करते वैकुण्ठलोक को चले गये ॥७७॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
००००००००.....
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१२)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
श्रवणो मासि गोकर्णः कथां ऊचे तथा पुनः ।
सप्तरात्रवतीं भूयः श्रवणं तैः कृतं पुनः ॥ ७८ ॥
कथासमाप्तौ यज्जातं श्रूयतां तच्च नारद ॥ ७९ ॥
विमानैः सह भक्तैश्च हरिराविर्बभूव ह ।
जयशब्दा नमःशब्दाः तत्रासन् बहवस्तदा ॥ ८० ॥
पाञ्चजन्य ध्वनिं चक्रे हर्षात् तत्र स्वयं हरिः ।
गोकर्णं तु समालिंग्य अकरोत् स्वसदृषं हरिः ॥ ८१ ॥
श्रोतॄन् अन्यान् घनश्यामान् पीतकौशेयवाससः ।
कीरीटिनः कुण्डलिनः तथा चक्रे हरिः क्षणात् ॥ ८२ ॥
तद्ग्रामे ये स्थिता जीवा आश्वचाण्डालजातयः ।
विमाने स्थापितास्तेऽपि गोकर्णकृपया तदा ॥ ८३ ॥
प्रेषिता हरिलोके ते यत्र गच्छन्ति योगिनः ।
गोकर्णेन स गोपालो गोलोकं गोपवल्लभम् ।
कथाश्रवणतः प्रीतो निर्ययौ भक्तवत्सलः ॥ ८४ ॥
अयोध्यावासिनं पूर्वं यथा रामेण संगताः ।
तथा कृष्णेन ते नीता गोलोकं योगिदुर्लभम् ॥ ८५ ॥
यत्र सूर्यस्य सोमस्य सिद्धानां न गतिः कदा ।
तं लोकं हि गतास्ते तु श्रीमद्भागवतश्रवात् ॥ ८६ ॥
श्रावण मासमें गोकर्णजीने फिर उसी प्रकार सप्ताहक्रमसे कथा कही और उन श्रोताओंने उसे फिर सुना ॥ ७८ ॥ नारदजी ! इस कथाकी समाप्तिपर जो कुछ हुआ, वह सुनिये ॥ ७९ ॥ वहाँ भक्तोंसे भरे हुए विमानोंके साथ भगवान् प्रकट हुए। सब ओरसे खूब जय-जयकार और नमस्कारकी ध्वनियाँ होने लगीं ॥ ८० ॥ भगवान् स्वयं हर्षित होकर अपने पाञ्चजन्य शङ्खकी ध्वनि करने लगे और उन्होंने गोकर्णको हृदयसे लगाकर अपने ही समान बना लिया ॥ ८१ ॥ उन्होंने क्षणभरमें ही अन्य सब श्रोताओंको भी मेघके समान श्यामवर्ण, रेशमी पीताम्बरधारी तथा किरीट और कुण्डलादिसे विभूषित कर दिया ॥ ८२ ॥ उस गाँवमें कुत्ते और चाण्डालपर्यन्त जितने भी जीव थे, वे सभी गोकर्णजीकी कृपासे विमानोंपर चढ़ा लिये गये ॥ ८३ ॥ तथा जहाँ योगिजन जाते हैं, उस भगवद्धाममें वे भेज दिये गये। इस प्रकार भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण कथाश्रवणसे प्रसन्न होकर गोकर्णजीको साथ ले अपने ग्वालबालोंके प्रिय गोलोकधाममें चले गये ॥ ८४ ॥ पूर्वकालमें जैसे अयोध्यावासी भगवान् श्रीरामके साथ साकेतधाम सिधारे थे, उसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण उन सबको योगिदुर्लभ गोलोकधामको ले गये ॥ ८५ ॥ जिस लोकमें सूर्य, चन्द्रमा और सिद्धोंकी भी कभी गति नहीं हो सकती, उसमें वे श्रीमद्भागवत श्रवण करनेसे चले गये ॥ ८६ ॥
हरिः ॐ तत्सत्
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000...
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||
श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
पाँचवाँ अध्याय (पोस्ट.१३)
धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार
ब्रूमोऽत्र ते किं फलवृन्दमुज्ज्वलं
सप्ताहयज्ञेन कथासु संचितम् ।
कर्णेन गोकर्णकथाक्षरो यैः
पीतश्च ते गर्भगता न भूयः ॥ ८७ ॥
वाताम्बुपर्णाशन देहशोषणैः
तपोभिः उग्रैः चिरकालसंचितैः ।
योगैश्च संयान्ति न तां गतिं वै
सप्ताहगाथाश्रवणेन यान्ति याम् ॥ ८८ ॥
इतिहासं इमं पुण्यं शाण्डिल्योऽपि मुनीश्वरः ।
पठते चित्रकूटस्थो ब्रह्मानन्दपरिप्लुतः ॥ ८९ ॥
आख्यानमेतत् परमं पवित्रं
श्रुतं सकृद्वै विदहेदघौघम् ।
श्राद्धे प्रयुक्तं पितृतृप्तिमावहेत्
नित्यं सुपाठाद अपुनर्भवं च ॥ ९० ॥
नारदजी ! सप्ताहयज्ञके द्वारा कथा-श्रवण करनेसे जैसा उज्ज्वल फल संचित होता है, उसके विषयमें हम आपसे क्या कहें ? अजी ! जिन्होंने अपने कर्णपुट से गोकर्णजी की कथा के एक अक्षरका भी पान किया था, वे फिर माता के गर्भ में नहीं आये ॥ ८७ ॥ जिस गतिको लोग वायु, जल या पत्ते खाकर शरीर सुखानेसे, बहुत कालतक घोर तपस्या करनेसे और योगाभ्याससे भी नहीं पा सकते, उसे वे सप्ताहश्रवणसे सहजमें ही प्राप्त कर लेते हैं ॥ ८८ ॥ इस परम पवित्र इतिहासका पाठ चित्रकूटपर विराजमान मुनीश्वर शाण्डिल्य भी ब्रह्मानन्दमें मग्र होकर करते रहते हैं ॥ ८९ ॥ यह कथा बड़ी ही पवित्र है। एक बारके श्रवणसे ही समस्त पाप-राशिको भस्म कर देती है। यदि इसका श्राद्धके समय पाठ किया जाय, तो इससे पितृगणको बड़ी तृप्ति होती है और नित्य पाठ करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ ९० ॥
||हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
इति श्रीपद्मपुराणे उत्तरखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये
गोकर्णमोक्षवर्णनं नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें