॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
दिति का गर्भधारण
यस्यानवद्याचरितं मनीषिणो
गृणन्त्यविद्यापटलं बिभित्सवः ।
निरस्तसाम्यातिशयोऽपि यत्स्वयं
पिशाचचर्यामचरद्गसतिः सताम् ॥ २६ ॥
हसन्ति यस्याचरितं हि दुर्भगाः
स्वात्मन् रतस्याविदुषः समीहितम् ।
यैर्वस्त्रमाल्याभरणानुलेपनैः
श्वभोजनं स्वात्मतयोपलालितम् ॥ २७ ॥
ब्रह्मादयो यत्कृतसेतुपाला
यत्कारणं विश्वमिदं च माया ।
आज्ञाकरी यस्य पिशाचचर्या
अहो विभूम्नश्चरितं विडम्बनम् ॥ २८ ॥
मैत्रेय उवाच ।
सैवं संविदिते भर्त्रा मन्मथोन् मथितेन्द्रिया ।
जग्राह वासो ब्रह्मर्षेः वृषलीव गतत्रपा ॥ २९ ॥
स विदित्वाथ भार्यायाः तं निर्बन्धं विकर्मणि ।
नत्वा दिष्टाय रहसि तयाथोपविवेश हि ॥ ३० ॥
अथोपस्पृश्य सलिलं प्राणानायम्य वाग्यतः ।
ध्यायन् जजाप विरजं ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् ॥ ३१ ॥
दितिस्तु व्रीडिता तेन कर्मावद्येन भारत ।
उपसङ्गम्य विप्रर्षिं अधोमुख्यभ्यभाषत ॥ ३२ ॥
(कश्यपजी दिति से कहरहे हैं) विवेकी पुरुष अविद्याके आवरणको हटाने की इच्छा से उनके (भगवान् शंकर के) निर्मल चरित्र का गान किया करते हैं; उनसे बढक़र तो क्या, उनके समान भी कोई नहीं है और उनतक केवल सत्पुरुषों की ही पहुँच है। यह सब होने पर भी वे स्वयं पिशाचोंका-सा आचरण करते हैं ॥ २६ ॥ यह नरशरीर कुत्तोंका भोजन है; जो अविवेकी पुरुष आत्मा मानकर वस्त्र, आभूषण, माला और चन्दनादि से इसीको सजाते-सँवारते रहते हैं—वे अभागे ही आत्माराम भगवान् शङ्कर के आचरणपर हँसते हैं ॥ २७ ॥ हमलोग तो क्या, ब्रह्मादि लोकपाल भी उन्हीं की बाँधी हुई धर्म-मर्यादा का पालन करते हैं; वे ही इस विश्व के अधिष्ठान हंउ तथा यह माया भी उन्हीं की आज्ञा का अनुसरण करने वाली है। ऐसे होकर भी वे प्रेतों का-सा आचरण करते हैं। अहो ! उन जगद्व्यापक प्रभु की यह अद्भुत लीला कुछ समझ में नहीं आती’॥ २८॥ मैत्रेयजी कहते हैं—पतिके इस प्रकार समझानेपर भी कामातुरा दिति ने वेश्याके समान निर्लज्ज होकर ब्रहमर्षि कश्यपजी का वस्त्र पकड़ लिया ॥ २९ ॥ तब कश्यपजी ने उस निन्दित कर्म में अपनी भार्या का बहुत आग्रह देख दैव को नमस्कार किया और एकान्त में उसके साथ समागम किया ॥ ३० ॥ फिर जल में स्नानकर प्राण और वाणी का संयम करके विशुद्ध ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म का ध्यान करते हुए उसी का जप करने लगे ॥ ३१ ॥ विदुरजी ! दिति को भी उस निन्दित कर्मके कारण बड़ी लज्जा आयी और वह ब्रह्मर्षि के पास जा, सिर नीचा करके इस प्रकार कहने लगी ॥ ३२॥
शेष आगामी पोस्ट में --
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नारायण नारायण नारायण नारायण