सोमवार, 18 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

शकट-भञ्जन और तृणावर्त-उद्धार

एकदारोहमारूढं लालयन्ती सुतं सती
गरिमाणं शिशोर्वोढुं न सेहे गिरिकूटवत् ॥ १८ ॥
भूमौ निधाय तं गोपी विस्मिता भारपीडिता
महापुरुषमादध्यौ जगतामास कर्मसु ॥ १९ ॥
दैत्यो नाम्ना तृणावर्तः कंसभृत्यः प्रणोदितः
चक्रवातस्वरूपेण जहारासीनमर्भकम् ॥ २० ॥
गोकुलं सर्वमावृण्वन्मुष्णंश्चक्षूंषि रेणुभिः
ईरयन्सुमहाघोर शब्देन प्रदिशो दिशः ॥ २१ ॥
मुहूर्तमभवद्गोष्ठं रजसा तमसावृतम्
सुतं यशोदा नापश्यत्तस्मिन्न्यस्तवती यतः ॥ २२ ॥
नापश्यत्कश्चनात्मानं परं चापि विमोहितः
तृणावर्तनिसृष्टाभिः शर्कराभिरुपद्रुतः ॥ २३ ॥
इति खरपवनचक्रपांशुवर्षे
सुतपदवीमबलाविलक्ष्य माता
अतिकरुमनुस्मरन्त्यशोचद्-
भुवि पतिता मृतवत्सका यथा गौः ॥ २४ ॥
रुदितमनुनिशम्य तत्र गोप्यो
भृशमनुतप्तधियोऽश्रुपूर्णमुख्यः
रुरुदुरनुपलभ्य नन्दसूनुं
पवन उपारतपांशुवर्षवेगे ॥ २५ ॥

एक दिनकी बात है, सती यशोदाजी अपने प्यारे लल्लाको गोदमें लेकर दुलार रही थीं । सहसा श्रीकृष्ण चट्टानके समान भारी बन गये । वे उनका भार न सह सकीं ॥ १८ ॥ उन्होंने भारसे पीडि़त होकर श्रीकृष्णको पृथ्वीपर बैठा दिया । इस नयी घटनासे वे अत्यन्त चकित हो रही थीं । इसके बाद उन्होंने भगवान्‌ पुरुषोत्तमका स्मरण किया और घरके काम में लग गयीं ॥ १९ ॥
तृणावर्त नामका एक दैत्य था । वह कंसका निजी सेवक था । कंसकी प्रेरणासे ही बवंडरके रूपमें वह गोकुलमें आया और बैठे हुए बालक श्रीकृष्णको उड़ाकर आकाशमें ले गया ॥ २० ॥ उसने व्रजरजसे सारे गोकुलको ढक दिया और लोगोंकी देखनेकी शक्ति हर ली । उसके अत्यन्त भयङ्कर शब्दसे दसों दिशाएँ काँप उठीं ॥ २१ ॥ सारा व्रज दो घड़ीतक रज और तमसे ढका रहा । यशोदाजीने अपने पुत्रको जहाँ बैठा दिया था, वहाँ जाकर देखा तो श्रीकृष्ण वहाँ नहीं थे ॥ २२ ॥ उस समय तृणावर्त ने बवंडररूप से इतनी बालू उड़ा रखी थी कि सभी लोग अत्यन्त उद्विग्र और बेसुध हो गये थे । उन्हें अपना-पराया कुछ भी नहीं सूझ रहा था ॥ २३ ॥ उस जोर की आँधी और धूलकी वर्षामें अपने पुत्रका पता न पाकर यशोदाको बड़ा शोक हुआ । वे अपने पुत्रकी याद करके बहुत ही दीन हो गयीं और बछड़ेके मर जानेपर गायकी जो दशा हो जाती है, वही दशा उनकी हो गयी । वे पृथ्वीपर गिर पड़ीं ॥ २४ ॥ बवंडरके शान्त होनेपर जब धूलकी वर्षाका वेग कम हो गया, तब यशोदाजीके रोनेका शब्द सुनकर दूसरी गोपियाँ वहाँ दौड़ आयीं । नन्दनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्णको न देखकर उनके हृदय में भी बड़ा संताप हुआ, आँखों से आँसू की धारा बहने लगी । वे फूट-फूटकर रोने लगीं ॥ २५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...