|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||
दस नामापराध (पोस्ट..०४)
(६) जब हम नाम-जप करते हैं तो गुरु-सेवा करनेकी क्या आवश्यकता है ? गुरुकी आज्ञापालन करनेकी क्या जरूरत है ? नाम-जप इतना कमजोर है क्या ? नाम-जपको गुरु-सेवा आदिसे बल मिलता है क्या ? नाम-जप उनके सहारे है क्या ? नाम-जपमें इतनी सामर्थ्य नहीं है जो कि गुरुकी सेवा करनी पड़े ? सहारा लेना पड़े ? इस प्रकार गुरुमें अश्रद्धा करना नामापराध है ।
वेदोंमें अश्रद्धा करनेवालेपर भी नाम महाराज प्रसन्न नहीं होते । वे तो श्रुति हैं, सबकी माँ-बाप हैं । सबको रास्ता बतानेवाली हैं । इस वास्ते वेदोंमें अश्रद्धा न करे । ऐसे शास्त्रोंमें-पुराण, शास्त्र, इतिहासमें भी अश्रद्धा न करे,तिरस्कार-अपमान न करे । सबका आदर करे । शास्त्रों में,पुराणोंमें, वेदोंमें, सन्तोंकी वाणीमें, भगवान्के नामकी महिमा भरी पड़ी है । शास्त्रों, सन्तों आदि ने जो भगवन्नामकी महिमा गायी है, यदि वह इकट्ठी की जाय तो महाभारतसे बड़ा पोथा बन जाय । इतनी महिमा गायी है फिर भी इसका अन्त नहीं है । फिर भी उनकी निन्दा करे और नामसे लाभ लेना चाहे तो कैसे होगा ?
जिन गुरु महाराजसे हमें नाम मिला है, यदि उनका निरादर करेंगे, तिरस्कार करेंगे तो नाम महाराज रुष्ट हो जायेंगे । कोई कहते हैं कि हमने गुरु किये पर वे ठीक नहीं निकले । ऐसी बात भी हो जाय तो मैं एक बात कहता हूँ कि आप उनको छोड़ दो भले ही, परन्तु निन्दा मत करो ।
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते ॥
ऐसा विधान आता है । इस वास्ते गुरुको छोड़ दो और नाम-जप करो । भगवान्के नामका जप तो करो, पर गुरुकी निन्दा मत करो । जिससे कुछ भी पाया है पारमार्थिक बातें ली हैं, जिससे लाभ हुआ है, भगवान्की तरफ रुचि हुई है,चेत हुआ है, होश हुआ है, उसकी निन्दा मत करो ।
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे
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