सोमवार, 26 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

श्रीबादरायणिरुवाच
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥ १ ॥

श्रीगजेन्द्र उवाच
ॐ नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम्
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥ २ ॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम्
योऽस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम् ॥ ३ ॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम्
अविद्धदृक्साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ॥ ४ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अपनी बुद्धि से ऐसा निश्चय करके गजेन्द्र ने अपने मन को हृदय में एकाग्र किया और फिर पूर्वजन्म में सीखे हुए श्रेष्ठ स्तोत्र के जप द्वारा भगवान्‌ की स्तुति करने लगा ॥ १ ॥
गजेन्द्र ने कहाजो जगत् के  मूल कारण हैं और सबके हृदय में पुरुष के रूपमें विराजमान हैं एवं समस्त जगत् के  एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसारमें चेतनता का विस्तार होता हैउन भगवान्‌ को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेमसे उनका ध्यान करता हूँ ॥ २ ॥ यह संसार उन्हींमें स्थित है, उन्हीं की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह सब होनेपर भी वे इस संसार और इसके कारणप्रकृति से सर्वथा परे हैं। उन स्वयं- प्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान्‌ की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ३ ॥ यह विश्व-प्रपञ्च उन्हींकी मायासे उनमें अध्यस्त है। यह कभी प्रतीत होता है, तो कभी नहीं। परंतु उनकी दृष्टि ज्यों-की- त्योंएक-सी रहती है। वे इसके साक्षी हैं और उन दोनोंको ही देखते रहते हैं। वे सबके मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं। कोई दूसरा उनका कारण नहीं है। वे ही समस्त कार्य और कारणोंसे अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ ४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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