॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
कर्दमजी
की तपस्या और भगवान् का वरदान
विदुर
उवाच ।
स्वायम्भुवस्य
च मनोः अंशः परमसम्मतः ।
कथ्यतां
भगवन्यत्र मैथुनेनैधिरे प्रजाः ॥ १ ॥
प्रियव्रतोत्तानपादौ
सुतौ स्वायम्भुवस्य वै ।
यथाधर्मं
जुगुपतुः सप्तद्वीपवतीं महीम् ॥ २ ॥
तस्य
वै दुहिता ब्रह्मन् देवहूतीति विश्रुता ।
पत्नी
प्रजापतेरुक्ता कर्दमस्य त्वयानघ ॥ ३ ॥
तस्यां
स वै महायोगी युक्तायां योगलक्षणैः ।
ससर्ज
कतिधा वीर्यं तन्मे शुश्रूषवे वद ॥ ४ ॥
रुचिर्यो
भगवान् ब्रह्मन् दक्षो वा ब्रह्मणः सुतः ।
यथा
ससर्ज भूतानि लब्ध्वा भार्यां च मानवीम् ॥ ५ ॥
विदुरजीने
पूछा—भगवन् ! स्वायम्भुव मनुका वंश बड़ा आदरणीय माना गया है। उसमें मैथुन- धर्म
के द्वारा प्रजा की वृद्धि हुई थी। अब आप मुझे उसीकी कथा सुनाइये ॥ १ ॥ ब्रह्मन् !
आपने कहा था कि स्वायम्भुव मनुके पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपादने सातों
द्वीपोंवाली पृथ्वीका धर्मपूर्वक पालन किया था तथा उनकी पुत्री, जो देवहूति नामसे विख्यात थी, कर्दमप्रजापति को
ब्याही गयी थी ॥ २-३ ॥ देवहूति योगके लक्षण यमादिसे सम्पन्न थी, उससे महायोगी कर्दमजीने कितनी सन्तानें उत्पन्न कीं ? वह सब प्रसङ्ग आप मुझे सुनाइये, मुझे उसके सुननेकी
बड़ी इच्छा है ॥ ४ ॥ इसी प्रकार भगवान् रुचि और ब्रह्माजी के पुत्र दक्षप्रजापति ने
भी मनुजी की कन्याओं का पाणिग्रहण करके उन से किस प्रकार क्या-क्या सन्तान उत्पन्न
की, यह सब चरित भी मुझे सुनाइये ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
००००००००
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
कर्दमजी
की तपस्या और भगवान् का वरदान
मैत्रेय
उवाच -
प्रजाः
सृजेति भगवान् कर्दमो ब्रह्मणोदितः ।
सरस्वत्यां
तपस्तेपे सहस्राणां समा दश ॥ ६ ॥
ततः
समाधियुक्तेन क्रियायोगेन कर्दमः ।
सम्प्रपेदे
हरिं भक्त्या प्रपन्नवरदाशुषम् ॥ ७ ॥
तावत्प्रसन्नो
भगवान् पुष्कराक्षः कृते युगे ।
दर्शयामास
तं क्षत्तः शाब्दं ब्रह्म दधद्वपुः ॥ ८ ॥
स
तं विरजमर्काभं सितपद्मोत्पलस्रजम् ।
स्निग्धनीलालकव्रात
वक्त्राब्जं विरजोऽम्बरम् ॥ ९ ॥
किरीटिनं
कुण्डलिनं शङ्खचक्रगदाधरम् ।
श्वेतोत्पलक्रीडनकं
मनःस्पर्शस्मितेक्षणम् ॥ १० ॥
विन्यस्तचरणाम्भोजं
अंसदेशे गरुत्मतः ।
दृष्ट्वा
खेऽवस्थितं वक्षः श्रियं कौस्तुभकन्धरम् ॥ ११ ॥
जातहर्षोऽपतन्मूर्ध्ना
क्षितौ लब्धमनोरथः ।
गीर्भिस्त्वभ्यगृणात्प्रीति
स्वभावात्मा कृताञ्जलिः ॥ १२ ॥
