!! श्रीहरि :!!
प्रार्थना
हे नाथ ! तुम्हीं सबके स्वामी तुम ही सबके रखवारे हो |
तुम ही सब जग में व्याप रहे, विभु ! रूप अनेको धारे हो ||
तुम ही नभ जल थल अग्नि तुम्ही, तुम सूरज चाँद सितारे हो |
यह सभी चराचर है तुममे, तुम ही सबके ध्रुव-तारे हो ||
हम महामूढ़ अज्ञानी जन, प्रभु ! भवसागर में पूर रहे |
नहीं नेक तुम्हारी भक्ति करे, मन मलिन विषय में चूर रहे ||
सत्संगति में नहि जायँ कभी, खल-संगति में भरपूर रहे |
सहते दारुण दुःख दिवस रैन, हम सच्चे सुख से दूर रहे ||
तुम दीनबन्धु जगपावन हो, हम दीन पतित अति भारी है |
है नहीं जगत में ठौर कही, हम आये शरण तुम्हारी है ||
हम पड़े तुम्हारे है दरपर, तुम पर तन मन धन वारी है |
अब कष्ट हरो हरी, हे हमरे हम निंदित निपट दुखारी है ||
इस टूटी फूटी नैय्या को, भवसागर से खेना होगा |
फिर निज हाथो से नाथ ! उठाकर, पास बिठा लेना होगा ||
हा अशरण-शरण-अनाथ-नाथ, अब तो आश्रय देना होगा |
हमको निज चरणों का निश्चित, नित दास बना लेना होगा ||
—-श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
प्रार्थना
हे नाथ ! तुम्हीं सबके स्वामी तुम ही सबके रखवारे हो |
तुम ही सब जग में व्याप रहे, विभु ! रूप अनेको धारे हो ||
तुम ही नभ जल थल अग्नि तुम्ही, तुम सूरज चाँद सितारे हो |
यह सभी चराचर है तुममे, तुम ही सबके ध्रुव-तारे हो ||
हम महामूढ़ अज्ञानी जन, प्रभु ! भवसागर में पूर रहे |
नहीं नेक तुम्हारी भक्ति करे, मन मलिन विषय में चूर रहे ||
सत्संगति में नहि जायँ कभी, खल-संगति में भरपूर रहे |
सहते दारुण दुःख दिवस रैन, हम सच्चे सुख से दूर रहे ||
तुम दीनबन्धु जगपावन हो, हम दीन पतित अति भारी है |
है नहीं जगत में ठौर कही, हम आये शरण तुम्हारी है ||
हम पड़े तुम्हारे है दरपर, तुम पर तन मन धन वारी है |
अब कष्ट हरो हरी, हे हमरे हम निंदित निपट दुखारी है ||
इस टूटी फूटी नैय्या को, भवसागर से खेना होगा |
फिर निज हाथो से नाथ ! उठाकर, पास बिठा लेना होगा ||
हा अशरण-शरण-अनाथ-नाथ, अब तो आश्रय देना होगा |
हमको निज चरणों का निश्चित, नित दास बना लेना होगा ||
—-श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवतचर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
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