बुधवार, 13 मार्च 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण षष्ठ स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

चित्रकेतु को अङ्गिरा और नारदजी का उपदेश

ऊचतुर्मृतकोपान्ते पतितं मृतकोपमम् ।
शोकाभिभूतं राजानं बोधयन्तौ सदुक्तिभिः ॥ १ ॥
कोऽयं स्यात् तव राजेन्द्र भवान् यमनुशोचति ।
त्वं चास्य कतमः सृष्टौ पुरेदानीमतः परम् ॥ २ ॥
यथा प्रयान्ति संयान्ति स्रोतोवेगेन वालुकाः ।
संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते तथा कालेन देहिनः ॥ ३ ॥
यथा धानासु वै धाना भवन्ति न भवन्ति च ।
एवं भूतेषु भूतानि चोदितान् ईशमायया ॥ ४ ॥
वयं च त्वं च ये चेमे तुल्यकालाश्चराचराः ।
जन्ममृत्योर्यथा पश्चात् प्राङ्‌नैवमधुनापि भोः ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! राजा चित्रकेतु शोकग्रस्त होकर मुर्देके समान अपने मृत पुत्रके पास ही पड़े हुए थे। अब महर्षि अङ्गिरा और देवर्षि नारद उन्हें सुन्दर-सुन्दर उक्तियोंसे समझाने लगे ॥ १ ॥ उन्होंने कहाराजेन्द्र ! जिसके लिये तुम इतना शोक कर रहे हो, वह बालक इस जन्म और पहलेके जन्मोंमें तुम्हारा कौन था ? उसके तुम कौन थे ? और अगले जन्मोंमें भी उसके साथ तुम्हारा क्या सम्बन्ध रहेगा ? ॥ २ ॥ जैसे जलके वेगसे बालूके कण एक-दूसरेसे जुड़ते और बिछुड़ते रहते हैं, वैसे ही समयके प्रवाहमें प्राणियोंका भी मिलन और बिछोह होता रहता है ॥ ३ ॥ राजन् ! जैसे कुछ बीजोंसे दूसरे बीज उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही भगवान्‌की मायासे प्रेरित होकर प्राणियोंसे अन्य प्राणी उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं ॥ ४ ॥ राजन् ! हम, तुम और हमलोगोंके साथ इस जगत् में जितने भी चराचर प्राणी वर्तमान हैंवे सब अपने जन्मके पहले नहीं थे और मृत्युके पश्चात् नहीं रहेंगे। इससे सिद्ध है कि इस समय भी उनका अस्तित्व नहीं है। क्योंकि सत्य वस्तु तो सब समय एक-सी रहती है ॥ ५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

चित्रकेतु को अङ्गिरा और नारदजी का उपदेश

भूतैर्भूतानि भूतेशः सृजत्यवति हन्त्यजः ।
आत्मसृष्टैरस्वतन्त्रैः अनपेक्षोऽपि बालवत् ॥ ६ ॥
देहेन देहिनो राजन् देहाद् देहोऽभिजायते ।
बीजादेव यथा बीजं देह्यर्थ इव शाश्वतः ॥ ७ ॥
देहदेहिविभागोऽयं अविवेककृतः पुरा ।
जातिव्यक्तिविभागोऽयं यथा वस्तुनि कल्पितः ॥ ८ ॥

श्रीशुक उवाच -

एवं आश्वासितो राजा चित्रकेतुर्द्विजोक्तिभिः ।
विमृज्य पाणिना वक्त्रं आधिम्लानमभाषत ॥ ९ ॥

