बुधवार, 13 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

श्रीपरीक्षिदुवाच -
रजस्तमःस्वभावस्य ब्रह्मन् वृत्रस्य पाप्मनः ।
नारायणे भगवति कथमासीद् दृढा मतिः ॥ १ ॥
देवानां शुद्धसत्त्वानांऋषीणां चामलात्मनाम् ।
भक्तिर्मुकुन्दचरणे न प्रायेणोपजायते ॥ २ ॥
रजोभिः समसङ्‌ख्याताः पार्थिवैरिह जन्तवः ।
तेषां ये केचनेहन्ते श्रेयो वै मनुजादयः ॥ ३ ॥
प्रायो मुमुक्षवस्तेषां केचनैव द्विजोत्तम ।
मुमुक्षूणां सहस्रेषु कश्चिन् मुच्येत सिध्यति ॥ ४ ॥
मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायणः ।
सुदुर्लभः प्रशान्तात्मा कोटिष्वपि महामुने ॥ ५ ॥
वृत्रस्तु स कथं पापः सर्वलोकोपतापनः ।
इत्थं दृढमतिः कृष्ण आसीत् संग्राम उल्बणे ॥ ६ ॥
अत्र नः संशयो भूयान् श्रोतुं कौतूहलं प्रभो ।
यः पौरुषेण समरे सहस्राक्षमतोषयत् ॥ ७ ॥

राजा परीक्षित्‌ ने कहाभगवन् ! वृत्रासुर का स्वभाव तो बड़ा रजोगुणी-तमोगुणी था। वह देवताओंको कष्ट पहुँचाकर पाप भी करता ही था। ऐसी स्थिति में भगवान्‌ नारायण के चरणों में उसकी सुदृढ़ भक्ति कैसे हुई ? ॥ १ ॥ हम देखते हैं कि प्राय: शुद्ध सत्त्वमय देवता और पवित्रहृदय ऋषि भी भगवान्‌ की परम प्रेममयी अनन्य भक्तिसे वञ्चित ही रह जाते हैं। सचमुच भगवान्‌ की भक्ति बड़ी दुर्लभ है ॥ २ ॥ भगवन् ! इस जगत् के प्राणी पृथ्वी के धूलिकणों के समान ही असंख्य हैं। उनमेंसे कुछ मनुष्य आदि श्रेष्ठ जीव ही अपने कल्याणकी चेष्टा करते हैं ॥ ३ ॥ ब्रह्मन् ! उनमें भी संसारसे मुक्ति चाहनेवाले तो विरले ही होते हैं और मोक्ष चाहनेवाले हजारोंमें मुक्ति या सिद्धि-लाभ तो कोई-सा ही कर पाता है ॥ ४ ॥ महामुने ! करोड़ों सिद्ध एवं मुक्त पुरुषोंमें भी वैसे शान्तचित्त महापुरुषका मिलना तो बहुत ही कठिन है, जो एकमात्र भगवान्‌के ही परायण हो ॥ ५ ॥ ऐसी अवस्थामें वह वृत्रासुर, जो सब लोगोंको सताता था और बड़ा पापी था, उस भयङ्कर युद्धके अवसरपर भगवान्‌ श्रीकृष्णमें अपनी वृत्तियोंको इस प्रकार दृढ़तासे लगा सकाइसका क्या कारण है ? ॥ ६ ॥ प्रभो ! इस विषयमें हमें बहुत अधिक सन्देह है और सुननेका बड़ा कौतूहल भी है। अहो, वृत्रासुरका बल-पौरुष कितना महान् था कि उसने रणभूमि में देवराज इन्द्र को भी सन्तुष्ट कर दिया ॥ ७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

श्रीसूत उवाच –

परीक्षितोऽथ संप्रश्नं भगवान् बादरायणिः ।
निशम्य श्रद्दधानस्य प्रतिनन्द्य वचोऽब्रवीत् ॥ ८ ॥

श्रीशुक उवाच –

श्रृणुषु अवहितो राजन् इतिहासं इमं यथा ।
श्रुतं द्वैपायनमुखात् नारदाद् देवलादपि ॥ ९ ॥
आसीद् राजा सार्वभौमः शूरसेनेषु वै नृप ।
चित्रकेतुरिति ख्यातो यस्यासीत् कामधुङ्‌मही ॥ १० ॥
तस्य भार्यासहस्राणां सहस्राणि दशाभवन् ।
सान्तानिकश्चापि नृपो न लेभे तासु सन्ततिम् ॥ ११ ॥

सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! भगवान्‌ शुकदेवजीने परम श्रद्धालु राजर्षि परीक्षित्‌का यह श्रेष्ठ प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन करते हुए यह बात कही ॥ ८ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! तुम सावधान होकर यह इतिहास सुनो। मैंने इसे अपने पिता व्यासजी, देवर्षि नारद और महर्षि देवलके मुँहसे भी विधिपूर्वक सुना है ॥ ९ ॥ प्राचीन कालकी बात है, शूरसेन देशमें चक्रवर्ती सम्राट् महाराज चित्रकेतु राज्य करते थे। उनके राज्यमें पृथ्वी स्वयं ही प्रजाकी इच्छाके अनुसार अन्न-रस दे दिया करती थी ॥ १० ॥ उनके एक करोड़ रानियाँ थीं और ये स्वयं सन्तान उत्पन्न करनेमें समर्थ भी थे। परंतु उन्हें उनमेंसे किसीके भी गर्भसे कोई सन्तान न हुई ॥ ११ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

रूपौदार्यवयोजन्म विद्यैश्वर्यश्रियादिभिः ।
सम्पन्नस्य गुणैः सर्वैः चिन्ता वन्ध्यापतेरभूत् ॥ १२ ॥
न तस्य सम्पदः सर्वा महिष्यो वामलोचनाः ।
सार्वभौमस्य भूश्चेयं अभवन् प्रीतिहेतवः ॥ १३ ॥
तस्यैकदा तु भवनं अङ्‌गिरा भगवान् ऋषिः ।
लोकान् अनुचरन् एतान् उपागच्छद् यदृच्छया ॥ १४ ॥
तं पूजयित्वा विधिवत् प्रत्युत्थानार्हणादिभिः ।
कृतातिथ्यमुपासीदत् सुखासीनं समाहितः ॥ १५ ॥
महर्षिस्तमुपासीनं प्रश्रयावनतं क्षितौ ।
प्रतिपूज्य महाराज समाभाष्येदमब्रवीत् ॥ १६ ॥

यों महाराज चित्रकेतु को किसी बात की कमी न थी। सुन्दरता, उदारता, युवावस्था, कुलीनता, विद्या, ऐश्वर्य और सम्पत्ति आदि सभी गुणोंसे वे सम्पन्न थे। फिर भी उनकी पत्नियाँ बाँझ थीं, इसलिये उन्हें बड़ी चिन्ता रहती थी ॥ १२ ॥ वे सारी पृथ्वीके एकछत्र सम्राट् थे, बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ थीं तथा सारी पृथ्वी उनके वशमें थी। सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ उनकी सेवामें उपस्थित थीं, परंतु वे सब वस्तुएँ उन्हें सुखी न कर सकीं ॥ १३ ॥ एक दिन शाप और वरदान देने में समर्थ अङ्गिरा ऋषि स्वच्छन्दरूप से विभिन्न लोकों में विचरते हुए राजा चित्रकेतु के महल में पहुँच गये ॥ १४ ॥ राजा ने प्रत्युत्थान और अर्घ्य आदि से उनकी विधिपूर्वक पूजा की। आतिथ्य-सत्कार हो जानेके बाद जब अङ्गिरा ऋषि सुखपूर्वक आसन पर विराज गये, तब राजा चित्रकेतु भी शान्तभावसे उनके पास ही बैठ गये ॥ १५ ॥ महाराज ! महर्षि अङ्गिराने देखा कि यह राजा बहुत विनयी है और मेरे पास पृथ्वीपर बैठकर मेरी भक्ति कर रहा है। तब उन्होंने चित्रकेतुको सम्बोधित करके उसे आदर देते हुए यह बात कही ॥ १६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

