॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
शकट-भञ्जन
और तृणावर्त-उद्धार
एकदारोहमारूढं
लालयन्ती सुतं सती
गरिमाणं
शिशोर्वोढुं न सेहे गिरिकूटवत् ॥ १८ ॥
भूमौ
निधाय तं गोपी विस्मिता भारपीडिता
महापुरुषमादध्यौ
जगतामास कर्मसु ॥ १९ ॥
दैत्यो
नाम्ना तृणावर्तः कंसभृत्यः प्रणोदितः
चक्रवातस्वरूपेण
जहारासीनमर्भकम् ॥ २० ॥
गोकुलं
सर्वमावृण्वन्मुष्णंश्चक्षूंषि रेणुभिः
ईरयन्सुमहाघोर
शब्देन प्रदिशो दिशः ॥ २१ ॥
मुहूर्तमभवद्गोष्ठं
रजसा तमसावृतम्
सुतं
यशोदा नापश्यत्तस्मिन्न्यस्तवती यतः ॥ २२ ॥
नापश्यत्कश्चनात्मानं
परं चापि विमोहितः
तृणावर्तनिसृष्टाभिः
शर्कराभिरुपद्रुतः ॥ २३ ॥
इति
खरपवनचक्रपांशुवर्षे
सुतपदवीमबलाविलक्ष्य
माता
अतिकरुमनुस्मरन्त्यशोचद्-
भुवि
पतिता मृतवत्सका यथा गौः ॥ २४ ॥
रुदितमनुनिशम्य
तत्र गोप्यो
भृशमनुतप्तधियोऽश्रुपूर्णमुख्यः
रुरुदुरनुपलभ्य
नन्दसूनुं
पवन
उपारतपांशुवर्षवेगे ॥ २५ ॥
एक
दिनकी बात है,
सती यशोदाजी अपने प्यारे लल्लाको गोदमें लेकर दुलार रही थीं । सहसा
श्रीकृष्ण चट्टानके समान भारी बन गये । वे उनका भार न सह सकीं ॥ १८ ॥ उन्होंने
भारसे पीडि़त होकर श्रीकृष्णको पृथ्वीपर बैठा दिया । इस नयी घटनासे वे अत्यन्त
चकित हो रही थीं । इसके बाद उन्होंने भगवान् पुरुषोत्तमका स्मरण किया और घरके काम
में लग गयीं ॥ १९ ॥
तृणावर्त
नामका एक दैत्य था । वह कंसका निजी सेवक था । कंसकी प्रेरणासे ही बवंडरके रूपमें
वह गोकुलमें आया और बैठे हुए बालक श्रीकृष्णको उड़ाकर आकाशमें ले गया ॥ २० ॥ उसने
व्रजरजसे सारे गोकुलको ढक दिया और लोगोंकी देखनेकी शक्ति हर ली । उसके अत्यन्त
भयङ्कर शब्दसे दसों दिशाएँ काँप उठीं ॥ २१ ॥ सारा व्रज दो घड़ीतक रज और तमसे ढका
रहा । यशोदाजीने अपने पुत्रको जहाँ बैठा दिया था, वहाँ जाकर
देखा तो श्रीकृष्ण वहाँ नहीं थे ॥ २२ ॥ उस समय तृणावर्त ने बवंडररूप से इतनी बालू
उड़ा रखी थी कि सभी लोग अत्यन्त उद्विग्र और बेसुध हो गये थे । उन्हें अपना-पराया
कुछ भी नहीं सूझ रहा था ॥ २३ ॥ उस जोर की आँधी और धूलकी वर्षामें अपने पुत्रका पता
न पाकर यशोदाको बड़ा शोक हुआ । वे अपने पुत्रकी याद करके बहुत ही दीन हो गयीं और
बछड़ेके मर जानेपर गायकी जो दशा हो जाती है, वही दशा उनकी हो
गयी । वे पृथ्वीपर गिर पड़ीं ॥ २४ ॥ बवंडरके शान्त होनेपर जब धूलकी वर्षाका वेग कम
हो गया, तब यशोदाजीके रोनेका शब्द सुनकर दूसरी गोपियाँ वहाँ
दौड़ आयीं । नन्दनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्णको न देखकर उनके हृदय में भी बड़ा
संताप हुआ, आँखों से आँसू की धारा बहने लगी । वे फूट-फूटकर
रोने लगीं ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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