शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

जय-विजय को सनकादि का शाप

न ह्यन्तरं भगवतीह समस्तकुक्षौ ।
    आत्मानमात्मनि नभो नभसीव धीराः ।
पश्यन्ति यत्र युवयोः सुरलिङ्‌गिनोः किं ।
    व्युत्पादितं ह्युदरभेदि भयं यतोऽस्य ॥ ३३ ॥
तद्वाममुष्य परमस्य विकुण्ठभर्तुः ।
    कर्तुं प्रकृष्टमिह धीमहि मन्दधीभ्याम् ।
लोकानितो व्रजतमन्तरभावदृष्ट्या ।
    पापीयसस्त्रय इमे रिपवोऽस्य यत्र ॥ ३४ ॥

(सनकादि मुनि कहते हैं) भगवान्‌ के उदर में यह सारा ब्रह्माण्ड स्थित है; इसलिये यहाँ रहनेवाले ज्ञानीजन सर्वात्मा श्रीहरि से अपना कोई भेद नहीं देखते, बल्कि महाकाश में घटाकाश की भाँति उनमें अपना अन्तर्भाव देखते हैं। तुम तो देव-रूपधारी हो; फिर भी तुम्हें ऐसा क्या दिखायी देता है, जिससे तुमने भगवान्‌ के साथ कुछ भेदभाव के कारण होनेवाले भय की कल्पना कर ली ॥ ३३ ॥ तुम हो तो इन भगवान्‌ वैकुण्ठनाथ के पार्षद, किन्तु तुम्हारी बुद्धि बहुत मन्द है। अतएव तुम्हारा कल्याण करने के लिये हम तुम्हारे अपराध के योग्य दण्डका विचार करते हैं। तुम अपनी भेदबुद्धि के दोषसे इस वैकुण्ठलोक से निकलकर उन पापमय योनियों में जाओ, जहाँ काम, क्रोध, लोभ—प्राणियों के ये तीन शत्रु निवास करते हैं ॥ ३४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

जय-विजय को सनकादि का शाप

तान्वीक्ष्य वातरशनांश्चतुरः कुमारान् ।
    वृद्धान्दशार्धवयसो विदितात्मतत्त्वान् ।
वेत्रेण चास्खलयतामतदर्हणांस्तौ ।
    तेजो विहस्य भगवत् प्रतिकूलशीलौ ॥ ३० ॥
ताभ्यां मिषत्स्वनिमिषेषु निषिध्यमानाः ।
    स्वर्हत्तमा ह्यपि हरेः प्रतिहारपाभ्याम् ।
ऊचुः सुहृत्तमदिदृक्षितभङ्ग ईषत् ।
    कामानुजेन सहसा त उपप्लुताक्षाः ॥ ३१ ॥

मुनय ऊचुः ।
को वामिहैत्य भगवत् परिचर्ययोच्चैः ।
    तद्धर्मिणां निवसतां विषमः स्वभावः ।
तस्मिन् प्रशान्तपुरुषे गतविग्रहे वां ।
    को वात्मवत् कुहकयोः परिशङ्कनीयः ॥ ३२ ॥

वे चारों कुमार (सनकादि मुनि)  पूर्ण तत्त्वज्ञ थे तथा ब्रह्माकी सृष्टि में आयु में सबसे बड़े होने पर भी देखने में पाँच वर्ष के बालकों-से जान पड़ते थे और दिगम्बर-वृत्तिसे (नंग-धड़ंग) रहते थे। उन्हें इस प्रकार नि:सङ्कोचरूप से भीतर जाते देख उन द्वारपालोंने भगवान्‌के शील-स्वभावके विपरीत सनकादि के तेज की हँसी उड़ाते हुए उन्हें बेंत अड़ाकर रोक दिया, यद्यपि वे ऐसे दुर्व्यवहार के योग्य नहीं थे ॥ ३० ॥ जब उन द्वारपालों ने वैकुण्ठवासी देवताओं के सामने पूजा के सर्वश्रेष्ठ पात्र उन कुमारों को इस प्रकार रोका, तब अपने प्रियतम प्रभु के दर्शनों में विघ्र पडऩे के कारण उनके नेत्र सहसा कुछ-कुछ क्रोध से लाल हो उठे और वे इस प्रकार कहने लगे ॥ ३१ ॥
मुनियोंने कहा—अरे द्वारपालो ! जो लोग भगवान्‌ की महती सेवा के प्रभाव से इस लोक को प्राप्त होकर यहाँ निवास करते हैं, वे तो भगवान्‌ के समान ही समदर्शी होते हैं। तुम दोनों भी उन्हींमें से हो, किन्तु तुम्हारे स्वभाव में यह विषमता क्यों है ? भगवान्‌ तो परम शान्तस्वभाव हैं, उनका किसीसे विरोध भी नहीं है; फिर यहाँ ऐसा कौन है, जिसपर शङ्का की जा सके ? तुम स्वयं कपटी हो, इसीसे अपने ही समान दूसरोंपर शङ्का करते हो ॥ ३२ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

जय-विजय को सनकादि का शाप

तस्मिन्नतीत्य मुनयः षडसज्जमानाः ।
    कक्षाः समानवयसावथ सप्तमायाम् ।
देवावचक्षत गृहीतगदौ परार्ध्य ।
    केयूरकुण्डलकिरीटविटङ्कवेषौ ॥ २७ ॥
मत्तद्विरेफवनमालिकया निवीतौ ।
    विन्यस्तयासितचतुष्टयबाहुमध्ये ।
वक्त्रं भ्रुवा कुटिलया स्फुटनिर्गमाभ्यां ।
    रक्तेक्षणेन च मनाग्रभसं दधानौ ॥ २८ ॥
द्वार्येतयोर्निविविशुर्मिषतोरपृष्ट्वा ।
    पूर्वा यथा पुरटवज्रकपाटिका याः ।
सर्वत्र तेऽविषमया मुनयः स्वदृष्ट्या ।
    ये सञ्चरन्त्यविहता विगताभिशङ्काः ॥ २९ ॥

भगवद्दर्शन की लालसा से अन्य दर्शनीय सामग्री की उपेक्षा करते हुए वैकुण्ठधाम की छ: ड्यौढिय़ाँ पार करके जब वे (सनकादि मुनि) सातवीं पर पहुँचे, तब वहाँ उन्हें हाथ में गदा लिये दो समान आयुवाले देवश्रेष्ठ दिखलायी दिये—जो बाजूबंद, कुण्डल और किरीट आदि अनेकों अमूल्य आभूषणों से अलङ्कृत थे ॥ २७ ॥ उनकी चार श्यामल भुजाओं के बीच में मतवाले मधुकरों से गुञ्जायमान वनमाला सुशोभित थी तथा बाँकी भौंहें, फडक़ते हुए नासिकारन्ध्र और अरुण नयनों के कारण उनके चेहरेपर कुछ क्षोभके-से चिह्न दिखायी दे रहे थे ॥ २८ ॥ उनके इस प्रकार देखते रहनेपर भी वे मुनिगण उनसे बिना कुछ पूछताछ किये, जैसे सुवर्ण और वज्रमय किवाड़ोंसे युक्त पहली छ: ड्यौढ़ी लाँघकर आये थे, उसी प्रकार उनके द्वारमें भी घुस गये। उनकी दृष्टि तो सर्वत्र समान थी और वे नि:शङ्क होकर सर्वत्र बिना किसी रोक-टोकके विचरते थे ॥ २९ ॥ 

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मंगलवार, 25 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

जय-विजय को सनकादि का शाप

यच्च व्रजन्त्यनिमिषामृषभानुवृत्त्या ।
    दूरे यमा ह्युपरि नः स्पृहणीयशीलाः ।
भर्तुर्मिथः सुयशसः कथनानुराग ।
    वैक्लव्यबाष्पकलया पुलकीकृताङ्गाः ॥ २५ ॥
तद्विश्वगुर्वधिकृतं भुवनैकवन्द्यं ।
    दिव्यं विचित्रविबुधाग्र्यविमानशोचिः ।
आपुः परां मुदमपूर्वमुपेत्य योग ।
    मायाबलेन मुनयस्तदथो विकुण्ठम् ॥ २६ ॥

देवाधिदेव श्रीहरि का निरन्तर चिन्तन करते रहने के कारण जिनसे यमराज दूर रहते हैं, आपस में प्रभुके सुयशकी चर्चा चलने पर अनुरागजन्य विह्वलतावश जिनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है तथा शरीरमें रोमाञ्च हो जाता है और जिनके-से शील-स्वभावकी हमलोग भी इच्छा करते हैं—वे परमभागवत ही हमारे लोकोंसे ऊपर उस वैकुण्ठधाममें जाते हैं ॥ २५ ॥ जिस समय सनकादि मुनि विश्वगुरु श्रीहरि के निवासस्थान, सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय और श्रेष्ठ देवताओं के विचित्र विमानोंसे विभूषित उस परम दिव्य और अद्भुत वैकुण्ठधाम में अपने योगबल से पहुँचे, तब उन्हें बड़ा ही आनन्द हुआ ॥ २६ ॥

