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श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट
02)
कौरव सेना से पीड़ित
रंगोजि गोप का कंस की सहायता से व्रजमण्डल की सीमा पर
निवास तथा उसकी पुत्रीरूप में जालंधरी गोपियों
का प्राकट्य
इत्थं श्रुत्वा वचस्तस्य कंसो वै
दीनवत्सलः ।
दैत्यकोटिसमायुक्तो मनो गंतुं समादधे ॥ १८ ॥
गोमूत्रचयसिन्दूरकस्तूरीपत्रभृन्मुखम् ।
विन्ध्याद्रिसदृशं श्यामं मदनिर्झरसंयुतम् ॥ १९ ॥
पादे च शृङ्खलाजालं नदंतं घनवद्भृशम् ।
द्विपं कुवलयापीडं समारुह्य मदोत्कटः ॥ २० ॥
चाणूरमुष्टिकाद्यैश्च केशिव्योमवृषासुरैः ।
सहसा दंशितः कंसः प्रययौ रंगपत्तनम् ॥ २१ ॥
यदूनां च कुरूणां च बलयोस्तु परस्परम् ।
बाणैः खड्गैः त्रिशूलैश्च घोरं युद्धं बभूव ह ॥ २२ ॥
बाणांधकारे संजाते कंसो नीत्वा महागदाम् ।
विवेश कुरुसेनासु वने वैश्वानरो यथा ॥ २३ ॥
कांश्चिद्वीरान् सकवचान् गदया वज्रकल्पया ।
पातयामास भूपृष्ठे वज्रेणेंद्रो यथा गिरिम् ॥ २४ ॥
रथान्ममर्द पादाभ्यां पार्ष्णिघातेन घोटकान् ।
गजे गजं ताडयित्वा गजान्प्रोन्नीय चांघ्रिषु ॥ २५ ॥
स्कन्धयोः कक्षयोर्धृत्वा सनीडान् रत्नकंबलान् ।
कांश्चिद्बलाद्भ्रामयित्वा चिक्षेप गगने बली ॥ २६ ॥
गजाञ्छुण्डासु चोन्नीय लोलघंटासमावृतान् ।
चिक्षेप संमुखे राजन् मृधे व्योमासुरो बली ॥ २७ ॥
रथान् गृहीत्वा साश्वांश्च शृङ्गाभं भ्रामयन्मुहुः ।
चिक्षेप दिक्षु बलवान् दैत्यो दुष्टो वृषासुरः ॥ २८ ॥
बलात्पश्चिमपादाभ्यां वीरानश्वानितस्ततः ।
पातयामास राजेंद्र केशी दैत्याधिपो बली ॥ २९ ॥
एवं भयंकरं युद्धं दृष्ट्वा वै कुरुसैनिकाः ।
शेषा भयातुरा वीरा जग्मुस्तेऽपि दिशो दश ॥ ३० ॥
रंगोजिं सकुटुम्बं तं नीत्वा कंसोऽथ दैत्यराट् ।
मथुरां प्रययौ वीरो नादयन् दुंदुभीञ्छनैः ॥ ३१ ॥
श्रुत्वा पराजयं स्वस्य कौरवाः क्रोधमूर्छिताः ।
दैत्यानां समयं दृष्ट्वा सर्वे वै मौनमास्थिताः ॥ ३२ ॥
पुरं बर्हिषदं नाम व्रजसीम्नि मनोहरम् ।
रंगोजये ददौ कंसो दैत्यानामधिपो बली ॥ ३३ ॥
वासं चकार तत्रैव रंगोजिर्गोपनायकः ।
बभूवुस्तस्य भार्यासु जालंधर्यो हरेर्वरात् ॥ ३४ ॥
परिणीता गोपजनै रूपयौवनभूषिताः ।
जारधर्मेण सुस्नेहं श्रीकृष्णे ताः प्रचक्रिरे ॥ ३५ ॥
चैत्रमासे महारासे ताभिः साकं हरिः स्वयम् ।
पुण्ये वृन्दावने रम्ये रेमे वृन्दावनेश्वरः ॥ ३६ ॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! दूतकी यह बात सुनकर दीनवत्सल
कंसने करोड़ों दैत्योंकी सेनाके साथ वहाँ जानेका विचार किया। उसके हाथीके गण्ड- स्थलपर
गोमूत्रमें घोले गये सिन्दूर और कस्तूरीके द्वारा पत्र - रचना की गयी थी। वह हाथी विन्ध्याचलके
समान ऊँचा था और उसके गण्डस्थलसे मद झर रहे थे। उसके पैरमें साँकलें थीं। वह मेघकी
गर्जनाके समान जोर-जोरसे चिग्घाड़ता था । ऐसे कुवलयापीड नामक गजराजपर चढ़कर मदमत्त
राजा कंस सहसा कवच आदिसे सुसज्जित हो चाणूर, मुष्टिक आदि मल्लों तथा केशी, व्योमासुर
और वृषासुर आदि दैत्य-योद्धाओंके साथ रङ्गपत्तनकी ओर प्रस्थित हुआ ॥ १८-२१ ॥
वहाँ. यादवों और कौरवोंकी सेनाओंमें परस्पर बाणों,
खड्गों और त्रिशूलोंके प्रहारसे घोर युद्ध हुआ । जब बाणोंसे सब ओर अन्धकार - सा छा
गया, तब कंस एक विशाल गदा हाथमें लेकर कौरव सेनामें उसी प्रकार घुसा, जैसे वनमें दावानल
प्रविष्ट हुआ हो। जैसे इन्द्र अपने वज्रसे पर्वतको गिरा देते हैं, उसी प्रकार कंसने
अपनी वज्र- सरीखी गदाकी मारसे कितने ही कवचधारी वीरोंको धराशायी कर दिया ॥ २२-२४ ॥
उसने पैरोंके आघातसे रथोंको रौंद डाला, एड़ियोंसे मार-मारकर
घोड़ोंका कचूमर निकाल दिया। हाथीको हाथीसे ही मारकर कितने ही गजोंको उनके पाँव पकड़कर
उछाल दिया। महाबली कंसने कितने ही हाथियोंके कंधों अथवा कक्षभागोंको पकड़कर उन्हें
हौदों और झूलों- सहित बलपूर्वक घुमाते हुए आकाशमें फेंक दिया ॥ २५-२६
॥
राजन् ! उस युद्धभूमिमें बलवान् व्योमासुर हाथियोंके
शुण्डदण्ड पकड़कर उन्हें चञ्चल घंटाओंसहित उछालकर सामने फेंक देता था। दुष्ट दैत्य
बलवान् वृषासुर घोड़ोंसहित रथोंको अपने सींगोंपर उठाकर बारंबार घुमाता हुआ चारों दिशाओंमें
फेंकने लगा ॥ २७-२८ ॥
राजेन्द्र ! बलवान् दैत्यराज केशीने बलपूर्वक अपने
पिछले पैरोंसे बहुत-से वीरों और अश्वोंको इधर-उधर धराशायी कर दिया। ऐसा भयंकर युद्ध
देखकर कौरव सेनाके शेष वीर भयसे व्याकुल हो दसों दिशाओंमें भाग गये। दैत्यराज वीर कंस
विजयके उल्लासमें नगारे बजवाता हुआ कुटुम्बसहित रंगोजि गोपको अपने साथ ही मथुरा ले
गया ॥ २९-३१ ॥
अपनी सेनाकी पराजयका समाचार सुनकर कौरव क्रोधसे मूर्च्छित
हो उठे। परंतु वर्तमान समयको दैत्योंके अनुकूल देखकर वे सब-के-सब चुप रह गये। व्रजमण्डलकी
सीमापर बर्हिषद् नामसे प्रसिद्ध एक मनोहर पुर था, जिसे बलवान् दैत्यराज कंसने रंगोजिको
दे दिया । गोपनायक रंगोजि वहीं निवास करने लगा । श्रीहरिके वरदानसे जालंधरके अन्तः-
पुरकी स्त्रियाँ उसी गोपकी पत्नियोंके गर्भ से उत्पन्न हुईं ॥ ३२-३४
॥
रूप और यौवनसे विभूषित वे गोपकन्याएँ दूसरे दूसरे गोपजनोंको
ब्याह दी गयीं, परंतु वे जारभाव से भगवान् श्रीकृष्णके प्रति
प्रगाढ़ प्रेम करने लगीं। वृन्दावनेश्वर श्यामसुन्दरने चैत्र मास के
महारास में उन सबके साथ पुण्यमय रमणीय वृन्दावन- के भीतर विहार
किया ।। ३५-३६ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'जालंधरी गोपियोंका उपाख्यान' नामक चौदहवाँ अध्याय
पूरा हुआ ।। १४ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌺💖🌹🥀जय श्री कृष्ण🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण