॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
प्रह्लादजी
द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए
नारद
जी के उपदेश का वर्णन
अष्टौ
प्रकृतयः प्रोक्तास्त्रय एव हि तद्गुणाः
विकाराः
षोडशाचार्यैः पुमानेकः समन्वयात् ||२२||
देहस्तु
सर्वसङ्घातो जगत्तस्थुरिति द्विधा
अत्रैव
मृग्यः पुरुषो नेति नेतीत्यतत्त्यजन् ||२३||
अन्वयव्यतिरेकेण
विवेकेनोशतात्मना
स्वर्गस्थानसमाम्नायैर्विमृशद्भिरसत्वरैः
||२४||
आचार्यों
ने मूल प्रकृति,
महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चतन्मात्राएँ—इन आठ तत्त्वों को प्रकृति बतलाया है। उनके तीन गुण हैं—सत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलह—दस इन्द्रियाँ, एक मन और पञ्चमहाभूत । इन सब में एक
पुरुषतत्त्व अनुगत है ॥ २२ ॥ इन सब का समुदाय ही देह है । यह दो प्रकार का है—स्थावर और जङ्गम । इसी में अन्त:करण, इन्द्रिय आदि
अनात्मवस्तुओं का ‘यह आत्मा नहीं है’—इस
प्रकार बाध करते हुए आत्माको ढूँढऩा चाहिये ॥ २३ ॥ आत्मा सब में अनुगत है, परंतु है वह सब से पृथक्। इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से धीरे-धीरे संसार की
उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलयपर विचार करना चाहिये। उतावली
नहीं करनी चाहिये ॥ २४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें