॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पचीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
भक्तियोग की महिमा का वर्णन
देवहूतिरुवाच ।
निर्विण्णा नितरां भूमन् असत् इन्द्रियतर्षणात् ।
येन सम्भाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तमः प्रभो ॥ ७ ॥
तस्य त्वं तमसोऽन्धस्य दुष्पारस्याद्य पारगम् ।
सच्चक्षुर्जन्मनामन्ते लब्धं मे त्वदनुग्रहात् ॥ ८ ॥
य आद्यो भगवान् पुंसां ईश्वरो वै भवान्किल ।
लोकस्य तमसान्धस्य चक्षुः सूर्य इवोदितः ॥ ९ ॥
अथ मे देव सम्मोहं अपाक्रष्टुं त्वमर्हसि ।
योऽवग्रहोऽहं मम इति इति एतस्मिन् योजितस्त्वया ॥ १० ॥
तं त्वा गताहं शरणं शरण्यं
स्वभृत्यसंसारतरोः कुठारम् ।
जिज्ञासयाहं प्रकृतेः पूरुषस्य
नमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ॥ ११ ॥
देवहूति बोली—भूमन् ! प्रभो ! इन दुष्ट इन्द्रियोंकी विषय-लालसा से मैं बहुत ऊब गयी हूँ और इनकी इच्छा पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई हूँ ॥ ७ ॥ अब आपकी कृपा से मेरी जन्मपरम्परा समाप्त हो चुकी है, इसीसे इस दुस्तर अज्ञानान्धकार से पार लगाने के लिये सुन्दर नेत्ररूप आप प्राप्त हुए हैं ॥ ८ ॥ आप सम्पूर्ण जीवों के स्वामी भगवान् आदिपुरुष हैं तथा अज्ञानान्धकार से अन्धे पुरुषों के लिये नेत्रस्वरूप सूर्य की भाँति उदित हुए हैं ॥ ९ ॥ देव ! इन देह-गेह आदिमें जो मैं- मेरे पन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है; अत: अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये ॥ १० ॥ आप अपने भक्तों के संसाररूप वृक्षके लिये कुठार के समान हैं; मैं प्रकृति और पुरुषका ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागतवत्सल की शरण में आयी हूँ। आप भागवतधर्म जाननेवालों में सबसे श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ ॥ ११ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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हरि: शरणम् !!
नारायण नारायण नारायण नारायण