भगवान्‌ ही समस्त प्राणियोंके अधिपति हैं। उनमें जन्म-मृत्यु अदि विकार बिलकुल नहीं है। उन्हें न किसीकी इच्छा है और न अपेक्षा। वे अपने-आप परतन्त्र प्राणियोंकी सृष्टि कर लेते हैं और उनके द्वारा अन्य प्राणियोंकी रचना, पालन तथा संहार करते हैंठीक वैसे ही जैसे बच्चे घर-घरौंदे, खेल-खिलौने बना-बनाकर बिगाड़ते रहते हैं ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌! जैसे एक बीज से दूसरा बीज उत्पन्न होता है, वैसे ही पिता की देह द्वारा माता की देह से पुत्र की देह उत्पन्न होती है। पिता-माता और पुत्र जीव के रूप में देही हैं और बाह्यदृष्टि से केवल शरीर। उनमें देही जीव घट आदि कार्योंमें पृथ्वीके समान नित्य है ॥ ७ ॥ राजन् ! जैसे एक ही मृत्तिकारूप वस्तुमें घटत्व आदि जाति और घट आदि व्यक्तियोंका विभाग केवल कल्पनामात्र है, उसी प्रकार यह देही और देहका विभाग भी अनादि एवं अविद्याकल्पित है [*] ॥ ८ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! जब महर्षि अङ्गिरा और देवर्षि नारद ने इस प्रकार राजा चित्रकेतु को समझाया-बुझाया, तब उन्होंने कुछ धीरज धारण करके शोकसे मुरझाये हुए मुख को हाथसे पोंछा और उनसे कहा॥ ९ ॥
.............................................
[*] अनित्य होनेके कारण शरीर असत्य हैं और शरीर असत्य होनेके कारण उनके भिन्न-भिन्न अभिमानी भी असत्य ही हैं। त्रिकालाबाधित सत्य तो एकमात्र परमात्मा ही है। अत: शोक करना किसी प्रकार भी उचित नहीं है।

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

चित्रकेतु को अङ्गिरा और नारदजी का उपदेश

श्रीराजोवाच -

कौ युवां ज्ञानसम्पन्नौ महिष्ठौ च महीयसाम् ।
अवधूतेन वेषेण गूढौ इह समागतौ ॥ १० ॥
चरन्ति ह्यवनौ कामं ब्राह्मणा भगवत्प्रियाः ।
मादृशां ग्राम्यबुद्धीनां बोधायोन्मत्तलिङ्‌गिनः ॥ ११ ॥
कुमारो नारद ऋभुः अङ्‌गिरा देवलोऽसितः ।
अपान्तरतमो व्यासो मार्कण्डेयोऽथ गौतमः ॥ १२ ॥
वसिष्ठो भगवान् रामः कपिलो बादरायणिः ।
दुर्वासा याज्ञवल्क्यश्च जातुकर्णस्तथाऽऽरुणिः ॥ १३ ॥
रोमशश्च्यवनो दत्त आसुरिः सपतञ्जलिः ।
ऋषिर्वेदशिरा बोध्यो मुनिः पञ्चशिखस्तथा ॥ १४ ॥
हिरण्यनाभः कौसल्यः श्रुतदेव ऋतध्वजः ।
एते परे च सिद्धेशाः चरन्ति ज्ञानहेतवः ॥ १५ ॥
तस्माद् युवां ग्राम्यपशोः मम मूढधियः प्रभू ।
अन्धे तमसि मग्नस्य ज्ञानदीप उदीर्यताम् ॥ १६ ॥