अङ्‌गिरा उवाच –

अपि तेऽनामयं स्वस्ति प्रकृतीनां तथाऽऽत्मनः ।
यथा प्रकृतिभिर्गुप्तः पुमान् राजा च सप्तभिः ॥ १७ ॥
आत्मानं प्रकृतिष्वद्धा निधाय श्रेय आप्नुयात् ।
राज्ञा तथा प्रकृतयो नरदेवाहिताधयः ॥ १८ ॥
अपि दाराः प्रजामात्या भृत्याः श्रेण्योऽथ मन्त्रिणः ।
पौरा जानपदा भूपा आत्मजा वशवर्तिनः ॥ १९ ॥
यस्यात्मानुवशश्चेत्स्यात् सर्वे तद्वशगा इमे ।
लोकाः सपाला यच्छन्ति सर्वे बलिमतन्द्रिताः ॥ २० ॥
आत्मनः प्रीयते नात्मा परतः स्वत एव वा ।
लक्षयेऽलब्धकामं त्वां चिन्तया शबलं मुखम् ॥ २१ ॥
एवं विकल्पितो राजन्विदुषा मुनिनापि सः ।
प्रश्रयावनतोऽभ्याह प्रजाकामस्ततो मुनिम् ॥ २२ ॥

अङ्गिरा ऋषिने कहाराजन् ! तुम अपनी प्रकृतियोंगुरु, मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, सेना और मित्रके साथ सकुशल तो हो न ? जैसे जीव महत्तत्त्वादि सात आवरणोंसे घिरा रहता है, वैसे ही राजा भी इन सात प्रकृतियों से घिरा रहता है। उनके कुशल से ही राजाकी कुशल है ॥ १७ ॥ नरेन्द्र ! जिस प्रकार राजा अपनी उपर्युक्त प्रकृतियों के अनुकूल रहनेपर ही राज्यसुख भोग सकता है, वैसे ही प्रकृतियाँ भी अपनी रक्षाका भार राजा  पर छोडक़र सुख और समृद्धि लाभ कर सकती हैं ॥ १८ ॥ राजन् ! तुम्हारी रानियाँ, प्रजा, मन्त्री (सलाहकार), सेवक, व्यापारी, अमात्य (दीवान), नागरिक, देशवासी, मण्डलेश्वर राजा और पुत्र तुम्हारे वशमें तो हैं न ? ॥१९॥ सच्ची बात तो यह है कि जिसका मन अपने वशमें है, उसके ये सभी वशमें होते हैं। इतना ही नहीं, सभी लोक और लोकपाल भी बड़ी सावधानीसे उसे भेंट देकर उसकी प्रसन्नता चाहते हैं ॥ २० ॥ परंतु मैं देख रहा हूँ कि तुम स्वयं सन्तुष्ट नहीं हो। तुम्हारी कोई कामना अपूर्ण है। तुम्हारे मुँह पर किसी आन्तरिक चिन्ता के चिह्न झलक रहे हैं। तुम्हारे इस असन्तोष का कारण कोई और है या स्वयं तुम्हीं हो? ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! महर्षि अङ्गिरा यह जानते थे कि राजा के मन में किस बात की चिन्ता है। फिर भी उन्होंने उनसे चिन्ताके सम्बन्धमें अनेकों प्रश्र पूछे । चित्रकेतु को सन्तान की कामना थी। अत: महर्षि के पूछने पर उन्होंने विनय से झुककर निवेदन किया ॥२२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

चित्रकेतुरुवाच –

भगवन् किं न विदितं तपोज्ञानसमाधिभिः ।
योगिनां ध्वस्तपापानां बहिरन्तः शरीरिषु ॥ २३ ॥
तथापि पृच्छतो ब्रूयां ब्रह्मन् आत्मनि चिन्तितम् ।
भवतो विदुषश्चापि चोदितस्त्वदनुज्ञया ॥ २४ ॥
लोकपालैरपि प्रार्थ्याः साम्राज्यैश्वर्यसम्पदः ।
न नन्दयन्त्यप्रजं मां क्षुत्‌तृट्कामं इवापरे ॥ २५ ॥
ततः पाहि महाभाग पूर्वैः सह गतं तमः ।
यथा तरेम दुष्पारं प्रजया तद्विधेहि नः ॥ २६ ॥

