शनिवार, 24 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकड़ा जाना

श्रीशुक उवाच -

आसीद् गिरिवरो राजन् त्रिकूट इति विश्रुतः ।
क्षीरोदेनावृतः श्रीमान् योजनायुतमुच्छ्रितः ॥ १ ॥
तावता विस्तृतः पर्यक्त्रिभिः श्रृङ्‌गैः पयोनिधिम् ।
दिशः खं रोचयन्नास्ते रौप्यायसहिरण्मयैः ॥ २ ॥
अन्यैश्च ककुभः सर्वा रत्‍नधातुविचित्रितैः ।
नानाद्रुमलतागुल्मैः निर्घोषैः निर्झराम्भसाम् ॥ ३ ॥
स चावनिज्यमानाङ्‌घ्रिः समन्तात् पयऊर्मिभिः ।
करोति श्यामलां भूमिं हरिन् मरकताश्मभिः ॥ ४ ॥
सिद्धचारणगन्धर्व विद्याधरमहोरगैः ।
किन्नरैः अप्सरोभिश्च क्रीडद्‌भिः जुष्टकन्दरः ॥ ५ ॥
यत्र सङ्‌गीतसन्नादैः नदद्‍गुहममर्षया ।
अभिगर्जन्ति हरयः श्लाघिनः परशंकया ॥ ६ ॥
नानारण्यपशुव्रात संकुलद्रोण्यलंकृतः ।
चित्रद्रुमसुरोद्यान कलकण्ठविहंगमः ॥ ७ ॥
सरित्सरोभिरच्छोदैः पुलिनैः मणिवालुकैः ।
देवस्त्रीमज्जनामोद सौरभाम्ब्वनिलैर्युतः ॥ ८ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! क्षीरसागर में त्रिकूट नामका एक प्रसिद्ध सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था। वह दस हजार योजन ऊँचा था ॥ १ ॥ उसकी लंबाई-चौड़ाई भी चारों ओर इतनी ही थी। उसके चाँदी, लोहे और सोने के तीन शिखरोंकी छटासे समुद्र, दिशाएँ और आकाश जगमगाते रहते थे ॥ २ ॥ और भी उसके कितने ही शिखर ऐसे थे, जो रत्नों और धातुओंकी रंग-बिरंगी छटा दिखाते हुए सब दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनमें विविध जाति के वृक्ष, लताएँ और झाडिय़ाँ थीं। झरनोंकी झर-झरसे वह गुंजायमान होता रहता था ॥ ३ ॥ सब ओरसे समुद्रकी लहरें आ-आकर उस पर्वतके निचले भागसे टकरातीं, उस समय ऐसा जान पड़ता मानो वे पर्वतराजके पाँव पखार रही हों। उस पर्वतके हरे पन्नेके पत्थरोंसे वहाँकी भूमि ऐसी साँवली हो गयी थी, जैसे उसपर हरी-भरी दूब लग रही हो ॥ ४ ॥ उसकी कन्दराओंमें सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, नाग, किन्नर और अप्सराएँ आदि विहार करनेके लिये प्राय: बने ही रहते थे ॥ ५ ॥ जब उसके संगीतकी ध्वनि चट्टानोंसे टकराकर गुफाओंमें प्रतिध्वनित होने लगती थी, तब बड़े-बड़े गर्वीले सिंह उसे दूसरे सिंहकी ध्वनि समझकर सह न पाते और अपनी गर्जनासे उसे दबा देनेके लिये और जोरसे गरजने लगते थे ॥ ६ ॥ उस पर्वत की तलहटी तरह-तरहके जंगली जानवरोंके झुंडोंसे सुशोभित रहती थी। अनेकों प्रकारके वृक्षोंसे भरे हुए देवताओंके उद्यानमें सुन्दर-सुन्दर पक्षी मधुर कण्ठसे चहकते रहते थे ॥ ७ ॥ उसपर बहुत-सी नदियाँ और सरोवर भी थे। उनका जल बड़ा निर्मल था। उनके पुलिनपर मणियोंकी बालू चमकती रहती थी। उनमें देवाङ्गनाएँ स्नान करती थीं, जिससे उनका जल अत्यन्त सुगन्धित हो जाता था। उसकी सुरभि लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती थी ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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