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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(
श्रीवृन्दावनखण्ड )
चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 03)
रास-विहार तथा आसुरि
मुनि का उपाख्यान
ज्ञानिनामपि नास्त्येवं कर्मिणां तु
कुतश्च सः ।
एवं श्रीकृष्णचंद्रस्य हरे राधापतेः प्रभोः ॥ २८ ॥
रासे चित्रं यद्बभूव तच्छृणुष्व महामते ।
मुनीन्द्र आसुरिर्नाम श्रीकृष्णेष्टो महातपाः ॥ २९ ॥
नारदाद्रौ तपस्तेपे हरौ ध्यानपरायणः ।
हृत्पुंडरीके श्रीकृष्णं ज्योतिर्मंडलमास्थितम् ॥ ३० ॥
मनोज्ञं राधया सार्धं नित्यं ध्याने ददर्श ह ।
एकदा ध्यानमध्ये तु रात्रौ कृष्णो न चागतः ॥ ३१ ॥
वारं वारं कृतं ध्यानं खिन्नो जातो महामुनिः ।
ध्यानादुत्थाय स मुनिः कृष्णदर्शनलालसः ॥ ३२ ॥
नारायणाश्रमं प्रागाद्बदरीखण्डमंडितम् ।
न ददर्श हरिं देवं नरनारायणं मुनिः ॥ ३३ ॥
तदातिविस्मितो विप्रो लोकालोकगिरिं ययौ ।
सहस्रशिरसं देवं न ददर्श स तत्र वै ॥ ३४ ॥
पप्रच्छ पार्षदान् तत्र क्व गतो भगवानितः ।
न विद्मो भो वयं चोक्तो मुनिः खिन्नमनास्तदा ॥ ३५ ॥
श्वेतद्वीपं ययौ दिव्यं क्षीरसागरशोभितम् ।
तत्रापि शेषपर्यंके न ददर्श हरिं पुनः ॥ ३६ ॥
तदा मुनिः खिन्नमनाः प्रेम्णा पुलकिताननः ।
पप्रच्छ पार्षदांस्तत्र क्व गतो भगवानितः ॥ ३७ ॥
न विद्मो भो वयं चोक्तो मुनिश्चिन्तापरायणः ।
किं करोमि क्व गच्छामि दर्शनं तत्कथं भवेत् ॥ ३८ ॥
एवं ब्रुवन्मनोयायी वैकुंठं प्राप्तवांस्ततः ।
नापश्यत्तत्र देवेशं रमां वैकुंठवासिनीम् ॥ ३९ ॥
न दृष्टस्तत्र भक्तेषु मुनिनाऽसुरिणा नृप ।
ततो मुनीन्द्रो योगीन्द्रो गोलोकं स जगाम ह ॥ ४० ॥
वृंदावने निकुंजेऽपि न ददर्श परात्परम् ।
तदा मुनिः खिन्नमनाः श्रीकृष्णविरहातुरः ॥ ४१ ॥
पप्रच्छ पार्षदांस्तत्र क्व गतो भगवानितः ।
ऊचुस्तं पार्षदा गोपा वामनाण्डे मनोहरे ॥ ४२ ॥
पृश्निगर्भो यत्र जातः तत्रैव भगवान् स्वयम् ।
इत्युक्त आसुरिस्तस्मादस्मिन्नण्डे समागतः ॥ ४३ ॥
हरिं ह्यपश्यन्प्रचलन् कैलासं प्राप्तवान्मुनिः ।
तत्र स्थितं महादेव कृष्णध्यानपरायणम् ॥ ४४ ॥
नत्वा पप्रच्छ तद्रात्रौ खिन्नचेता महामुनिः ।
आसुरिरुवाच -
भगवन् सर्व ब्रह्माण्डं मया दृष्टमितस्ततः ॥ ४५ ॥
आवैकुण्ठाश्च गोलोकाद्भ्रमता तद्दिद्रुक्षुणा ।
कुत्रापि देवदेवस्य दर्शनं न बभूव मे ॥ ४६ ॥
श्रीमहादेव उवाच -
धन्यस्त्वमासुरे ब्रह्मन् कृष्णभक्तोऽस्यहैतुकः ।
दिदृक्षुणा त्वयाऽऽयासं कृत्वं वेद्मि महामुने ॥ ४७ ॥
हंसं मुनिं दुःखगतं महोदधौ
यः सर्वतो मोचयितुं गतस्त्वरम् ।
सोऽद्यैव वृंदाविपिने सखीजनैः
करोति रासं रसिकेश्वरः स्वयम् ॥ ४८ ॥
षाण्मासिकी चाद्य कृता निशीथिनी
स्वमायया देववरेण भो मुने ।
अहं गमिष्यामि तदेव द्रष्टुं
त्वमेव गच्छाशु मनोरथं यथा ॥ ४९ ॥
महामते ! इस प्रकार राधावल्लभ
प्रभु श्यामसुन्दर श्रीकृष्णचन्द्रके रासमें जो एक विचित्र घटना हुई, उसे सुनो। श्रीकृष्णके
प्रिय भक्त एवं महातपस्वी एक मुनि थे, जिनका नाम 'आसुरि' था । वे नारद गिरिपर श्रीहरिके
ध्यानमें तत्पर हो तपस्या करते थे। हृदय- कमलमें ज्योतिर्मण्डलके भीतर राधासहित मनोहर-
मूर्ति श्यामसुन्दर श्रीकृष्णका वे चिन्तन किया करते थे । एक समय रातमें जब मुनि ध्यान
करने लगे, तब श्रीकृष्ण उनके ध्यानमें नहीं आये ॥ २८-३१ ॥
उन्होंने बारंबार ध्यान
लगाया, किंतु सफलता नहीं मिली। इससे वे महामुनि खिन्न हो गये। फिर वे मुनि ध्यानसे
उठकर श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे बदरीखण्डमण्डित नारायणाश्रमको गये; किंतु वहाँ उन मुनीश्वरको
