शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

शौनक उवाच –

महीं प्रतिष्ठामध्यस्य सौते स्वायम्भुवो मनुः ।
कानि अन्वतिष्ठद् द्वाराणि मार्गाय अवर जन्मनाम् ॥ १ ॥
क्षत्ता महाभागवतः कृष्णस्यैकान्तिकः सुहृत् ।
यस्तत्याजाग्रजं कृष्णे सापत्यं अघवानिति ॥ २ ॥
द्वैपायनादनवरो महित्वे तस्य देहजः ।
सर्वात्मना श्रितः कृष्णं तत्परांश्चाप्यनुव्रतः ॥ ३ ॥
किं अन्वपृच्छन् मैत्रेयं विरजास्तीर्थसेवया ।
उपगम्य कुशावर्त आसीनं तत्त्ववित्तमम् ॥ ४ ॥
तयोः संवदतोः सूत प्रवृत्ता ह्यमलाः कथाः ।
आपो गाङ्‌गा इवाघघ्नीः हरेः पादाम्बुजाश्रयाः ॥ ५ ॥
ता नः कीर्तय भद्रं ते कीर्तन्योदारकर्मणः ।
रसज्ञः को नु तृप्येत हरिलीलामृतं पिबन् ॥ ६ ॥
एवं उग्रश्रवाः पृष्ट ऋषिभिः नैमिषायनैः ।
भगवति अर्पिताध्यात्मः तान् आह श्रूयतामिति ॥ ७ ॥

शौनकजी कहते हैंसूतजी ! पृथ्वीरूप आधार पाकर स्वायंभुव मनुने आगे होनेवाली सन्ततिको उत्पन्न करनेके लिये किन-किन उपायोंका अवलम्बन किया ? ॥ १ ॥ विदुरजी बड़े ही भगवद्भक्त और भगवान्‌ श्रीकृष्णके अनन्य सुहृद् थे। इसीलिये उन्होंने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रको, उनके पुत्र दुर्योधनके सहित, भगवान्‌ श्रीकृष्णका अनादर करनेके कारण अपराधी समझकर त्याग दिया था ॥ २ ॥ वे महर्षि द्वैपायनके पुत्र थे और महिमामें उनसे किसी प्रकार कम नहीं थे तथा सब प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णके आश्रित और कृष्णभक्तोंके अनुगामी थे ॥ ३ ॥ तीर्थसेवनसे उनका अन्त:करण और भी शुद्ध हो गया था। उन्होंने कुशावर्तक्षेत्र (हरिद्वार) में बैठे हुए तत्त्वज्ञानियोंमें श्रेष्ठ मैत्रेयजी के पास जाकर और क्या पूछा ? ॥ ४ ॥ सूतजी ! उन दोनोंमें वार्तालाप होनेपर श्रीहरिके चरणोंसे सम्बन्ध रखनेवाली बड़ी पवित्र कथाएँ हुई होंगी, जो उन्हीं चरणोंसे निकले हुए गङ्गाजलके समान सम्पूर्ण पापोंका नाश करनेवाली होंगी ॥ ५ ॥ सूतजी ! आपका मङ्गल हो, आप हमें भगवान्‌की वे पवित्र कथाएँ सुनाइये। प्रभुके उदार चरित्र तो कीर्तन करने योग्य होते हैं। भला, ऐसा कौन रसिक होगा, जो श्रीहरिके लीलामृतका पान करते-करते तृप्त हो जाय ॥ ६ ॥नैमिषारण्यवासी मुनियोंके इस प्रकार पूछनेपर उग्रश्रवा सूतजीने भगवान्‌में चित्त लगाकर उनसे कहा—‘सुनिये॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                          00000000



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

सूत उवाच –

हरेर्धृतक्रोडतनोः स्वमायया
     निशम्य गोरुद्धरणं रसातलात् ।
लीलां हिरण्याक्षमवज्ञया हतं
     सञ्जातहर्षो मुनिमाह भारतः ॥ ८ ॥

विदुर उवाच –

प्रजापतिपतिः सृष्ट्वा प्रजासर्गे प्रजापतीन् ।
किं आरभत मे ब्रह्मन् प्रब्रूह्यव्यक्तमार्गवित् ॥ ९ ॥
ये मरीच्यादयो विप्रा यस्तु स्वायम्भुवो मनुः ।
ते वै ब्रह्मण आदेशात् कथं एतद् अभावयन् ॥ १० ॥
सद्वितीयाः किमसृजन् स्वतन्त्रा उत कर्मसु ।
आहो स्वित्संहताः सर्व इदं स्म समकल्पयन् ॥ ११ ॥

सूतजीने कहामुनिगण ! अपनी मायासे वराहरूप धारण करनेवाले श्रीहरिकी रसातलसे पृथ्वीको निकालने और खेलमें ही तिरस्कारपूर्वक हिरण्याक्षको मार डालनेकी लीला सुनकर विदुरजीको बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने मुनिवर मैत्रेयजीसे कहा ॥ ८ ॥
विदुरजीने कहाब्रह्मन् ! आप परोक्ष विषयोंको भी जाननेवाले हैं; अत: यह बतलाइये कि प्रजापतियोंके पति श्रीब्रह्माजीने मरीचि आदि प्रजापतियोंको उत्पन्न करके फिर सृष्टिको बढ़ानेके लिये क्या किया ॥ ९ ॥ मरीचि आदि मुनीश्वरोंने और स्वायम्भुव मनुने भी ब्रह्माजीकी आज्ञासे किस प्रकार प्रजाकी वृद्धि की ? ॥ १० ॥ क्या उन्होंने इस जगत् को पत्नियों के सहयोग से उत्पन्न किया या अपने-अपने कार्य में स्वतन्त्र रहकर,अथवा सब ने एक साथ मिलकर इस जगत् की रचना की ? ॥ ११ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                          00000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

मैत्रेय उवाच –

दैवेन दुर्वितर्क्येण परेणानिमिषेण च ।
जातक्षोभाद् भगवतो महान् आसीद्‌ गुणत्रयात् ॥ १२ ॥
रजःप्रधानान् महतः त्रिलिङ्‌गो दैवचोदितात् ।
जातः ससर्ज भूतादिः वियदादीनि पञ्चशः ॥ १३ ॥
तानि चैकैकशः स्रष्टुं असमर्थानि भौतिकम् ।
संहत्य दैवयोगेन हैमं अण्डं अवासृजन् ॥ १४ ॥
सोऽशयिष्टाब्धिसलिले आण्डकोशो निरात्मकः ।
साग्रं वै वर्षसाहस्रं अन्ववात्सीत् तं ईश्वरः ॥ १५ ॥
तस्य नाभेरभूत्पद्मं सहस्रार्कोरुदीधिति ।
सर्वजीवनिकायौको यत्र स्वयं अभूत्स्वराट् ॥ १६ ॥

श्रीमैत्रेयजीने कहाविदुरजी ! जिसकी गति को जानना अत्यन्त कठिन हैउस जीवों के प्रारब्ध, प्रकृति के नियन्ता पुरुष और कालइन तीन हेतुओं से तथा भगवान्‌ की सन्निधि से त्रिगुणमय प्रकृति में क्षोभ होने पर उससे महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ ॥ १२ ॥ दैव की प्रेरणा से रज:प्रधान महत्तत्त्वसे  वैकारिक (सात्त्विक), राजस और तामसतीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। उसने आकाशादि पाँच-पाँच तत्त्वोंके अनेक वर्ग[*] प्रकट किये ॥ १३ ॥ वे सब अलग-अलग रहकर भूतोंके कार्यरूप ब्रह्माण्डकी रचना नहीं कर सकते थे; इसलिये उन्होंने भगवान्‌की शक्तिसे परस्पर संगठित होकर एक सुवर्णवर्ण अण्डकी रचना की ॥ १४ ॥ वह अण्ड चेतनाशून्य अवस्थामें एक हजार वर्षोंसे भी अधिक समयतक कारणाब्धिके जलमें पड़ा रहा। फिर उसमें श्रीभगवान्‌ने प्रवेश किया ॥ १५ ॥ उसमें अधिष्ठित होनेपर उनकी नाभिसे सहस्र सूर्योंके समान अत्यन्त देदीप्यमान एक कमल प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण जीव-समुदायका आश्रय था। उसीसे स्वयं ब्रह्माजीका भी आविर्भाव हुआ है ॥ १६ ॥
.................................................................
[*] पञ्चतन्मात्र, पञ्च महाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और उनके पाँच-पाँच देवताइन्हीं छ: वर्गोंका यहाँ संकेत समझना चाहिये।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                                    000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