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सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

जय-विजय को सनकादि का शाप

यन्न व्रजन्त्यघभिदो रचनानुवादात् ।
    श्रृण्वन्ति येऽन्यविषयाः कुकथा मतिघ्नीः ।
यास्तु श्रुता हतभगैर्नृभिरात्तसारान् ।
    तांस्तान् क्षिपन्त्यशरणेषु तमःसु हन्त ॥ २३ ॥
येऽभ्यर्थितामपि च नो नृगतिं प्रपन्ना ।
    ज्ञानं च तत्त्वविषयं सहधर्मं यत्र ।
नाराधनं भगवतो वितरन्त्यमुष्य ।
    सम्मोहिता विततया बत मायया ते ॥ २४ ॥

जो लोग भगवान्‌ की पापापहारिणी लीलाकथाओं को छोडक़र बुद्धि को नष्ट करनेवाली अर्थ- कामसम्बन्धिनी अन्य निन्दित कथाएँ सुनते हैं, वे उस वैकुण्ठलोक में नहीं जा सकते। हाय ! जब वे अभागे लोग इन सारहीन बातों को सुनते हैं, तब ये उनके पुण्यों को नष्टकर उन्हें आश्रयहीन घोर नरकों में डाल देती हैं ॥ २३ ॥ अहा ! इस मनुष्ययोनि की बड़ी महिमा है, हम देवतालोग भी इसकी चाह करते हैं। इसीमें तत्त्वज्ञान और धर्मकी भी प्राप्ति हो सकती है। इसे पाकर भी जो लोग भगवान्‌ की आराधना नहीं करते, वे वास्तवमें उनकी सर्वत्र फैली हुई मायासे ही मोहित हैं ॥ २४ ॥ 

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रविवार, 23 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

जय-विजय को सनकादि का शाप

यत्सङ्कुलं हरिपदानतिमात्रदृष्टैः ।
    वैदूर्यमारकतहेममयैर्विमानैः ।
येषां बृहत्कटितटाः स्मितशोभिमुख्यः ।
    कृष्णात्मनां न रज आदधुरुत्स्मयाद्यैः ॥ २० ॥
श्री रूपिणी क्वणयती चरणारविन्दं ।
    लीलाम्बुजेन हरिसद्मनि मुक्तदोषा ।
संलक्ष्यते स्फटिककुड्य उपेतहेम्नि ।
    सम्मार्जतीव यदनुग्रहणेऽन्ययत्नः  ॥ २१ ॥
वापीषु विद्रुमतटास्वमलामृताप्सु ।
    प्रेष्यान्विता निजवने तुलसीभिरीशम् ।
अभ्यर्चती स्वलकमुन्नसमीक्ष्य वक्त्रम् ।
    उच्छेषितं भगवतेत्यमताङ्ग यच्छ्रीः ॥ २२ ॥

(श्रीब्रह्माजी कहरहे हैं ) वह लोक (वैकुण्ठलोक) वैदूर्य, मरकत-मणि (पन्ने) और सुवर्ण के विमानों से भरा हुआ है। ये सब किसी कर्मफल से नहीं, बल्कि एकमात्र श्रीहरि के पादपद्मों की वन्दना करने से ही प्राप्त होते हैं। उन विमानों पर चढ़े हुए कृष्णप्राण भगवद्भक्तों के चित्तों में बड़े-बड़े नितम्बोंवाली सुमुखी सुन्दरियाँ भी अपनी मन्द मुसकान एवं मनोहर हास-परिहास से कामविकार नहीं उत्पन्न कर सकतीं ॥ २० ॥ परम सौन्दर्यशालिनी लक्ष्मीजी, जिनकी कृपा प्राप्त करनेके लिये देवगण भी यत्नशील रहते हैं, श्रीहरि के भवनमें चञ्चलतारूप दोषको त्यागकर रहती हैं। जिस समय अपने चरण-कमलों के नूपुरों की झनकार करती हुई वे अपना लीलाकमल घुमाती हैं, उस समय उस कनकभवन की स्फटिकमय दीवारों में उनका प्रतिबिम्ब पडऩेसे ऐसा जान पड़ता है मानो वे उन्हें बुहार रही हों ॥ २१ ॥ प्यारे देवताओ ! जिस समय दासियों को साथ लिये वे अपने क्रीडावन में तुलसीदल द्वारा भगवान्‌ का पूजन करती हैं, तब वहाँ के निर्मल जल से भरे हुए सरोवरों में, जिनमें मूँगे के घाट बने हुए हैं, अपना सुन्दर अलकावली और उन्नत नासिकासे सुशोभित मुखारविन्द देखकर ‘यह भगवान्‌का चुम्बन किया हुआ है’ यों जानकर उसे बड़ा सौभाग्यशाली समझती हैं ॥ २२ ॥ 

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शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

जय-विजय को सनकादि का शाप

वैमानिकाः सललनाश्चरितानि यत्र ।
    गायन्ति लोकशमलक्षपणानि भर्तुः ।
अन्तर्जलेऽनुविकसन् मधुमाधवीनां ।
    गन्धेन खण्डितधियोऽप्यनिलं क्षिपन्तः ॥ १७ ॥
पारावतान्यभृतसारसचक्रवाक ।
    दात्यूहहंसशुकतित्तिरिबर्हिणां यः ।
कोलाहलो विरमतेऽचिरमात्रमुच्चैः ।
    भृङ्गाधिपे हरिकथामिव गायमाने ॥ १८ ॥
मन्दारकुन्दकुरबोत्पलचम्पकार्ण ।
    पुन्नागनागबकुलाम्बुजपारिजाताः ।
गन्धेऽर्चिते तुलसिकाभरणेन तस्या ।
    यस्मिंस्तपः सुमनसो बहु मानयन्ति ॥ १९ ॥

वहाँ (वैकुण्ठधाममें) विमानचारी गन्धर्वगण अपनी प्रियाओंके सहित अपने प्रभुकी पवित्र लीलाओंका गान करते रहते हैं, जो लोगोंकी सम्पूर्ण पापराशिको भस्म कर देनेवाली हैं। उस समय सरोवरोंमें खिली हुई मकरन्दपूर्ण वासन्तिक माधवी लताकी सुमधुर गन्ध उनके चित्तको अपनी ओर खींचना चाहती है; परन्तु वे उसकी ओर ध्यान ही नहीं देते वरं उस गन्धको उड़ाकर लानेवाले वायुको ही बुरा-भला कहते हैं ॥ १७ ॥ जिस समय भ्रमरराज ऊँचे स्वर से गुंजार करते हुए मानो हरिकथा का गान करते हैं, उस समय थोड़ी देर के लिये कबूतर, कोयल, सारस, चकवे, पपीहे, हंस, तोते, तीतर और मोरों का कोलाहल बंद हो जाता है—मानो वे भी उस कीर्तनानन्द में बेसुध हो जाते हैं ॥ १८ ॥ श्रीहरि तुलसी से अपने श्रीविग्रह को सजाते हैं और तुलसी की गन्धका ही अधिक आदर करते हैं—यह देखकर वहाँके मन्दार, कुन्द, कुरबक (तिलकवृक्ष), उत्पल (रात्रिमें खिलनेवाले कमल), चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेसर, बकुल (मौलसिरी), अम्बुज (दिनमें खिलनेवाले कमल) और पारिजात आदि पुष्प सुगन्धयुक्त होनेपर भी तुलसीका ही तप अधिक मानते हैं ॥ १९ ॥ 

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शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

जय-विजय को सनकादि का शाप

मैत्रेय उवाच ।
स प्रहस्य महाबाहो भगवान् शब्दगोचरः ।
प्रत्याचष्टात्मभूर्देवान् प्रीणन् रुचिरया गिरा ॥ ११ ॥