नर- नारायणके दर्शन नहीं हुए। तब अत्यन्त विस्मित हो, वे ब्राह्मण देवता लोकालोक पर्वतपर
गये; किंतु वहाँ सहस्र सिरवाले अनन्तदेवका भी उन्हें दर्शन नहीं हुआ ॥ ३२-३६ ॥
तब उन्होंने वहाँके पार्षदोंसे
पूछा- 'भगवान् यहाँसे कहाँ गये हैं ?' उन्होंने उत्तर दिया- 'हम नहीं जानते।' उनके
इस प्रकार उत्तर देनेपर उस समय मुनिके मनमें बड़ा खेद हुआ। फिर वे क्षीरसागरसे सुशोभित
श्वेतद्वीपमें गये; किंतु वहाँ भी शेषशय्यापर श्रीहरिका दर्शन उन्हें नहीं हुआ। तब
मुनिका चित्त और भी खिन्न हो गया। उनका मुख प्रेमसे पुलकित दिखायी देता था । उन्होंने
पार्षदोंसे पूछा- 'भगवान् यहाँसे कहाँ चले गये ?' पुनः वही उत्तर मिला— 'हमलोग नहीं
जानते।' उनके यों कहनेपर मुनि भारी चिन्तामें पड़ गये और सोचने लगे- 'क्या करूँ ? कहाँ
जाऊँ ? कैसे श्रीहरिका दर्शन हो ?' ।। ३६- ३८ ॥
यों कहते हुए मनके समान
गतिशील आसुरिमुनि वैकुण्ठधाम में गये; किंतु वहाँ भी लक्ष्मीके
साथ निवास करनेवाले भगवान् नारायणका दर्शन उन्हें नहीं हुआ । नरेश्वर ! वहाँके भक्तोंमें
भी आसुरि मुनिने भगवान् को नहीं देखा । तब वे योगीन्द्र मुनीश्वर
गोलोकमें गये; परंतु वहाँके वृन्दावनीय निकुञ्ज में भी परात्पर
श्रीकृष्णका दर्शन उन्हें नहीं हुआ। तब मुनि का चित्त खिन्न हो
गया और वे श्रीकृष्ण-विरह से अत्यन्त व्याकुल हो गये ॥ ३९-४१ ॥
वहाँ उन्होंने पार्षदोंसे
पूछा- भगवान् यहाँसे कहाँ गये हैं ?' तब वहाँ रहनेवाले पार्षद गोपोंने उनसे कहा- 'वामनावतारके
ब्रह्माण्डमें, जहाँ कभी पृश्निगर्भ अवतार हुआ था, वहाँ साक्षात् भगवान् पधारे हैं। ' उनके यों कहनेपर महामुनि आसुरि वहाँ से उस
ब्रह्माण्ड में आये ॥ ४२-४३ ॥
[वहां भी] श्रीहरिका
दर्शन न होने से तीव्र गति से चलते हुए
मुनि कैलास पर्वतपर गये । वहाँ महादेव जी श्रीकृष्णके ध्यान में तत्पर होकर बैठे थे । उन्हें नमस्कार करके रात्रि में खिन्न-चित्त हुए महामुनि ने पूछा ।। ४४ ॥
आसुरि बोले- भगवन् !
मैंने सारा ब्रह्माण्ड इधर-उधर छान डाला, भगवद्दर्शनकी इच्छासे वैकुण्ठसे लेकर गोलोकतकका
चक्कर लगा आया, किंतु कहीं भी देवाधिदेवका दर्शन मुझे नहीं हुआ। सर्वज्ञशिरोमणे ! बताइये,
इस समय भगवान् कहाँ हैं ? ॥ ४५-४६॥
श्रीमहादेवजी बोले- आसुरे
! तुम धन्य हो । ब्रह्मन् ! तुम श्रीकृष्णके निष्काम भक्त हो । महामुने ! मैं जानता
हूँ, तुमने श्रीकृष्णदर्शनकी लालसासे महान् क्लेश उठाया है। क्षीरसागरमें रहनेवाले
हंसमुनि बड़े कष्टमें पड़ गये थे । उन्हें उस क्लेशसे मुक्त करनेके लिये जो बड़ी उतावलीके
साथ वहाँ गये थे, वे ही भगवान् रसिकशेखर साक्षात् श्रीकृष्ण अभी-अभी वृन्दावनमें आकर
सखियोंके साथ रास-क्रीडा कर रहे हैं। मुने ! आज उन देवेश्वर ने अपनी माया से छः महीने-बराबर बड़ी रात बनायी
है । मैं उसी रासोत्सव का दर्शन करने के लिये वहाँ जाऊँगा । तुम भी शीघ्र ही चलो,
जिससे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाय ॥४७-४९॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें
वृन्दावनखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवाद में रासक्रीड़ा-प्रसङ्ग में 'आसुरि मुनि का उपाख्यान'
नामक चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌹💖🥀🌹जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
गोविंद बोलो हरि: गोपाल बोलो
राधा रमण हरि: गोविंद बोलो
नारायण नारायण नारायण नारायण हरि :!! हरि: !!