मैत्रेयजीने
कहा—विदुरजी ! जब ब्रह्माजी ने भगवान् कर्दम को आज्ञा दी कि तुम संतान की
उत्पत्ति करो तो उन्होंने दस हजार वर्षोंतक सरस्वती नदीके तीरपर तपस्या की ॥ ६ ॥
वे एकाग्र चित्त से प्रेमपूर्वक पूजनोपचारद्वारा शरणागतवरदायक श्रीहरि की आराधना
करने लगे ॥ ७ ॥ तब सत्ययुग के आरम्भ में कमलनयन भगवान् श्रीहरि ने उनकी तपस्यासे
प्रसन्न होकर उन्हें अपने शब्दब्रह्ममय स्वरूप से मूर्तिमान् होकर दर्शन दिये ॥ ८
॥ भगवान्की वह भव्य मूर्ति सूर्यके समान तेजोमयी थी। वे गलेमें श्वेत कमल और
कुमुदके फूलोंकी माला धारण किये हुए थे, मुखकमल नीली और
चिकनी अलकावलीसे सुशोभित था। वे निर्मल वस्त्र धारण किये हुए थे ॥ ९ ॥ सिरपर
झिलमिलाता हुआ सुवर्णमय मुकुट, कानोंमें जगमगाते हुए कुण्डल
और कर-कमलोंमें शङ्ख, चक्र, गदा आदि
आयुध विराजमान थे। उनके एक हाथमें क्रीडाके लिये श्वेत कमल सुशोभित था। प्रभुकी
मधुर मुसकानभरी चितवन चित्तको चुराये लेती थी ॥ १० ॥ उनके चरणकमल गरुडजीके कंधोंपर
विराजमान थे तथा वक्ष:स्थलमें श्रीलक्ष्मीजी और कण्ठमें कौस्तुभमणि सुशोभित थी।
प्रभुकी इस आकाशस्थित मनोहर मूर्तिका दर्शन करके कर्दमजीको बड़ा हर्ष हुआ, मानो उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। उन्होंने सानन्द हृदयसे पृथ्वीपर
सिर टेककर भगवान्को साष्टाङ्ग प्रणाम किया और फिर प्रेमप्रवण चित्तसे हाथ जोडक़र
सुमधुर वाणीसे वे उनकी स्तुति करने लगे ॥ ११-१२ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
कर्दमजी
की तपस्या और भगवान् का वरदान
ऋषिरुवाच
-
जुष्टं
बताद्याखिलसत्त्वराशेः
सांसिध्यमक्ष्णोस्तव दर्शनान्नः ।
यद्दर्शनं
जन्मभिरीड्य सद्भिः
आशासते योगिनो रूढयोगाः ॥ १३ ॥
ये
मायया ते हतमेधसस्त्वत्
पादारविन्दं भवसिन्धुपोतम् ।
उपासते
कामलवाय तेषां
रासीश कामान् निरयेऽपि ये स्युः ॥ १४ ॥
तथा
स चाहं परिवोढुकामः
समानशीलां गृहमेधधेनुम् ।
उपेयिवान्
मूलमशेषमूलं
दुराशयः कामदुघाङ्घ्रिपस्य ॥ १५ ॥
कर्दमजीने
कहा—स्तुति करनेयोग्य परमेश्वर ! आप सम्पूर्ण सत्त्वगुणके आधार हैं। योगिजन उत्तरोत्तर
शुभ योनियोंमें जन्म लेकर अन्तमें योगस्थ होनेपर आपके दर्शनोंकी इच्छा करते हैं;
आज
आपका वही दर्शन पाकर हमें नेत्रों का फल मिल गया ॥ १३ ॥ आपके चरणकमल भवसागरसे पार
जानेके लिये जहाज हैं। जिनकी बुद्धि आपकी मायासे मारी गयी है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय-सुखोंके लिये, जो नरकमें