ब्रह्मोवाच ।
मानसा मे सुता युष्मत् पूर्वजाः सनकादयः ।
चेरुर्विहायसा लोकान् लोकेषु विगतस्पृहाः ॥ १२ ॥
त एकदा भगवतो वैकुण्ठस्यामलात्मनः ।
ययुर्वैकुण्ठनिलयं सर्वलोकनमस्कृतम् ॥ १३ ॥
वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठमूर्तयः ।
येऽनिमित्तनिमित्तेन धर्मेणाराधयन् हरिम् ॥ १४ ॥
यत्र चाद्यः पुमानास्ते भगवान् शब्दगोचरः ।
सत्त्वं विष्टभ्य विरजं स्वानां नो मृडयन् वृषः ॥ १५ ॥
यत्र नैःश्रेयसं नाम वनं कामदुघैर्द्रुमैः ।
सर्वर्तुश्रीभिर्विभ्राजत् कैवल्यमिव मूर्तिमत् ॥ १६ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—महाबाहो ! देवताओंकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ ब्रह्माजी हँसे और उन्हें अपनी मधुर वाणीसे आनन्दित करते हुए कहने लगे ॥ ११ ॥
श्रीब्रह्माजी ने कहा—देवताओ ! तुम्हारे पूर्वज, मेरे मानसपुत्र सनकादि लोकों की आसक्ति त्यागकर समस्त लोकों में आकाशमार्ग से विचरा करते थे ॥ १२ ॥ एक बार वे भगवान्‌ विष्णु के शुद्ध-सत्त्वमय सब लोकोंके शिरोभागमें स्थित, वैकुण्ठधाममें जा पहुँचे ॥ १३ ॥ वहाँ सभी लोग विष्णुरूप होकर रहते हैं और वह प्राप्त भी उन्हींको होता है, जो अन्य सब प्रकारकी कामनाएँ छोडक़र केवल भगवच्चरण-शरणकी प्राप्तिके लिये ही अपने धर्मद्वारा उनकी आराधना करते हैं ॥ १४ ॥ वहाँ वेदान्तप्रतिपाद्य धर्ममूर्ति श्रीआदिनारायण हम अपने भक्तों को सुख देनेके लिये शुद्धसत्त्वमय स्वरूप धारणकर हर समय विराजमान रहते हैं ॥ १५ ॥ उस लोकमें नै:श्रेयस नामका एक वन है, जो मूर्तिमान् कैवल्य-सा ही जान पड़ता है। वह सब प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करने वाले वृक्षों से सुशोभित है, जो स्वयं हर समय छहों ऋतुओं की शोभा से सम्पन्न रहते हैं ॥१६ ॥

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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

जय-विजय को सनकादि का शाप

ये त्वानन्येन भावेन भावयन्त्यात्मभावनम् ।
आत्मनि प्रोतभुवनं परं सदसदात्मकम् ॥ ६ ॥
तेषां सुपक्वयोगानां जितश्वासेन्द्रियात्मनाम् ।
लब्धयुष्मत् प्रसादानां न कुतश्चित्पराभवः ॥ ७ ॥
यस्य वाचा प्रजाः सर्वा गावस्तन्त्येव यन्त्रिताः ।
हरन्ति बलिमायत्ताः तस्मै मुख्याय ते नमः ॥ ८ ॥
स त्वं विधत्स्व शं भूमन् तमसा लुप्तकर्मणाम् ।
अदभ्रदयया दृष्ट्या आपन्नानर्हसीक्षितुम् ॥ ९ ॥
एष देव दितेर्गर्भ ओजः काश्यपमर्पितम् ।
दिशस्तिमिरयन् सर्वा वर्धतेऽग्निरिवैधसि ॥ १० ॥

(देवता ब्रह्माजी से कहरहे हैं) आप में सम्पूर्ण भुवन स्थित हैं, कार्य-कारणरूप सारा प्रपञ्च आपका शरीर है; किन्तु वास्तव में आप इससे परे हैं । जो समस्त जीवों के उत्पत्तिस्थान आपका अनन्य भाव से ध्यान करते हैं, उन सिद्ध योगियों का किसी प्रकार भी ह्रास नहीं हो सकता; क्योंकि वे आपके कृपाकटाक्ष से कृतकृत्य हो जाते हैं तथा प्राण, इन्द्रिय और मनको जीत लेनेके कारण उनका योग भी परिपक्व हो जाता है ॥ ६-७ ॥ रस्सीसे बँधे हुए बैलों की भाँति आपकी वेदवाणी से जकड़ी हुई सारी प्रजा आपकी अधीनता में नियमपूर्वक कर्मानुष्ठान करके आपको बलि समर्पित करती है। आप सबके नियन्ता मुख्य प्राण हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ८ ॥ भूमन् ! इस अन्धकार के कारण दिन-रात का विभाग अस्पष्ट हो जाने से लोकों के सारे कर्म लुप्त होते जा रहे हैं, जिससे वे दुखी हो रहे हैं; उनका कल्याण कीजिये और हम शरणागतों की ओर अपनी अपार दयादृष्टि से निहारिये ॥ ९ ॥ देव ! आग जिस प्रकार र्ईंधनमें पडक़र बढ़ती रहती है, उसी प्रकार कश्यपजीके वीर्यसे स्थापित हुआ यह दिति का गर्भ सारी दिशाओं को अन्धकारमय करता हुआ क्रमश: बढ़ रहा है ॥ १० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

जय-विजय को सनकादि का शाप

मैत्रेय उवाच ।
प्राजापत्यं तु तत्तेजः परतेजोहनं दितिः ।
दधार वर्षाणि शतं शङ्कमाना सुरार्दनात् ॥ १ ॥
लोके तेनाहतालोके लोकपाला हतौजसः ।
न्यवेदयन्विश्वसृजे ध्वान्तव्यतिकरं दिशाम् ॥ २ ॥

देवा ऊचुः
तम एतद्विभो वेत्थ संविग्ना यद्वयं भृशम् ।
न ह्यव्यक्तं भगवतः कालेनास्पृष्टवर्त्मनः ॥ ३ ॥
देवदेव जगद्धातः लोकनाथशिखामणे ।
परेषामपरेषां त्वं भूतानामसि भाववित् ॥ ४ ॥
नमो विज्ञानवीर्याय माययेदमुपेयुषे ।
गृहीतगुणभेदाय नमस्तेऽव्यक्तयोनये ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेयजी ने कहा—विदुरजी ! दितिको अपने पुत्रोंसे देवताओं को कष्ट पहुँचने की आशङ्का थी, इसलिये उसने दूसरों के तेज का नाश करनेवाले उस कश्यपजी के तेज (वीर्य) को सौ वर्षों तक अपने उदर में ही रखा ॥ १ ॥ उस गर्भस्थ तेज से ही लोकों में सूर्यादि का प्रकाश क्षीण होने लगा तथा इन्द्रादि लोकपाल भी तेजोहीन हो गये। तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर कहा कि सब दिशाओं में अन्धकार के कारण बड़ी अव्यवस्था हो रही है ॥ २ ॥
देवताओं ने कहा—भगवन् ! काल आपकी ज्ञानशक्ति को कुण्ठित नहीं कर सकता, इसलिये आपसे कोई बात छिपी नहीं है। आप इस अन्धकार के विषय में भी जानते ही होंगे, हम तो इससे बड़े ही भयभीत हो रहे हैं ॥ ३ ॥ देवाधिदेव ! आप जगत् के रचयिता और समस्त लोकपालों के मुकुटमणि हैं। आप छोटे-बड़े सभी जीवों का भाव जानते हैं ॥ ४ ॥ देव ! आप विज्ञानबलसम्पन्न हैं; आपने मायासे ही यह चतुर्मुख रूप और रजोगुण स्वीकार किया है; आपकी उत्पत्ति के वास्तविक कारण को कोई नहीं जान सकता। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

दिति का गर्भधारण

स वै महाभागवतो महात्मा
    महानुभावो महतां महिष्ठः ।
प्रवृद्धभक्त्या ह्यनुभाविताशये
    निवेश्य वैकुण्ठमिमं विहास्यति ॥ ४७ ॥
अलम्पटः शीलधरो गुणाकरो
    हृष्टः परर्ध्या व्यथितो दुःखितेषु ।
अभूतशत्रुर्जगतः शोकहर्ता
    नैदाघिकं तापमिवोडुराजः ॥ ४८ ॥
अन्तर्बहिश्चामलमब्जनेत्रं
    स्वपूरुषेच्छानुगृहीतरूपम् ।
पौत्रस्तव श्रीललनाललामं
    द्रष्टा स्फुरत्कुण्डलमण्डिताननम् ॥ ४९ ॥

मैत्रेय उवाच ।
श्रुत्वा भागवतं पौत्रं अमोदत दितिर्भृशम् ।
पुत्रयोश्च वधं कृष्णाद् विदित्वाऽऽसीन् महामनाः ॥ ५० ॥