सोऽनुविष्टो भगवता यः शेते सलिलाशये ।
लोकसंस्थां यथा पूर्वं निर्ममे संस्थया स्वया ॥ १७ ॥
ससर्ज च्छाययाविद्यां पञ्चपर्वाणमग्रतः ।
तामिस्रं अन्धतामिस्रं तमो मोहो महातमः ॥ १८ ॥
विससर्जात्मनः कायं नाभिनन्दन् तमोमयम् ।
जगृहुर्यक्षरक्षांसि रात्रिं क्षुत्तृट्समुद्‍भवाम् ॥ १९ ॥
क्षुत्तृड्भ्यां उपसृष्टास्ते तं जग्धुमभिदुद्रुवुः ।
मा रक्षतैनं जक्षध्वं इति ऊचुः क्षुत्तृडर्दिताः ॥ २० ॥
देवस्तानाह संविग्नो मा मां जक्षत रक्षत ।
अहो मे यक्षरक्षांसि प्रजा यूयं बभूविथ ॥ २१ ॥

जब ब्रह्माण्डके गर्भरूप जलमें शयन करनेवाले श्रीनारायणदेव ने ब्रह्माजी के अन्त:करण में प्रवेश किया, तब वे पूर्वकल्पोंमें अपने ही द्वारा निश्चित की हुई नाम-रूपमयी व्यवस्थाके अनुसार लोकोंकी रचना करने लगे ॥ १७ ॥ सबसे पहले उन्होंने अपनी छायासे तामिस्र, अन्धतामिस्र, तम, मोह और महामोहयों पाँच प्रकारकी अविद्या उत्पन्न की ॥ १८ ॥ ब्रह्माजीको अपना वह तमोमय शरीर अच्छा नहीं लगा, अत: उन्होंने उसे त्याग दिया। तब, जिससे भूख-प्यासकी उत्पत्ति होती हैऐसे रात्रिरूप उस शरीरको उसीसे उत्पन्न हुए यक्ष और राक्षसोंने ग्रहण कर लिया ॥ १९ ॥ उस समय भूख-प्याससे अभिभूत होकर वे ब्रह्माजीको खानेको दौड़ पड़े और कहने लगे—‘इसे खा जाओ, इसकी रक्षा मत करो’, क्योंकि वे भूख-प्याससे व्याकुल हो रहे थे ॥ २० ॥ ब्रह्माजीने घबराकर उनसे कहा—‘अरे यक्ष-राक्षसो ! तुम मेरी सन्तान हो; इसलिये मुझे भक्षण मत करो, मेरी रक्षा करो !’ (उनमेंसे जिन्होंने कहा खा जाओ’, वे यक्ष हुए और जिन्होंने कहा रक्षा मत करो’, वे राक्षस कहलाये) ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                             000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