भी मिल सकते हैं, उन चरणोंका आश्रय लेते हैं; किन्तु स्वामिन् ! आप तो उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं ॥ १४ ॥ प्रभो
! आप कल्पवृक्ष हैं। आपके चरण समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं। मेरा हृदय काम
कलुषित है। मैं भी अपने अनुरूप स्वभाववाली और गृहस्थधर्मके पालनमें सहायक शीलवती
कन्यासे विवाह करनेके लिये आपके चरणकमलोंकी शरणमें आया हूँ ॥ १५ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
कर्दमजी
की तपस्या और भगवान् का वरदान
प्रजापतेस्ते
वचसाधीश तन्त्या
लोकः किलायं कामहतोऽनुबद्धः ।
अहं
च लोकानुगतो वहामि
बलिं च शुक्लानिमिषाय तुभ्यम् ॥ १६ ॥
लोकांश्च
लोकानुगतान् पशूंश्च
हित्वा श्रितास्ते चरणातपत्रम् ।
परस्परं
त्वद्गुणवादसीधु
पीयूषनिर्यापितदेहधर्माः ॥ १७ ॥
न
तेऽजराक्षभ्रमिरायुरेषां
त्रयोदशारं त्रिशतं षष्टिपर्व ।
षण्नेम्यनन्तच्छदि
यत्त्रिणाभि
करालस्रोतो जगदाच्छिद्य धावत् ॥ १८ ॥
सर्वेश्वर
! आप सम्पूर्ण लोकोंके अधिपति हैं। नाना प्रकारकी कामनाओंमें फँसा हुआ यह लोक आपकी
वेद-वाणीरूप डोरीमें बँधा है। धर्ममूर्ते ! उसीका अनुगमन करता हुआ मैं भी कालरूप
आपको आज्ञापालनरूप पूजोपहारादि समर्पित करता हूँ ॥ १६ ॥ प्रभो ! आपके भक्त
विषयासक्त लोगों और उन्हींके मार्गका अनुसरण करनेवाले मुझ-जैसे कर्मजड पशुओंको कुछ
भी न गिनकर आपके चरणोंकी छत्रछायाका ही आश्रय लेते हैं तथा परस्पर आपके गुणगानरूप
मादक सुधाका ही पान करके अपने क्षुधा-पिपासादि देहधर्मोंको शान्त करते रहते हैं ॥
१७ ॥ प्रभो ! यह कालचक्र बड़ा प्रबल है। साक्षात् ब्रह्म ही इसके घूमनेकी धुरी है, अधिक माससहित तेरह महीने अरे हैं, तीन सौ साठ दिन
जोड़ हैं, छ: ऋतुएँ नेमि (हाल) हैं, अनन्त
क्षण-पल आदि इसमें पत्राकार धाराएँ हैं तथा तीन चातुर्मास्य इसके आधारभूत नाभि
हैं। यह अत्यन्त वेगवान् संवत्सररूप कालचक्र चराचर जगत् की आयुका छेदन करता हुआ
घूमता रहता है, किन्तु आपके भक्तोंकी आयुका ह्रास नहीं कर
सकता ॥ १८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
कर्दमजी
की तपस्या और भगवान् का वरदान
एकः
स्वयं सन्जगतः सिसृक्षया
अद्वितीययात्मन् अधि योगमायया ।
सृजस्यदः
पासि पुनर्ग्रसिष्यसे
यथोर्णनाभिः भगवन् स्वशक्तिभिः ॥ १९ ॥
नैतद्बताधीश
पदं तवेप्सितं
यन्मायया नस्तनुषे भूतसूक्ष्मम् ।
अनुग्रहायास्त्वपि
यर्हि मायया
लसत्तुलस्या तनुवा विलक्षितः ॥ २० ॥
तं
त्वानुभूत्योपरतक्रियार्थं
स्वमायया वर्तितलोकतन्त्रम् ।
नमाम्यभीक्ष्णं
नमनीयपाद
सरोजमल्पीयसि कामवर्षम् ॥ २१ ॥
भगवन्
! जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही जालेको फैलाती, उसकी रक्षा करती और
अन्तमें उसे निगल जाती है—उसी प्रकार आप अकेले ही जगत् की
रचना करनेके लिये अपनेसे अभिन्न अपनी योगमायाको स्वीकारकर उससे अभिव्यक्त हुई अपनी
सत्त्वादि शक्तियों-द्वारा स्वयं ही इस जगत् की रचना, पालन
और संहार करते हैं ॥ १९ ॥ प्रभो ! इस समय आपने हमें अपनी तुलसीमालामण्डित, मायासे परिच्छिन्न-सी दिखायी देने वाली सगुणमूर्तिसे दर्शन दिया है। आप हम
भक्तोंको जो शब्दादि विषय-सुख प्रदान करते हैं, वे मायिक
होनेके कारण यद्यपि आपको पसंद नहीं हैं, तथापि परिणाममें
हमारा शुभ करनेके लिये वे हमें प्राप्त हों— ॥ २० ॥ नाथ ! आप
स्वरूपसे निष्क्रिय होनेपर भी मायाके द्वारा सारे संसारका व्यवहार चलानेवाले हैं
तथा थोड़ी-सी उपासना करनेवालेपर भी समस्त अभिलषित वस्तुओंकी वर्षा करते रहते हैं।
आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ
॥ २१ ॥ ।
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
कर्दमजी
की तपस्या और भगवान् का वरदान
ऋषिरुवाच
।
इत्यव्यलीकं
प्रणुतोऽब्जनाभः
तं आबभाषे वचसामृतेन ।
सुपर्णपक्षोपरि
रोचमानः
प्रेमस्मित उद्वीक्षणविभ्रमद्भ्रूः ॥ २२ ॥
श्रीभगवानुवाच
-
विदित्वा
तव चैत्यं मे पुरैव समयोजि तत् ।
यदर्थं
आत्मनियमैः त्वयैवाहं समर्चितः ॥ २३ ॥
न
वै जातु मृषैव स्यात् प्रजाध्यक्ष मदर्हणम् ।
भवद्विधेष्वतितरां
मयि सङ्गृभितात्मनाम् ॥ २४ ॥
प्रजापतिसुतः
सम्राट् मनुर्विख्यातमङ्गलः ।
ब्रह्मावर्तं
योऽधिवसन् शास्ति सप्तार्णवां महीम् ॥ २५ ॥
स
चेह विप्र राजर्षिः महिष्या शतरूपया ।
आयास्यति
दिदृक्षुस्त्वां परश्वो धर्मकोविदः ॥ २६ ॥
आत्मजां
असितापाङ्गीं वयःशीलगुणान्विताम् ।
मृगयन्तीं
पतिं दास्यति अनुरूपाय ते प्रभो ॥ २७ ॥
मैत्रेयजी
कहते हैं—भगवान्की भौंहें प्रणय मुसकानभरी चितवनसे चञ्चल हो रही थीं, वे गरुडजीके कंधेपर विराजमान थे। जब कर्दमजीने इस प्रकार निष्कपटभावसे
उनकी स्तुति की तब वे उनसे अमृतमयी वाणीसे कहने लगे ॥ २२ ॥
श्रीभगवान्ने
कहा—जिसके लिये तुमने आत्मसंयमादिके द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदयके उस भावको जानकर मैंने पहलेसे ही उसकी व्यवस्था कर दी है ॥
२३ ॥ प्रजापते ! मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती; फिर
जिनका चित्त निरन्तर एकान्तरूपसे मुझमें ही लगा रहता है, उन