 (कश्यपजी कहते हैं) दिति ! वह बालक बड़ा ही भगवद्भक्त, उदारहृदय, प्रभावशाली और महान् पुरुषोंका भी पूज्य होगा। तथा प्रौढ़ भक्तिभावसे विशुद्ध और भावान्वित हुए अन्त:करणमें श्रीभगवान्‌को स्थापित करके देहाभिमानको त्याग देगा ॥ ४७ ॥ वह विषयोंमें अनासक्त, शीलवान्, गुणोंका भंडार तथा दूसरोंकी समृद्धिमें सुख और दु:खमें दु:ख माननेवाला होगा। उसका कोई शत्रु न होगा, तथा चन्द्रमा जैसे ग्रीष्म ऋतुके तापको हर लेता है, वैसे ही वह संसारके शोकको शान्त करनेवाला होगा ॥ ४८ ॥ जो इस संसारके बाहर-भीतर सब ओर विराजमान हैं, अपने भक्तोंके इच्छानुसार समय-समयपर मङ्गलविग्रह प्रकट करते हैं और लक्ष्मीरूप लावण्यमूर्ति ललनाकी भी शोभा बढ़ानेवाले हैं, तथा जिनका मुखमण्डल झिलमिलाते हुए कुण्डलों से सुशोभित है—उन परम पवित्र कमलनयन श्रीहरि का तुम्हारे पौत्र को प्रत्यक्ष दर्शन होगा ॥ ४९ ॥
श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! दिति ने जब सुना कि मेरा पौत्र भगवान्‌ का भक्त होगा, तब उसे बड़ा आनन्द हुआ तथा यह जानकर कि मेरे पुत्र साक्षात् श्रीहरि के हाथसे मारे जायँगे, उसे और भी अधिक उत्साह हुआ ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे दितिकश्यपसंवादे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

दिति का गर्भधारण

कश्यप उवाच ।
अप्रायत्यादात्मनस्ते दोषान्मौहूर्तिकादुत ।
मन्निदेशातिचारेण देवानां चातिहेलनात् ॥ ३७ ॥
भविष्यतस्तवाभद्रौ अभद्रे जाठराधमौ ।
लोकान्सपालांस्त्रींश्चण्डि मुहुराक्रन्दयिष्यतः ॥ ३८ ॥
प्राणिनां हन्यमानानां दीनानां अकृतागसाम् ।
स्त्रीणां निगृह्यमाणानां कोपितेषु महात्मसु ॥ ३९ ॥
तदा विश्वेश्वरः क्रुद्धो भगवान् लोकभावनः ।
हनिष्यत्यवतीर्यासौ यथाद्रीन् शतपर्वधृक् ॥ ४० ॥

दितिरुवाच ।
वधं भगवता साक्षान् सुनाभोदारबाहुना ।
आशासे पुत्रयोर्मह्यं मा क्रुद्धाद्ब्रारह्मणाद् विभो ॥ ४१ ॥
न ब्रह्मदण्डदग्धस्य न भूतभयदस्य च ।
नारकाश्चानुगृह्णन्ति यां यां योनिमसौ गतः ॥ ४२ ॥

कश्यप उवाच ।
कृतशोकानुतापेन सद्यः प्रत्यवमर्शनात् ।
भगवत्युरुमानाच्च भवे मय्यपि चादरात् ॥ ४३ ॥
पुत्रस्यैव च पुत्राणां भवितैकः सतां मतः ।
गास्यन्ति यद्यशः शुद्धं भगवद्यशसा समम् ॥ ४४ ॥
योगैर्हेमेव दुर्वर्णं भावयिष्यन्ति साधवः ।
निर्वैरादिभिरात्मानं यच्छीलमनुवर्तितुम् ॥ ४५ ॥
यत्प्रसादादिदं विश्वं प्रसीदति यदात्मकम् ।
स स्वदृग्भगवान् यस्य तोष्यतेऽनन्यया दृशा ॥ ४६ ॥

कश्यपजीने कहा—तुम्हारा चित्त कामवासनासे मलिन था, वह समय भी ठीक नहीं था और तुमने मेरी बात भी नहीं मानी तथा देवताओं की भी अवहेलना की ॥ ३७ ॥ अमङ्गलमयी चण्डी ! तुम्हारी कोखसे दो बड़े ही अमङ्गलमय और अधम पुत्र उत्पन्न होंगे। वे बार-बार सम्पूर्ण लोक और लोकपालों को अपने अत्याचारोंसे रुलायेंगे ॥ ३८ ॥ जब उनके हाथ से बहुत-से निरपराध और दीन प्राणी मारे जाने लगेंगे, स्त्रियों पर अत्याचार होने लगेंगे और महात्माओं को क्षुब्ध किया जाने लगेगा, उस समय सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करनेवाले श्रीजगदीश्वर कुपित होकर अवतार लेंगे और इन्द्र जैसे पर्वतोंका दमन करता है, उसी प्रकार उनका वध करेंगे ॥ ३९-४० ॥
दितिने कहा—प्रभो ! यही मैं भी चाहती हूँ कि यदि मेरे पुत्रोंका वध हो तो वह साक्षात् भगवान्‌ चक्रपाणिके हाथसे ही हो, कुपित ब्राह्मणोंके शापादिसे न हो ॥ ४१ ॥ जो जीव ब्राह्मणोंके शापसे दग्ध अथवा प्राणियोंको भय देनेवाला होता है, वह किसी भी योनिमें जाय—उसपर नारकी जीव भी दया नहीं करते ॥ ४२ ॥ कश्यपजीने कहा—देवि ! तुमने अपने किये पर शोक और पश्चात्ताप प्रकट किया है, तुम्हें शीघ्र ही उचित-अनुचितका विचार भी हो गया तथा भगवान्‌ विष्णु, शिव और मेरे प्रति भी तुम्हारा बहुत आदर जान पड़ता है; इसलिये तुम्हारे एक पुत्रके चार पुत्रोंमेंसे एक ऐसा होगा, जिसका सत्पुरुष भी मान करेंगे और जिसके पवित्र यशको भक्तजन भगवान्‌के गुणोंके साथ गायेंगे ॥ ४३-४४ ॥ जिस प्रकार खोटे सोनेको बार-बार तपाकर शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार साधुजन उसके स्वभावका अनुकरण करनेके लिये निर्वैरता आदि उपायोंसे अपने अन्त:करणको शुद्ध करेंगे ॥ ४५ ॥ जिनकी कृपासे उन्हींका स्वरूपभूत यह जगत् आनन्दित होता है, वे स्वयंप्रकाश भगवान्‌ भी उसकी अनन्य भक्तिसे सन्तुष्ट हो जायँगे ॥ ४६ ॥ 

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रविवार, 16 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

दिति का गर्भधारण

दितिरुवाच ।
न मे गर्भमिमं ब्रह्मन् भूतानां ऋषभोऽवधीत् ।
रुद्रः पतिर्हि भूतानां यस्याकरवमंहसम् ॥ ३३ ॥
नमो रुद्राय महते देवायोग्राय मीढुषे ।
शिवाय न्यस्तदण्डाय धृतदण्डाय मन्यवे ॥ ३४ ॥
स नः प्रसीदतां भामो भगवानुर्वनुग्रहः ।
व्याधस्याप्यनुकम्प्यानां स्त्रीणां देवः सतीपतिः ॥ ३५ ॥

मैत्रेय उवाच ।
स्वसर्गस्याशिषं लोक्यां आशासानां प्रवेपतीम् ।
निवृत्तसन्ध्यानियमो भार्यामाह प्रजापतिः ॥ ३६ ॥

दिति बोलीं—ब्रह्मन् ! भगवान्‌ रुद्र भूतोंके स्वामी हैं, मैंने उनका अपराध किया है; किन्तु वे भूतश्रेष्ठ मेरे इस गर्भ को नष्ट न करें ॥ ३३ ॥ मैं भक्तवाञ्छाकल्पतरु, उग्र एवं रुद्ररूप महादेव को नमस्कार करती हूँ। वे सत्पुरुषोंके लिये कल्याणकारी एवं दण्ड देनेके भावसे रहित हैं, किन्तु दुष्टोंके लिये क्रोधमूर्ति दण्डपाणि हैं ॥ ३४ ॥ हम स्त्रियोंपर तो व्याध भी दया करते हैं, फिर वे सतीपति तो मेरे बहनोई और परम कृपालु हैं; अत: वे मुझपर प्रसन्न हों ॥ ३५ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! प्रजापति कश्यपने सायंकालीन सन्ध्या-वन्दनादि कर्मसे निवृत्त होनेपर देखा कि दिति थर-थर काँपती हुई अपनी सन्तान की लौकिक और पारलौकिक उन्नतिके लिये प्रार्थना कर रही है। तब उन्होंने उससे कहा ॥ ३६ ॥

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शनिवार, 15 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

