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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
पहला अध्याय (पोस्ट 02)
श्रुतिरूपा गोपियों का वृत्तान्त, उनका
श्रीकृष्ण और दुर्वासामुनि की बातों में संशय तथा श्रीकृष्ण द्वारा उसका निराकरण
श्रीनारद उवाच -
श्रुत्वा तत्परमं वाक्यं गोप्यः सर्वास्तु विस्मिताः ।
कृतांजलिपुटा ऊचुः श्रीकृष्णं नम्रकंधराः ॥ १७ ॥
गोप्य ऊचुः -
परिपूर्णतमस्यापि दुर्वासास्ते गुरुः स्मृतः ।
अहो तद्दर्शनं कर्तुं मनो नश्चोद्यतं प्रभो ॥ १८ ॥
अद्य देव निशीथिन्या व्यतीते प्रहरद्वये ।
कथं तद्दर्शनं भूयादस्माकं परमेश्वर ॥ १९ ॥
तथा मध्ये दीर्घनदी यमुना प्रतिबन्धिका ।
कथं तत्तरणं नावं ऋते देव भविष्यति ॥ २० ॥
श्रीभगवानुवाच -
अवश्यमेव गन्तव्यं भवतीभिर्यदा प्रियाः ।
यमुनामेत्य चैतद्वै वक्तव्यं मार्गहेतवे ॥ २१ ॥
यदि कृष्णो बालयतिः सर्वदोषविवर्जितः ।
तर्हि नो देहि मार्गं वै कालिन्दि सरितां वरे ॥ २२ ॥
इत्युक्ते वचने कृष्णा मार्गं वो दास्यति स्वतः ।
सुखेन तेन व्रजत यूयं सर्वा व्रजांगनाः ॥ २३ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति श्रुत्वाऽथ तद्वाक्यं पात्रैर्दीर्घैर्व्रजांगनाः ।
षट्पंचाशत्तमान् भोगान् नीत्वा सर्वाः पृथक्पृथक् ॥ २४ ॥
यमुनामेत्य हर्युक्तं जगुरानतकंधराः ।
सद्यः कृष्णा ददौ मार्गं गोपीभ्यो मैथिलेश्वर ॥ २५ ॥
तेन गोप्यो गताः सर्वा भाण्डीरं चातिविस्मिताः ।
ततः प्रदक्षिणीकृत्य मुनिं दुर्वासनं च ताः ॥ २६ ॥
नत्वा तद्दर्शनं चक्रुः पुरो धृत्वाऽशनं वहु ।
मे पूर्वं चापि मे पूर्वमन्नं भोज्यं त्वया मुने ॥ २७ ॥
एवं विवदमानानां गोपीनां भक्तिलक्षणम् ।
विज्ञाय मुनिशार्दूलः प्रोवाच विमलं वचः ॥ २८ ॥
मुनिरुवाच -
गोप्यः परमहंसोऽहं कृतकृत्यो हि निष्क्रियः ।
तस्मान्मुखे मे दातव्यं स्वं स्वं चाप्यशनं करैः ॥ २९ ॥
श्रीनारद उवाच -
एवं विदारिते तेन मुखे गोप्योऽतिहर्षिताः ।
षट्पंचाशत्तमान् भोगान् स्वान्स्वान् सर्वाः समाक्षिपन् ॥ ३०
॥
क्षिपन्तीनां च गोपीनां पश्यंतीनां मुनीश्वरः ।
जघास कोटिशो मारान् भोगान् सर्वान् क्षुधातुरः ॥ ३१ ॥
विस्मितानां च गोपीनां पश्यंतीनां परस्परम् ।
इत्थं शून्यानि पात्राणि बभूवुर्नृपसत्तम ॥ ३२ ॥
अथ गोप्यो मुनिं शांतं नत्वा तं भक्तवत्सलम् ।
विस्मिताः प्रणताः प्राहुः सर्वाः पूर्णमनोरथाः ॥ ३३ ॥
गोप्य ऊचुः -
मुने आगमनात्पूर्वं कृष्णोक्तवचसा नदीम् ।
तीर्त्वाऽऽगतास्त्वत्समीपं दर्शनार्थं शुभेच्छया ॥ ३४ ॥
इतः कथं गमिष्यामः सन्देहोऽयं महानभूत् ।
तद्विधेहि नमस्तुभ्यं येन पंथा लघुर्भवेत् ॥ ३५ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्ण का यह उत्तम वचन सुनकर समस्त गोपाङ्गनाओं को
बड़ा विस्मय हुआ । वे हाथ जोड़कर सिर झुकाकर श्रीकृष्ण- से बोलीं ॥ १७ ॥
गोपियों ने कहा - प्रभो ! यह
तो बड़े आश्चर्यकी बात है। आप स्वयं परिपूर्णतम परमेश्वरके भी गुरु दुर्वासामुनि हैं,
यह जानकर हमारा मन उनके दर्शनके लिये उत्सुक हो उठा है। देव! परमेश्वर !! आज रातके
दो पहर बीत जानेपर उनका दर्शन हमें कैसे प्राप्त हो सकता है। बीचमें विशाल नदी यमुना
प्रति बन्धक बनकर खड़ी है; अतः देव! बिना किसी नावके यमुनाजीको पार करना कैसे सम्भव
होगा ? ।। १८ - २० ॥
श्रीभगवान् बोले- प्रियाओ ! यदि तुमलोगों- को अवश्य
ही वहाँ जाना है तो यमुनाजीके पास पहुँचकर मार्ग प्राप्त करनेके लिये इस प्रकार कहना-
'यदि श्रीकृष्ण बालब्रह्मचारी और सब प्रकारके दोषोंसे रहित हैं तो सरिताओंमें श्रेष्ठ
यमुनाजी ! हमारे लिये मार्ग दे दो ।' यह बात कहनेपर यमुना तुम्हें स्वतः मार्ग दे देंगी।
उस मार्ग से तुम सभी व्रजाङ्गनाएँ सुखपूर्वक चली जाना ॥ २१-२३ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! उनका यह वचन सुनकर सभी
गोपियाँ अलग-अलग विशाल पात्रोंमें छप्पन भोग लेकर यमुनाजीके तटपर गयीं और सिर झुकाकर
उन्होंने श्रीकृष्णकी कही हुई बात दुहरा दी। मैथिलेश्वर ! फिर तो तत्काल यमुनाजीने
उन गोपियोंके लिये मार्ग दे दिया । उस मार्गसे सभी गोपियाँ अत्यन्त विस्मित हो, भाण्डीर-वटके
पास पहुँचीं। वहाँ उन्होंने दुर्वासामुनिकी परिक्रमा की और उनके आगे बहुत-सी भोजन सामग्री
रखकर उनका दर्शन किया। फिर सब- की-सब कहने लगीं- 'मुने! पहले मेरा अन्न ग्रहण कीजिये,
पहले मेरा अन्न भोजन कीजिये।' इस तरह परस्पर विवाद करती हुई गोपियोंका भक्तिसूचक भाव
जानकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा ने यह विमल वचन कहा ।। २४-२८ ॥
मुनि बोले- गोपियो ! मैं कृतकृत्य परमहंस हूँ, निष्क्रिय
हूँ । इसलिये तुमलोग अपना-अपना भोजन अपने ही हाथोंसे मेरे मुँहमें डाल दो ।। २९ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! यों कहकर जब उन्होंने
अपना मुँह फैलाया, तब सभी गोपियों ने अत्यन्त हर्ष के साथ अपने-अपने छप्पन भोगों को उनके मुँह में एक साथ ही डालना आरम्भ किया । अन्न डालती हुई उन गोपियों के देखते-देखते मुनीश्वर दुर्वासा क्षुधासे पीड़ित की
भाँति उन समस्त भोगों को, जो करोड़ों भारसे कम न थे, चट कर गये।
गोपियाँ आश्चर्यचकित हो एक-दूसरी की ओर देखने लगीं। नृपश्रेष्ठ
! इस तरह उनके सारे बर्तन खाली हो गये । तत्पश्चात् उन परम शान्त और भक्तवत्सल मुनिको
विस्मित हुई सभी गोपियोंने पूर्णमनोरथ होकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा ॥ ३० - ३३
॥
गोपियोंने कहा – मुने! यहाँ आनेसे पूर्व श्रीकृष्णकी
कही हुई बात दुहराकर मार्ग मिल जानेसे यमुनाजीको पार करके हमलोग आपके समीप दर्शन- की
शुभ इच्छा लेकर यहाँ आ गयी थीं। अब इधरसे हम कैसे जायँगी, यह महान् संदेह हमारे मनमें
हो गया है ! अतः आप ही ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे मार्ग हलका हो जाय ।। ३४-३५ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🥀💖🌹जय श्री कृष्ण 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव
नारायण नारायण नारायण नारायण