॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)
भगवान् के लीलावतारों की कथा
शश्वत् प्रशान्तमभयं प्रतिबोधमात्रं ।
शुद्धं समं सदसतः परमात्मतत्त्वम् ।
शब्दो न यत्र पुरुकारकवान् क्रियार्थो ।
माया परैत्यभिमुखे च विलज्जमाना ॥ ४७ ॥
तद्वै पदं भगवतः परमस्य पुंसो ।
ब्रह्मेति यद्विदुरजस्रसुखं विशोकम् ।
सध्र्यङ् नियम्य यतयो यमकर्तहेतिं ।
जह्युः स्वराडिव निपानखनित्रमिन्द्रः ॥ ४८ ॥
परमात्मा का वास्तविक स्वरूप एकरस, शान्त, अभय एवं केवल ज्ञानस्वरूप है। न उसमें मायाका मल है और न तो उसके द्वारा रची हुई विषमताएँ ही। वह सत् और असत् दोनोंसे परे है। किसी भी वैदिक या लौकिक शब्द की वहाँ तक पहुँच नहीं है। अनेक प्रकार के साधनों से सम्पन्न होने वाले कर्मों का फल भी वहाँ तक नहीं पहुँच सकता। और तो क्या, स्वयं माया भी उसके सामने नहीं जा पाती, लजाकर भाग खड़ी होती है ॥ ४७ ॥ परमपुरुष भगवान् का वही परमपद है। महात्मालोग उसीका शोकरहित अनन्त आनन्दस्वरूप ब्रह्म के रूपमें साक्षात्कार करते हैं। संयमशील पुरुष उसीमें अपने मनको समाहित करके स्थित हो जाते हैं। जैसे इन्द्र स्वयं मेघरूपसे विद्यमान होनेके कारण जलके लिये कुआँ खोदनेकी कुदाल नहीं रखते वैसे ही वे भेद दूर करनेवाले ज्ञान- साधनोंको भी छोड़ देते हैं ॥ ४८ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹🍂🥀ॐ श्रीपरमात्मने नमः
जवाब देंहटाएंपरब्रह्म परमेश्वर का हर क्षण सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश: वंदन
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