गुरुवार, 17 अक्टूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

राजा बलि की स्वर्गपर विजय

एवं स विप्रार्जितयोधनार्थ-
स्तैः कल्पितस्वस्त्ययनोऽथ विप्रान्
प्रदक्षिणीकृत्य कृतप्रणामः
प्रह्लादमामन्त्र्य नमश्चकार ॥ ७ ॥
अथारुह्य रथं दिव्यं भृगुदत्तं महारथः
सुस्रग्धरोऽथ सन्नह्य धन्वी खड्गी धृतेषुधिः ॥ ८ ॥
हेमाङ्गदलसद्बाहुः स्फुरन्मकरकुण्डलः
रराज रथमारूढो धिष्ण्यस्थ इव हव्यवाट् ॥ ९ ॥
तुल्यैश्वर्यबलश्रीभिः स्वयूथैर्दैत्ययूथपैः
पिबद्भिरिव खं दृग्भिर्दहद्भिः परिधीनिव ॥ १० ॥
वृतो विकर्षन्महतीमासुरीं ध्वजिनीं विभुः
ययाविन्द्र पुरीं स्वृद्धां कम्पयन्निव रोदसी ॥ ११ ॥

इस प्रकार ब्राह्मणोंकी कृपासे युद्धकी सामग्री प्राप्त करके उनके द्वारा स्वस्तिवाचन हो जानेपर राजा बलिने उन ब्राह्मणोंकी प्रदक्षिणा की और नमस्कार किया। इसके बाद उन्होंने प्रह्लादजीसे सम्भाषण करके उनके चरणोंमें नमस्कार किया ॥ ७ ॥ फिर वे भृगुवंशी ब्राह्मणोंके दिये हुए दिव्य रथपर सवार हुए। जब महारथी-राजा बलिने कवच धारण कर धनुष, तलवार, तरकस आदि शस्त्र ग्रहण कर लिये और दादाकी दी हुई सुन्दर माला धारण कर ली, तब उनकी बड़ी शोभा हुई ॥ ८ ॥ उनकी भुजाओंमें सोनेके बाजूबंद और कानोंमें मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। उनके कारण रथपर बैठे हुए वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो अग्रिकुण्डमें अग्रि प्रज्वलित हो रही हो ॥ ९ ॥ उनके साथ उन्हींके समान ऐश्वर्य, बल और विभूतिवाले दैत्यसेनापति अपनी-अपनी सेना लेकर हो लिये। ऐसा जान पड़ता था मानो वे आकाशको पी जायँगे और अपने क्रोधभरे प्रज्वलित नेत्रोंसे समस्त दिशाओंको, क्षितिजको भस्म कर डालेंगे ॥ १० ॥ राजा बलि ने इस बहुत बड़ी आसुरी सेनाको लेकर उसका युद्धके ढंगसे सञ्चालन किया तथा आकाश और अन्तरिक्ष को कँपाते हुए सकल ऐश्वर्योंसे परिपूर्ण इन्द्रपुरी अमरावतीपर चढ़ाई की ॥ ११ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





3 टिप्‍पणियां:

  1. जय श्री सीताराम जय हो प्रभु

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  2. 🌸🥀🌺जय श्री हरि: 🙏🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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