तुम-जैसे महात्माओंके द्वारा की हुई उपासनाका तो और भी अधिक फल होता है ॥ २४ ॥
प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट् स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्तमें रहकर सात समुद्रवाली सारी
पृथ्वीका शासन करते हैं ॥ २५ ॥ विप्रवर ! वे परम धर्मज्ञ महाराज महारानी शतरूपाके
साथ तुमसे मिलनेके लिये परसों यहाँ आयेंगे ॥ २६ ॥ उनकी एक रूप-यौवन, शील और गुणोंसे सम्पन्न श्यामलोचना कन्या इस समय विवाहके योग्य है।
प्रजापते ! तुम सर्वथा उसके योग्य हो, इसलिये वे तुम्हींको
वह कन्या अर्पण करेंगे ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
कर्दमजी
की तपस्या और भगवान् का वरदान
समाहितं
ते हृदयं यत्र इमान् परिवत्सरान् ।
सा
त्वां ब्रह्मन् नृपवधूः काममाशु भजिष्यति ॥ २८ ॥
या
ते आत्मभृतं वीर्यं नवधा प्रसविष्यति ।
वीर्ये
त्वदीये ऋषय आधास्यन्ति अञ्जसात्मनः ॥ २९ ॥
त्वं
च सम्यग् अनुष्ठाय निदेशं मे उशत्तमः ।
मयि
तीर्थीकृताशेष क्रियार्थो मां प्रपत्स्यसे ॥ ३० ॥
कृत्वा
दयां च जीवेषु दत्त्वा चाभयमात्मवान् ।
मय्यात्मानं
सह जगद् द्रक्ष्यस्यात्मनि चापि माम् ॥ ३१ ॥
सहाहं
स्वांशकलया त्वद्वीर्येण महामुने ।
तव
क्षेत्रे देवहूत्यां प्रणेष्ये तत्त्वसंहिताम् ॥ ३२ ॥
(श्रीभगवान्
कर्दमजी से कह रहे हैं) ब्रह्मन् ! गत अनेकों वर्षोंसे तुम्हारा चित्त जैसी
भार्याके लिये समाहित रहा है, अब शीघ्र ही वह राजकन्या
तुम्हारी वैसी ही पत्नी होकर यथेष्ट सेवा करेगी ॥ २८ ॥ वह तुम्हारा वीर्य अपने
गर्भमें धारणकर उससे नौ कन्याएँ उत्पन्न करेगी और फिर तुम्हारी उन कन्याओं से
लोकरीति के अनुसार मरीचि आदि ऋषिगण पुत्र उत्पन्न करेंगे ॥ २९ ॥ तुम भी मेरी आज्ञा
का अच्छी तरह पालन करने से शुद्धचित्त हो, फिर अपने सब
कर्मों का फल मुझे अर्पण कर मुझको ही प्राप्त होओगे ॥ ३० ॥ जीवों पर दया करते हुए
तुम आत्मज्ञान प्राप्त करोगे और फिर सबको अभयदान दे अपने सहित सम्पूर्ण जगत् को मुझ
में और मुझको अपनेमें स्थित देखोगे ॥ ३१ ॥ महामुने ! मैं भी अपने अंश-कलारूपसे
तुम्हारे वीर्यद्वारा तुम्हारी पत्नी देवहूतिके गर्भमें अवतीर्ण होकर
सांख्यशास्त्रकी रचना करूँगा ॥ ३२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
०००००००
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
कर्दमजी
की तपस्या और भगवान् का वरदान
मैत्रेय
उवाच -
एवं
तं अनुभाष्याथ भगवान् प्रत्यगक्षजः ।
जगाम
बिन्दुसरसः सरस्वत्या परिश्रितात् ॥ ३३ ॥
निरीक्षतस्तस्य
ययावशेष
सिद्धेश्वराभिष्टुतसिद्धमार्गः ।
आकर्णयन्
पत्ररथेन्द्रपक्षैः
उच्चारितं स्तोममुदीर्णसाम ॥ ३४ ॥
अथ
सम्प्रस्थिते शुक्ले कर्दमो भगवान् ऋषिः ।
आस्ते
स्म बिन्दुसरसि तं कालं प्रतिपालयन् ॥ ३५ ॥
मनुः
स्यन्दनमास्थाय शातकौम्भपरिच्छदम् ।
आरोप्य
स्वां दुहितरं सभार्यः पर्यटन् महीम् ॥ ३६ ॥
तस्मिन्
सुधन्वन्नहनि भगवान् यत्समादिशत् ।
उपायादाश्रमपदं
मुनेः शान्तव्रतस्य तत् ॥ ३७ ॥
मैत्रेयजी
कहते हैं—विदुरजी ! कर्दमऋषि से इस प्रकार सम्भाषण करके, इन्द्रियोंके
अन्तर्मुख होनेपर प्रकट होनेवाले श्रीहरि सरस्वती नदीसे घिरे हुए बिन्दुसर-तीर्थसे
(जहाँ कर्दमऋषि तप कर रहे थे) अपने लोकको चले गये ॥ ३३ ॥ भगवान्के सिद्धमार्ग
(वैकुण्ठमार्ग) की सभी सिद्धेश्वर प्रशंसा करते हैं। वे कर्दमजीके देखते-देखते
अपने लोकको सिधार गये। उस समय गरुडजीके पक्षोंसे जो साम की आधारभूता ऋचाएँ निकल
रही थीं, उन्हें वे सुनते जाते थे॥३४॥
विदुरजी
! श्रीहरिके चले जानेपर भगवान् कर्दम उनके बताये हुए समयकी प्रतीक्षा करते हुए
बिन्दुसरोवरपर ही ठहरे रहे ॥ ३५ ॥ वीरवर ! इधर मनुजी भी महारानी शतरूपाके साथ
सुवर्णजटित रथपर सवार होकर तथा उसपर अपनी कन्याको भी बिठाकर पृथ्वीपर विचरते हुए, जो दिन भगवान्ने बताया था, उसी दिन शान्तिपरायण
महर्षि कर्दमके उस आश्रमपर पहुँचे ॥ ३६-३७ ॥
शेष
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000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
कर्दमजी
की तपस्या और भगवान् का वरदान
यस्मिन्भगवतो
नेत्रान् न्यपतन् अश्रुबिन्दवः ।
कृपया
सम्परीतस्य प्रपन्नेऽर्पितया भृशम् ॥ ३८ ॥
तद्वै
बिन्दुसरो नाम सरस्वत्या परिप्लुतम् ।
पुण्यं
शिवामृतजलं महर्षिगणसेवितम् ॥ ३९ ॥
पुण्यद्रुमलताजालैः
कूजत् पुण्यमृगद्विजैः ।
सर्वर्तुफलपुष्पाढ्यं
वनराजिश्रियान्वितम् ॥ ४० ॥
मत्त-द्विजगणैर्घुष्टं
मत्तभ्रमर विभ्रमम् ।
मत्त-बर्हिनटाटोपं
आह्वयन् मत्तकोकिलम् ॥ ४१ ॥
कदम्ब
चम्पकाशोक करञ्ज बकुलासनैः ।
कुन्दमन्दारकुटजैः
चूतपोतैः अलङ्कृतम् ॥ ४२ ॥
कारण्डवैः
प्लवैर्हंसैः कुररैः जलकुक्कुटैः ।
सारसैः
चक्रवाकैश्च चकोरैः वल्गु कूजितम् ॥ ४३ ॥
तथैव
हरिणैः क्रोडैः श्वावित् गवय कुञ्जरैः ।
गोपुच्छैः
हरिभिः मर्कैः नकुलैः नाभिभिर्वृतम् ॥ ४४ ॥
सरस्वतीके
जलसे भरा हुआ यह बिन्दुसरोवर वह स्थान है, जहाँ अपने शरणागत
भक्त कर्दमके प्रति उत्पन्न हुई अत्यन्त करुणाके वशीभूत हुए भगवान्के नेत्रोंसे
