मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) छठा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

छठा अध्याय  (पोस्ट 01)

 

कालनेमि के अंश से उत्पन्न कंस के महान् बल-पराक्रम और दिग्विजय का वर्णन

 

श्रीबहुलाश्व उवाच -
कंसः कोऽयं दैत्यो महाबलपराक्रमः ।
तस्य जन्मानि कर्माणि ब्रूहि देवर्षिसत्तम ॥१॥


श्रीनारद उवाच -
समुद्रमथने पूर्वं कालनेमिर्महासुरः ।
युयुधे विष्णुना सार्द्धं युद्धे तेन हतो बलात् ॥२॥
शुक्रेण जीवितस्तत्र संजीविन्या च विद्यया ।
पुनर्विष्णुं योद्धुकाम उद्योगं मनसाकरोत् ॥३॥
तपस्तेपे तदा दैत्यो मन्दराचलसन्निधौ ।
नित्यं दूर्वारसं पीत्वा भजन्देवं पितामहम् ॥४॥
दिव्येषु शतवर्षेषु व्यतीतेषु पितामहः ।
अस्थिशेषं सवल्मीकं वरं ब्रूहीत्युवाच तम् ॥५॥
ब्रह्माण्डे ये स्थिता देवा विष्णुमूला महाबलाः ।
तेषां हस्तैर्न मे मृत्युः पूर्णानामपि मा भवेत् ॥६॥


ब्रह्मोवाच -
दुर्लभोऽयं वरो दैत्य यस्त्वया प्रार्थितः परः ।
कालान्तरे ते प्राप्तः स्यान्मद्वाक्यं न मृषा भवेत् ॥७॥


श्रीनारद उवाच -
कौमारेऽपि महामल्लैः सततं स युयोध ह ।
उग्रसेनस्य पत्‍न्यां कौ जन्म लेभेऽसुरः पुनः ॥८॥
जरासंधो मगधेंद्रो दिग्जयाय विनिर्गतः ।
यमुनानिकटे तस्य शिबिरोऽभूदितस्ततः ॥९॥
द्विपः कुवलयापीडः सह्स्रद्विपसत्त्वभूत् ।
बभञ्ज श्रृङ्खलासङ्घं दुद्राव शिबिरान्मदी ॥१०॥
निपातयन्स शिबिरान्गृहांश्च भूभृतस्तटान् ।
रंगभूम्यामाजगाम यत्र कंसोऽप्ययुध्यत ॥११॥
पलायितेषु मल्लेषु कंसस्तं तु समागतम् ।
शुण्डाशुण्डे सङ्गृहीत्वा पातयामास भूतले ॥१२॥
पुनर्गृहीत्वा हस्ताभ्यां भ्रामयित्वोग्रसेनजः ।
जरासन्धस्य सेनायां चिक्षेप शतयोजनम् ॥१३॥
तदद्‌भुतं बलं दृष्ट्वा प्रसन्नो मगधेश्वरः ।
अस्तिप्राप्ती ददौ कन्ये तस्मै कंसाय शंसिते ॥१४॥
अश्वार्बुदं हस्तिलक्षं रथानां च त्रिलक्षकम् ।
अयुतं चैव दासीनां पारिबर्हं जरासुतः ॥१५॥

राजा बहुलाश्व ने कहा- देवर्षिशिरोमणे ! यह महान् बल और पराक्रम से सम्पन्न कंस पहले किस दैत्यके नाम से विख्यात था ? आप इसके पूर्वजन्मों और कर्मों का विवरण मुझे सुनाइये ॥ १ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं-राजन् ! पूर्वकाल में समुद्र मन्थन के अवसर पर महान् असुर कालनेमि ने भगवान् विष्णु के साथ युद्ध किया। उस युद्धमें भगवान् ने उसे बलपूर्वक मार डाला। उस समय शुक्राचार्यजी ने अपनी संजीवनी विद्या के बलसे उसे पुनः जीवित कर दिया। तब वह पुनः भगवान् विष्णुसे युद्ध करने के लिये मन-ही-मन उद्योग करने लगा ॥ २-३ ॥

उस समय वह दानव मन्दराचल पर्वत के समीप तपस्या करने लगा। प्रतिदिन दूब का रस पीकर उसने देवेश्वर ब्रह्माकी आराधना की। देवताओं के कालमान से सौ वर्ष बीत जानेपर ब्रह्माजी उसके पास गये। उस समय कालनेमि के शरीर में केवल हड्डियाँ रह गयी थीं और उसपर दीमकें चढ़ गयी थीं। ब्रह्माजी ने उससे कहा- 'वर माँगो' ॥ ४-५ ॥

कालनेमिने कहा – इस ब्रह्माण्डमें जो-जो महाबली देवता स्थित हैं, उन सबके मूल भगवान् विष्णु हैं। उन सम्पूर्ण देवताओंके हाथसे भी मेरी मृत्यु न हो ॥ ६ ॥

ब्रह्माजीने कहा- दैत्य ! तुमने जो यह उत्कृष्ट वर माँगा है, वह तो अत्यन्त दुर्लभ है; तथापि किसी दूसरे समय तुम्हें यह प्राप्त हो सकता है। मेरी वाणी कभी झूठी नहीं हो सकती ॥७॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! फिर वही कालनेमि नामक असुर पृथ्वीपर उग्रसेनकी स्त्री (पद्मावती) के गर्भसे उत्पन्न हुआ। कुमारावस्थामें ही वह बड़े-बड़े पहलवानोंके साथ कुश्ती लड़ा करता था। (एक समयकी बात है — ) मगधराज जरासंध दिग्विजयके लिये निकला। यमुना नदीके निकट इधर-उधर उसकी छावनी पड़ गयी ॥ ८-९ ॥

उसके पास 'कुवलयापीड़' नामका एक हाथी था, जिसमें हजार हाथियोंके समान शक्ति थी । उसके गण्डस्थल से मद चू रहा था। एक दिन उसने बहुत-सी साँकलों को तोड़ डाला और शिविरसे बाहरकी ओर दौड़ चला । शिविरों, गृहों और पर्वतीय तटोंको तोड़ता-फोड़ता हुआ वह उस रङ्गभूमि (अखाड़े) में जा धमका, जहाँ कंस भी कुश्ती लड़ रहा था। उसके आनेपर सभी शूरवीर भाग चले। उसे आया देख कंसने उस हाथीकी सूँड़ पकड़ी और पृथ्वीपर गिरा दिया ॥ १०-१२ ॥

इसके बाद कंस ने कुवलयापीड़ को पुनः दोनों हाथों से पकड़कर घुमाया और जरासंध की सेना में, जो वहाँसे बहुत दूर थी, फेंक दिया। मगधनरेश जरासंध कंसके इस अद्भुत बलको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने 'अस्ति' तथा 'प्राप्ति' नामकी अपनी दो परमसुन्दरी कन्याओं का विवाह उसके साथ कर दिया। उस जरापुत्रने एक अरब घोड़े, एक लाख हाथी, तीन लाख रथ और दस हजार दासियाँ कंस को दहेज में दीं ॥ १३-१५ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



1 टिप्पणी:

  1. 💐🌷🌾💐जय श्री कृष्ण 🙏🙏 ॐ श्री परमात्मने नमः 🙏🌹
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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