सम्राट् चित्रकेतु ने कहाभगवन् ! जिन योगियोंके तपस्या, ज्ञान, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा सारे पाप नष्ट हो चुके हैंउनके लिये प्राणियोंके बाहर या भीतरकी ऐसी कौन-सी बात है, जिसे वे न जानते हों ॥ २३ ॥ ऐसा होनेपर भी जब आप सब कुछ जान-बूझकर मुझसे मेरे मनकी चिन्ता पूछ रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा और प्रेरणासे अपनी चिन्ता आपके चरणोंमें निवेदन करता हूँ ॥ २४ ॥ मुझे पृथ्वी का साम्राज्य, ऐश्वर्य और सम्पत्तियाँ, जिनके लिये लोकपाल भी लालायित रहते हैं, प्राप्त हैं । परंतु सन्तान न होने के कारण मुझे इन सुखभोगों से उसी प्रकार तनिक भी शान्ति नहीं मिल रही है, जैसे भूखे-प्यासे प्राणी को अन्न-जल के सिवा दूसरे भोगों से ॥ २५ ॥ महाभाग्यवान् महर्षे ! मैं तो दुखी हूँ ही, पिण्डदान न मिलनेकी आशङ्कासे मेरे पितर भी दुखी हो रहे हैं। अब आप हमें सन्तान-दान करके परलोकमें प्राप्त होनेवाले घोर नरकसे उबारिये और ऐसी व्यवस्था कीजिये कि मैं लोक-परलोकके सब दु:खोंसे छुटकारा पा लूँ ॥ २६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

श्रीशुक उवाच –

इत्यर्थितः स भगवान्कृपालुर्ब्रह्मणः सुतः ।
श्रपयित्वा चरुं त्वाष्ट्रं त्वष्टारमयजद् विभुः ॥ २७ ॥
ज्येष्ठा श्रेष्ठा च या राज्ञो महिषीणां च भारत ।
नाम्ना कृतद्युतिस्तस्यै यज्ञोच्छिष्टमदाद् द्विजः ॥ २८ ॥
अथाह नृपतिं राजन् भवितैकस्तवात्मजः ।
हर्षशोकप्रदस्तुभ्यं इति ब्रह्मसुतो ययौ ॥ २९ ॥
सापि तत्प्राशनादेव चित्रकेतोरधारयत् ।
गर्भं कृतद्युतिर्देवी कृत्तिकाग्नेरिवात्मजम् ॥ ३० ॥
तस्या अनुदिनं गर्भः शुक्लपक्ष इवोडुपः ।
ववृधे शूरसेनेश तेजसा शनकैर्नृप ॥ ३१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब राजा चित्रकेतुने इस प्रकार प्रार्थना की, तब सर्वसमर्थ एवं परम कृपालु ब्रह्मपुत्र भगवान्‌ अङ्गिराने त्वष्टा देवताके योग्य चरु निर्माण करके उससे उनका यजन किया ॥ २७ ॥ परीक्षित्‌ ! राजा चित्रकेतुकी रानियोंमें सबसे बड़ी और सद्गुणवती महारानी कृतद्युति थीं। महर्षि अङ्गिराने उन्हींको यज्ञका अवशेष प्रसाद दिया ॥ २८ ॥ और राजा चित्रकेतुसे कहा—‘राजन् ! तुम्हारी पत्नीके गर्भसे एक पुत्र होगा, जो तुम्हें हर्ष और शोक दोनों ही देगा।यों कहकर अङ्गिरा ऋषि चले गये ॥ २९ ॥ उस यज्ञावशेष प्रसादके खानेसे ही महारानी कृतद्युति ने महाराज चित्रकेतुके द्वारा गर्भ धारण किया, जैसे कृत्तिकाने अपने गर्भमें अग्निकुमार को धारण किया था ॥ ३० ॥ राजन् ! शूरसेन देशके राजा चित्रकेतुके तेजसे कृतद्युति का गर्भ शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान दिनोंदिन क्रमश: बढऩे लगा ॥ ३१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

अथ काल उपावृत्ते कुमारः समजायत ।
जनयन् शूरसेनानां श्रृण्वतां परमां मुदम् ॥ ३२ ॥
हृष्टो राजा कुमारस्य स्नातः शुचिरलङ्‌कृतः ।
वाचयित्वाशिषो विप्रैः कारयामास जातकम् ॥ ३३ ॥
तेभ्यो हिरण्यं रजतं वासांस्याभरणानि च ।
ग्रामान् हयान् गजान् प्रादाद् धेनूनां अर्बुदानि षट् ॥ ३४ ॥
ववर्ष कामानन्येषां पर्जन्य इव देहिनाम् ।
धन्यं यशस्यमायुष्यं कुमारस्य महामनाः ॥ ३५ ॥
कृच्छ्रलब्धेऽथ राजर्षेः तनयेऽनुदिनं पितुः ।
यथा निःस्वस्य कृच्छ्राप्ते धने स्नेहोऽन्ववर्धत ॥ ३६ ॥

