॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
तत्रोपायसहस्राणामयं
भगवतोदितः
यदीश्वरे
भगवति यथा यैरञ्जसा रतिः ||२९||
गुरुशुश्रूषया
भक्त्या सर्वलब्धार्पणेन च
सङ्गेन
साधुभक्तानामीश्वराराधनेन च ||३०||
श्रद्धया
तत्कथायां च कीर्तनैर्गुणकर्मणाम्
तत्पादाम्बुरुहध्यानात्तल्लिङ्गेक्षार्हणादिभिः
||३१||
यों
तो इन त्रिगुणात्मक कर्मों की जड़ उखाड़ फेंकने के लिये अथवा बुद्धि-वृत्तियों का
प्रवाह बंद कर देने के लिये सहस्रों साधन हैं; परंतु जिस उपाय से
और जैसे सर्वशक्तिमान् भगवान् में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाय, वही उपाय सर्वश्रेष्ठ है ।
यह बात स्वयं भगवान् ने कही है ॥ २९ ॥ गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा, अपने को जो कुछ मिले वह सब प्रेम से भगवान्- को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओं का सत्सङ्ग, भगवान् की
आराधना, उनकी कथा- वार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओं का कीर्तन, उनके चरणकमलों का
ध्यान और उनके मन्दिर- मूर्ति आदि का दर्शन-पूजन आदि साधनों से भगवान् में
स्वाभाविक प्रेम हो जाता है ॥ ३०-३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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