देवताः प्रभया या या दीव्यन् प्रमुखतोऽसृजत् ।
ते अहार्षुर्देवयन्तो विसृष्टां तां प्रभामहः ॥ २२ ॥
देवोऽदेवाञ्जघनतः सृजति स्मातिलोलुपान् ।
ते एनं लोलुपतया मैथुनायाभिपेदिरे ॥ २३ ॥
ततो हसन् स भगवान् असुरैर्निरपत्रपैः ।
अन्वीयमानस्तरसा क्रुद्धो भीतः परापतत् ॥ २४ ॥
स उपव्रज्य वरदं प्रपन्नार्तिहरं हरिम् ।
अनुग्रहाय भक्तानां अनुरूपात्मदर्शनम् ॥ २५ ॥
पाहि मां परमात्मंस्ते प्रेषणेनासृजं प्रजाः ।
ता इमा यभितुं पापा उपाक्रामन्ति मां प्रभो ॥ २६ ॥
त्वमेकः किल लोकानां क्लिष्टानां क्लेशनाशनः ।
त्वमेकः क्लेशदस्तेषां अनासन्न पदां तव ॥ २७ ॥
सोऽवधार्यास्य कार्पण्यं विविक्ताध्यात्मदर्शनः ।
विमुञ्चात्मतनुं घोरां इत्युक्तो विमुमोच ह ॥ २८ ॥

फिर ब्रह्माजीने सात्त्विकी प्रभा से देदीप्यमान होकर मुख्य-मुख्य देवताओं की रचना की। उन्होंने क्रीडा करते हुए, ब्रह्माजी के त्यागनेपर, उनका वह दिनरूप प्रकाशमय शरीर ग्रहण कर लिया ॥ २२ ॥ इसके पश्चात् ब्रह्माजीने अपने जघनदेश से कामासक्त असुरों को उत्पन्न किया। वे अत्यन्त कामलोलुप होनेके कारण उत्पन्न होते ही मैथुनके लिये ब्रह्माजीकी ओर चले ॥ २३ ॥ यह देखकर पहले तो वे हँसे; किन्तु फिर उन निर्लज्ज असुरोंको अपने पीछे लगा देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोरसे भागे ॥ २४ ॥ तब उन्होंने भक्तोंपर कृपा करनेके लिये उनकी भावनाके अनुसार दर्शन देनेवाले, शरणागतवत्सल वरदायक श्रीहरिके पास जाकर कहा॥ २५ ॥ परमात्मन् ! मेरी रक्षा कीजिये; मैंने तो आपकी ही आज्ञासे प्रजा उत्पन्न की थी, किन्तु यह तो पाप में प्रवृत्त होकर मुझको ही तंग करने चली है ॥ २६ ॥ नाथ ! एकमात्र आप ही दुखी जीवों का दु:ख दूर करनेवाले हैं और जो आपकी चरण-शरणमें नहीं आते, उन्हें दु:ख देनेवाले भी एकमात्र आप ही हैं॥ २७ ॥ प्रभु तो प्रत्यक्षवत् सबके हृदयकी जाननेवाले हैं। उन्होंने ब्रह्माजीकी आतुरता देखकर कहा—‘तुम अपने इस कामकलुषित शरीरको त्याग दो।भगवान्‌के यों कहते ही उन्होंने वह शरीर भी छोड़ दिया ॥ २८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                                    00000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

तां क्वणच्चरणाम्भोजां मदविह्वल लोचनाम् ।
काञ्चीकलापविलसद् दुकूलत् छन्न रोधसम् ॥ २९ ॥
अन्योन्यश्लेषयोत्तुङ्‌ग निरन्तरपयोधराम् ।
सुनासां सुद्विजां स्निग्ध हासलीलावलोकनाम् ॥ ३० ॥
गूहन्तीं व्रीडयात्मानं नीलालकवरूथिनीम् ।
उपलभ्यासुरा धर्म सर्वे सम्मुमुहुः स्त्रियम् ॥ ३१ ॥
अहो रूपमहो धैर्यं अहो अस्या नवं वयः ।
मध्ये कामयमानानां अकामेव विसर्पति ॥ ३२ ॥
वितर्कयन्तो बहुधा तां सन्ध्यां प्रमदाकृतिम् ।
अभिसम्भाव्य विश्रम्भात् पर्यपृच्छन् कुमेधसः ॥ ३३ ॥
कासि कस्यासि रम्भोरु को वार्थस्तेऽत्र भामिनि ।
रूपद्रविणपण्येन दुर्भगान्नो विबाधसे ॥ ३४ ॥
या वा काचित्त्वमबले दिष्ट्या सन्दर्शनं तव ।
उत्सुनोषीक्षमाणानां कन्दुकक्रीडया मनः ॥ ३५ ॥
नैकत्र ते जयति शालिनि पादपद्मं
     घ्नन्त्या मुहुः करतलेन पतत्पतङ्‌गम् ।
मध्यं विषीदति बृहत्स्तनभारभीतं
     शान्तेव दृष्टिरमला सुशिखासमूहः ॥ ३६ ॥
इति सायन्तनीं सन्ध्यां असुराः प्रमदायतीम् ।
प्रलोभयन्तीं जगृहुः मत्वा मूढधियः स्त्रियम् ॥ ३७ ॥

(ब्रह्माजीका छोड़ा हुआ वह शरीर एक सुन्दरी स्त्रीसंध्यादेवीके रूपमें परिणत हो गया।) उसके चरणकमलों के पायजेब झङ्कृत हो रहे थे। उसकी आँखें मतवाली हो रही थीं और कमर करधनी की लड़ों से सुशोभित सजीली साड़ी से ढकी हुई थी ॥ २९ ॥ उसके उभरे हुए स्तन इस प्रकार एक दूसरेसे सटे हुए थे कि उनके बीचमें कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। उसकी नासिका और दन्तावली बड़ी ही सुघड़ थी तथा वह मधुर-मधुर मुसकराती हुई असुरोंकी ओर हाव-भावपूर्ण दृष्टिसे देख रही थी ॥ ३० ॥ वह नीली-नीली अलकावलीसे सुशोभित सुकुमारी मानो लज्जाके मारे अपने अञ्चलमें ही सिमिटी जाती थी। विदुरजी ! उस सुन्दरीको देखकर सब-के-सब असुर मोहित हो गये ॥ ३१ ॥ अहो ! इसका कैसा विचित्र रूप, कैसा अलौकिक धैर्य और कैसी नयी अवस्था है। देखो, हम कामपीडि़तोंके बीचमें यह कैसी बेपरवाह-सी विचर रही है॥ ३२ ॥
इस प्रकार उन कुबुद्धि दैत्योंने स्त्रीरूपिणी संध्याके विषयमें तरह-तरहके तर्क-वितर्क करके फिर उसका बहुत आदर करते हुए प्रेमपूर्वक पूछा॥ ३३ ॥ सुन्दरि ! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो ? भामिनि ! यहाँ तुम्हारे आनेका क्या प्रयोजन है ? तुम अपने अनूप रूपका यह बेमोल सौदा दिखाकर हम अभागोंको क्यों तरसा रही हो ॥ ३४ ॥ अबले ! तुम कोई भी क्यों न हो, हमें तुम्हारा दर्शन हुआयह बड़े सौभाग्यकी बात है। तुम अपनी गेंद उछाल-उछालकर तो हम दर्शकोंके मनको मथे डालती हो ॥ ३५ ॥ सुन्दरि ! जब तुम उछलती हुई गेंदपर अपनी हथेलीकी थपकी मारती हो, तब तुम्हारा चरण-कमल एक जगह नहीं ठहरता; तुम्हारा कटिप्रदेश स्थूल स्तनोंके भारसे थक-सा जाता है और तुम्हारी निर्मल दृष्टिसे भी थकावट झलकने लगती है। अहो ! तुम्हारा केशपाश कैसा सुन्दर है॥ ३६ ॥ इस प्रकार स्त्रीरूपसे प्रकट हुई उस सायंकालीन सन्ध्याने उन्हें अत्यन्त कामासक्त कर दिया और उन मूढ़ोंने उसे कोई रमणीरत्न समझकर ग्रहण कर लिया ॥ ३७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                                 000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