तदनन्तर समय आनेपर महारानी कृतद्युतिके गर्भसे एक सुन्दर पुत्रका जन्म हुआ। उसके जन्म- का समाचार पाकर शूरसेन देश की प्रजा बहुत ही आनन्दित हुई ॥ ३२ ॥ सम्राट् चित्रकेतु के आनन्द- का तो कहना ही क्या था। वे स्नान करके पवित्र हुए। फिर उन्होंने वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो, ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर और आशीर्वाद लेकर पुत्र का जातकर्म-संस्कार करवाया ॥ ३३ ॥ उन्होंने उन ब्राह्मणोंको सोना, चाँदी, वस्त्र, आभूषण, गाँव, घोड़े, हाथी और छ: अर्बुद गौएँ दान कीं ॥ ३४ ॥ उदारशिरोमणि राजा चित्रकेतुने पुत्रके धन, यश और आयुकी वृद्धि के लिये दूसरे लोगोंको भी मुँहमाँगी वस्तुएँ दींठीक उसी प्रकार जैसे मेघ सभी जीवों का मनोरथ पूर्ण करता है ॥ ३५ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे यदि किसी कंगालको बड़ी कठिनाईसे कुछ धन मिल जाता है तो उसमें उसकी आसक्ति हो जाती है, वैसे ही बहुत कठिनाईसे प्राप्त हुए उस पुत्रमें राजर्षि चित्रकेतुका स्नेहबन्धन दिनोंदिन दृढ़ होने लगा ॥ ३६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

मातुस्त्वतितरां पुत्रे स्नेहो मोहसमुद्‍भवः ।
कृतद्युतेः सपत्‍नीनां प्रजाकामज्वरोऽभवत् ॥ ३७ ॥
चित्रकेतोः अतिप्रीतिः यथा दारे प्रजावति ।
न तथान्येषु सञ्जज्ञे बालं लालयतोऽन्वहम् ॥ ३८ ॥
ताः पर्यतप्यन् आत्मानं गर्हयन्त्योऽभ्यसूयया ।
आनपत्येन दुःखेन राज्ञोऽनादरणेन च ॥ ३९ ॥
धिगप्रजां स्त्रियं पापां पत्युश्चागृहसम्मताम् ।
सुप्रजाभिः सपत्‍नीभिः दासीमिव तिरस्कृताम् ॥ ४० ॥
दासीनां को नु सन्तापः स्वामिनः परिचर्यया ।
अभीक्ष्णं लब्धमानानां दास्या दासीव दुर्भगाः ॥ ४१ ॥

माता कृतद्युति को भी अपने पुत्र पर मोह के कारण बहुत ही स्नेह था । परंतु उनकी सौत रानियों के मनमें पुत्रकी कामनासे और भी जलन होने लगी ॥ ३७ ॥ प्रतिदिन बालकका लाड़-प्यार करते रहनेके कारण सम्राट् चित्रकेतुका जितना प्रेम बच्चेकी माँ कृतद्युतिमें था, उतना दूसरी रानियोंमें न रहा ॥ ३८ ॥ इस प्रकार एक तो वे रानियाँ सन्तान न होने के कारण ही दुखी थीं, दूसरे राजा चित्रकेतु ने उनकी उपेक्षा कर दी। अत: वे डाह से अपने को धिक्कारने और मन-ही-मन जलने लगीं ॥ ३९ ॥ वे आपसमें कहने लगीं—‘अरी बहिनो ! पुत्रहीन स्त्री बहुत ही अभागिनी होती है। पुत्रवाली सौतें तो दासीके समान उसका तिरस्कार करती हैं। और तो और, स्वयं पतिदेव ही उसे पत्नी करके नहीं मानते। सचमुच पुत्रहीन स्त्री धिक्कार के योग्य है ॥ ४० ॥ भला, दासियों को क्या दु:ख है ? वे तो अपने स्वामी की सेवा करके निरन्तर सम्मान पाती रहती हैं । परंतु हम अभागिनी तो इस समय उनसे भी गयी-बीती हो रही हैं और दासियों की दासी के समान बार-बार तिरस्कार पा रही हैं ॥ ४१ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

एवं सन्दह्यमानानां सपत्‍न्याः पुत्रसम्पदा ।
राज्ञोऽसम्मतवृत्तीनां विद्वेषो बलवानभूत् ॥ ४२ ॥
विद्वेषनष्टमतयः स्त्रियो दारुणचेतसः ।
गरं ददुः कुमाराय दुर्मर्षा नृपतिं प्रति ॥ ४३ ॥
कृतद्युतिरजानन्ती सपत्‍नीनामघं महत् ।
सुप्त एवेति सञ्चिन्त्य निरीक्ष्य व्यचरद्‍गृहे ॥ ४४ ॥
शयानं सुचिरं बालं उपधार्य मनीषिणी ।
पुत्रमानय मे भद्रे इति धात्रीमचोदयत् ॥ ४५ ॥
सा शयानमुपव्रज्य दृष्ट्वा चोत्तारलोचनम् ।
प्राणेन्द्रियात्मभिस्त्यक्तं हतास्मीत्यपतद्‍भुवि ॥ ४६ ॥
तस्यास्तदाऽऽकर्ण्य भृशातुरं स्वरं
     घ्नन्त्याः कराभ्यामुर उच्चकैरपि ।
प्रविश्य राज्ञी त्वरयाऽऽत्मजान्तिकं
     ददर्श बालं सहसा मृतं सुतम् ॥ ४७ ॥
पपात भूमौ परिवृद्धया शुचा
     मुमोह विभ्रष्टशिरोरुहाम्बरा ॥ ४८ ॥

परीक्षित्‌ ! इस प्रकार वे रानियाँ अपनी सौतकी गोद भरी देखकर जलती रहती थीं और राजा भी उनकी ओर से उदासीन हो गये थे। फलत: उनके मनमें कृतद्युतिके प्रति बहुत अधिक द्वेष हो गया ॥ ४२ ॥ द्वेषके कारण रानियोंकी बुद्धि मारी गयी। उनके चित्तमें क्रूरता छा गयी। उन्हें अपने पति चित्रकेतुका पुत्र-स्नेह सहन न हुआ। इसलिये उन्होंने चिढक़र नन्हेंसे राजकुमारको विष दे दिया ॥ ४३ ॥ महारानी कृतद्युतिको सौतोंकी इस घोर पापमयी करतूतका कुछ भी पता न था। उन्होंने दूरसे देखकर समझ लिया कि बच्चा सो रहा है। इसलिये वे महलमें इधर-उधर डोलती रहीं ॥ ४४ ॥ बुद्धिमती रानी ने यह देखकर कि बच्चा बहुत देरसे सो रहा है, धाय से कहा—‘कल्याणि ! मेरे लालको ले आ॥ ४५ ॥ धाय ने सोते हुए बालक के पास जाकर देखा कि उसके नेत्रों की पुतलियाँ उलट गयी हैं। प्राण, इन्द्रिय और जीवात्मा ने भी उसके शरीर से विदा ले ली है। यह देखते ही हाय रे ! मैं मारी गयी !इस प्रकार कहकर वह धरतीपर गिर पड़ी ॥ ४६ ॥ धाय अपने दोनों हाथों से छाती पीट-पीटकर बड़े आर्तस्वर में जोर-जोर से रोने लगी। उसका रोना सुनकर महारानी कृतद्युति जल्दी-जल्दी अपने पुत्र के शयनगृह में पहुँचीं और उन्होंने देखा कि मेरा छोटा-सा बच्चा अकस्मात् मर गया है ! ॥ ४७ ॥ तब वे अत्यन्त शोक के कारण मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ीं। उनके सिरके बाल बिखर गये और शरीरपरके वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये ॥ ४८ ॥

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वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

ततो नृपान्तःपुरवर्तिनो जना
     नराश्च नार्यश्च निशम्य रोदनम् ।
आगत्य तुल्यव्यसनाः सुदुःखिताः
     ताश्च व्यलीकं रुरुदुः कृतागसः ॥ ४९ ॥
श्रुत्वा मृतं पुत्रमलक्षितान्तकं
     विनष्टदृष्टिः प्रपतम् स्खलन्पथि ।
स्नेहानुबन्धैधितया शुचा भृशं
     विमूर्च्छितोऽनुप्रकृतिर्द्विजैर्वृतः ॥ ५० ॥
पपात बालस्य स पादमूले
     मृतस्य विस्रस्तशिरोरुहाम्बरः ।
दीर्घं श्वसन् बाष्पकलोपरोधतो
     निरुद्धकण्ठो न शशाक भाषितुम् ॥ ५१ ॥
पतिं निरीक्ष्योरुशुचार्पितं तदा
     मृतं च बालं सुतमेकसन्ततिम् ।
जनस्य राज्ञी प्रकृतेश्च हृद्रुजं
     सती दधाना विललाप चित्रधा ॥ ५२ ॥
स्तनद्वयं कुङ्‌कुमपङ्‌कमण्डितं
     निषिञ्चती साञ्जनबाष्पबिन्दुभिः ।
विकीर्य केशान्विगलत्स्रजः सुतं
     शुशोच चित्रं कुररीव सुस्वरम् ॥ ५३ ॥

तदनन्तर महारानी का रुदन सुनकर रनिवास के सभी स्त्री-पुरुष वहाँ दौड़ आये और सहानुभूतिवश अत्यन्त दुखी होकर रोने लगे। वे हत्यारी रानियाँ भी वहाँ आकर झूठमूठ रोने का ढोंग करने लगीं ॥ ४९ ॥ जब राजा चित्रकेतु को पता लगा कि मेरे पुत्र की अकारण ही मृत्यु हो गयी है, तब अत्यन्त स्नेह के कारण शोकके आवेग से उनकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। वे धीरे-धीरे अपने मन्त्रियों और ब्राह्मणों के साथ मार्ग में गिरते-पड़ते मृत बालक के पास पहुँचे और मूर्च्छित होकर उसके पैरों के पास गिर पड़े। उनके केश और वस्त्र इधर-उधर बिखर गये। वे लंबी-लंबी साँस लेने लगे। आँसुओं की अधिकता से उनका गला रुँध गया और वे कुछ भी बोल न सके ॥ ५०-५१ ॥  पतिप्राणा रानी कृतद्युति अपने पति चित्रकेतु को अत्यन्त शोकाकुल और इकलौते नन्हें-से बच्चे को मरा हुआ देख भाँति-भाँति से विलाप करने लगीं । उनका यह दु:ख देखकर मन्त्री आदि सभी उपस्थित मनुष्य शोकग्रस्त हो गये ॥ ५२ ॥ महारानी के नेत्रों से इतने आँसू बह रहे थे कि वे उनकी आँखों का अंजन लेकर केसर और चन्दन से चर्चित वक्ष:स्थल को भिगोने लगे। उनके बाल बिखर रहे थे तथा उनमें गुँथे हुए फूल गिर रहे थे। इस प्रकार वे पुत्र के लिये कुररी पक्षी के समान उच्चस्वर में विविध प्रकार से विलाप कर रही थीं ॥ ५३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

अहो विधातस्त्वमतीव बालिशो
     यस्त्वात्मसृष्ट्यप्रतिरूपमीहसे ।
परे नु जीवत्यपरस्य या मृतिः
     विपर्ययश्चेत्त्वमसि ध्रुवः परः ॥ ५४ ॥
न हि क्रमश्चेदिह मृत्युजन्मनोः
     शरीरिणामस्तु तदात्मकर्मभिः ।
यः स्नेहपाशो निजसर्गवृद्धये
     स्वयं कृतस्ते तमिमं विवृश्चसि ॥ ५५ ॥
त्वं तात नार्हसि च मां कृपणामनाथां
     त्यक्तुं विचक्ष्व पितरं तव शोकतप्तम् ।
अञ्जस्तरेम भवताप्रजदुस्तरं यद्
     ध्वान्तं न याह्यकरुणेन यमेन दूरम् ॥ ५६ ॥
उत्तिष्ठ तात त इमे शिशवो वयस्याः
     त्वां आह्वयन्ति नृपनन्दन संविहर्तुम् ।
सुप्तश्चिरं ह्यशनया च भवान् परीतो
     भुङ्‌क्ष्व स्तनं पिब शुचो हर नः स्वकानाम् ॥ ५७ ॥
नाहं तनूज ददृशे हतमङ्‌गला ते
     मुग्धस्मितं मुदितवीक्षणमाननाब्जम् ।
किं वा गतोऽस्यपुनरन्वयमन्यलोकं
     नीतोऽघृणेन न श्रृणोमि कला गिरस्ते ॥ ५८ ॥