राजा चित्रकेतु बोलेआप दोनों परम ज्ञानवान् और महान् से भी महान् जान पड़ते हैं तथा अपने को अवधूतवेष में छिपाकर यहाँ आये हैं। कृपा करके बतलाइये, आपलोग हैं कौन? ॥१०॥ मैं जानता हूँ कि बहुत-से भगवान्‌ के प्यारे ब्रह्मवेत्ता मेरे-जैसे विषयासक्त प्राणियोंको उपदेश करनेके लिये उन्मत्त का-सा वेष बनाकर पृथ्वीपर स्वच्छन्द विचरण करते हैं ॥ ११ ॥ सनत्कुमार, नारद, ऋभु, अङ्गिरा, देवल, असित, अपान्तरतम व्यास, मार्कण्डेय, गौतम, वसिष्ठ, भगवान्‌ परशुराम, कपिलदेव, शुकदेव, दुर्वासा, याज्ञवल्क्य, जातूकर्ण्य, आरुणि, रोमश, च्यवन, दत्तात्रेय, आसुरि, पतञ्जलि, वेदशिरा, बोध्यमुनि, पञ्चशिरा, हिरण्यनाभ, कौसल्य, श्रुतदेव और ऋतध्वजये सब तथा दूसरे सिद्धेश्वर ऋषि-मुनि ज्ञानदान करनेके लिये पृथ्वीपर विचरते रहते हैं ॥ १२१५ ॥ स्वामियो ! मैं विषयभोगोंमें फँसा हुआ, मूढ़बुद्धि ग्राम्य पशु हूँ और अज्ञानके घोर अन्धकार में डूब रहा हूँ। आपलोग मुझे ज्ञानकी ज्योति से प्रकाशके केन्द्र में लाइये ॥ १६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

चित्रकेतु को अङ्गिरा और नारदजी का उपदेश

श्रीअङ्‌गिरा उवाच -

अहं ते पुत्रकामस्य पुत्रदोऽस्म्यङ्‌गिरा नृप ।
एष ब्रह्मसुतः साक्षात् नारदो भगवान् ऋषिः ॥ १७ ॥
इत्थं त्वां पुत्रशोकेन मग्नं तमसि दुस्तरे ।
अतदर्हमनुस्मृत्य महापुरुषगोचरम् ॥ १८ ॥
अनुग्रहाय भवतः प्राप्तौ आवां इह प्रभो ।
ब्रह्मण्यो भगवद्‍भक्तो नावसीदितुमर्हसि ॥ १९ ॥
तदैव ते परं ज्ञानं ददामि गृहमागतः ।
ज्ञात्वान्याभिनिवेशं ते पुत्रमेव ददावहम् ॥ २० ॥
अधुना पुत्रिणां तापो भवतैवानुभूयते ।
एवं दारा गृहा रायो विविधैश्वर्यसम्पदः ॥ २१ ॥
शब्दादयश्च विषयाः चला राज्यविभूतयः ।
मही राज्यं बलं कोशो भृत्यामात्याः सुहृज्जनाः ॥ २२ ॥

महर्षि अङ्गिराने कहाराजन् ! जिस समय तुम पुत्रके लिये बहुत लालायित थे, तब मैंने ही तुम्हें पुत्र दिया था। मैं अङ्गिरा हूँ। ये जो तुम्हारे सामने खड़े हैं, स्वयं ब्रह्माजीके पुत्र सर्वसमर्थ देवर्षि नारद हैं ॥ १७ ॥ जब हमलोगोंने देखा कि तुम पुत्रशोकके कारण बहुत ही घने अज्ञानान्धकारमें डूब रहे हो, तब सोचा कि तुम भगवान्‌के भक्त हो, शोक करनेयोग्य नहीं हो। अत: तुमपर अनुग्रह करनेके लिये ही हम दोनों यहाँ आये हैं। राजन् ! सच्ची बात तो यह है कि जो भगवान्‌ और ब्राह्मणोंका भक्त है, उसे किसी अवस्थामें शोक नहीं करना चाहिये ॥ १८-१९ ॥ जिस समय पहले-पहल मैं तुम्हारे घर आया था, उसी समय मैं तुम्हें परम ज्ञानका उपदेश देता; परंतु मैंने देखा कि अभी तो तुम्हारे हृदयमें पुत्रकी उत्कट लालसा है, इसलिये उस समय तुम्हें ज्ञान न देकर मैंने पुत्र ही दिया ॥ २० ॥ अब तुम स्वयं अनुभव कर रहे हो कि पुत्रवानोंको कितना दु:ख होता है। यही बात स्त्री, घर, धन, विविध प्रकारके ऐश्वर्य, सम्पत्तियाँ, शब्द-रूप-रस आदि विषय, राज्यवैभव, पृथ्वी, राज्य, सेना, खजाना, सेवक, अमात्य, सगे-सम्बन्धी, इष्ट-मित्र सब के लिये है; क्योंकि ये सब-के-सब अनित्य हैं ॥ २१-२२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

चित्रकेतु को अङ्गिरा और नारदजी का उपदेश

सर्वेऽपि शूरसेनेमे शोकमोहभयार्तिदाः ।
गन्धर्वनगरप्रख्याः स्वप्नमायामनोरथाः ॥ २३ ॥
दृश्यमाना विनार्थेन न दृश्यन्ते मनोभवाः ।
कर्मभिर्ध्यायतो नाना कर्माणि मनसोऽभवन् ॥ २४ ॥
अयं हि देहिनो देहो द्रव्यज्ञानक्रियात्मकः ।
देहिनो विविधक्लेश सन्तापकृदुदाहृतः ॥ २५ ॥
तस्मात् स्वस्थेन मनसा विमृश्य गतिमात्मनः ।
द्वैते ध्रुवार्थविश्रम्भं त्यजोपशममाविश ॥ २६ ॥

श्रीनारद उवाच -

एतां मन्त्रोपनिषदं प्रतीच्छ प्रयतो मम ।
यां धारयन् सप्तरात्राद् द्रष्टा सङ्‌कर्षणं प्रभुम् ॥ २७ ॥
यत्पादमूलमुपसृत्य नरेन्द्र पूर्वे
     शर्वादयो भ्रममिमं द्वितयं विसृज्य ।
सद्यस्तदीयमतुलानधिकं महित्वं
     प्रापुर्भवानपि परं न चिरादुपैति ॥ २८ ॥

शूरसेन ! अतएव ये सभी शोक, मोह, भय और दु:ख के कारण हैं, मन के खेल-खिलौने हैं, सर्वथा कल्पित और मिथ्या हैं; क्योंकि ये न होने पर भी दिखायी पड़ रहे हैं। यही कारण है कि ये एक क्षण दीखने पर भी दूसरे क्षण लुप्त हो जाते हैं । ये गन्धर्वनगर, स्वप्न, जादू और मनोरथ की वस्तुओं के समान सर्वथा असत्य हैं । जो लोग कर्म-वासनाओं से प्रेरित होकर विषयों का चिन्तन करते रहते हैं; उन्हीं का मन अनेक प्रकार के कर्मों की सृष्टि करता है ॥ २३-२४ ॥ जीवात्मा का यह देहजो पञ्चभूत, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों का संघात हैजीव को विविध प्रकार के क्लेश और सन्ताप देनेवाली कही जाती है ॥ २५ ॥ इसलिये तुम अपने मन को विषयों में भटकने से रोककर शान्त करो, स्वस्थ करो और फिर उस मनके द्वारा अपने वास्तविक स्वरूपका विचार करो तथा इस द्वैत-भ्रममें नित्यत्वकी बुद्धि छोडक़र परम शान्तिस्वरूप परमात्मामें स्थित हो जाओ ॥ २६ ॥
देवर्षि नारदने कहाराजन् ! तुम एकाग्रचित्त से मुझसे यह मन्त्रोपनिषद् ग्रहण करो। इसे धारण करनेसे सात रातमें ही तुम्हें भगवान्‌ सङ्कर्षणका दर्शन होगा ॥ २७ ॥ नरेन्द्र ! प्राचीन कालमें भगवान्‌ शङ्कर आदि ने श्रीसङ्कर्षणदेव के ही चरणकमलों का आश्रय लिया था । इससे उन्होंने द्वैत- भ्रम का परित्याग कर दिया और उनकी उस महिमा को प्राप्त हुए, जिससे बढक़र तो कोई है ही नहीं, समान भी नहीं है। तुम भी बहुत शीघ्र ही भगवान्‌ के उसी परमपद को प्राप्त कर लोगे ॥ २८ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे चित्रकेतुसान्त्वनं नाम पञ्चदशोऽध्या‍यः ॥ १५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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