दिति का गर्भधारण

यस्यानवद्याचरितं मनीषिणो
    गृणन्त्यविद्यापटलं बिभित्सवः ।
निरस्तसाम्यातिशयोऽपि यत्स्वयं
    पिशाचचर्यामचरद्गसतिः सताम् ॥ २६ ॥
हसन्ति यस्याचरितं हि दुर्भगाः
    स्वात्मन् रतस्याविदुषः समीहितम् ।
यैर्वस्त्रमाल्याभरणानुलेपनैः
    श्वभोजनं स्वात्मतयोपलालितम् ॥ २७ ॥
ब्रह्मादयो यत्कृतसेतुपाला
    यत्कारणं विश्वमिदं च माया ।
आज्ञाकरी यस्य पिशाचचर्या
    अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम् ॥ २८ ॥

मैत्रेय उवाच ।
सैवं संविदिते भर्त्रा मन्मथोन् मथितेन्द्रिया ।
जग्राह वासो ब्रह्मर्षेः वृषलीव गतत्रपा ॥ २९ ॥
स विदित्वाथ भार्यायाः तं निर्बन्धं विकर्मणि ।
नत्वा दिष्टाय रहसि तयाथोपविवेश हि ॥ ३० ॥
अथोपस्पृश्य सलिलं प्राणानायम्य वाग्यतः ।
ध्यायन् जजाप विरजं ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् ॥ ३१ ॥
दितिस्तु व्रीडिता तेन कर्मावद्येन भारत ।
उपसङ्गम्य विप्रर्षिं अधोमुख्यभ्यभाषत ॥ ३२ ॥

(कश्यपजी दिति से कहरहे हैं) विवेकी पुरुष अविद्याके आवरणको हटाने की इच्छा से उनके (भगवान् शंकर के) निर्मल चरित्र का गान किया करते हैं; उनसे बढक़र तो क्या, उनके समान भी कोई नहीं है और उनतक केवल सत्पुरुषों की ही पहुँच है। यह सब होने पर भी वे स्वयं पिशाचोंका-सा आचरण करते हैं ॥ २६ ॥ यह नरशरीर कुत्तोंका भोजन है; जो अविवेकी पुरुष आत्मा मानकर वस्त्र, आभूषण, माला और चन्दनादि से इसीको सजाते-सँवारते रहते हैं—वे अभागे ही आत्माराम भगवान्‌ शङ्कर के आचरणपर हँसते हैं ॥ २७ ॥ हमलोग तो क्या, ब्रह्मादि लोकपाल भी उन्हीं की बाँधी हुई धर्म-मर्यादा का पालन करते हैं; वे ही इस विश्व के अधिष्ठान हंउ तथा यह माया भी उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करने वाली है। ऐसे होकर भी वे प्रेतों का-सा आचरण करते हैं। अहो ! उन जगद्व्यापक प्रभु की यह अद्भुत लीला कुछ समझ में नहीं आती’॥ २८॥ मैत्रेयजी कहते हैं—पतिके इस प्रकार समझानेपर भी कामातुरा दिति ने वेश्याके समान निर्लज्ज होकर ब्रहमर्षि कश्यपजी का वस्त्र पकड़ लिया ॥ २९ ॥ तब कश्यपजी ने उस निन्दित कर्म में अपनी भार्या का बहुत आग्रह देख दैव को नमस्कार किया और एकान्त में उसके साथ समागम किया ॥ ३० ॥ फिर जल में स्नानकर प्राण और वाणी का संयम करके विशुद्ध ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म का ध्यान करते हुए उसी का जप करने लगे ॥ ३१ ॥ विदुरजी ! दिति को भी उस निन्दित कर्मके कारण बड़ी लज्जा आयी और वह ब्रह्मर्षि के पास जा, सिर नीचा करके इस प्रकार कहने लगी ॥ ३२॥

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शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

दिति का गर्भधारण

न वयं प्रभवस्तां त्वां अनुकर्तुं गृहेश्वरि ।
अप्यायुषा वा कार्त्स्न्येन ये चान्ये गुणगृध्नवः ॥ २० ॥
अथापि काममेतं ते प्रजात्यै करवाण्यलम् ।
यथा मां नातिरोचन्ति मुहूर्तं प्रतिपालय ॥ २१ ॥
एषा घोरतमा वेला घोराणां घोरदर्शना ।
चरन्ति यस्यां भूतानि भूतेशानुचराणि ह ॥ २२ ॥
एतस्यां साध्वि सन्ध्यायां भगवान् भूतभावनः ।
परीतो भूतपर्षद्‌भिः वृषेणाटति भूतराट् ॥ २३ ॥
श्मशानचक्रानिलधूलिधूम्र
    विकीर्णविद्योतजटाकलापः ।
भस्मावगुण्ठामलरुक्मदेहो
    देवस्त्रिभिः पश्यति देवरस्ते ॥ २४ ॥
न यस्य लोके स्वजनः परो वा
    नात्यादृतो नोत कश्चिद्विगर्ह्यः ।
वयं व्रतैर्यत् चरणापविद्धां
    आशास्महेऽजां बत भुक्तभोगाम् ॥ २५ ॥

(कश्यपजी दिति से कहरहे हैं) गृहेश्वरि ! तुम-जैसी भार्याके उपकारों का बदला तो हम अथवा और कोई भी गुणग्राही पुरुष अपनी सारी उम्र में अथवा जन्मान्तरमें भी पूर्णरूप से नहीं चुका सकते ॥ २० ॥ तो भी तुम्हारी इस सन्तान-प्राप्ति की इच्छा को मैं यथाशक्ति अवश्य पूर्ण करूँगा। परन्तु अभी तुम एक मुहूर्त ठहरो, जिससे लोग मेरी निन्दा न करें ॥ २१ ॥ यह अत्यन्त घोर समय राक्षसादि घोर जीवों का है और देखने में भी बड़ा भयानक है। इसमें भगवान्‌ भूतनाथ के गण भूत-प्रेतादि घूमा करते हैं ॥ २२ ॥ साध्वि ! इस सन्ध्याकाल में भूतभावन भूतपति भगवान्‌ शङ्कर अपने गण भूत- प्रेतादि को साथ लिये बैलपर चढक़र विचरा करते हैं ॥ २३ ॥ जिनका जटाजूट श्मशानभूमि से उठे हुए बवंडरकी धूलिसे धूसरित होकर देदीप्यमान हो रहा है तथा जिनके सुवर्ण-कान्तिमय गौर शरीरमें भस्म लगी हुई है, वे तुम्हारे देवर (श्वशुर) महादेवजी अपने सूर्य, चन्द्रमा और अग्निरूप तीन नेत्रोंसे सभीको देखते रहते हैं ॥ २४ ॥ संसारमें उनका कोई अपना या पराया नहीं है। न कोई अधिक आदरणीय और न निन्दनीय ही है। हमलोग तो अनेक प्रकारके व्रतोंका पालन करके उनकी मायाको ही ग्रहण करना चाहते हैं, जिसे उन्होंने भोगकर लात मार दी है ॥ २५ ॥ 

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गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

दिति का गर्भधारण

इति तां वीर मारीचः कृपणां बहुभाषिणीम् ।
प्रत्याहानुनयन् वाचा प्रवृद्धानङ्गकश्मलाम् ॥ १५ ॥
एष तेऽहं विधास्यामि प्रियं भीरु यदिच्छसि ।
तस्याः कामं न कः कुर्यात् सिद्धिस्त्रैवर्गिकी यतः ॥ १६ ॥
सर्वाश्रमानुपादाय स्वाश्रमेण कलत्रवान् ।
व्यसनार्णवमत्येति जलयानैर्यथार्णवम् ॥ १७ ॥
यामाहुरात्मनो ह्यर्धं श्रेयस्कामस्य मानिनि ।
यस्यां स्वधुरमध्यस्य पुमांश्चरति विज्वरः ॥ १८ ॥
यामाश्रित्येन्द्रियारातीन् दुर्जयानितराश्रमैः ।
वयं जयेम हेलाभिः दस्यून् दुर्गपतिर्यथा ॥ १९ ॥

विदुरजी ! दिति कामदेव के वेग से अत्यन्त बेचैन और बेबस हो रही थी। उसने इसी प्रकार बहुत-सी बातें बनाते हुए दीन होकर कश्यप जी से प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे सुमधुर वाणी से समझाते हुए कहा ॥ १५ ॥ ‘भीरु ! तुम्हारी इच्छाके अनुसार मैं अभी-अभी तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा। भला, जिसके द्वारा अर्थ, धर्म और काम—तीनोंकी सिद्धि होती है, अपनी ऐसी पत्नीकी कामना कौन पूर्ण नहीं करेगा ? ॥ १६ ॥ जिस प्रकार जहाजपर चढक़र मनुष्य महासागर को पार कर लेता है, उसी प्रकार गृहस्थाश्रमी दूसरे आश्रमों को आश्रय देता हुआ अपने आश्रमद्वारा स्वयं भी दु:खसमुद्र के पार हो जाता है ॥ १७ ॥ मानिनि ! स्त्री को तो त्रिविध पुरुषार्थ की कामनावाले पुरुषका आधा अङ्ग कहा गया है। उसपर अपनी गृहस्थीका भार डालकर पुरुष निश्चिन्त होकर विचरता है ॥ १८ ॥ इन्द्रियरूप शत्रु अन्य आश्रमवालोंके लिये अत्यन्त दुर्जय हैं; किन्तु जिस प्रकार किले का स्वामी सुगमता से ही लूटनेवाले शत्रुओं को अपने अधीन कर लेता है, उसी प्रकार हम अपनी विवाहिता पत्नी का आश्रय लेकर इन इन्द्रियरूप शत्रुओं को सहजमें ही जीत लेते हैं ॥१९ ॥ 