वे (रानी कृतद्युति) कहने लगीं—‘अरे विधाता ! सचमुच तू बड़ा मूर्ख है, जो अपनी सृष्टि के प्रतिकूल चेष्टा करता है । बड़े आश्चर्य की बात है कि बूढ़े-बूढ़े तो जीते रहें और बालक मर जायँ । यदि वास्तवमें तेरे स्वभाव में ऐसी ही विपरीतता है, तब तो तू जीवों का अमर शत्रु है ॥५४॥ यदि संसार में प्राणियों के जीवन-मरण का कोई क्रम न रहे, तो वे अपने प्रारब्ध के अनुसार जन्मते-मरते रहेंगे। फिर तेरी आवश्यकता ही क्या है । तूने सम्बन्धियों में स्नेह-बन्धन तो इसीलिये डाल रखा है कि वे तेरी सृष्टि को बढ़ायें ? परंतु तू इस प्रकार बच्चों को मारकर अपने किये-कराये पर अपने हाथों पानी फेर रहा है॥ ५५ ॥ फिर वे अपने मृत पुत्र की ओर देखकर कहने लगीं—‘बेटा ! मैं तुम्हारे बिना अनाथ और दीन हो रही हूँ। मुझे छोडक़र इस प्रकार चले जाना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। तनिक आँख खोलकर देखो तो सही, तुम्हारे पिताजी तुम्हारे वियोगमें कितने शोक-सन्तप्त हो रहे हैं। बेटा ! जिस घोर नरकको नि:सन्तान पुरुष बड़ी कठिनाईसे पार कर पाते हैं, उसे हम तुम्हारे सहारे अनायास ही पार कर लेंगे। अरे बेटा ! तुम इस यमराजके साथ दूर मत जाओ। यह तो बड़ा ही निर्दयी है ॥ ५६ ॥ मेरे प्यारे लल्ला ! ओ राजकुमार ! उठो ! बेटा ! देखो, तुम्हारे साथी बालक तुम्हें खेलनेके लिये बुला रहे हैं। तुम्हें सोते-सोते बहुत देर हो गयी, अब भूख लगी होगी। उठो, कुछ खा लो। और कुछ नहीं तो मेरा दूध ही पी लो और अपने स्वजन-सम्बन्धी हमलोगोंका शोक दूर करो ॥ ५७ ॥ प्यारे लाल ! आज मैं तुम्हारे मुखारविन्दपर वह भोली-भाली मुसकराहट और आनन्दभरी चितवन नहीं देख रही हूँ। मैं बड़ी अभागिनी हूँ। हाय-हाय ! अब भी मुझे तुम्हारी सुमधुर तोतली बोली नहीं सुनायी दे रही है। क्या सचमुच निठुर यमराज तुम्हें उस परलोकमें ले गया, जहाँसे फिर कोई लौटकर नहीं आता?’ ॥ ५८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

वृत्रासुर का पूर्वचरित्र

श्रीशुक उवाच –

विलपन्त्या मृतं पुत्रं इति चित्रविलापनैः ।
चित्रकेतुर्भृशं तप्तो मुक्तकण्ठो रुरोद ह ॥ ५९ ॥
तयोर्विलपतोः सर्वे दम्पत्योस्तदनुव्रताः ।
रुरुदुः स्म नरा नार्यः सर्वमासीदचेतनम् ॥ ६० ॥
एवं कश्मलमापन्नं नष्टसंज्ञमनायकम् ।
ज्ञात्वाङ्‌गिरा नाम मुनिः आजगाम सनारदः ॥ ६१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब सम्राट् चित्रकेतु ने देखा कि मेरी रानी अपने मृत पुत्र के लिये इस प्रकार भाँति-भाँति से विलाप कर रही है, तब वे शोक से अत्यन्त सन्तप्त हो फूट-फूटकर रोने लगे ॥ ५९ ॥ राजा-रानी के इस प्रकार विलाप करनेपर उनके अनुगामी स्त्री-पुरुष भी दु:खित होकर रोने लगे। इस प्रकार सारा नगर ही शोक से अचेत-सा हो गया ॥ ६० ॥ राजन् ! महर्षि अङ्गिरा और देवर्षि नारद ने देखा कि राजा चित्रकेतु पुत्रशोक के कारण चेतनाहीन हो रहे हैं, यहाँ तक कि उन्हें समझाने वाला भी कोई नहीं है। तब वे दोनों वहाँ आये ॥ ६१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
षष्ठस्कन्धे चित्रकेतुविलापो नाम चतुर्शोऽध्या‍यः ॥ १४ ॥

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