॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छप्पनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
स्यमन्तकमणिकी
कथा, जाम्बवती और सत्यभामा
के साथ
श्रीकृष्णका विवाह
श्रीशुक उवाच
सत्राजितः स्वतनयां कृष्णाय कृतकिल्बिषः
स्यमन्तकेन मणिना स्वयमुद्यम्य दत्तवान् १
श्रीराजोवाच
सत्राजितः किमकरोद्ब्रह्मन्कृष्णस्य किल्बिषः
स्यमन्तकः कुतस्तस्य कस्माद्दत्ता सुता हरेः २
श्रीशुक उवाच
आसीत्सत्राजितः सूर्यो भक्तस्य परमः सखा
प्रीतस्तस्मै मणिं प्रादात्स च तुष्टः स्यमन्तकम् ३
स तं बिभ्रन्मणिं कण्ठे भ्राजमानो यथा रविः
प्रविष्टो द्वारकां राजन्तेजसा नोपलक्षितः ४
तं विलोक्य जना दूरात्तेजसा मुष्टदृष्टयः
दीव्यतेऽक्षैर्भगवते शशंसुः सूर्यशङ्किताः ५
नारायण नमस्तेऽस्तु शङ्खचक्रगदाधर
दामोदरारविन्दाक्ष गोविन्द यदुनन्दन ६
एष आयाति सविता त्वां दिदृक्षुर्जगत्पते
मुष्णन्गभस्तिचक्रेण नृणां चक्षूंषि तिग्मगुः ७
नन्वन्विच्छन्ति ते मार्गं त्रिलोक्यां विबुधर्षभाः
ज्ञात्वाद्य गूढं यदुषु द्रष्टुं त्वां यात्यजः प्रभो ८
श्रीशुक उवाच
निशम्य बालवचनं प्रहस्याम्बुजलोचनः
प्राह नासौ रविर्देवः सत्राजिन्मणिना ज्वलन् ९
सत्राजित्स्वगृहं श्रीमत्कृतकौतुकमङ्गलम्
प्रविश्य देवसदने मणिं विप्रैर्न्यवेशयत् १०
दिने दिने स्वर्णभारानष्टौ स सृजति प्रभो
दुर्भिक्षमार्यरिष्टानि सर्पाधिव्याधयोऽशुभाः
न सन्ति मायिनस्तत्र यत्रास्तेऽभ्यर्चितो मणिः ११
स याचितो मणिं क्वापि यदुराजाय शौरिणा
नैवार्थकामुकः प्रादाद्याच्ञाभङ्गमतर्कयन् १२
तमेकदा मणिं कण्ठे प्रतिमुच्य महाप्रभम्
प्रसेनो हयमारुह्य मृगायां व्यचरद्वने १३
प्रसेनं सहयं हत्वा मणिमाच्छिद्य केशरी
गिरिं विशन्जाम्बवता निहतो मणिमिच्छता १४
सोऽपि चक्रे कुमारस्य मणिं क्रीडनकं बिले
अपश्यन्भ्रातरं भ्राता सत्राजित्पर्यतप्यत १५
प्रायः कृष्णेन निहतो मणिग्रीवो वनं गतः
भ्राता ममेति तच्छ्रुत्वा कर्णे कर्णेऽजपन्जनाः १६
भगवांस्तदुपश्रुत्य दुर्यशो लिप्तमात्मनि
मार्ष्टुं प्रसेनपदवीमन्वपद्यत नागरैः १७
हतं प्रसेनं अश्वं च वीक्ष्य केशरिणा वने
तं चाद्रि पृष्ठे निहतमृक्षेण ददृशुर्जनाः १८
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! सत्राजित् ने
श्रीकृष्णको झूठा कलङ्क लगाया था। फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिये उसने स्वयं
स्यमन्तकमणिसहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान् श्रीकृष्ण को सौंप दी ।। १ ।।
राजा
परीक्षित्ने पूछा—भगवन् ! सत्राजित् ने भगवान्
श्रीकृष्णका क्या अपराध किया था ? उसे स्यमन्तकमणि कहाँसे
मिली ? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी ? ।। २ ।।
श्रीशुकदेवजी ने
कहा—परीक्षित् ! सत्राजित्
भगवान् सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत
बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवान् ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेमसे उसे
स्यमन्तकमणि दी थी ।। ३ ।। सत्राजित् उस मणिको गले में धारणकर ऐसा चमकने लगा,
मानो स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित् ! जब सत्राजित् द्वारका में आया,
तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके ।। ४ ।। दूरसे ही
उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेजसे चौंधिया गयीं। लोगोंने समझा कि कदाचित् स्वयं
भगवान् सूर्य आ रहे हैं। उन लोगोंने भगवान् के पास आकर उन्हें इस बातकी सूचना
दी। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे ।। ५ ।। लोगोंने कहा— ‘शङ्ख-चक्र-गदाधारी नारायण ! कमलनयन दामोदर ! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द ! आपको
नमस्कार है ।। ६ ।। जगदीश्वर ! देखिये ! अपनी चमकीली किरणोंसे लोगोंके नेत्रोंको
चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान् सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं ।। ७ ।।
प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकीमें आपकी प्राप्तिका मार्ग ढूँढ़ते रहते हैं;
किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंशमें छिपा हुआ जानकर स्वयं
सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं’ ।। ८ ।।
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! अनजान पुरुषों की
यह बात सुनकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा—‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजित् है,
जो मणिके कारण इतना चमक रहा है’ ।। ९ ।। इसके
बाद सत्राजित् अपने समृद्ध घरमें चला आया। घरपर उसके शुभागमन के उपलक्ष्यमें
मङ्गल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों के द्वारा स्यमन्तकमणि को एक
देवमन्दिरमें स्थापित करा दिया ।। १० ।। परीक्षित् ! वह मणि प्रतिदिन आठ भार[*]
सोना दिया करती थी । और
जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीडा, सर्पभय,
मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ
नहीं होता था ।। ११ ।। एक बार भगवान् श्रीकृष्ण ने प्रसङ्गवश कहा—‘सत्राजित् ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।’ परंतु
वह इतना अर्थलोलुप—लोभी था कि भगवान् की आज्ञाका उल्लङ्घन
होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया ।। १२
।।
एक दिन
सत्राजित् के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गलेमें धारण कर लिया और
फिर वह घोड़ेपर सवार होकर शिकार खेलने वनमें चला गया ।। १३ ।। वहाँ एक सिंह ने
घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणिको छीन लिया। वह अभी पर्वतकी गुफामें
प्रवेश कर ही रहा था कि मणिके लिये ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला ।। १४ ।।
उन्होंने वह मणि अपनी गुफामें ले जाकर बच्चेको खेलनेके लिये दे दी। अपने भाई
प्रसेनके न लौटनेसे उसके भाई सत्राजित्- को बड़ा दु:ख हुआ ।। १५ ।। वह कहने लगा, ‘बहुत सम्भव है श्रीकृष्णने ही मेरे भाईको
मार डाला हो। क्योंकि वह मणि गलेमें डालकर वनमें गया था। सत्राजित् की यह बात
सुनकर लोग आपसमें काना-फूँसी करने लगे ।। १६ ।। जब भगवान् श्रीकृष्णने सुना कि यह
कलङ्क का टीका मेरे ही सिर लगाया गया है, तब वे उसे
धो-बहानेके उद्देश्यसे नगरके कुछ सभ्य पुरुषोंको साथ लेकर प्रसेनको ढूँढऩेके लिये
वनमें गये ।। १७ ।। वहाँ खोजते-खोजते लोगोंने देखा कि घोर जंगलमें ङ्क्षसहने
प्रसेन और उसके घोड़ेको मार डाला है। जब वे लोग ङ्क्षसहके पैरोंका चिह्न देखते हुए
आगे बढ़े, तब उन लोगोंने यह भी देखा कि पर्वतपर एक रीछ ने सिंह
को भी मार डाला है ।। १८ ।।
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[*] भार का
परिमाण इस प्रकार है—
चतुर्भीव्रीहिर्भिर्गुञ्जं गुञ्जान्पञ्च पणं
पणान् ।।
अष्टौ
धरणमष्टौ च कर्षं तांश्चतुर: पलम् ।।
तुलां पलशतं
प्राहुर्भारं स्याद्विंशतिस्तुला: ।।
अर्थात् ‘चार व्रीहि (धान)की एक गुञ्जा, पाँच गुञ्जा का एक पण, आठ पण का एक धरण, आठ धरणका एक कर्ष, चार कर्ष का एक पल, सौ पलकी एक तुला और बीस तुला का एक भार कहलाता है।’
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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