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बुधवार, 12 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

दिति का गर्भधारण

दितिर्दाक्षायणी क्षत्तः मारीचं कश्यपं पतिम् ।
अपत्यकामा चकमे सन्ध्यायां हृच्छयार्दिता ॥ ७ ॥
इष्ट्वाग्निजिह्वं पयसा पुरुषं यजुषां पतिम् ।
निम्लोचत्यर्क आसीनं अग्न्यगारे समाहितम् ॥ ८ ॥

दितिरुवाच ।
एष मां त्वत्कृते विद्वन् काम आत्तशरासनः ।
दुनोति दीनां विक्रम्य रम्भामिव मतङ्गजः ॥ ९ ॥
तद्भतवान् दह्यमानायां सपत्नीजनां समृद्धिभिः ।
प्रजावतीनां भद्रं ते मय्यायुङ्क्तामनुग्रहम् ॥ १० ॥
भर्तर्याप्तोरुमानानां लोकानाविशते यशः ।
पतिर्भवद्विधो यासां प्रजया ननु जायते ॥ ११ ॥
पुरा पिता नो भगवान् दक्षो दुहितृवत्सलः ।
कं वृणीत वरं वत्सा इत्यपृच्छत नः पृथक् ॥ १२ ॥
स विदित्वात्मजानां नो भावं सन्तानभावनः ।
त्रयोदशाददात्तासां यास्ते शीलमनुव्रताः ॥ १३ ॥
अथ मे कुरु कल्याण कामं कञ्जविलोचन ।
आर्तोपसर्पणं भूमन् अमोघं हि महीयसि ॥ १४ ॥

(श्रीमैत्रेयजी कहते हैं) विदुरजी ! एक बार दक्षकी पुत्री दिति ने पुत्रप्राप्ति की इच्छासे कामातुर होकर सायंकाल के समय ही अपने पति मरीचिनन्दन कश्यपजीसे प्रार्थना की ॥ ७ ॥ उस समय कश्यपजी खीर की आहुतियों द्वारा अग्निजिह्व भगवान्‌ यज्ञपति की आराधना कर सूर्यास्त का समय जान अग्निशाला में ध्यानस्थ होकर बैठे थे ॥ ८ ॥
दितिने कहा—विद्वन् ! मतवाला हाथी जैसे केलेके वृक्षको मसल डालता है, उसी प्रकार यह प्रसिद्ध धनुर्धर कामदेव मुझ अबला पर जोर जताकर आप के लिये मुझे बेचैन कर रहा है ॥ ९ ॥ अपनी पुत्रवती सौतोंकी सुख-समृद्धि को देखकर मैं ईर्ष्या की आगसे जली जाती हूँ। अत: आप मुझपर कृपा कीजिये, आपका कल्याण हो ॥ १० ॥ जिनके गर्भसे आप-जैसा पति पुत्ररूप से उत्पन्न होता है, वे ही स्त्रियाँ अपने पतियों से सम्मानिता समझी जाती हैं। उनका सुयश संसारमें सर्वत्र फैल जाता है ॥ ११ ॥ हमारे पिता प्रजापति दक्षका अपनी पुत्रियोंपर बड़ा स्नेह था। एक बार उन्होंने हम सबको अलग-अलग बुलाकर पूछा कि ‘तुम किसे अपना पति बनाना चाहती हो ?’ ॥ १२ ॥ वे अपनी सन्तान की सब प्रकारकी चिन्ता रखते थे। अत: हमारा भाव जानकर उन्होंने उनमेंसे हम तेरह पुत्रियोंको, जो आपके गुण-स्वभावके अनुरूप थीं, आपके साथ ब्याह दिया ॥ १३ ॥ अत: मङ्गलमूर्ते ! कमलनयन ! आप मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये; क्योंकि हे महत्तम ! आप-जैसे महापुरुषोंके पास दीनजनोंका आना निष्फल नहीं होता ॥ १४ ॥

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मंगलवार, 11 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

दिति का गर्भधारण

श्रीशुक उवाच ।
निशम्य कौषारविणोपवर्णितां
    हरेः कथां कारणसूकरात्मनः ।
पुनः स पप्रच्छ तमुद्यताञ्जलिः
    न चातितृप्तो विदुरो धृतव्रतः ॥ १ ॥

विदुर उवाच ।
तेनैव तु मुनिश्रेष्ठ हरिणा यज्ञमूर्तिना ।
आदिदैत्यो हिरण्याक्षो हत इत्यनुशुश्रुम ॥ २ ॥
तस्य चोद्धरतः क्षौणीं स्वदंष्ट्राग्रेण लीलया ।
दैत्यराजस्य च ब्रह्मन् कस्माद् हेतोरभून्मृधः ॥ ३ ॥

मैत्रेय उवाच ।
साधु वीर त्वया पृष्टं अवतारकथां हरेः ।
यत्त्वं पृच्छसि मर्त्यानां मृत्युपाशविशातनीम् ॥ ४ ॥
ययोत्तानपदः पुत्रो मुनिना गीतयार्भकः ।
मृत्योः कृत्वैव मूर्ध्न्यङ्‌घ्रिं आरुरोह हरेः पदम् ॥ ५ ॥
अथात्रापीतिहासोऽयं श्रुतो मे वर्णितः पुरा ।
ब्रह्मणा देवदेवेन देवानां अनुपृच्छताम् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन् ! प्रयोजनवश सूकर बने श्रीहरि की कथा को मैत्रेयजी के मुखसे सुनकर भी भक्तिव्रतधारी विदुरजी को पूर्ण तृप्ति न हुई; अत: उन्होंने हाथ जोडक़र फिर पूछा ॥ १ ॥
विदुरजी ने कहा—मुनिवर ! हमने यह बात आप के मुखसे अभी सुनी है कि आदिदैत्य हिरण्याक्षको भगवान्‌ यज्ञमूर्तिने ही मारा था ॥ २ ॥ ब्रह्मन् ! जिस समय भगवान्‌ लीलासे ही अपनी दाढ़ों पर रखकर पृथ्वी को जलमें से निकाल रहे थे, उस समय उनसे दैत्यराज हिरण्याक्ष की मुठभेड़ किस कारण हुई ? ॥ ३ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! तुम्हारा प्रश्र बड़ा ही सुन्दर है; क्योंकि तुम श्रीहरि की अवतारकथा के विषय में ही पूछ रहे हो, जो मनुष्योंके मृत्युपाश का छेदन करनेवाली है ॥ ४ ॥ देखो, उत्तानपाद का पुत्र ध्रुव बालकपन में श्रीनारदजी की सुनायी हुई हरिकथा के प्रभाव से ही मृत्यु के सिरपर पैर रखकर भगवान्‌ के परमपदपर आरूढ़ हो गया था ॥ ५ ॥ पूर्वकाल में एक बार इसी वराह- भगवान्‌ और हिरण्याक्ष के युद्ध के विषय में देवताओं के प्रश्न करनेपर देवदेव श्रीब्रह्माजी ने उन्हें यह इतिहास सुनाया था और उसीके परम्परासे मैंने सुना है ॥ ६ ॥ 

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सोमवार, 10 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

वाराह अवतार की कथा

तस्मिन्प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौ
    किं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभिः ।
अनन्यदृष्ट्या भजतां गुहाशयः
    स्वयं विधत्ते स्वगतिं परः पराम् ॥ ४९ ॥
को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्
    पुराकथानां भगवत्कथासुधाम् ।
आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवापहा-
    महो विरज्येत विना नरेतरम् ॥ ५० ॥

भगवान्‌ तो सभी कामनाओं को पूर्ण करनेमें समर्थ हैं, उनके प्रसन्न होने पर संसारमें क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है ? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परम पद ही दे देते हैं ॥ ४९ ॥ अरे ! संसार में पशुओं को छोडक़र अपने पुरुषार्थ का सार जानने वाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमन से छुड़ा देनेवाली भगवान्‌ की प्राचीन कथाओं में से किसी भी अमृतमयी कथा का अपने कर्णपुटों से एक बार पान करके फिर उनकी ओर से मन हटा लेगा ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे वराहप्रादुर्भावानुवर्णनं त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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रविवार, 9 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

