|| जय श्री हरिः ||
“ नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च |
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ||”
.................... ( पद्मपुराण उ. १४/२३)
( भगवान् कहते हैं कि हे नारद ! मैं न तो बैकुंठ में ही रहता हूँ और न योगियों के हृदय में ही रहता हूँ । मैं तो वहीं रहता हूँ, जहाँ प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन किया करते हैं । मैं सर्वदा लोगों के अन्तःकरण में विद्यमान रहता हूं ) |
श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना ही स्वीकार होती है । अतः भावना जितनी सच्ची, गहरी और पूर्ण होगी, उतना ही उसका सत्परिणाम होगा |
“ नाहं वसामि वैकुंठे योगिनां हृदये न च |
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ||”
.................... ( पद्मपुराण उ. १४/२३)
( भगवान् कहते हैं कि हे नारद ! मैं न तो बैकुंठ में ही रहता हूँ और न योगियों के हृदय में ही रहता हूँ । मैं तो वहीं रहता हूँ, जहाँ प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन किया करते हैं । मैं सर्वदा लोगों के अन्तःकरण में विद्यमान रहता हूं ) |
श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना ही स्वीकार होती है । अतः भावना जितनी सच्ची, गहरी और पूर्ण होगी, उतना ही उसका सत्परिणाम होगा |
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