प्रहस्य भावगम्भीरं जिघ्रन्ति आत्मानमात्मना ।
कान्त्या ससर्ज भगवान् गन्धर्वाप्सरसां गणान् ॥ ३८ ॥
विससर्ज तनुं तां वै ज्योत्स्नां कान्तिमतीं प्रियाम् ।
ते एव चाददुः प्रीत्या विश्वावसुपुरोगमाः ॥ ३९ ॥
सृष्ट्वा भूतपिशाचांश्च भगवान् आत्मतन्द्रिणा ।
दिग्वाससो मुक्तकेशान् वीक्ष्य चामीलयद् दृशौ ॥ ४० ॥
जगृहुस्तद्विसृष्टां तां जृम्भणाख्यां तनुं प्रभोः ।
निद्रां इन्द्रियविक्लेदो यया भूतेषु दृश्यते ।
येनोच्छिष्टान्धर्षयन्ति तमुन्मादं प्रचक्षते ॥ ४१ ॥

तदनन्तर ब्रह्माजीने गम्भीर भावसे हँसकर अपनी कान्तिमयी मूर्तिसे, जो अपने सौन्दर्यका मानो आप ही आस्वादन करती थी, गन्धर्व और अप्सराओं को उत्पन्न किया ॥ ३८ ॥ उन्होंने ज्योत्स्ना (चन्द्रिका)-रूप अपने उस कान्तिमय प्रिय शरीरको त्याग दिया। उसीको विश्वावसु आदि गन्धर्वोंने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया ॥ ३९ ॥
इसके पश्चात् भगवान्‌ ब्रह्माने अपनी तन्द्रासे भूत-पिशाच उत्पन्न किये। उन्हें दिगम्बर (वस्त्रहीन) और बाल बिखेरे देख उन्होंने आँखें मूँद लीं ॥ ४० ॥ ब्रह्माजीके त्यागे हुए उस जँभाईरूप शरीरको भूत-पिशाचोंने ग्रहण किया। इसीको निद्रा भी कहते हैं, जिससे जीवोंकी इन्द्रियोंमें शिथिलता आती देखी जाती है। यदि कोई मनुष्य जूठे मुहँ सो जाता है तो उसपर भूत-पिशाचादि आक्रमण करते हैं; उसीको उन्माद कहते हैं ॥ ४१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                                    0000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

ऊर्जस्वन्तं मन्यमान आत्मानं भगवानजः ।
साध्यान् गणान् पितृगणान् परोक्षेणासृजत्प्रभुः ॥ ४२ ॥
ते आत्मसर्गं तं कायं पितरः प्रतिपेदिरे ।
साध्येभ्यश्च पितृभ्यश्च कवयो यद्वितन्वते ॥ ४३ ॥
सिद्धान् विद्याधरांश्चैव तिरोधानेन सोऽसृजत् ।
तेभ्योऽददात् तं आत्मानं अन्तर्धानाख्यमद्‍भुतम् ॥ ४४ ॥
स किन्नरान् किम्पुरुषान् प्रत्यात्म्येनासृजत्प्रभुः ।
मानयन् नात्मनात्मानं आत्माभासं विलोकयन् ॥ ४५ ॥
ते तु तज्जगृहू रूपं त्यक्तं यत्परमेष्ठिना ।
मिथुनीभूय गायन्तः तं एवोषसि कर्मभिः ॥ ४६ ॥
देहेन वै भोगवता शयानो बहुचिन्तया ।
सर्गेऽनुपचिते क्रोधात् उत्ससर्ज ह तद्वपुः ॥ ४७ ॥
येऽहीयन्तामुतः केशा अहयस्तेऽङ्‌ग जज्ञिरे ।
सर्पाः प्रसर्पतः क्रूरा नागा भोगोरुकन्धराः ॥ ४८ ॥

फिर भगवान्‌ ब्रह्मा ने भावना की कि मैं तेजोमय हूँ और अपने अदृश्य रूपसे साध्यगण एवं पितृगणको उत्पन्न किया ॥ ४२ ॥ पितरोंने अपनी उत्पत्तिके स्थान उस अदृश्य शरीरको ग्रहण कर लिया। इसीको लक्ष्यमें रखकर पण्डितजन श्राद्धादिके द्वारा पितर और साध्यगणों को क्रमश: कव्य (पिण्ड) और हव्य अर्पण करते हैं ॥ ४३ ॥
अपनी तिरोधानशक्तिसे ब्रह्माजीने सिद्ध और विद्याधरोंकी सृष्टि की और उन्हें अपना वह अन्तर्धाननामक अद्भुत शरीर दिया ॥ ४४ ॥ एक बार ब्रह्माजीने अपना प्रतिबिम्ब देखा। तब अपने को बहुत सुन्दर मानकर उस प्रतिबिम्ब से किन्नर और किम्पुरुष उत्पन्न किये ॥ ४५ ॥ उन्होंने ब्रह्माजी के त्याग देनेपर उनका वह प्रतिबिम्ब-शरीर ग्रहण किया। इसीलिये ये सब उष:कालमें अपनी पत्नियोंके साथ मिलकर ब्रह्माजीके गुण-कर्मादिका गान किया करते हैं ॥४६॥
एक बार ब्रह्माजी सृष्टिकी वृद्धि न होनेके कारण बहुत चिन्तित होकर हाथ-पैर आदि अवयवोंको फैलाकर लेट गये और फिर क्रोधवश उस भोगमय शरीरको त्याग दिया ॥ ४७ ॥ उससे जो बाल झडक़र गिरे, वे अहि हुए तथा उसके हाथ-पैर सिकोडक़र चलनेसे क्रूरस्वभाव सर्प और नाग हुए, जिनका शरीर फणरूपसे कंधेके पास बहुत फैला होता है ॥ ४८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                             00000000



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन

स आत्मानं मन्यमानः कृतकृत्यमिवात्मभूः ।
तदा मनून् ससर्जान्ते मनसा लोकभावनान् ॥ ४९ ॥
तेभ्यः सोऽसृजत्स्वीयं पुरं पुरुषमात्मवान् ।
तान् दृष्ट्वा ये पुरा सृष्टाः प्रशशंसुः प्रजापतिम् ॥ ५० ॥
अहो एतत् जगत्स्रष्टः सुकृतं बत ते कृतम् ।
प्रतिष्ठिताः क्रिया यस्मिन् साकं अन्नमदाम हे ॥ ५१ ॥
तपसा विद्यया युक्तो योगेन सुसमाधिना ।
ऋषीन् ऋषिः हृषीकेशः ससर्जाभिमताः प्रजाः ॥ ५२ ॥
तेभ्यश्चैकैकशः स्वस्य देहस्यांशमदादजः ।
यत्तत् समाधियोगर्द्धि तपोविद्याविरक्तिमत् ॥ ५३ ॥

एक बार ब्रह्माजीने अपनेको कृतकृत्य-सा अनुभव किया। उस समय अन्तमें उन्होंने अपने मनसे मनुओंकी सृष्टि की। ये सब प्रजाकी वृद्धि करनेवाले हैं ॥ ४९ ॥ मनस्वी ब्रह्माजीने उनके लिये अपना पुरुषाकार शरीर त्याग दिया। मनुओंको देखकर उनसे पहले उत्पन्न हुए देवता-गन्धर्वादि ब्रह्माजी की स्तुति करने लगे ॥ ५० ॥ वे बोले, ‘विश्वकर्ता ब्रह्माजी ! आपकी यह (मनुओंकी) सृष्टि बड़ी ही सुन्दर है। इसमें अग्रिहोत्र आदि सभी कर्म प्रतिष्ठित हैं। इसकी सहायतासे हम भी अपना अन्न (हविर्भाग) ग्रहण कर सकेंगे॥ ५१ ॥
फिर आदिऋषि ब्रह्माजी ने इन्द्रियसंयमपूर्वक तप, विद्या, योग और समाधि से सम्पन्न हो अपनी प्रिय सन्तान ऋषिगण की रचना की और उनमें से प्रत्येक को अपने समाधि, योग, ऐश्वर्य, तप, विद्या और वैराग्यमय शरीर का अंश दिया ॥ ५२-५३ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                                    000000000



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...