वाराह अवतार की कथा

मैत्रेय उवाच ।

इत्युपस्थीयमानस्तैः मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः ।
सलिले स्वखुराक्रान्त उपाधत्तावितावनिम् ॥ ४६ ॥
स इत्थं भगवानुर्वीं विष्वक्सेनः प्रजापतिः ।
रसाया लीलयोन्नीतां अप्सु न्यस्य ययौ हरिः ॥ ४७ ॥
य एवमेतां हरिमेधसो हरेः
कथां सुभद्रां कथनीयमायिनः ।
शृण्वीत भक्त्या श्रवयेत वोशतीं
जनार्दनोऽस्याशु हृदि प्रसीदति ॥ ४८ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! उन ब्रह्मवादी मुनियोंके इस प्रकार स्तुति करने पर सबकी रक्षा करनेवाले वराहभगवान्‌ ने अपने खुरों से जलको स्तम्भित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया ॥ ४६ ॥ इस प्रकार रसातल से लीलापूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जलपर रखकर वे विष्वक्सेन प्रजापति भगवान्‌ श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ॥ ४७ ॥
विदुरजी ! भगवान्‌के लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनीय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब प्रकारके पाप-तापोंको दूर कर देती है। जो पुरुष उनकी इस मङ्गलमयी मञ्जुल कथा को भक्तिभावसे सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान्‌ अन्तस्तलसे बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४८ ॥

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शनिवार, 8 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

वाराह अवतार की कथा

कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो
    रसां गताया भुव उद्विबर्हणम् ।
न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये
    यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥ ४३ ॥
विधुन्वता वेदमयं निजं वपुः
    जनस्तपःसत्यनिवासिनो वयम् ।
सटाशिखोद्धूत शिवाम्बुबिन्दुभिः
    विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥ ४४ ॥
स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते
    यः कर्मणां पारमपारकर्मणः ।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं
    विश्वं समस्तं भगवन्विधेहि शम् ॥ ४५ ॥

प्रभो ! रसातलमें डूबी हुई इस पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किन्तु आप तो सम्पूर्ण आश्चर्योंके आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। आपने ही तो अपनी मायासे इस अत्याश्चर्यमय विश्वकी रचना की है ॥ ४३ ॥ जब आप अपने वेदमय विग्रहको हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदनके बालोंसे झरती हुई शीतल जलकी बूँदें गिरती हैं। ईश ! उनसे भीगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोकमें रहनेवाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं ॥ ४४ ॥ जो पुरुष आपके कर्मोंका पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आपके कर्मोंका कोई पार ही नहीं है। आपकी ही योगमायाके सत्त्वादि गुणोंसे यह सारा जगत् मोहित हो रहा है। भगवन् ! आप इसका कल्याण कीजिये ॥ ४५ ॥
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शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

वाराह अवतार की कथा

दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता
    विराजते भूधर भूः सभूधरा ।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता
    मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥ ४० ॥
त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं
    भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते ।
चकास्ति शृङ्गोढघनेन भूयसा
    कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥ ४१ ॥
संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां
    लोकाय पत्नीसमसि मातरं पिता ।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वया
    यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥ ४२ ॥

पृथ्वीको धारण करनेवाले भगवन् ! आपकी दाढ़ोंकी नोकपर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वनमें से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो ॥ ४० ॥ आपके दाँतोंपर रखे हुए भूमण्डलके सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरोंपर छायी हुई मेघमालासे कुलपर्वतकी शोभा होती है ॥ ४१ ॥ नाथ ! चराचर जीवोंके सुखपूर्वक रहनेके लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वीको जलपर स्थापित कीजिये। आप जगत् के पिता हैं और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारण- शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है। हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं ॥ ४२ ॥ 

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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

वाराह अवतार की कथा

दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं
    त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः ।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः
    सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥ ३७ ॥
सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः
    संस्थाविभेदास्तव देव धातवः ।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि-
    स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥ ३८ ॥
नमो नमस्तेऽखिलमन्त्रदेवता
    द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने ।
वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित
    ज्ञानाय विद्यागुरवे नमो नमः ॥ ३९ ॥

बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरूप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ) हैं; दोनों दाढ़ें प्रायणीय (दीक्षाके बादकी इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्ति- की इष्टि) हैं; जिह्वा प्रवर्ग्य(प्रत्येक उपसदके पूर्व किया जानेवाला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अग्नि) और आवसथ्य (औपासनाग्नि) हैं तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं ॥ ३७ ॥ देव ! आपका वीर्य सोम है; आसन (बैठना) प्रात:सवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उप्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नामकी सात संस्थाएँ हैं तथा शरीरकी सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित याग) और क्रतु (सोमसहित याग) रूप हैं। यज्ञानुष्ठानरूप इष्टियाँ आपके अङ्गोंको मिलाये रखनेवाली मांसपेशियाँ हैं ॥ ३८ ॥ समस्त मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। वैराग्य, भक्ति और मनकी एकाग्रतासे जिस ज्ञानका अनुभव होता है, वह आपका स्वरूप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु हैं; आपको पुन:-पुन: प्रणाम है ॥ ३९ ॥ 

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बुधवार, 5 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

वाराह अवतार की कथा

ऋषय ऊचुः

जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन
    त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद् रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वराः
    तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥ ३४ ॥
रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां
    दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् ।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम-
    स्वाज्यं दृशि त्वङ्‌घ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥ ३५ ॥
स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयोः
    इडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे ।
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते
    यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥ ३६ ॥

ऋषियोंने कहा—भगवान्‌ अजित् ! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते ! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार है। आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपने पृथ्वीका उद्धार करने के लिये ही यह सूकररूप धारण किया है; आपको नमस्कार है ॥३४॥ देव ! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है । इसकी त्वचामें गायत्री आदि छन्द, रोमावलीमें कुश, नेत्रोंमें घृत तथा चारों चरणोंमें होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा—इन चारों ऋत्विजोंके कर्म हैं ॥ ३५ ॥ ईश ! आपकी थूथनी (मुखके अग्रभाग)में स्रुक् है, नासिकाछिद्रों में स्रुवा है, उदरमें इडा (यज्ञीय भक्षणपात्र) है, कानोंमें चमस है, मुखमें प्राशित्र (ब्रह्मभागपात्र) है और कण्ठछिद्रमें ग्रह (सोमपात्र) है। भगवन् ! आपका जो चबाना है, वही अग्निहोत्र है ॥ ३६ ॥ 

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मंगलवार, 4 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

वाराह अवतार की कथा

खुरैः क्षुरप्रैर्दरयंस्तदाप
    उत्पारपारं त्रिपरू रसायाम् ।
ददर्श गां तत्र सुषुप्सुरग्रे
    यां जीवधानीं स्वयमभ्यधत्त ॥ ३० ॥
स्वदंष्ट्रयोद्धृत्य महीं निमग्नां
    स उत्थितः संरुरुचे रसायाः ।
तत्रापि दैत्यं गदयापतन्तं
    सुनाभसन्दीपिततीव्रमन्युः ॥ ३१ ॥
जघान रुन्धानमसह्यविक्रमं
    स लीलयेभं मृगराडिवाम्भसि ।
तद्रक्तपङ्काङ्‌कितगण्डतुण्डो
    यथा गजेन्द्रो जगतीं विभिन्दन् ॥ ३२ ॥
तमालनीलं सितदन्तकोट्या
    क्ष्मामुत्क्षिपन्तं गजलीलयाङ्ग ।
प्रज्ञाय बद्धाञ्जलयोऽनुवाकैः
    विरिञ्चिमुख्या उपतस्थुरीशम् ॥ ३३ ॥

तब भगवान्‌ यज्ञमूर्ति अपने बाणके समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के उस पार पहुँचे। वहाँ रसातल में उन्होंने समस्त जीवोंकी आश्रयभूता पृथ्वीको देखा, जिसे कल्पान्त में शयन करने के लिये उद्यत श्रीहरि ने स्वयं अपने ही उदरमें लीन कर लिया था ॥ ३० ॥
फिर, वे (वराहभगवान्‌) जलमें डूबी हुई पृथ्वीको अपनी दाढ़ोंपर लेकर रसातल से ऊपर आये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जलसे बाहर आते समय उनके मार्गमें विघ्र डालनेके लिये महापराक्रमी हिरण्याक्षने जलके भीतर ही उनपर गदासे आक्रमण किया। इससे उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया और उन्होंने उसे लीलासे ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथीको मार डालता है। उस समय उसके रक्तसे थूथनी तथा कनपटी सन जानेके कारण वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टीके टीलेमें टक्कर मारकर आया हो ॥३१-३२॥ तात ! जैसे गजराज अपने दाँतोंपर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफेद दाँतोंकी नोकपर पृथ्वी को धारण कर जलसे बाहर निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराहभगवान्‌ को देखकर ब्रह्मा, मरीचि आदि को निश्चय हो गया कि ये भगवान्‌ ही हैं । तब वे हाथ जोडक़र वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३३ ॥

