॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)— छप्पनवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
स्यमन्तकमणिकी
कथा, जाम्बवती और सत्यभामा
के साथ
श्रीकृष्णका विवाह
ऋक्षराजबिलं भीममन्धेन तमसावृतम्
एको विवेश भगवानवस्थाप्य बहिः प्रजाः १९
तत्र दृष्ट्वा मणिप्रेष्ठं बालक्रीडनकं कृतम्
हर्तुं कृतमतिस्तस्मिन्नवतस्थेऽर्भकान्तिके २०
तमपूर्वं नरं दृष्ट्वा धात्री चुक्रोश भीतवत्
तच्छ्रुत्वाभ्यद्रवत्क्रुद्धो जाम्बवान्बलिनां वरः २१
स वै भगवता तेन युयुधे स्वामिनाऽऽत्मनः
पुरुषं प्राकृतं मत्वा कुपितो नानुभाववित् २२
द्वन्द्वयुद्धं सुतुमुलमुभयोर्विजिगीषतोः
आयुधाश्मद्रुमैर्दोर्भिः क्रव्यार्थे श्येनयोरिव २३
आसीत्तदष्टाविंशाहमितरेतरमुष्टिभिः
वज्रनिष्पेषपरुषैरविश्रममहर्निशम् २४
कृष्णमुष्टिविनिष्पात निष्पिष्टाङ्गोरु बन्धनः
क्षीणसत्त्वः स्विन्नगात्रस्तमाहातीव विस्मितः २५
जाने त्वां सर्वभूतानां प्राण ओजः सहो बलम्
विष्णुं पुराणपुरुषं प्रभविष्णुमधीश्वरम् २६
त्वं हि विश्वसृजां स्रष्टा सृष्टानामपि यच्च सत्
कालः कलयतामीशः पर आत्मा तथात्मनाम् २७
यस्येषदुत्कलितरोषकटाक्षमोक्षैर्
वर्त्मादिशत्क्षुभितनक्रतिमिङ्गलोऽब्धिः
सेतुः कृतः स्वयश उज्ज्वलिता च लङ्का
रक्षःशिरांसि भुवि पेतुरिषुक्षतानि २८
इति विज्ञातविज्ञानमृक्षराजानमच्युतः
व्याजहार महाराज भगवान्देवकीसुतः २९
अभिमृश्यारविन्दाक्षः पाणिना शंकरेण तम्
कृपया परया भक्तं मेघगम्भीरया गिरा ३०
मणिहेतोरिह प्राप्ता वयमृक्षपते बिलम्
मिथ्याभिशापं प्रमृजन्नात्मनो मणिनामुना ३१
इत्युक्तः स्वां दुहितरं कन्यां जाम्बवतीं मुदा
अर्हणार्थं स मणिना कृष्णायोपजहार ह ३२
अदृष्ट्वा निर्गमं शौरेः प्रविष्टस्य बिलं जनाः
प्रतीक्ष्य द्वादशाहानि दुःखिताः स्वपुरं ययुः ३३
निशम्य देवकी देवी रुक्मिण्यानकदुन्दुभिः
सुहृदो ज्ञातयोऽशोचन्बिलात्कृष्णमनिर्गतम् ३४
सत्राजितं शपन्तस्ते दुःखिता द्वारकौकसः
उपतस्थुश्चन्द्र भागां दुर्गां कृष्णोपलब्धये ३५
तेषां तु देव्युपस्थानात्प्रत्यादिष्टाशिषा स च
प्रादुर्बभूव सिद्धार्थः सदारो हर्षयन्हरिः ३६
उपलभ्य हृषीकेशं मृतं पुनरिवागतम्
सह पत्न्या मणिग्रीवं सर्वे जातमहोत्सवाः ३७
सत्राजितं समाहूय सभायां राजसन्निधौ
प्राप्तिं चाख्याय भगवान्मणिं तस्मै न्यवेदयत् ३८
स चातिव्रीडितो रत्नं गृहीत्वावाङ्मुखस्ततः
अनुतप्यमानो भवनमगमत्स्वेन पाप्मना ३९
सोऽनुध्यायंस्तदेवाघं बलवद्विग्रहाकुलः
कथं मृजाम्यात्मरजः प्रसीदेद्वाच्युतः कथम् ४०
किं कृत्वा साधु मह्यं स्यान्न शपेद्वा जनो यथा
अदीर्घदर्शनं क्षुद्रं मूढं द्रविणलोलुपम् ४१
दास्ये दुहितरं तस्मै स्त्रीरत्नं रत्नमेव च
उपायोऽयं समीचीनस्तस्य शान्तिर्न चान्यथा ४२
एवं व्यवसितो बुद्ध्या सत्राजित्स्वसुतां शुभाम्
मणिं च स्वयमुद्यम्य कृष्णायोपजहार ह ४३
तां सत्यभामां भगवानुपयेमे यथाविधि
बहुभिर्याचितां शील रूपौदार्यगुणान्विताम् ४४
भगवानाह न मणिं प्रतीच्छामो वयं नृप
तवास्तां देवभक्तस्य वयं च फलभागिनः ४५
भगवान् श्रीकृष्ण
ने सब लोगोंको बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराजकी
भयङ्कर गुफामें प्रवेश किया ।। १९ ।। भगवान् ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि
स्यमन्तक को बच्चोंका खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेनेकी इच्छासे बच्चेके
पास जा खड़े हुए ।। २० ।। उस गुफामें एक अपरिचित मनुष्यको देखकर बच्चेकी धाय
