॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
बुद्धेर्जागरणं
स्वप्नः सुषुप्तिरिति वृत्तयः
ता
येनैवानुभूयन्ते सोऽध्यक्षः पुरुषः परः ||२५||
एभिस्त्रिवर्णैः
पर्यस्तैर्बुद्धिभेदैः क्रियोद्भवैः
स्वरूपमात्मनो
बुध्येद्गन्धैर्वायुमिवान्वयात् ||२६||
एतद्द्वारो
हि संसारो गुणकर्मनिबन्धनः
अज्ञानमूलोऽपार्थोऽपि
पुंसः स्वप्न इवार्प्यते ||२७||
तस्माद्भवद्भिः
कर्तव्यं कर्मणां त्रिगुणात्मनाम्
बीजनिर्हरणं
योगः प्रवाहोपरमो धियः ||२८||
जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—ये तीनों बुद्धिकी वृत्तियाँ हैं । इन वृत्तियों का
जिसके द्वारा अनुभव होता है—वही सबसे अतीत, सबका साक्षी परमात्मा है ॥ २५ ॥ जैसे गन्ध से उसके आश्रय वायु का ज्ञान
होता है, वैसे ही बुद्धि की इन कर्मजन्य एवं बदलनेवाली तीनों
अवस्थाओं के द्वारा इनमें साक्षीरूप से अनुगत आत्मा को जाने ॥ २६ ॥ गुणों और
कर्मों के कारण होनेवाला जन्म-मृत्यु का यह चक्र आत्मा को शरीर और प्रकृति से
पृथक् न करने के कारण ही है। यह अज्ञानमूलक एवं मिथ्या है । फिर भी स्वप्न के समान
जीव को इसकी प्रतीति हो रही है ॥ २७ ॥ इसलिये
तुम लोगों को सब से पहले इन गुणों के अनुसार होने वाले कर्मों का बीज ही नष्ट कर
देना चाहिये । इससे बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह निवृत्त हो
जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में योग या परमात्मा से मिलन कहते हैं ॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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