श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
कर्दमजी की तपस्या और भगवान् का वरदान
ऋषिरुवाच -
जुष्टं बताद्याखिलसत्त्वराशेः
सांसिध्यमक्ष्णोस्तव दर्शनान्नः ।
यद्दर्शनं जन्मभिरीड्य सद्भिः
आशासते योगिनो रूढयोगाः ॥ १३ ॥
ये मायया ते हतमेधसस्त्वत्
पादारविन्दं भवसिन्धुपोतम् ।
उपासते कामलवाय तेषां
रासीश कामान् निरयेऽपि ये स्युः ॥ १४ ॥
तथा स चाहं परिवोढुकामः
समानशीलां गृहमेधधेनुम् ।
उपेयिवान् मूलमशेषमूलं
दुराशयः कामदुघाङ्घ्रिपस्य ॥ १५ ॥
कर्दमजीने कहा—स्तुति करनेयोग्य परमेश्वर ! आप सम्पूर्ण सत्त्वगुणके आधार हैं। योगिजन उत्तरोत्तर शुभ योनियोंमें जन्म लेकर अन्तमें योगस्थ होनेपर आपके दर्शनोंकी इच्छा करते हैं;
आज आपका वही दर्शन पाकर हमें नेत्रों का फल मिल गया ॥ १३ ॥ आपके चरणकमल भवसागरसे पार जानेके लिये जहाज हैं। जिनकी बुद्धि आपकी मायासे मारी गयी है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय-सुखोंके लिये, जो नरकमें भी मिल सकते हैं, उन चरणोंका आश्रय लेते हैं; किन्तु स्वामिन् ! आप तो उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं ॥ १४ ॥ प्रभो ! आप कल्पवृक्ष हैं। आपके चरण समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले हैं। मेरा हृदय काम कलुषित है। मैं भी अपने अनुरूप स्वभाववाली और गृहस्थधर्मके पालनमें सहायक शीलवती कन्यासे विवाह करनेके लिये आपके चरणकमलोंकी शरणमें आया हूँ ॥ १५ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंहे गरुणध्वज भगवान नारायण
श्रीहरि: विष्णु के चरण कमलों में
सहस्त्रों सहस्त्रों कोटिश: वंदन🙏🙏🪷🪷🪷