भयभीतकी भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान् क्रोधित
होकर वहाँ दौड़ आये ।। २१ ।। परीक्षित् ! जाम्बवान् उस समय कुपित हो रहे थे।
उन्हें भगवान् की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला।
उन्होंने उन्हें एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान् श्रीकृष्णसे
युद्ध करने लगे ।। २२ ।। जिस प्रकार मांस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं,
वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान् श्रीकृष्ण और जाम्बवान् आपसमें घमासान
युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्र प्रहार किया, फिर शिलाओंका। तत्पश्चात् वे वृक्ष उखाडक़र एक-दूसरे पर फेंकने लगे।
अन्तमें उनमें बाहुयुद्ध होने लगा ।। २३ ।। परीक्षित् ! वज्र-प्रहारके समान कठोर
घूसों से आपस में वे अठाईस दिनतक बिना विश्राम किये रात-दिन लड़ते रहे ।। २४ ।। अन्तमें
भगवान् श्रीकृष्णके घूसों की चोटसे जाम्बवान्के शरीरकी एक-एक गाँठ टूट-फूट गयी।
उत्साह जाता रहा। शरीर पसीनेसे लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यन्त विस्मित—चकित होकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा— ।। २५ ।। ‘प्रभो ! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियोंके स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान् विष्णु हैं। आप ही सबके
प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल
हैं ।। २६ ।। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदिको भी बनानेवाले हैं। बनाये हुए
पदार्थोंमें भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के जितने भी अवयव हैं,
उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर-भेदसे भिन्न-भिन्न प्रतीयमान
अन्तरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं ।। २७ ।। प्रभो ! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक-सा क्रोधका भाव लेकर तिरछी दृष्टिसे समुद्र की
ओर देखा था। उस समय समुद्रके अंदर रहनेवाले बड़े-बड़े नाक (घडिय़ाल) और मगरमच्छ
क्षुब्ध हो गये थे और समुद्रने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उसपर सेतु बाँधकर
सुन्दर यशकी स्थापना की तथा लङ्का का विध्वंस किया। आपके बाणोंसे कट-कटकर
राक्षसोंके सिर पृथ्वीपर लोट रहे थे। (अवश्य ही आप मेरे वे ही ‘रामजी’ श्रीकृष्णके रूपमें आये हैं)’ ।। २८ ।। परीक्षित् ! जब ऋक्षराज जाम्बवान् ने भगवान् को पहचान लिया,
तब कमलनयन श्रीकृष्णने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके
शरीरपर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपासे भरकर प्रेम गम्भीर वाणीसे अपने भक्त
जाम्बवान् जी से कहा— ।। २९-३० ।। ‘ऋक्षराज
! हम मणिके लिये ही तुम्हारी इस गुफामें आये हैं। इस मणिके द्वारा मैं अपने पर लगे
झूठे कलङ्क को मिटाना चाहता हूँ’ ।। ३१ ।। भगवान्के ऐसा
कहनेपर जाम्बवान्ने बड़े आनन्द से उनकी पूजा करनेके लिये अपनी कन्या कुमारी
जाम्बवती को मणिके साथ उनके चरणोंमें समर्पित कर दिया ।। ३२ ।।
भगवान्
श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफाके बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिनतक उनकी प्रतीक्षा की। परंतु जब उन्होंने
देखा कि अबतक वे गुफामेंसे नहीं निकले, तब वे अत्यन्त दुखी