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सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

वाराह अवतार की कथा

तेषां सतां वेदवितानमूर्तिः
    ब्रह्मावधार्यात्मगुणानुवादम् ।
विनद्य भूयो विबुधोदयाय
    गजेन्द्रलीलो जलमाविवेश ॥ २६ ॥
उत्क्षिप्तवालः खचरः कठोरः
    सटा विधुन्वन् खररोमशत्वक् ।
खुराहताभ्रः सितदंष्ट्र ईक्षा
    ज्योतिर्बभासे भगवान्महीध्रः ॥ २७ ॥
घ्राणेन पृथ्व्याः पदवीं विजिघ्रन्
    क्रोडापदेशः स्वयमध्वराङ्गः ।
करालदंष्ट्रोऽप्यकरालदृग्भ्याम्
    उद्वीक्ष्य विप्रान् गृणतोऽविशत्कम् ॥ २८ ॥
स वज्रकूटाङ्गनिपातवेग
    विशीर्णकुक्षिः स्तनयन्नुदन्वान् ।
उत्सृष्टदीर्घोर्मिभुजैरिवार्तः
    चुक्रोश यज्ञेश्वर पाहि मेति ॥ २९ ॥

भगवान्‌ के स्वरूप का वेदों में विस्तारसे वर्णन किया गया है; अत: उन मुनीश्वरों ने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान्‌ बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओं के हित के लिये गजराजकी-सी लीला करते हुए जल में घुस गये ॥ २६ ॥ पहले वे सूकररूप भगवान्‌ पूँछ उठाकर बड़े वेगसे आकाशमें उछले और अपनी गर्दनके बालोंको फटकारकर खुरोंके आघातसे बादलोंको छितराने लगे। उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचापर कड़े-कड़े बाल थे, दाढ़ें सफेद थीं और नेत्रोंसे तेज निकल रहा था, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥ २७ ॥ भगवान्‌ स्वयं यज्ञपुरुष हैं तथापि सूकररूप धारण करने के कारण अपने नाकसे सूँघ-सूँघकर पृथ्वीका पता लगा रहे थे। उनकी दाढ़ें बड़ी कठोर थीं। इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करनेवाले मरीचि आदि मुनियोंकी ओर बड़ी सौम्य दृष्टिसे निहारते हुए उन्होंने जलमें प्रवेश किया ॥ २८ ॥ जिस समय उनका वज्रमय पर्वतके समान कठोर कलेवर जलमें गिरा, तब उसके वेगसे मानो समुद्रका पेट फट गया और उसमें बादलोंकी गडग़ड़ाहटके समान बड़ा भीषण शब्द हुआ। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो अपनी उत्ताल तरङ्गरूप भुजाओंको उठाकर वह बड़े आर्तस्वरसे ‘हे यज्ञेश्वर ! मेरी रक्षा करो।’ इस प्रकार पुकार रहा है ॥ २९ ॥ 

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रविवार, 2 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

वाराह अवतार की कथा

इत्यभिध्यायतो नासा विवरात्सहसानघ ।
वराहतोको निरगाद् अङ्गुष्ठपरिमाणकः ॥ १८ ॥
तस्याभिपश्यतः खस्थः क्षणेन किल भारत ।
गजमात्रः प्रववृधे तदद्भुेतं अभून्महत् ॥ १९ ॥
मरीचिप्रमुखैर्विप्रैः कुमारैर्मनुना सह ।
दृष्ट्वा तत्सौकरं रूपं तर्कयामास चित्रधा ॥ २० ॥
किमेतत्सौकरव्याजं सत्त्वं दिव्यमवस्थितम् ।
अहो बताश्चर्यमिदं नासाया मे विनिःसृतम् ॥ २१ ॥
दृष्टोऽङ्गुष्ठशिरोमात्रः क्षणाद्गसण्डशिलासमः ।
अपि स्विद्भषगवानेष यज्ञो मे खेदयन्मनः ॥ २२ ॥
इति मीमांसतस्तस्य ब्रह्मणः सह सूनुभिः ।
भगवान् यज्ञपुरुषो जगर्जागेन्द्रसन्निभः ॥ २३ ॥
ब्रह्माणं हर्षयामास हरिस्तांश्च द्विजोत्तमान् ।
स्वगर्जितेन ककुभः प्रतिस्वनयता विभुः ॥ २४ ॥
निशम्य ते घर्घरितं स्वखेद
    क्षयिष्णु मायामयसूकरस्य ।
जनस्तपःसत्यनिवासिनस्ते त्रिभिः
    पवित्रैर्मुनयोऽगृणन् स्म ॥ २५ ॥

निष्पाप विदुरजी ! ब्रह्माजी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनके नासाछिद्र से अकस्मात् अँगूठे के बराबर आकार का एक वराह-शिशु निकला ॥ १८ ॥ भारत ! बड़े आश्चर्यकी बात तो यही हुई कि आकाशमें खड़ा हुआ वह वराह-शिशु ब्रह्माजीके देखते-ही-देखते बड़ा होकर क्षणभरमें हाथीके बराबर हो गया ॥ १९ ॥ उस विशाल वराह-मूर्तिको देखकर मरीचि आदि मुनिजन,सनकादि और स्वायम्भुव मनु के सहित श्रीब्रह्माजी तरह-तरहके विचार करने लगे—॥ २०॥ अहो ! सूकर के रूप में आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ प्रकट हुआ है ? कैसा आश्चर्य है ! यह अभी-अभी मेरी नाक से निकला था ॥ २१ ॥ पहले तो यह अँगूठे के पोरुए के बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक क्षणमें ही बड़ी भारी शिलाके समान हो गया। अवश्य ही यज्ञमूर्ति भगवान्‌ हमलोगों के मनको मोहित कर रहे हैं ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी और उनके पुत्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान्‌ यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे ॥ २३ ॥ सर्वशक्तिमान् श्रीहरिने अपनी गर्जनासे दिशाओंको प्रतिध्वनित करके ब्रह्मा और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको हर्षसे भर दिया ॥ २४ ॥ अपना खेद दूर करनेवाली मायामय वराहभगवान्‌ की घुरघुराहटको सुनकर वे जनलोक, तपलोक और सत्यलोकनिवासी मुनिगण तीनों वेदों के परम पवित्र मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ २५ ॥

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शनिवार, 1 फ़रवरी 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

वाराह अवतार की कथा

मनुरुवाच ।

आदेशेऽहं भगवतो वर्तेयामीवसूदन ।
स्थानं त्विहानुजानीहि प्रजानां मम च प्रभो ॥ १४ ॥
यदोकः सर्वसत्त्वानां मही मग्ना महाम्भसि ।
अस्या उद्धरणे यत्नों देव देव्या विधीयताम् ॥ १५ ॥

मैत्रेय उवाच ।

परमेष्ठी त्वपां मध्ये तथा सन्नामवेक्ष्य गाम् ।
कथमेनां समुन्नेष्य इति दध्यौ धिया चिरम् ॥ १६ ॥
सृजतो मे क्षितिर्वार्भिः प्लाव्यमाना रसां गता ।
अथात्र किमनुष्ठेयं अस्माभिः सर्गयोजितैः ।
यस्याहं हृदयादासं स ईशो विदधातु मे ॥ १७ ॥

मनुजी ने कहा—पापका नाश करनेवाले पिताजी ! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा; किन्तु आप इस जगत् में मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहने के लिये स्थान बतलाइये ॥१४॥ देव ! सब जीवों का निवासस्थान पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है। आप इस देवी के उद्धार का प्रयत्न कीजिये ॥ १५ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—पृथ्वीको इस प्रकार अथाह जलमें डूबी देखकर ब्रह्माजी बहुत देरतक मन में यह सोचते रहे कि ‘इसे कैसे निकालूँ ॥ १६ ॥ जिस समय मैं लोकरचना में लगा हुआ था, उस समय पृथ्वी जल में डूब जाने से रसातल को चली गयी। हम लोग सृष्टिकार्य में नियुक्त हैं, अत: इसके लिये हमें क्या करना चाहिये ? अब तो, जिनके सङ्कल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ही मेरा यह काम पूरा करें’ ॥ १७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) ब्रह्माजीकी रची हुई अनेक प्रकारकी सृष्टिका वर्णन सूत...