आँसुओंकी बूँदें गिरी थीं। यह तीर्थ बड़ा पवित्र है, इसका जल
कल्याणमय और अमृतके समान मधुर है तथा महर्षिगण सदा इसका सेवन करते हैं ॥ ३८-३९ ॥
उस समय बिन्दु-सरोवर पवित्र वृक्ष-लताओंसे घिरा हुआ था, जिनमें
तरह-तरहकी बोली बोलनेवाले पवित्र मृग और पक्षी रहते थे, वह
स्थान सभी ऋतुओंके फल और फूलोंसे सम्पन्न था और सुन्दर वनश्रेणी भी उसकी शोभा
बढ़ाती थी ॥ ४० ॥ वहाँ झुंड-के-झुंड मतवाले पक्षी चहक रहे थे, मतवाले भौंरे मँडरा रहे थे, उन्मत्त मयूर अपने पिच्छ
फैला-फैलाकर नटकी भाँति नृत्य कर रहे थे और मतवाले कोकिल कुहू-कुहू करके मानो एक
दूसरेको बुला रहे थे ॥ ४१ ॥ वह आश्रम कदम्ब, चम्पक, अशोक, करञ्ज, बकुल, असन, कुन्द, मन्दार, कुटज और नये-नये आमके वृक्षोंसे अलंकृत था ॥ ४२ ॥ वहाँ जलकाग, बत्तख आदि जलपर तैरनेवाले पक्षी हंस, कुरर, जलमुर्ग, सारस, चकवा और चकोर
मधुर स्वरसे कलरव कर रहे थे ॥ ४३ ॥ हरिन, सूअर, स्याही, नीलगाय, हाथी, लँगूर, सिंह, वानर, नेवले और कस्तूरीमृग आदि पशुओंसे भी वह आश्रम घिरा हुआ था ॥ ४४ ॥
शेष
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
कर्दमजी
की तपस्या और भगवान् का वरदान
प्रविश्य
तत्तीर्थवरं आदिराजः सहात्मजः ।
ददर्श
मुनिमासीनं तस्मिन् हुतहुताशनम् ॥ ४५ ॥
विद्योतमानं
वपुषा तपसि उग्रयुजा चिरम् ।
नातिक्षामं
भगवतः स्निग्धापाङ्गावलोकनात् ।
तद्व्याहृतामृतकला
पीयूषश्रवणेन च ॥ ४६ ॥
प्रांशुं
पद्मपलाशाक्षं जटिलं चीरवाससम् ।
उपसंश्रित्य
मलिनं यथार्हणं असंस्कृतम् ॥ ४७ ॥
अथोटजमुपायातं
नृदेवं प्रणतं पुरः ।
सपर्यया
पर्यगृह्णात् प्रतिनन्द्यानुरूपया ॥ ४८ ॥
आदिराज
महाराज मनु ने उस उत्तम तीर्थ में कन्या के सहित पहुँचकर देखा कि मुनिवर कर्दम
अग्रिहोत्र से निवृत्त होकर बैठे हुए हैं ॥ ४५ ॥ बहुत दिनों तक उग्र तपस्या करने के
कारण वे शरीर से बड़े तेजस्वी दीख पड़ते थे तथा भगवान् के स्नेहपूर्ण चितवन के
दर्शन और उनके उच्चारण किये हुए कर्णामृतरूप सुमधुर वचनों को सुनने से, इतने दिनोंतक तपस्या करनेपर भी वे विशेष दुर्बल नहीं जान पड़ते थे ॥ ४६ ॥
उनका शरीर लंबा था, नेत्र कमलदलके समान विशाल और मनोहर थे,
सिरपर जटाएँ सुशोभित थीं और कमरमें चीर-वस्त्र थे। वे निकटसे
देखनेपर बिना सानपर चढ़ी हुई महामूल्य मणिके समान मलिन जान पड़ते थे ॥ ४७ ॥ महाराज
स्वायम्भुवमनुको अपनी कुटीमें आकर प्रणाम करते देख उन्होंनें उन्हें आशीर्वादसे
प्रसन्न किया और यथोचित आतिथ्यकी रीतिसे उनका स्वागत-सत्कार किया ॥ ४८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - इक्कीसवाँ
अध्याय..(पोस्ट११)
कर्दमजी
की तपस्या और भगवान् का वरदान
गृहीतार्हणमासीनं
संयतं प्रीणयन् मुनिः ।
स्मरन्
भगवदादेशं इत्याह श्लक्ष्णया गिरा ॥ ४९ ॥
नूनं
चङ्क्रमणं देव सतां संरक्षणाय ते ।
वधाय
चासतां यस्त्वं हरेः शक्तिर्हि पालिनी ॥ ५० ॥
योऽर्केन्दु
अग्नीन्द्रवायूनां यमधर्मप्रचेतसाम् ।
रूपाणि
स्थान आधत्से तस्मै शुक्लाय ते नमः ॥ ५१ ॥
न
यदा रथमास्थाय जैत्रं मणिगणार्पितम् ।
विस्फूर्जत्
चण्डकोदण्डो रथेन त्रासयन् अघान् ॥ ५२ ॥
स्वसैन्यचरणक्षुण्णं
वेपयन् मण्डलं भुवः ।
विकर्षन्
बृहतीं सेनां पर्यटसि अंशुमानिव ॥ ५३ ॥
तदैव
सेतवः सर्वे वर्णाश्रमनिबन्धनाः ।
भगवद्
रचिता राजन् भिद्येरन् बत दस्युभिः ॥ ५४ ॥
अधर्मश्च
समेधेत लोलुपैर्व्यङ्कुशैर्नृभिः ।
शयाने
त्वयि लोकोऽयं दस्युग्रस्तो विनङ्क्ष्यति ॥ ५५ ॥
अथापि
पृच्छे त्वां वीर यदर्थं त्वं इहागतः ।
तद्वयं
निर्व्यलीकेन प्रतिपद्यामहे हृदा ॥ ५६ ॥
जब
मनुजी उनकी पूजा ग्रहण कर स्वस्थ-चित्तसे आसनपर बैठ गये, तब मुनिवर कर्दम ने भगवान्की आज्ञाका स्मरण कर उन्हें मधुर वाणीसे
प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहा— ॥ ४९ ॥ ‘देव ! आप भगवान् विष्णुकी पालनशक्तिरूप हैं, इसलिये
आपका घूमना-फिरना नि:सन्देह सज्जनोंकी रक्षा और दुष्टोंके संहारके लिये ही होता है
॥ ५० ॥ आप साक्षात् विशुद्ध विष्णुस्वरूप हैं तथा भिन्न-भिन्न कार्योंके लिये
सूर्य, चन्द्र, अग्रि, इन्द्र, वायु, यम, धर्म और वरुण आदि रूप धारण करते हैं; आपको नमस्कार
है ॥ ५१ ॥ आप मणियोंसे जड़े हुए जयदायक रथपर सवार हो, अपने
प्रचण्ड धनुषकी टङ्कार करते हुए उस रथकी घरघराहटसे ही पापियोंको भयभीत कर देते हैं
और अपनी सेनाके चरणोंसे रौंदे हुए भूमण्डलको कँपाते अपनी उस विशाल सेनाको साथ लेकर
पृथ्वीपर सूर्यके समान विचरते हैं। यदि आप ऐसा न करें तो चोर-डाकू भगवान्की बनायी
हुई वर्णाश्रमधर्मकी मर्यादाको तत्काल नष्ट कर दें तथा विषयलोलुप निरङ्कुश
मानवोंद्वारा सर्वत्र अधर्म फैल जाय। यदि आप संसारकी ओरसे निश्चिन्त हो जायँ तो यह
लोक दुराचारियोंके पंजेमें पडक़र नष्ट हो जाय ॥ ५२—५५ ॥ तो भी
वीरवर ! मैं आपसे पूछता हूँ कि इस समय यहाँ आपका आगमन किस प्रयोजनसे हुआ है ?
मेरे लिये जो आज्ञा होगी, उसे मैं निष्कपट
भावसे सहर्ष स्वीकार करूँगा ॥ ५६ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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