||श्रीहरि||
पुत्रगीता (पोस्ट 05)
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति।
(न मृत्युरामन्त्रयते हर्तुकामो जगत्प्रभुः।
अबुद्ध एवाक़मते मीनान् मीनग्रहो यथा॥)
युवैव धर्मशीलः स्यादनित्यं खलु जीवितम्।
कृते धर्मे भवेत् कीर्तिरिह प्रेत्य
च वै सुखम्॥१६॥
मोहेन हि समाविष्टः पुत्रदारार्थमुद्यतः।
कृत्वा कार्यमकार्यं वा पुष्टिमेषां
प्रयच्छति॥१७॥
तं पुत्रपशुसम्पन्नं व्यासक्तमनसे नरम्।
सुप्तं व्याघ्रो मृगमिव मृत्युरादाय
गच्छति॥१८॥
कौन जानता है कि किसका मृत्युकाल आज ही उपस्थित होगा?
सम्पूर्ण जगत् पर प्रभुत्व रखनेवाली मृत्यु जब किसीको हरकर ले जाना चाहती
है तो उसे पहलेसे निमन्त्रण नहीं भेजती है। जैसे मछेरे चुपकेसे आकर मछलियोंको पकड़
लेते हैं, उसी प्रकार मृत्यु भी अज्ञात रहकर ही आक्रमण करती है।
अतः युवावस्था में ही सबको धर्मका आचरण करना चाहिये; क्योंकि
जीवन निःसन्देह अनित्य है। धर्माचरण करनेसे इस लोकमें मनुष्यकी कीर्तिका विस्तार होता
है और परलोकमें भी उसे सुख मिलता है। जो मनुष्य मोहमें डूबा हुआ है, वही पुत्र और स्त्रीके लिये उद्योग करने लगता है और करने तथा न करनेयोग्य काम
करके इन सबका पालन-पोषण करता है॥ १६-१७॥
जैसे सोये हुए मृगको बाघ उठा ले जाता है,
उसी प्रकार पुत्र और पशुओंसे सम्पन्न एवं उन्हीं में मनको फँसाये रखनेवाले
मनुष्यको एक दिन मृत्यु आकर उठा ले जाती है॥ १८॥
----गीताप्रेस
गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-संग्रह’ पुस्तक (कोड
1958) से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें