गुरुवार, 21 मार्च 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०१)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ प्राधानिकं रहस्यम् (पोस्ट ०१)

ॐ अस्य श्रीसप्तशतीरहस्यत्रयस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप्छन्द:, महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवता यथोक्तफलावाप्त्यर्थ जपे विनियोग:। 

राजोवाच 

भगवन्नवतारा मे चण्डिकायास्त्वयोदिता:।
एतेषां प्रकृतिं ब्रह्मन् प्रधानं वक्तुमर्हसि॥1
आराध्यं यन्मया देव्या: स्वरूपं येन च द्विज।
विधिना ब्रूहि सकलं यथावत्प्रणतस्य मे॥2
ऋषिरुवाच इदं रहस्यं परममनाख्येयं प्रचक्षते।
भक्तोऽसीति न मे किञ्चित्तवावाच्यं नराधिप॥3  
सर्वस्याद्या महालक्ष्मीस्त्रिगुणा परमेश्वरी।
लक्ष्यालक्ष्यस्वरूपा सा व्याप्य कृत्स्नं व्यवस्थिता॥4

अर्थ :- ॐ सप्तशती के इन तीनों रहस्यों के नारायण ऋषि, अनुष्टुप् छन्द तथा महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती देवता हैं। शास्त्रोक्त फल की प्राप्ति के लिये जप में इनका विनियोग होता है।
राजा बोले- भगवन्! आपने चण्डिका के अवतारों की कथा मुझसे कही। ब्रह्मन्! अब इन अवतारों की प्रधान प्रकृति का निरूपण कीजिये॥1
द्विजश्रेष्ठ! मैं आपके चरणों में पडा हूँ। मुझे देवी के जिस स्वरूप की और जिस विधि से आराधना करनी है, वह सब यथार्थरूप से बतलाइये॥2
ऋषि कहते हैं-राजन्! यह रहस्य परम गोपनीय है। इसे किसी से कहने योग्य नहीं बतलाया गया है; किंतु तुम मेरे भक्त हो, इसलिये तुमसे न कहने योग्य मेरे पास कुछ भी नहीं है॥3
त्रिगुणमयी परमेश्वरी महालक्ष्मी ही सबका आदि कारण हैं। वे ही दृश्य और अदृश्यरूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके स्थित हैं॥4

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से






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