होकर द्वारका को लौट गये ।। ३३ ।। वहाँ जब माता देवकी, रुक्मिणी,
वसुदेवजी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि
श्रीकृष्ण गुफामें से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ ।।
३४ ।। सभी द्वारकावासी अत्यन्त दु:खित होकर सत्राजित् को भला-बुरा कहने लगे और
भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्तिके लिये महामाया दुर्गादेवीकी शरणमें गये, उनकी उपासना करने लगे ।। ३५ ।। उनकी उपासनासे दुर्गादेवी प्रसन्न हुर्ईं
और उन्होंने आर्शीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीचमें मणि और अपनी नववधू जाम्बवतीके
साथ सफलमनोरथ होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये ।। ३६ ।। सभी
द्वारकावासी भगवान् श्रीकृष्णको पत्नीके साथ और गलेमें मणि धारण किये हुए देखकर
परमानन्दमें मग्र हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो ।। ३७ ।।
तदनन्तर
भगवान्ने सत्राजित् को राजसभामें महाराज
उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि
सत्राजित्को सौंप दी ।। ३८ ।। सत्राजित् अत्यन्त लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली,
परंतु उसका मुँह नीचेकी ओर लटक गया। अपने अपराधपर उसे बड़ा
पश्चात्ताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा ।। ३९
।। उसके मनकी आँखोंके सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान् के साथ विरोध
करनेके कारण वह भयभीत भी हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि ‘मैं अपने अपराधका मार्जन कैसे करूँ ? मुझपर भगवान्
श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों ।। ४० ।। मैं ऐसा कौन-सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसें नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी,
क्षुद्र हूँ। धनके लोभसे मैं बड़ी मूढ़ताका काम कर बैठा ।। ४१ ।। अब
मैं रमणियोंमें रत्नके समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमन्तकमणि दोनों ही
श्रीकृष्णको दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसीसे मेरे अपराधका मार्जन हो सकता है,
और कोई उपाय नहीं है’ ।। ४२ ।। सत्राजित् ने अपनी
विवेक-बुद्धिसे ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिये उद्योग किया और अपनी कन्या तथा
स्यमन्तकमणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्णको अर्पण कर दीं ।। ४३ ।। सत्यभामा
शील-स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि
सद्गुणोंसे सम्पन्न थीं। बहुतसे लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिलें और उन
लोगोंने उन्हें माँगा भी था। परंतु अब भगवान् श्रीकृष्णने विधिपूर्वक उनका
पाणिग्रहण किया ।। ४४ ।। परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्णने सत्राजित्से कहा—‘हम स्यमन्तकमणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान् के भक्त हैं, इसलिये वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फलके, अर्थात्
उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें’ ।। ४५ ।।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे उत्तरार्धे स्यमन्तकोपाख्याने
षट्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण
(विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535
से
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें