॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दूसरा
अध्याय..(पोस्ट०३)
ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना
तत्रैकदा तद्गिरिकाननाश्रयः
करेणुभिर्वारणयूथपश्चरन् ।
सकण्टकं कीचकवेणुवेत्रवद्
विशालगुल्मं
प्ररुजन् वनस्पतीन् ॥ २० ॥
यद्गन्धमात्राद्धरयो गजेन्द्रा
व्याघ्रादयो
व्यालमृगाः सखड्गाः ।
महोरगाश्चापि भयाद्द्रवन्ति
सगौरकृष्णाः
सरभाश्चमर्यः ॥ २१ ॥
वृका वराहा महिषर्क्षशल्या
गोपुच्छशालावृकमर्कटाश्च ।
अन्यत्र क्षुद्रा हरिणाः शशादयः
चरन्त्यभीता
यदनुग्रहेण ॥ २२ ॥
स घर्मतप्तः करिभिः करेणुभिः
वृतो
मदच्युत्कलभैरनुद्रुतः ।
गिरिं गरिम्णा परितः प्रकम्पयन्
निषेव्यमाणोऽलिकुलैर्मदाशनैः ॥ २३ ॥
सरोऽनिलं पङ्कजरेणुरूषितं
जिघ्रन्
विदूरान् मदविह्वलेक्षणः ।
वृतः स्वयूथेन तृषार्दितेन तत्
सरोवराभ्याशमथागमद् द्रुतम् ॥ २४ ॥
विगाह्य तस्मिन् अमृताम्बु निर्मलं
हेमारविन्दोत्पलरेणुवासितम् ।
पपौ निकामं निजपुष्करोद्धृतं
आत्मानमद्भिः
स्नपयन्गतक्लमः ॥ २५ ॥
स पुष्करेणोद्धृतशीकराम्बुभिः
निपाययन्
संस्नपयन्यथा गृही ।
घृणी करेणुः करभांश्च दुर्मदो
नाचष्ट
कृच्छ्रं कृपणोऽजमायया ॥ २६ ॥
उस (त्रिकूट) पर्वत के घोर जंगल में बहुत-सी हथिनियों के
साथ एक गजेन्द्र निवास करता था। वह बड़े- बड़े शक्तिशाली हाथियोंका सरदार था। एक
दिन वह उसी पर्वतपर अपनी हथिनियोंके साथ काँटेवाले कीचक, बाँस, बेंत, बड़ी-बड़ी झाडिय़ों और पेड़ोंको रौंदता हुआ घूम रहा था ॥ २०
॥ उसकी गन्धमात्रसे सिंह,
हाथी, बाघ, गैंड़े आदि हिंस्र जन्तु, नाग तथा काले-गोरे शरभ और चमरी गाय आदि डरकर भाग जाया करते थे ॥ २१ ॥ और उसकी
कृपासे भेडिय़े,
सूअर, भैंसे, रीछ,
शल्य, लंगूर तथा
कुत्ते,
बंदर, हरिन और खरगोश
आदि क्षुद्र जीव सब कहीं निर्भय विचरते रहते थे ॥ २२ ॥ उसके पीछे-पीछे हाथियोंके
छोटे-छोटे बच्चे दौड़ रहे थे। बड़े-बड़े हाथी और हथिनियाँ भी उसे घेरे हुए चल रही
थीं। उसकी धमकसे पहाड़ एकबारगी काँप उठता था। उसके गण्डस्थलसे टपकते हुए मदका पान
करनेके लिये साथ-साथ भौंरे उड़ते जा रहे थे। मदके कारण उसके नेत्र विह्वल हो रहे
थे। बड़े जोरकी धूप थी,
इसलिये वह व्याकुल हो गया और उसे तथा उसके साथियोंको प्यास
भी सताने लगी। उस समय दूरसे ही कमलके परागसे सुवासित वायुकी गन्ध सूँघकर वह उसी
सरोवरकी ओर चल पड़ा,
जिसकी शीतलता और सुगन्ध लेकर वायु आ रही थी। थोड़ी ही
देरमें वेगसे चलकर वह सरोवरके तटपर जा पहुँचा ॥ २३-२४ ॥ उस सरोवरका जल अत्यन्त
निर्मल एवं अमृतके समान मधुर था। सुनहले और अरुण कमलोंकी केसरसे वह महक रहा था। गजेन्द्रने
पहले तो उसमें घुसकर अपनी सूँड़से उठा-उठा जी भरकर जल पिया, फिर उस जलमें स्नान करके अपनी थकान मिटायी ॥ २५ ॥ गजेन्द्र
गृहस्थ पुरुषोंकी भाँति मोहग्रस्त होकर अपनी सूँड़से जलकी फुहारें छोड़-छोडक़र
साथकी हथिनियों और बच्चोंको नहलाने लगा तथा उनके मुँहमें सूँड़ डालकर जल पिलाने
लगा। भगवान्की मायासे मोहित हुआ गजेन्द्र उन्मत्त हो रहा था। उस बेचारेको इस
बातका पता ही न था कि मेरे सिरपर बहुत बड़ी विपत्ति मँडरा रही है ॥ २६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌺🌹🙏
जवाब देंहटाएंजय श्री हरि
जवाब देंहटाएंOm namo narayanay 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएं🌹🥀🌼जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
Om namo bhagvate vasudevai!
जवाब देंहटाएं